भारत की स्वतंत्रता : सुभाष चन्द्र बोस और आईएनए
Raghvendra Singh, Senior Fellow, VIF

भारत में अंग्रेज, आजाद हिन्द फ़ौज (आईएनए) के अस्तित्व से लेकर उनसे जुड़ी हर खबर को छिपाने का प्रयास निरंतर करते रहे. परिणामस्वरूप आजाद हिन्द फ़ौज के विषय में भारतीय अंजान ही रहे. अंग्रेज आजाद हिन्द फ़ौज को जापान से प्रेरित सेना बताते थे. वे यह दर्शाने का प्रयास करते थे कि कुछ कैदी युद्ध के दौरान अंग्रेजी शासन की कठोर नीति एवं परिश्रम से बचने के लिए जापानियों से जुड़ गए थे. अंग्रेजों ने सुभाष चन्द्र बोस को स्वार्थ से प्रेरित एक असंतुष्ट व्यक्ति के रूप में दर्शाया, जब आजाद हिन्द फ़ौज का परीक्षण शुरू हुआ तब भारतीयों को इस सेना के बारे में ज्ञात हुआ. इस परीक्षण का प्रभाव बहुत अद्भुत था और लोगों ने इसकी कल्पना भी नहीं की थी. यह संभवतः पहली बार हो रहा था कि आजाद हिन्द फ़ौज के प्रति सहानुभूति ने भारतीयों के मध्य एकता की भावना को उत्पन्न किया था.

अंग्रेज भारत को अपने अधीन करने के लिए सशस्त्र बलों पर निर्भर थे. अंग्रेजों ने नकारात्मक टिप्पणियों के द्वारा आईएनए में शामिल होने वाले जवानों की मंशा को संदिग्ध बताया, लेकिन इस बात में कोई शक नहीं था कि वे जवान देशभक्ति की भावना के साथ सेना से जुड़ रहे थे. अंग्रेज यह भली-भांति जानते थे कि यदि देशभक्ति की भावना सशस्त्र बलों में आ गई तो भारत पर नियंत्रण रखना असंभव हो जाएगा.

अंग्रेजों के मनोबल को तोड़ने के लिए आईएनए जापानियों के लिए एक प्रचार साधन मात्र था. जो भूमिका आईएनए ने अंततः निभाई उसकी उम्मीद जापानियों को नहीं थी और उनके होने के बावजूद आजाद हिन्द सरकार का गठन हुआ. यह सब सुभाष चन्द्र बोस के चलते संभव हो पाया.

सुभाष चन्द्र बोस को यह उम्मीद थी कि वे इंफाल पर नियंत्रण स्थापित कर लेंगे, इससे आईएनए को बड़ी संख्या में भारतीय सैनिक मिल जाते और उनकी शक्ति में पर्याप्त बढ़ोत्तरी हो जाती. ऐसा हो जाने पर भारत में स्वतंत्रता की लड़ाई क्रांतिकारी स्थितियों को जन्म देती. जब स्वतंत्रता की लड़ाई शुरू हुई तब आईएनए की एक टुकड़ी भारतीय सीमा पर तैनात थी, दूसरी टुकड़ी बर्मा जाने के लिए तैयार थी और तीसरी टुकड़ी बनने की प्रक्रिया में थी. जिस वक़्त इंफाल के पराजित होने की आशा थी तब सेना की तीनों टुकड़ियों को बर्मा में पहुंचना था. सुभाष चन्द्र बोस को यह विश्वास था कि इंफाल पर नियंत्रण करने के बाद भारतीय सेना से तीन और टुकडियां उनके पास आ जाएंगी. 6 डिविजनों के साथ आईएनए इकलौती सबसे बड़ी सेना बन जाएगी और अंग्रेज उनका मुकाबला नहीं कर पाएंगे. भारत में तेजी से आजाद हिन्द फ़ौज (आईएनए) के विस्तार पर पूर्वोतर भारत के साथ-साथ भारतीय सेना के पक्ष में परिवर्तन के लिए अनुकूल स्थितियां बन जाएंगी.

