मौजूदा वैश्विक राजनीतिक उथल-पुथल की कड़ियां अब सुस्त पड़ती वैश्विक अर्थव्यवस्था से जुड़ती जा रही हैं। दक्षिणपंथी राष्ट्रवाद, लोकलुभावनवाद, सर्वोच्चता, संरक्षणवाद के उभार और अंतरराष्ट्रीय संस्थानों के पराभव को देखते हुए यदि वैश्विक परिदृश्य पर गौर करें तो वैश्वीकरण नाकाम होता नजर आएगा। सितंबर, 2017 में वेस्टमिंस्टर कॉलेज में दिए भाषण में बर्नी सैंडर्स ने यह कहा भी कि “इस बात को नैतिक या आर्थिक रूप से किसी भी तरह जायज नहीं ठहराया जा सकता कि दुनिया के आठ सबसे अमीर लोगों के पास इतनी संपदा है जितनी दुनिया की आधी गरीब आबादी के पास है। ” उनका आशय इस बात से था कि दुनिया के 3.7 अरब लोगों के पास जितनी धन-दौलत है उतनी विश्व के आठ सबसे अमीर लोगों के पास है।
सोशल मीडिया के जबरदस्त उभार और समग्र रूप से अधिक जानकारियों वाले इस दौर में आमदनी और अवसरों में भारी असमानता की यह स्थिति वैश्विक अर्थव्यवस्था के जुड़ाव से फायदों को लेकर अलग-अलग किस्म के विमर्श तैयार कर रही है। दुनिया के सबसे बड़े हेज फंड ब्रिजवाटर एसोसिएट्स के संस्थापक रे डेलियो मौजूदा वैश्विक स्थिति की तुलना द्वितीय विश्व युद्ध के दौर से पहले के हालात से करते हैं। यहां उनका यह बयान कि “इतिहास हमें दिखाता है कि आर्थिक संघर्ष कैसे राजनीतिक संघर्ष में तब्दील होते हैं” काफी मायने रखता है।
जहां वास्तविक वैश्विक जीडीपी, निजी उपभोग, सकल स्थिर निवेश और वैश्विक व्यापार जैसे मैक्रोइकोनॉमिक यानी वृहद आर्थिक संकेतकों में सुधार हुआ है और वे 2008 की वित्तीय मंदी से पहले के स्तर पर पहुंच गए हैं, लेकिन रोजगार सृजन के मामले में अपेक्षित सुधार नहीं हो पाया। हालांकि बेहद-न्यून ब्याज दरों और क्वांटिटेटिव ईजिंग जैसे कदमों ने भी सुधार में मदद भूमिका निभाई, लेकिन तमाम अर्थशास्त्रियों ने इसे ‘जॉबलेस ग्रोथ यानी रोजगारविहीन वृद्धि’ करार दिया। इस समय रोजगार को मोर्चे पर संकट बहुत विकराल है जो न केवल दुनियाभर में बेरोजगारी के बढ़ते आंकड़ों, उपलब्ध नौकरियों में भी गिरती गुणवत्ता और उचित रूप से कुशल लोगों की कमी तक ही सीमित नहीं है। बल्कि वैश्विक वित्तीय संकट के बाद मौजूदा माहौल में सबसे बड़ी समस्या यही है कि नीति निर्माता और नियंताओं को यही नहीं सूझ रहा है कि रोजगार और उससे भी बढ़कर बेहतर नौकरियों के अवसर कैसे सृजित किए जाएं।
जहां आर्थिक वृद्धि का चक्र अधिक नौकरियों और ऊंची आमदनी से ऊंचे उपभोग और अधिक वृद्धि की राह खोलता है जिससे आगे और नौकरियों के अवसर सृजित होते हैं और फिर वह वृद्धि में भी बदलता है। जब तक कि सुस्ती का कोई दौर पैठ न बना ले तब तक तकनीकी हलचल की मौजूदा गति बेमेल है। स्वचालन यानी ऑटोमेशन में उल्लेखनीय प्रगति और इससे उत्पादकता में हुए सुधार से कंपनियां मानवीय रोजगार के बजाय ऑटोमेशन में निवेश को प्रोत्साहन दे रही हैं। वैश्विक व्यापार पर ट्रंप प्रशासन के रुख और अमेरिका एवं चीन के बीच व्यापारिक मुद्दों पर तनातनी से निराशावाद का यह भाव और ज्यादा मजबूत हो रहा है। मौजूदा वैश्विक वित्तीय अस्थिरता में यह भी एक अहम कारक है। इसके साथ ही जो निर्यात-वृद्धि वाली आर्थिक रणनीतियां होती हैं वे मुख्य रूप से बढ़ते विश्व व्यापार पर ही निर्भर होती हैं। इस हालात में उनमें गिरावट आना स्वाभाविक है, क्योंकि वैश्विक स्तर पर आर्थिक राष्ट्रवाद जोर पकड़ रहा है। इसके अतिरिक्त पर्यावरणीय चिंताओं और जलवायु परिवर्तन के मोर्चे पर उपजी चिंताओं को देखते हुए आर्थिक वृद्धि के मौजूदा मॉडल की निरंतरता पर भी सवाल उठ रहे हैं। इन चिंताओं को दूर करना भी एक बड़ी चुनौती है। वहीं दुनिया भर में सार्वजनिक ऋण में होती बढ़ोतरी से सरकारें अपनी कर्ज सीमाओं के उच्च स्तर पर पहुंच गई हैं जहां वृद्धि को बढ़ावा देने के लिए मौद्रिक या राजकोषीय उपायों का सहारा लिया जा रहा है।
