पिछले दो महीनों से पूर्वी लद्दाख़ में भारतीय और चीनी सैनिक ख़तरनाक ढंग से आमने-सामने हुए हैं और इस वजह से उस सीमा पर कई बार हिंसक घटनाएँ हुई हैं। यह सैनिक तनातनी सीमा पर चीन के ख़तरनाक रुख के कारण पैदा हुआ है जो चीन की दशकों पुरानी ‘धीमी आक्रामकता’ की नीति का अनुसरण करते हुए भारतीय भू-भाग पर अनुचित दावा का परिणाम है। चीन ने गलवान और हॉट स्प्रिंग में आक्रामक रवैया दिखाया और और उसने विवादित पंगोंग त्सो और देपसांग के संकीर्ण क्षेत्र में भारतीय भू-भाग पर क़ब्ज़ा कर लिया और भारतीय सैनिकों को गश्त लागाने से रोक दिया। तनाव बढ़ने की आशंका को देखते हुए दोनों देशों ने उत्तराखंड, सिक्किम, और अरुणाचल प्रदेश में अपनी-अपनी सीमाओं पर सैनिक सतर्कता बढ़ा दी है और इस वजह से दोनों देशों के बीच शत्रुता और तनाव बढ़ गया है।
चीन ने अपनी आक्रामकता और धमकी भरी कार्रवाई से दोनों देश के बीच शांति और स्थिरता बनाए रखने के लिए तय आपसी सभी समझौतों का उल्लंघन किया है। शायद चीन की आक्रामकता के पीछे कई कारण हो सकते हैं - हाइवे G-219 को अपने क़ब्ज़े में लेना, दौलत बेग ओल्डी को (डीबीओ) को अस्थिर करना क्योंकि भारत इस हिस्से का प्रयोग कराकोरम दर्रे पर हमले के लिए कर सकता है, डीबीओ में भारत को सुरक्षात्मक स्थिति में रखना क्योंकि अगर यह उसके हाथ से गया तो पूरब से सियाचिन तक का रास्ता खुल जाने से इसको भारी ख़तरा पैदा हो जाएगा और रणनीतिक रूप से भारत के लिए इसको बचाना मुश्किल हो जाएगा और वह भारत को क्षेत्रीय प्रतिद्वंद्वी बनने से रोक सकता है। पर चीन का सबसे अहम रणनीतिक लक्ष्य है भारत पर मानसिक धौंस ज़माना और भारत के बरक्श खुद को आगे रखना।
दोनों देशों के बीच स्पष्ट रूप से सीमांकन नहीं होने की वजह से पिछले कुछ वर्षों से चीन का प्रसारवादी रवैया क़ायम है। सीमा का स्पष्ट रूप से अंकित नहीं होने की वजह से चीन ने अपने दावे की रेखा और वास्तविक नियंत्रण रेखा के बारे में एकपक्षीय राय बना रखी है। एलएसी को लेकर मान्यताओं में अंतर का चीन ने धीमे आक्रमण की अपनी नीति को आगे बढ़ाने में बहुत ही धूर्ततापूर्ण तरीके से दोहन किया है। चीन ने यह सुनिश्चित किया है कि एलएसी का सीमांकन नहीं हो और इसके लिए उसने सीमा को प्रामाणिक बनाने के भारत के किसी भी प्रयास को विफल किया है। इस तरह 1988 के बाद से अब तक 15 संयुक्त कार्यकारी समूह (जेडब्ल्यूजी) और विशेष प्रतिनिधियों की 22 बैठकों के बाद भी इस दिशा में कोई प्रगति नहीं हुई है। इस मुद्दे को लेकर जो अस्पष्टता है उसकी वजह से चीन को मनमाना दावा करने और समय-समय पर भारतीय क्षेत्र में घुसने का मौक़ा दिया है।
इसका एक उदाहरण है सम्पूर्ण गलवान क्षेत्र पर चीन का हाल का संप्रभु दावा। चीन ने पहले पूर्वी लद्दाख़ के क्षेत्र पर 1956 की दावा रेखा के आधार पर अपना दावा किया। इस दावे में गलवान घाटी शामिल नहीं था। इस दावा रेखा के बारे में चीन के प्रधानमंत्री ने 1959 में भारत को आधिकारिक रूप से अधिसूचित किया। इसके बाद एक साल के अंदर 1960 में इस दावा रेखा को पश्चिम की ओर बदल दिया गया और इसमें गलवान घाटी के कुछ हिस्से को भी शामिल कर लिया गया और इसके लिए एक रेखा को गश्ती बिंदु 14 के पूरब में जाता हुआ दिखाया गया। इस समय जो तनातनी है वह इसी रेखा को लेकर है। 