कोविड के इस संकट में आज चारों ओर विषाद और निराशा फैले हुए हैं। यह निराशा स्वाभाविक है। कई लोग मारे जा चुके है। चारों तरफ से बुरी खबरें आ रही हैं। कई परिवारों में तो थोड़े-बहुत दिनों के अंतराल में ही कई सदस्यों का निधन हो गया। अब यह वायरस ग्रामीण आबादी में फैल रहा है। टीके, दवा और अस्पताल सब की कमी है। स्वास्थ्य ढांचा बिल्कुल चरमरा गया है।
देश महामारी से निपटने का प्रयास कर रहा है परंतु संकट की इस घड़ी में राजनीतिक दलों की कभी नहीं रुकने वाली तकरार एक भद्दी तस्वीर हमारे सामने रखती है। राजनीतिक विमर्श देश को एकजुट करने के बजाय इसे बांट रहा है। पिछले ऐसे अवसरों पर, जब देश ने मुश्किल समय का सामना किया, हमने हमेशा एकजुट होकर इसका सामना किया। हमें फिर से ऐसा ही करने की जरूरत है।
फिर भी इस निराशा के इस समय में, समाज सरकारी सहायता से या इसके बिना ही संकट से निपटने के तरीके ढूंढ़ रहा है। सिख समूहों द्वारा आयोजित 'ऑक्सीजन लंगरों' ने अनगिनत लोगों को ऑक्सीजन सिलेंडर उपलब्ध करवाने में सहायता की है। कई सोशल मीडिया समूह एक-दूसरे को सहायता और सांत्वना प्रदान कर रहे हैं। तकनीकी समाधान के लिए युवा स्टार्टअप सामने आ रहे हैं। बिना किसी प्रतिफल या पुरस्कार की आशा के स्वास्थ्य कर्मियों ने जिंदगियां बचाने के लिए अथक बलिदान दिया है। कई डॉक्टर, नर्सें और अन्य स्वास्थ्य कर्मी काम के दौरान अपनी जान गंवा चुके हैं। घर-घर सामान पहुंचाने वाले डिलीवरी कर्मचारी अपनी जान जोखिम में डालकर कोविड संकट के गुमनाम नायक रहे हैं। आवश्यक सेवाओं को बिना किसी व्यवधान के चालू रखा गया है। बेहतरीन डॉक्टर और विशेषज्ञ टीवी पर आए और उन्होंने आम जनता को अपनी राय दी है। डॉक्टरों ने अकेलेपन और लाचारी से प्रभावित लोगों की सहायता के लिए भी सोशल मीडिया ग्रुप बनाए हैं। समाज की सहायता के लिए युवा छात्र आगे आए हैं। इससे पता चलता है कि समाज मजबूत और संगठित है।
यदि प्रत्येक व्यक्ति नकारात्मक और निराशावादी हो जाए तो संकट से नहीं निपटा जा सकता। सच्चाई जैसी है, हमें उसी रूप में उसका सामना करना होगा परंतु हमें उम्मीद नहीं छोड़नी चाहिए। संकट व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के चरित्र की परीक्षा लेता है। मानसिक दृढ़ता और आध्यात्मिकता कठिन समय में शक्ति प्रदान करते हैं।
स्वामी विवेकानंद के शाश्वत वचन सदैव की तरह इस महामारी के समय में भी मार्गदर्शन और आशा प्रदान करते हैं। वह शक्ति का एक शाश्वत स्रोत हैं। मजबूत और सक्षम भारत की उनकी दृष्टि और उनके अस्तित्व की दिव्यता निराशा दूर करती है और आशा जगाती है। यदि हम निराशा के समक्ष घुटने टेक दें तो हम संकट का सामना नहीं कर पाएंगे। इससे हम कमजोर हो जाएंगे। हमें विवेकानंद के प्रसिद्ध वचनों से मार्गदर्शन प्राप्त करना चाहिए, "निराश न हों; मार्ग ऐसा कठिन है मानो तलवार की धार पर चलना; फिर भी निराश न हों; उठो, जागो और आदर्श लक्ष्य प्राप्त करो।"1
भारत का अनुभव बताता है कि हमारा सर्वश्रेष्ठ व्यक्तित्व संकट के समय परिलक्षित होता है। विवेकानंद ने कहा कि अनुभव बताता है कि "पीड़ा ने प्रसन्नता से ज्यादा सिखाया, निर्धनता ने हमें संपन्नता से अधिक सिखाया, हमारे भीतरी की आग प्रशंसा के बजाय आघातों में अधिक प्रकट हुई।"
यह भलाई का समय है, सहानुभूतिपूर्ण और दयालु बनें। प्रत्येक व्यक्ति जिस दायरे में रहता है, उसे उससे बाहर निकलने की जरूरत है। उपकार और सेवा के प्रत्येक कार्य से बहुत अंतर पड़ेगा। उपकार और सेवा के काम व्यक्ति को शुद्ध करते हैं। स्वामीजी के शब्दों में, "परोपकार का प्रत्येक कार्य, सहानुभूति का प्रत्येक विचार, सहायता का प्रत्येक कदम, भलाई का प्रत्येक काम, हमें हमारी तुच्छ आत्म-मुग्धता से मुक्त कर रहा है और हमें स्वयं को सबसे नीचे और सबसे छोटा समझने वाला बना रहा है और इसलिए यह सब अच्छा है।" उनका एक अन्य उद्धरण भी है जो हमें बताता है कि किस तरह परोपकार का कार्य मुक्त करता है और व्यक्ति को ऊपर उठाता है। विवेकानंद कहते हैं, "यदि तुम दूसरे का परोपकार करके स्वयं को मृत्यु में झोंक दोगे तो तुम तत्क्षण मुक्त हो जाओगे। तुम तुरंत सिद्ध हो जाओगे, तुम परमेश्वर हो जाओगे।"
