श्रीलंका में छाई आर्थिक मंदी हाल के दशकों में सबसे खराब है, जिसने कई परिवारों को गरीबी के मुंह में धकेल दिया है। सरकार की कई गलत आर्थिक नीतियों के कारण स्थिति तेजी से नियंत्रण से बाहर होती जा रही है। अस्थिरकारी यह आर्थिक संकट स्पष्ट रूप से देश में एक खतरनाक राजनीतिक-आर्थिक संकट को प्रज्ज्वलित करने के कगार पर है, जो इस द्वीप देश के साथ समूचे भारतीय उपमहाद्वीप में भी अस्थिरता ला सकता है।
श्रीलंका में बरसों से बने इस संकट के परिणामस्वरूप सरकार ने लोगों को साइकिल से अपने काम पर जाने का आह्वान किया है। पर यह समस्या का कोई अच्छा हल नहीं है, जब देश बुनियादी आर्थिक जरूरतों को पूरी करने का उपाय तलाशने के लिए कड़ी जद्दोजहद कर रहा हो। चीनी बंदरगाह शहर में रेत में चलने वाले कोलंबो ड्यून्स, सेलबोट्स का शुभारंभ आम जनता के प्रति सरकार की पृथक नीतिगत प्राथमिकताओं की व्याख्या करता है। ऋण प्रबंधन पर सरकार की वर्तमान नीति का मार्ग कई व्यक्तियों के लिए चिंता का विषय बना हुआ है। सांसद एमए सुमनथिरन ने आर्थिक “संकट के समाधान के प्रति सरकार के रवैये पर सवाल उठाए हैं, जिनसे कुछ गंभीर सवाल बनते हैं। सरकार का सारा का सारा फोकस लगभग पूरी तरह से विदेशी ऋण की अदायगी पर है, जिसके चलते देश में जमा डॉलर उसी में खप जा रहा है जबकि हमारे लोगों के लिए आवश्यक वस्तुओं के आयात तक के लिए संसाधन नहीं हैं।” लोगों की बुनियादी आर्थिक आवश्यकताएं सरकारी नीति-नुस्खे से बहुत दूर हैं। तिस पर आवश्यक वस्तुओं की बढ़ती कीमतों ने कई घरेलू कामकाज को पंगु बना दिया है। जाहिर सी बात है कि आम लोग जिंसों की बढ़ती कीमतों से निपटने के लिए कड़ा संघर्ष कर रहे हैं और कई लोगों के पास जरूरी सामान नहीं हैं। COVID-19 के संक्रमण और उसके प्रसार के साथ, कई परिवारों को सेहत और खराब अर्थव्यवस्था के दोनों मोर्चों पर एक साथ लड़ना पड़ रहा है।
एक अन्य सरकारी कार्यालय में सहायक पद पर काम करने वाला व्यक्ति अपने घर का निर्माण पूरा नहीं कर सकता। उन्होंने कहा कि “मैं निर्माण सामग्री की लागत के कारण घर का निर्माण पूरा नहीं कर सकता।”
यह सही है कि श्रीलंका में उपभोक्ता कीमतों में दिसम्बर में 14 प्रतिशत की रिकॉर्ड वृद्धि हुई है, जो एक महीने पहले के 11.1 के पिछले उच्च स्तर को पार कर गई है। विश्व बैंक के अनुसार, COVID-19 महामारी की चपेट में आने के बाद से श्रीलंका में पांच लाख लोग गरीबी रेखा से नीचे आ गए हैं; खाद्य महंगाई भी रिकॉर्ड 21.5 फीसदी पर पहुंच गई है। श्रीलंका में सुपरमार्केट अलमारियों में न्यूनतम सामग्री रह गई हैं, और राशन, दूध पाउडर और अन्य आवश्यक चीजों की किल्लत है और रेस्तरांओं में भोजन तक नहीं हैं। खाने की किल्लत के अलावा, रोजाना बिजली कटौती भी हो रही है, जिससे जनता पर बोझ और बढ़ जा रहा है। घटते विदेशी मुद्रा भंडार के संरक्षण में सरकार के असफल रहे प्रयास एवं आयात पर लगे प्रतिबंधों की वजह से श्रीलंका में मुद्रास्फीति की दर एशियाई देशों में पाकिस्तान के बाद सबसे तेज गति से बढ़ी है।