1962 की लड़ाई में चीन 1960 की रेखा तक बढ़ कर आ गया पर युद्ध बंद हो जाने के बाद वह पीछे लौट गया। गलवान में 20 जून को जो लड़ाई हुई उसके बाद अब चीन पूरी गलवान घाटी पर अपना क़ब्ज़ा जता रहा है। इसमें पश्चिम की ओर का वहाँ तक का इलाक़ा भी शामिल है, जहां गलवान और श्योक नदियाँ मिलती हैं। गलवान की घटना चीन की विस्तारवादी षड्यंत्र की विशेषता और क्षेत्रीय दादागिरी है जो समझौतों या सीमाओं को नहीं मानता है। गलवान की घटना ऐसे समय में हुई है जब चीन हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अन्य तरह के विस्तारवादी दावों को आगे बढ़ा रहा है, जैसे कि ताइवान और दक्षिण चीन सागर के क्षेत्र पर अपना दावा कर।
चीन ने शायद यह अनुमान लगाया कि वह शायद भारत को डरा-धमकाकर ज़मीन पर क़ब्ज़ा कर लेगा और अपने दावे को पुख़्ता कर लेगा। पर संख्या में कम होते हुए भारतीय सैनिकों ने गलवान में जिस आक्रामकता से चीन के सुनियोजित बर्बर हमले का मुक़ाबला किया, उससे वे अचंभित रह गए। गलवान में जो हुआ उसके बाद भारत ने बाँह मरोड़ने की चीन के दांव-पेंच का सैनिक शक्ति से करारा जवाब दिया है। भारत ने अपनी सीमा के भीतर इस क्षेत्र में आधारभूत संरचना के विकास के अभियान को चीन की आपत्ति के बावजूद तेज कर दिया है।
ऐसा लगता है कि सरकार ने चीन के ख़तरे से निपटने के लिए चेतावनी की तीन लकीरें खींची हैं। पहला है पूर्व कि स्थिति को बहाल करना। इसका अर्थ यह हुआ कि चीन को वहाँ से अपनी सेना हटाकर उसे उस स्थिति में ले जानी होगी जहां वह 30 अप्रैल को थी। इसको लेकर चीन के जवाब पर दोनों देशों के बीच द्वीपक्षीय राजनयिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक संबंध निर्भर करेंगे। इसी में यह भी शामिल है कि सौहार्दपूर्ण द्वपक्षीय संबंधों को बढ़ाने को लेकर चीन के समर्थन वाली विभिन्न नीतियों की भारत समीक्षा और पुनर्विचार करेगा। इस तरह तिब्बत, ताइवान, शिनजियांग और हांगकांग को लेकर उसका रवैया तथा सैनिक संतुलन को लेकर समूह बनाने के बारे में भारत का रुख इसकी परिधि में आएगा।
इस दिशा में शुरुआत 59 चीनी ऐप्स पर प्रतिबंध लगाने से हो चुकी है और ऐसी और कार्रवाई अपेक्षित है। चेतावनी की दूसरी रेखा है कि अगर चीन की ओर से कोई नया अतिक्रमण हुआ तो उसका सीमा पर गश्त को लेकर नए नियम के अनुरूप जवाब दिया जाएगा। इस तरह, भारत पूर्व के समझौतों से बंधा नहीं होगा और अब जब अति विशिष्ट परिस्थिति पैदा होगी, ज़रूरत के हिसाब से अपनी रक्षा के लिए गोली-बन्दूक़ का सहारा लिया जाएगा। तीसरी चेतावनी रेखा है कि अगर कोई बड़ा अतिक्रमण होता है तो इसका जवाब सैनिक ताक़त से दिया जाएगा। प्रधानमंत्री मोदी ने 3 जुलाई को अपने लेह दौरे के समय इस बात का स्पष्ट संकेत दिया कि क्षेत्रीय विस्तारवादी रवैए का समय बीत चुका है और द्वीपक्षीय संबंध इस बात पर निर्भर करेगा कि सीमा की इज्जत की जाती है या नहीं और इसका हल निकाला जाता है कि नहीं. चीन भारत को अब भी 1962 के चश्मे से देखता है। उन्हें अभी यह समझना बाक़ी है कि इस समय भारत का नेतृत्व कठोर है और उसकी सेना युद्ध में पारंगत है। इसके बावजूद कि सैनिक शक्ति की तुलना की दृष्टि से चीन का पलड़ा भारी है, घाटी, प्रशिक्षण, तकनीक, लड़ाई की जगह की निकटता और लड़ाकू बलों की उपलब्धता लड़ाई के परिणामों को प्रभावित