कोविड 19 वायरस ने पूरी दुनिया को चपेट में ले लिया है और विकसित देशों पर इसकी सबसे ज्यादा चोट पड़ी है। इसके खिलाफ युद्धस्तर पर लड़ाई चल रही है और दुनिया भर के नेतृत्व एक साथ आ गए हैं मगर घनी आबादी वाले एक और अहम महाद्वीप में कोरोना की एक और चुनौती खड़ी हो गई है। पिछले हफ्ते ही विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने चेतावनी दी कि शुरुआती अनुमानों के मुताबिक कोरोनावायरस के मामले तीन से छह महीने में ही हजारों से बढ़कर कम से कम 1 करोड़ तक पहुंच सकते हैं। हालांकि ये अंतिम अनुमान नहीं हैं। इंपीरियल कॉलेज, लंदन के एक और अध्ययन में अनुमान लगाया गया है कि चिकित्सा सुविधा की कमी और महामारी की गहरी पैठ से निपटने की क्षमता नहीं होने के कारण अफ्रीका में 3 लाख से अधिक लोगों की मौत हो सकती है। इसलिए जन स्वास्थ्य के प्रभावी उपाय होना तथा समय पर अंतरराष्ट्रीय मदद पहुंचना बहुत जरूरी होगा। संयुक्त राष्ट्र अफ्रीका आयोग का एक और निराशा भरा अनुमान यह है कि सबसे बुरी स्थिति तब होगी, जब चिकित्सा और सामाजिक सहायता बिल्कुल नहीं मिल पाएगी। उस स्थिति में अफ्रीका की पूरी आबादी इस महामारी की चपेट में आ सकती है और 33 लाख लोग अपनी जान गंवा सकते हैं।
हालांकि स्थिति इस समय खतरनाक नहीं है मगर आंकड़ा दिनोदिन बढ़ता जा रहा है और इस अल्प विकसित महाद्वीप के 55 देशों के राजनीतिक नेतृत्व के संकल्प को चुनौती मिल रही है। चूंकि आम दिनों में ही स्वास्थ्य सेवा प्रणाली बहुत कमजोर रहती है, इसलिए इस वक्त कच्चे प्रशासन, और भी खस्ता स्वास्थ्य सेवा ढांचे तथा आपूर्ति व्यवस्था एवं समय पर चिकित्सा आपूर्तियों के उपलब्ध नहीं होने एवं संक्रमण लौटने के कारण सामाजिक-राजनीतिक अव्यवस्था पैदा हो सकती है, जिससे कई देशों में पहले से ही बंटा हुआ जनादेश और भी अस्थिर हो सकता है।
वायरस से निपटने के तरीकों और चीन के पक्ष को बिना सोचे-समझे आगे बढ़ाने के लिए डब्ल्यूएचओ की तीखी आलोचना की गई है क्योंकि इसे छिपाने की चीन की कोशिशों के दौरान बहुत वक्त बरबाद हो गया और महामारी बेकाबू हो गई। इसी कारण अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने संयुक्त राष्ट्र की इस स्वास्थ्य संस्था को वित्तीय मदद रोकने का फैसला किया है। अमेरिका इससे सबसे अधिक धन (40 करोड़ डॉलर से भी अधिक) देता है, जो इसके कुल बजट का करीब 15 प्रतिशत है। माना जा रहा है कि महाद्वीप को महामारी से लड़ने में मदद करने के लिए डब्ल्यूएचओ को ही 30 करोड़ डॉलर से अधिक रकम की जरूरत होगी।
दुनिया ने देखा है कि कम निवेश के कारण हर तरह स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था कितनी लाचार और कमजोर है। सबसे अधिक संक्रमण और मौतें विकसित देशों में हुई हैं और वायरस के प्रसार को कारगर तरीके से रोकने में उनकी नाकामी बताती है कि अगर ठीक से मदद नहीं की गई तो विकासशील देशों और खासकर अफ्रीका में अल्पविकसित देशों को वायरस से निपटने में और भी अधिक चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है। अफ्रीका को कुछ वर्ष पहले इबोला महामारी से बहुत नुकसान झेलना पड़ा था। कारगर टीका तैयार हो जाए तो भी अफ्रीका में इस महामारी को अनूठी चुनौती मानना होगा, जिससे निपटने के लिए अंतरराष्ट्रीय समुदाय को अपने-अपने संसाधन लगाने होंगे और “गोल्ड रश” के समय नहीं बल्कि इसी वक्त महाद्वीप की मदद करनी होगी।