कोविड संकट भारत के लिए स्वयं को फिर से खोजने का एक अवसर है। संकट से उबरने और पहले से भी बेहतर बनने के लिए हमें नई ऊर्जा की जरूरत है। स्वामी विवेकानंद ने कहा था, "भारत जो चाहता है वह बिजली की तरह कोंधने वाली नई आग है ताकि इसकी राष्ट्रीय रगों में नया जोश भर सके।" पहले के मुकाबले, आज यह बात कहीं ज्यादा सच है।
संस्कृति संकट के प्रति हमारी प्रतिक्रियाओं को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। उदाहरण के लिए सेवा की सिख संस्कृति इस संकट काल में प्रेरणादायी रही है। कई नागरिक समाज समूह रातोंरात उभर आए। युवा सहायता के लिए आगे आ रहे हैं। प्रत्येक भारतीय संत और द्रष्टा ने सेवा को स्वयं से ऊपर रखा है। हमारे प्रयास हमारी संस्कृति में निहित होने चाहिए। इसने विभिन्न संकटों का सामना करने में हमारी सहायता की है। स्वामी विवेकानंद ने बिल्कुल स्पष्ट रूप से कहा, "ज्ञान का साधारण भंडार नहीं बल्कि यह संस्कृति है जो आघातों को झेलती है। आप दुनिया में ज्ञान का ढेर लगा सकते हैं, परंतु इससे कोई ज्यादा लाभ नहीं मिलेगी। इसके रक्त में संस्कृति बहनी चाहिए।”
देश को संकट से बाहर निकालने में सत्ता और इसमें बैठे लोगों की विशेष जिम्मेदारी और दायित्व है। स्वामीजी ने जो कहा था, उन्हें वह याद रखना चाहिए, "आप जब भी किसी काम को करने का वादा करें तो आपको नियत समय पर उसे करना चाहिए, अन्यथा लोग आप पर विश्वास गंवा देते हैं।" सबक बेहद सुस्पष्ट हैं। विश्वसनीय बनने के लिए, वादों को ही पूरा किया जाना चाहिए। बहुत काम किया जाना अभी बाकी है और इसे अच्छे से करना होगा।
संकट की भयावहता के बावजूद, यह घबराने का समय नहीं है। व्यक्ति को स्वयं पर, अपनी ताकत पर विश्वास करना चाहिए और कमजोरी का शिकार नहीं होना चाहिए। स्वामीजी के शब्दों में, "यदि कुछ पाप है तो एकमात्र पाप यह कहना है; कि आप कमजोर हैं या दूसरे कमजोर हैं।"
स्वामी विवेकानंद हमें याद दिलाते हैं, "जनता की उपेक्षा भयंकर राष्ट्रीय पाप है, और यह हमारे पतन के कारणों में से एक है।"2 महामारी के पीड़ादायी सबकों में एक यह जानकारी है कि इस देश में सार्वजनिक स्वास्थ्य की घोर उपेक्षा हुई है। अधिकांश भारतीय उचित स्वास्थ्य सुविधाओं से वंचित हैं। इस पर तत्काल ध्यान देने की जरूरत है।
संकट से निपटने में भारत की क्षमता पर हमारा विश्वास नहीं डगमगाना चाहिए परंतु हमें कड़ी मेहनत करनी होगी और योजना बनानी होगी। स्वामी जी ने महानता का सूत्र दिया था। उन्होंने कहा, "प्रत्येक व्यक्ति और प्रत्येक राष्ट्र को महान बनाने के लिए तीन चीजें होनी जरूरी हैं: 1. अच्छाई की शक्तियों पर विश्वास, 2. ईर्ष्या और संदेह का नहीं होना, 3. उन सभी की सहायता करना जो अच्छा बनने और अच्छा करने का प्रयास कर रहे हैं।" इन तीनों का आह्वान करना जरूरी है। विशेष रूप से हमें महामारी के समय में ईर्ष्या और संदेह से दूर रहना चाहिए।
इस तरह विवेकानंद से मार्गदर्शन लेते हुए, हम निम्नलिखित काम करके संकट दूर कर सकते हैं:
कमजोरी, निराशा, लाचारी हम पर हावी न हो पाए। यह समय स्वयं पर, अपनी संस्कृति और अपनी क्षमता पर विश्वास करने का है। ईर्ष्या और संदेह से ऊपर उठना जरूरी है।
साथ ही स्वार्थ को त्याग कर अच्छाई की शक्ति पर विश्वास करना जरूरी है। सेवा दें और सेवा करें। इससे अहम् और अहंकार से मुक्ति मिलेगी। इससे अपना कर्म करने के लिए व्यक्ति में नई ऊर्जा का संचार भी होगा।
उद्देश्य और प्रयास में एकात्मता होनी चाहिए। हम व्यर्थ के झगड़ों और कलह से विचलित नहीं हों। यह एकजुट होने का समय है।
सिर्फ उपदेश देने से महामारी नहीं जाएगी। चौतरफा कार्रवाई की जरूरत है। स्वामी जी कहते हैं, "सफलता का रहस्य यह है कि साध्य के बराबर ही साधन पर भी ध्यान देना चाहिए"। संकट से उबरने में प्रयुक्त साधन प्रभावी और शुद्ध होने चाहिए। आधा-अधूरा प्रयास वांछित परिणाम नहीं देगा।
ऊँ शांति।
Translated by Shiwanand Dwivedi (Original Article in English)
Post new comment