लेकिन सुभाष चन्द्र बोस जानते थे कि जापान युद्ध हार रहा है, इसके बावजूद वे भारत में अपनी स्थिति को मजबूत बनाने में लगे रहे. यह एक अनिश्चितता का माहौल था. उन 24 घंटों में भविष्य का निर्धारण होना था, अगर उन 24 घंटों में अंग्रेजी सेना को पूरे डिविजन द्वारा सहायता नहीं मिलती तो आईएनए भारत की सीमाओं में दाखिल हो जाता.

अंग्रेजी हुकूमत को कमजोर करने के लिए सुभाष चन्द्र बोस को जापानी वायु सेना की सहायता की आवश्यकता थी लेकिन उन्हें वह सहायता नहीं मिली. इंटेलिजेंस की रिपोर्ट के अनुसार तब की अंग्रेजी सेना आजाद हिन्द फ़ौज के समक्ष आत्मसमर्पण करने वाली थी लेकिन अंतिम समय में मिली सहायता ने अंग्रेजों को बचा दिया.

2 जुलाई 1943 को सुभाष चन्द्र बोस सिंगापुर पहुंचे और 3 जुलाई को कैथे सिनेमा हॉल में ऐतिहासिक बैठक हुई. इस मीटिंग में रास बिहारी बोस ने स्वतंत्रता लीग का अध्यक्ष पद सुभाष चन्द्र बोस के लिए छोड़ दिया. उस दिन के अपने भाषण में सुभाष चन्द्र बोस ने भारत की स्त्री शक्ति को संगठित करने पर जोर दिया.

12 जुलाई को सुभाष चन्द्र बोस ने लक्ष्मी सैगल को अपने कार्यालय में बुलाया और तीन घंटे की बातचीत में रानी झांसी रेजिमेंट के विचार पर चर्चा हुई. इस रेजिमेंट को एक लड़ाकू इकाई का रूप देना था. भारतीय महिलाओं को लड़ाकू इकाइयों के लिए इन्फेंट्री सेना के रूप में भर्ती करना एक मुख्य चुनौती थी. भारतीय स्वतंत्रता के संघर्ष के चरणों में ऐसी परिकल्पना कभी नहीं की गई थी. मनोवैज्ञानिक रूप से यह घटना भारतीय पुरुषों और सैनिकों पर अद्भुत प्रभाव डालने वाली थी.

सिंगापुर में रानी झांसी रेजिमेंट की शुरुआत 500 स्वयंसेवी महिलाओं के साथ की गई जिसमें 30 महिलाओं को ऑफिसर्स के परिक्षण के लिए चुना गया. जो महिलाएं उम्मीदों पर खरी नहीं उतरीं उन्हें नर्सिंग टीम के लिए चुना गया. इस कार्यप्रणाली के पूरे होने के बाद सेना बर्मा स्थित रंगून पहुंची. अब उनकी संख्या एक हजार थी. रंगून से सेना मेम्यो भेज दी गई जहाँ सुभाष चन्द्र बोस का कार्यालय था. सेना का इरादा आगे चलकर इसी रास्ते भारत में आने की थी, लेकिन दुर्भाग्यवश इम्फाल में आजाद हिन्द फ़ौज पर विपत्ति आने के कारण रानी झांसी रेजिमेंट को पीछे हटना पड़ा. रानी झाँसी रेजिमेंट में 1500 की संख्या थी जिसमें से 1000 लड़ाकू इकाई और शेष नर्सिंग इत्यादि थीं.

रानी झाँसी रेजिमेंट ने यह दिखा दिया था कि दूर रहने वाले भारतीय न सिर्फ आजाद हिन्द फ़ौज से जुड़ना चाहते थे बल्कि यह जानते हुए भी कि उनकी जिन्दा वापस आने की उम्मीद कम थी, फिर भी लोग महिलाओं को युद्ध में भेजने के इच्छुक थे. ये स्वयंसेवी कभी भारत नहीं आए थे और न ही उन्हें भारतीय स्थिति के बारे में पता था फिर भी भारतीय स्वतंत्रता के लिए वे अपने प्राणों को न्यौछावर करने के लिए तैयार थे. ऐसा सिर्फ सुभाष चन्द्र बोस के व्यापक दृष्टिकोण से संभव हुआ.