हालांकि अफ्रीका में संक्रमण और मौत के आंकड़े अभी ज्यादा नहीं हैं मगर संक्रमण की दर तेजी से बढ़ रही है। डब्ल्यूएचओ के मुताबिक 15 अप्रैल को खत्म हफ्ते (महामारी के 16वें हफ्ते) में अफ्रीका में कोविड के कुल 10,759 पुष्ट मामले थे और 520 मौतें हो चुकी थीं। लेकिन पिछले एक हफ्ते में 45 देशों में संक्रमण 51 प्रतिशत बढ़ गया। वास्तव में बड़ी चुनौती आने वाली है।
कोविड-19 के बाद के आर्थिक असर की बात करें तो हमें वृद्धि के मॉडलों में उथलपुथल दिखेगी, चहुंओर मंदी आएगी और वैश्विक आर्थिक ढांचे में आर्थिक वृद्धि ठहर जाएगी। महामारी और उसके कारण दुनिया भर में आर्थिक गतिविधियां बंद किए जाने के कारण अगले कुछ वर्षों तक वैश्विक मंदी चिंता पैदा करती रहेगी। यह सच है कि अफ्रीका की कई अर्थव्यवस्थाएं हाल तक सबसे तेज बढ़ रही थीं। पूरे अफ्रीका महाद्वीप के नए मुक्त व्यापार समझौते और अफ्रीकन कॉम्पैक्ट तथा एजेंडा 2063 से उन अड़चनों को दूर करने का अनूठा और अभूतपूर्व मौका मिल रहा था, जो पूरे महाद्वीप को तेज वृद्धि एवं विकास के लिए एकजुट करने की राह में आ रही हैं। मगर सब कुछ रुक गया है क्योंकि दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति रामाफोसा द्वारा मई में बुलाई गई बैठक टल गई है। इसी तरह एजेंडा 2030 के लिए 11 लाख करोड़ (ट्रिलियन) डॉलर की जरूरत होती, जिन्हें जुटाना मौजूदा हालात में चुनौती भरा होगा। अब कोविड ने कुछ अरसे के लिए तो परियोजना को पटरी से उतार ही दिया है और पहले से कमजोर अर्थव्यवस्थाओं पर इसका और भी बुरा असर पड़ेगा।
तेल की कीमतें लगातार कम बनी हुई हैं, जिनका असर तेज उत्पादक एवं निर्यातक देशों पर पड़ेगा। खनिजों और जिंसों पर निर्भर अर्थव्यवस्थाओं के लिए भी कोरोना का झटका झेलना मुश्किल होगा क्योंकि इस समय मांग एवं आपूर्ति के चक्र में बिल्कुल भी लोच नहीं बची है। पर्यटन पर निर्भर देशों के लिए भी राह कठिन होगी। संयुक्त राष्ट्र अफ्रीका आर्थिक आयोग का अनुमान है कि महाद्वीप की वृद्धि दर 3.2 प्रतिशत से घटकर 1.8 प्रतिशत रह जाएगी। कई अर्थव्यवस्थाएं घाटे में चली जाएंगी। ओवरसीज डेवलपमेंट इंस्टीट्यूट (ओडीआई) ने कहा कि अफ्रीका को महामारी की 100 अरब डॉलर से भी अधिक यानी सकल घरेलू उत्पाद की 5 प्रतिशत तक कीमत चुकानी पड़ सकती है। अफ्रीकी उत्पादों के बाजारों में आई मंदी और सुस्ती से गुजर रहे चीन पर उसकी जरूरत से ज्यादा निर्भरता मुश्किलों में और भी ज्यादा इजाफा करेगी।
लेकिन वायरस फैलने की जानकारी छिपाने में अपनी भूमिका, खराब किटों और उपकरणों की आपूर्ति के लिए तीखी आलोचना का शिकार होने के बाद चीन महाद्वीप से कूटनीतिक बदला ले सकता है और सहायता तथा व्यापार सहयोग एवं कर्ज से राहत के उपायों में कमी कर सकता है। चीन में मौजूद कई अफ्रीकी छात्र भेदभाव, हमलों और गरीबी की शिकायत कर चुके हैं और अपने देश लौटना चाहते हैं। दस लाख से अधिक चीनी कामकाज के सिलसिले में अफ्रीक में रहते हैं। अफ्रीका में चीन की 10000 से अधिक फर्म हैं और एशियाई देश वहां सबसे बड़ा व्यापार साझेदार है। चीन की वहां व्यापक पैठ है। यह बात अलग है कि कर्ज से जुड़ी कूटनीति पर उसकी हरकतें सवाल खड़ा करती हैं।