कुछ महीनों के आयात के लिए पर्याप्त विदेशी मुद्रा भंडार 7.5 बिलियन डॉलर से घट कर 3.1 बिलियन डॉलर रह गया है। वर्तमान में, आयात के लिए 1.6 अरब डॉलर के विदेशी भंडार के साथ अगले वर्ष के भीतर ऋण चुकाने के लिए 7.3 अरब डॉलर की राशि आवश्यक है। ऐसे में कई लोग यह भी भविष्यवाणी कर रहे हैं कि आने वाले महीनों में श्रीलंका की हालत और खस्ता हो सकती है। मूडीज ने श्रीलंका की क्रेडिट रेटिंग को सीएए1 से घटाकर सीएए2 कर दिया है और इससे देश में निवेश को आकर्षित करने की आगे की राह काफी चुनौतीपूर्ण होने जा रही है। कोलंबो स्थित अर्थशास्त्री निशान डी मेल का आकलन है कि “श्रीलंका को अपनी रेटिंग वापस पाने में कम से कम 5 साल तक का समय लग सकता है”। चीन के 5 अरब डॉलर के भारी विदेशी सर्विस लोन एवं कई अन्य देशों और बाजारों से लिए गए कर्ज के बोझ के साथ, श्रीलंका की अर्थव्यवस्था भारत, चीन और अन्य देशों की वर्तमान सहायता को भी चुकाने में सक्षम नहीं होगी। इसके बावजूद, भारत सार्क मुद्रा विनिमय व्यवस्था के तहत $400 मिलियन डॉलर के साथ श्रीलंका की सहायता के लिए आगे आया है। इसने एशियाई समाशोधन संघ (ACU) को $515.2 मिलियन का समझौता दो महीने के लिए टाल दिया है।
इसके अलावा आवश्यक वस्तुओं के आयात के लिए राशि बढ़ा कर 1 अरब डॉलर करने और भारत से ईंधन आयात के लिए 500 मिलियन डॉलर की ऋण सुविधा मिल जाने से श्रीलंका को अपनी अर्थव्यवस्था को स्थिर करने में काफी मदद मिलेगी। हाल ही में वित्त मंत्री बासिल राजपक्षे और भारतीय विदेश मंत्री जयशंकर के साथ हुई सफल चर्चा ने नकदी संकट से जूझ रही अर्थव्यवस्था को काफी राहत दी है। चीन के विदेश मंत्री वांग यी की यात्रा के दौरान कोलंबो ने चीन से ऋण पुनर्गठन के लिए अनुरोध किया है, जिस पर पेइचिंग ने अभी कोई जवाब नहीं दिया है। इंस्टीट्यूट ऑफ पॉलिसी स्टडीज के दुश्नी वीरकून ने कहा, “आइएमएफ की तरफ रुख करना उचित था, लेकिन ऋण पुनर्गठन में शायद लागत आने वाली थी”। वित्त मंत्री बेसिल राजपक्षे का सहायता के लिए अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आइएमएफ) से संपर्क करने की आकांक्षाएं एक अधिक यथार्थवादी दृष्टिकोण हैं, हालांकि, इसको लेकर गठबंधन सरकार में अति राष्ट्रवादी ताकतों द्वारा चुनौती बनी हुई है। आइएमएफ जाने में एक और महत्त्वपूर्ण बाधा केंद्रीय बैंक के गवर्नर अजीत निवार्ड कैबराल हैं, जो बिना किसी वास्तविक कारण के ऋण पुनर्गठन सहित सुधारों के एक कार्यक्रम का पुरजोर विरोध करते दिख रहे हैं। पूर्व प्रधानमंत्री, अपने