करेंगे। यह तथ्य कि लड़ाई कहाँ लड़ी जा रही है, उस जगह की बनावट जो कि भारत की ओर पहाड़ की घाटी है, और चीन की ओर पहाड़ी पठार है, स्पष्ट रूप से भारत को फ़ायदा पहुँचानेवाली स्थिति है। इसलिए, हो सकता है कि चीन की सेना जल्दी पहुँच जाए क्योंकि वहाँ चीनी सेना का जमावड़ा है, पर गलवान घाटी और देपसांग क्षेत्र जो कि वीरान है और बिना किसी कवर के है, जिसके पास आगे कोई ओट नहीं है जिसकी वजह से उन्हें अपनी गतिविधि के लिए पर्याप्त जगह नहीं मिलेगी और फिर लॉजिस्टिक्स के लिए लंबी लाइन की वजह से चीनी सेना साँसत में होगी और यहाँ की लड़ाई में हवाई ताक़त का आज़मा जाना तय है।
इस क्षेत्र में हवाई हमले का प्रयोग न केवल निर्णायक होगा बल्कि इस बात की संभावना भी है कि यह चीन को पीछे हटने के लिए मजबूर करेगा और पूर्व की स्थिति बहाल होगी। तथ्य यह है कि पहाड़ के तराई वाले इलाक़े में जहां ज़मीन पर सफल लड़ाई के लिए निषेधात्मक बल अनुपात की ज़रूरत होती है, हवाई ताक़त का प्रयोग प्रभावी और संभवतः एकमात्र तरीक़ा है जिसके द्वारा वहाँ जमे दुश्मन को भगाया जा सकता है विशेषकर अगर ज़मीनी ताक़त पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है।
ऐसा लगता है कि चीन अंतर्राष्ट्रीय मूड को सही-सही समझ सकने में विफल रहा। भारत-चीन के बीच 1962 में जो लड़ाई हुई थी उस समय उस समय अंतर्राष्ट्रीय ताक़तों ने चीन का साथ दिया क्योंकि विश्व की दो बड़ी ताक़तें क्यूबा संकट में उलझी हुए थी। वर्तमान स्थिति कोविड-19 महामारी के बावजूद अलग है क्योंकि चीन अलग-थलग कर दिए जाने का ख़तरा झेल रहा है और दुनिया में चीन के ख़िलाफ़ एक नई भू-राजनीतिक गोलबंदी हो रही है क्योंकि वह विस्तारवादी रवैया अपना रहा है। अमरीका ने भी चीन के सैनिक पहल के अंदेशे से यूरोप से अपनी सेना को हटाकर उसे हिंद-प्रशांत क्षेत्र में लाने की घोषणा की है।
चीन को अब तक यह समझ जाना चाहिए था कि भारत के साथ सीमा पर उसने जो दुस्साहस दिखाया है वह एक ग़लत कदम था। एक दृढ़प्रतिज्ञ भारत के समक्ष इस तरह की नीति को आगे बढ़ाने की उसे भारी क़ीमत चुकानी पड़ सकती है। चीन ने उदारवादी लोकतंत्र को बेचकर आर्थिक संपन्नता ख़रीदने का सपना अपने लोगों को दिखाया है। चीन प्रशासन का अधिनायकवादी मॉडल चीनी गौरव के सपने बेचने की तीन बातों पर निर्भर रहा है – निर्यात-आधारित विकास, आर्थिक संपन्नता के माध्यम से सामाजिक आंतरिक स्थायित्व और राष्ट्रवाद जो कि अपनी सीमा पर आक्रमणकारी सैनिक कार्रवाइयों के माध्यम से हारी हुई ज़मीन को वापस लेने से जुड़ा है। भारत के साथ लड़ाई और उसका अंतर्राष्ट्रीय अलगाव इन तीनों कारकों को प्रभावित कर सकता है और इससे चीन के सपने टूट सकते हैं।
चीन को गलवान में अपने सैनिकों की मौत को छिपाने में मुश्किलों का सामना करना पड़ा क्योंकि उसे डर था कि इससे कहीं अराजकता और असंतोष न फैल जाए। स्थानीय स्तर की इंफ़ोरमेटाइज्ड स्थिति में लड़ाई जिसकी चीन ने रणनीति बनाई है, उससे चीन के नाक के टूटने का डर है और उसके कहीं और अधिक सैनिकों के मारे जा सकते हैं और इससे चीन के एक अजेय शक्ति होने पर सवाल उठेगा, उसके नेताओं की महिमा खंडित होगी उसके प्रशासन के अधिनायकवादी मॉडल के बारे में चिंताएँ बढ़ जाएँगी।
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