संकट की इस घड़ी में अफ्रीका के लिए पूरी दुनिया से एकजुट सहायता एवं सहयोग की जरूरत है। जी-20 देशों ने पिछले महीने अपनी वर्चुअल बैठक में सदस्यों से अपील की थी कि गरीब देशों से कर्ज की वसूली फौरन रोक दी जाए। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) और विश्व बैंक कर्ज से राहत देने वाले खास उपायों पर काम कर रहे हैं। आईएमएफ ने मदद की गुहार लगाने वाले उप-सहारा क्षेत्र के 32 देशों को 11 अरब डॉलर देने का वायदा किया है। जी-20 ने क्षमता निर्माण तेज करने और खतरे में पड़े गरीब समुदायों को तकनीकी सहायता प्रदान करने एवं विकास तथा वित्तीय सहायता जुटाने का वायदा भी किया है। ये वायदे जल्द से जल्द पूरे होने चाहिए। इसी महीने संयुक्त राष्ट्र महासभा में भारत एवं 187 देशों द्वारा प्रायोजित एक प्रस्ताव पारित हुआ था, जिसमें समाज एवं अर्थव्यवस्थाओं को बुरी तरह झकझोरने वाली इस जानलेवा बीमारी को मात देने के लिए वैश्विक सहयोग एवं एकजुटता तेज करने की अपील की गई है।
क्षमता निर्माण में अफ्रीका का सबसे बड़ा साझेदार होने के नाते भारत उसे सांत्वना देने और उचित सहायता प्रदान करने में सबसे सक्षम है। जरूरी आपूर्ति, वित्तीय सहायता एवं चिकित्सा दल के साथ ही भारत पैन अफ्रीका ई-नेटवर्क परियोजना और टेलीमेडिसिन के लिए ई-आरोग्य योजनाओं के जरिये स्वास्थ्यकर्मियों एवं पेशेवरों के लिए ऑनलाइन प्रशिक्षण कार्यक्रम आरंभ कर सकता है। अफ्रीकी लंबे समय से भारत के चिकित्सा एवं औषधि उत्पाद इस्तेमाल करते आ रहे हैं। वे गंभीर बीमारियों का इलाज भी भारत में ही कराना पसंद करते हैं। आगे चलकर हम स्थानीय विशेषज्ञता विकसित करने के लिए अफ्रीकी देशों के चिकित्सा छात्रों को छात्रवृत्ति एवं स्कॉलरशिप देने पर भी विचार कर सकते हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पहले ही कुछ अफ्रीकी नेताओं से बात कर चुके हैं और उन्हें सीधी मदद देने की पेशकश भी कर चुके हैं। महामारी के खिलाफ भारत की जंग को पहले ही चहुंओर सराहना मिली है क्योंकि समय पर कदम उठाने और प्रभावी रणनीति अपनाने के कारण यहां संक्रमण और मौत के मामले अपेक्षाकृत कम रहे हैं। साथ ही भारत के कुछ हिस्सों से जैसे भीलवाड़ा मॉडल, गोवा या केरल से अन्य विकासशील देश कुछ सीख सकते हैं। भारत इलाज और कोरोना टीके सभी को बराबर प्रदान कराए जाने का समर्थन कर रहा है और उसने संयुक्त राष्ट्र में प्रस्ताव भी पेश किया है।
कम से कम छह भारतीय प्रयोगशालाएं कोविड-19 के टीके तैयार करने में जुटी हैं और शायद इस मामले में सबसे आगे भी हैं। यूं भी पिछले कुछ दशकों में भारत दुनिया का टीका केंद्र बन गया है और चिकित्सा में अपनी इस बढ़त का इस्तेमाल प्रभाव बढ़ाने में भी कर सकता है। यह उस स्थानीय सद्भावना के इस्तेमाल का दूसरा मौका हो सकता है, जिसे भारत ने परस्पर लाभकारी एवं टिकाऊ रिश्ते बनाने के लिए कभी प्रयोग नहीं किया। इसी वर्ष इंडिया-अफ्रीका फोरम समिट का आयोजन होना है, लेकिन कोविड-19 दुर्भाग्यपूर्ण ही सही स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र में सहयोग आरंभ करने का मौका है। अफ्रीका अपनी ओर से भरसक कोशिश कर रहा है, लेकिन किसी दोस्त के हाथ का वह निश्चित रूप से स्वागत करेगा।
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