आर्थिक दृष्टिकोण में अधिक व्यावहारिक हैं, वे कहते हैं “जारी आर्थिक संकट का हल करने के लिए आइएमएफ से सहायता पाने के वित्त मंत्री के विचार में बाधक नहीं बनना चाहिए”। हार्वर्ड कैनेडी स्कूल के प्रोफेसर रिकार्दो हौसमैन का मानना है कि श्रीलंका की मैक्रो-इकोनॉमी का वर्तमान प्रबंधन 1980 के दशक में लैटिन अमेरिका की याद दिलाता है और हाल के वर्षों में वेनेजुएला की अर्थव्यवस्था की दशा-दिशा का स्मरण कराता है।
इसके अलावा, श्रीलंका ने पूंजी नियंत्रण और आयात प्रतिबंध जैसी तदर्थ नीतियों को अपनाया है, जिससे कालाबाजारी बढ़ गई है। श्रीलंका ने एक व्यवहार्य राजकोषीय योजना या ऋण पुनर्गठन योजना तैयार नहीं की है। इससे मुद्रास्फीति तेजी से बढ़ रही है, और इसलिए काला बाजारी भी। आयात प्रतिबंधों और विदेशी मुद्रा नियंत्रण की ऐसी परिस्थितियों में, नए निवेश को आकर्षित करना कठिन होगा।
पिछले कुछ महीनों के दौरान हालांकि कई कैबिनेट बैठकें हुई हैं, इनके बावजूद सरकार आर्थिक विशेषज्ञों की कई चेतावनियों की अनदेखी करते हुए आइएमएफ पर कोई फैसला नहीं ले पाई है। वित्त मंत्री बासिल राजपक्षे ने आइएमएफ को आमंत्रित करने के लिए एक विवेकपूर्ण उपाय किया है, "हमने उन्हें लिखा है और उनसे विशेषज्ञ सलाह मांगी है।” यह स्वीकार करते हुए कि संकट से बाहर आने का एकमात्र समाधान विशेषज्ञ सलाह लेना है। यदि इस बढ़ते सामाजिक तनाव का कोई हल नहीं निकाला जाता है तो शायद वित्त मंत्री को एक बदतर स्थिति का अनुमान हो रहा है। आर्थिक संकट के बढ़ने से सामाजिक विद्रोह होने की एक और गहरी चिंता सता रही है। अतीत में, श्रीलंका ने 1988 और 1971 में JVP द्वारा शुरू किए गए दो युवा विद्रोहों का सामना किया है, जहां हजारों युवाओं ने बीमार आर्थिक और राजनीतिक के चलते अपना जीवन बलिदान कर दिया था। जॉर्ज टाउन इकोनॉमिक्स की प्रोफेसर संथा देवराज बताती हैं, “सबसे ज्यादा परेशान करने वाली बात यह है कि कठोर आर्थिक हालात के कारण सड़कों पर हिंसा भड़क उठी है।” इनके संदर्भ और सामाजिक-राजनीतिक खिंचाव 1980 के दशक के समान नहीं हैं। हालांकि, वर्तमान परिस्थितियां एक सुरक्षा चिंता का कारण बन सकती हैं, जहां सरकार अपने सैन्यवादी पदचिह्न पर बढ़ने के लिए तैयार है और जो आर्थिक संकट के बीच लोकतांत्रिक स्थान को और कम कर देगी।
इससे पहले कि यह एक सामाजिक संकट और शायद एक विद्रोह की स्थिति तक बढ़ जाए, श्रीलंका सरकार को आर्थिक संकट का प्रबंधन करने और आर्थिक वातावरण को स्थिर करने के लिए अधिक विवेकपूर्ण और व्यावहारिक उपायों का पालन करना चाहिए। इस समय प्राथमिकता स्थिति को स्थिर करने के लिए एक अधिक संरचित दृष्टिकोण लाने की है, और आइएमएफ कार्यक्रम आगे का रास्ता है।
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