आजाद हिन्द फ़ौज की अस्थायी सरकार 21 अक्टूबर 1943 को गठित हुई. आजाद हिन्द फ़ौज और सुभाष चन्द्र बोस की चिंता थी कि इस फ़ौज को देशविरोधी सेना के रूप में न देखा जाए. आजाद हिन्द की सरकार के पास वित्तीय और अन्य संसाधन भी थे. सुभाष चन्द्र बोस ने लोगों को समझाने का बहुत प्रयास किया कि जापानियों का इस सरकार के गठन से कोई लेना देना नहीं था. येलाप्पा और थिवि ने यह आश्वासन दिया कि आजाद हिन्द की सरकार स्वावलंबी होगी. दक्षिण पूर्व एशिया के भारतीयों ने इस सरकार को अपना समर्थन देने में महत्वपूर्ण योगदान दिया. रंगून के एक व्यापारी हबीब ने अपनी पूरी कमाई को आजाद हिन्द की सरकार के लिए दान कर दिया. सभी ने अपना योगदान दिया लेकिन गरीब तबके ने उल्लेखनीय भूमिका निभाई, क्योंकि उनके पास जो कुछ भी था, उन्होंने दे दिया.

आजाद हिन्द सरकार का वित्त पोषण का मुख्य माध्यम अंशदान ही था. किसी से कोई कर नहीं बल्कि सभी ने स्वेच्छा से अपना योगदान दिया. सुभाष चन्द्र बोस को दक्षिण पूर्व एशिया में बसे भारतीयों की सहायता प्राप्त हुई. उनकी सहायता से ही आजाद हिन्द फ़ौज और आजाद हिन्द सरकार कार्य करने में सक्षम हुई.

आजाद हिन्द की सरकार ने सुभाष चन्द्र बोस के रंगून से थाईलैंड जाने तक (21 अक्टूबर 1943 से 24 जून 1945) कार्य किया. आजाद हिन्द की सरकार का पहला कार्य ब्रिटेन और अमेरिका के खिलाफ युद्ध की घोषणा करना था. आजाद हिन्द सरकार दक्षिण पूर्व एशिया में रहने वाले भारतीयों के जीवन और उनकी सम्पत्ति को बचाने का भी कार्य कर रही थी. उनका मुख्य कर्त्तव्य यह था कि किसी भी भारतीय नागरिक को जापान के श्रम बल में न भर्ती होने दिया जाए.

सुभाष चन्द्र बोस का यह मानना था कि कांग्रेस नेतृत्व स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए अपना पूरा जीवन लगा देना चाहती थी. किसी भी क्रांतिकारी नेता को यह सोचने का अधिकार नहीं होता. लड़ाई को निरंतर आगे बढ़ाना पड़ता है. अपने पूरे जीवन काल की समाप्ति के उपरांत स्वतंत्रता की उम्मीद करना अपने इरादों से समझौता करने की ओर अग्रसर करता है, जिसका फायदा दुश्मन उठाता है.

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में सुभाष चन्द्र बोस एक ऐसे असाधारण नेता थे जो अपने विचारों को वास्तविकता के धरातल पर उतार सकने में सक्षम थे. सुभाष चन्द्र बोस के विश्वासपात्र डॉ लक्ष्मी सैगल बोस की बातों और उनकी कार्यप्रणाली से सहमत थे कि वह किसी भी परिस्थिति में भारत का विभाजन नहीं स्वीकार करते.

(The paper is the author’s individual scholastic articulation. The author certifies that the article/paper is original in content, unpublished and it has not been submitted for publication/web upload elsewhere, and that the facts and figures quoted are duly referenced, as needed, and are believed to be correct). (The paper does not necessarily represent the organisational stance... More >>


(Original Article in English)
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