चीन के ऋण जाल ने वैश्विक आर्थिक संकट को लेकर चिंताएं काफी बढ़ा दी हैं। यहां तक कि भारत के मामले में भी वृद्धि पूंजी प्रधान ही ही न कि रोजगार प्रधान। हालांकि वैश्विक राजनीति के विकेंद्रीकरण की ओर बढ़ने और आर्थिकी पर राजनीति को तरजीह देने के बावजूद लोग, डिवाइस, सेवाएं, प्रोसेसेस और कारोबारों का लगातार डिजिटली एकीकरण हो रहा है। इस तथ्य की न तो अनदेखी की जा सकती है और न ही इसे पलटा जा सकता है। इंटरनेट इस्तेमाल करने वाले लोगों का आंकड़ा भी 9,00,000 लाख से बढ़कर 3 अरब से अधिक का स्तर पार कर गया है। वर्ष 2020 तक उनकी संख्या 4 अरब तक पहुंच गई है जबकि डिजिटल डिवाइसों की संख्या भी तीन गुना बढ़कर 21 अरब तक पहुंचने का अनुमान है।
इसी तरह वैश्विक डेटा प्रवाह भी एक दशक में दस गुना बढकर 20,000 गीगाबाइट्स प्रति सेकंड के स्तर पर पहुंच गया है और वर्ष 2020 तक इसके तीन गुना तक पहुंचने का अनुमान है। वैश्विक स्तर पर ई-कॉमर्स की जबरदस्त बढ़ोतरी हुई है जिसका आकार 22 ट्रिलियन डॉलर (22 लाख करोड़ डॉलर) सालाना के राजस्व स्तर तक पहुंच गया जो डिजिटल केंद्रित वैश्वीकरण के स्पष्ट संकेत करता है। मिसाल के तौर पर चीन में कुल उपभोग का 15 प्रतिशत ई-कॉमर्स के जरिये हो रहा है जो वर्ष 2010 में महज 3 प्रतिशत था जो 2020 तक कुल उपभोग के 40 प्रतिशत के बराबर तक पहुंच सकता है।
डिजिटलीकरण से कंपनियों के लिए दुनिया के दूरदराज के इलाकों तक ग्राहकों तक पहुंचने में लागत घटी है। यह बुनियादी रूप से बड़े पारंपरिक देशों को सतर्क कर वैश्विक प्रतिस्पर्धा के समीकरण बदल रहा है। उत्पाद डिजाइन, कीमत रणनीति, विपणन संबंधी निर्णयों और ग्राहकों के नए वर्ग को चिन्हित कर उनके उपकरणों के संचालन और प्रबंधन जैसे क्षेत्रों में अद्यतन डेटा एनालिटिक्स का इस्तेमाल किया जा रहा है। वास्तव में जिन कंपनियों ने तेजी से जुड़ती दुनिया में पैठ जमाने की तरकीब सीख ली है उनके कारोबार में नाटकीय रूप से विस्तार हुआ है। उदाहरण के तौर पर उबर को ही लें जिसने महज छह वर्षों में 80 से ज्यादा देशों में अपने पैर जमा लिए हैं। इस प्रकार हम वैश्वीकरण का अवसान नहीं, बल्कि एक नए किस्म के वैश्वीकरण का उभार देख रहे हैं जिसमें बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के एजेंडे पर कम से कम राजनीतिक जुड़ाव दिखेगा।
वैश्वीकरण के इस नए दौर में वृद्धि वस्तुओं के व्यापार और सीमा-पार निवेश जैसे उन पुराने तौर-तरीकों, जो लागत लाभ और बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के जरिये नहीं होगी, बल्कि सेवाओं, निजी उपभोग और डिजिटल वस्तुओं के उपभोग से आएगी। डिजिटलीकरण के दम से उभरी नई शक्तियों के विरोधाभासी प्रभाव सामने आए हैं जहां डिजिटल सेवाओं में वृद्धि ने कारोबार के तमाम पहलुओं और तंत्र को एकीकृत कर दिया है। साथ ही साथ वैश्विक आपूर्ति श्रंखला को विकेंद्रीकृत भी कर दिया है।
वैश्वीकरण के पहले चरण को भी एक साझा वैश्विक नियमों के अनुरूप आगे बढ़ाया गया था जिन्हें विश्व व्यापार संगठन और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसी संस्थाओं ने प्रस्तुत कर प्रवर्तित किया। यह विकसित अर्थव्यवस्था वाले देशों से काफी प्रभावित था। मौजूदा चरण में बहुस्तरीय वित्तीय संस्थानों में पश्चिमी देशों की वर्चस्वशाली भूमिका ने नए वित्तीय संस्थानों को आकार देने का काम किया है जहां चीन के प्रभाव वाले एशियन इन्फ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट बैंक और न्यू डेवलपमेंट बैंक जैसे नए संस्थान अस्तित्व में आए हैं।
भारत के मामले में देखा जाए तो उसने विनिर्माण निर्यात अवसर को गंवा दिया जिसे चीन ने 1970 के दशक से भुनाया। देश के विभिन्न क्षेत्रों में वृद्धि में निरंतरता नहीं रही और यह मुख्य रूप से मझोले आकार की फैक्ट्रियों और असंगठित रोजगारों के जरिये हो रही है। डिजिटल आधारित सेवाएं, स्थानीय विशेषज्ञता के विकास, छोटे एवं मझोले उद्यमों (एसएमई) को वैश्विक वैल्यू चेन में सहभागिता, स्वरोजगार को डिजिटली रूप से सशक्त बनाकर रोजगार सृजन में खाई को पाटी जा सकती है। साथ ही हाई-स्पीड ब्रॉडबैंड नेटवर्क के साथ ही भौतिक बुनियादी ढांचे पर डिजिटल इन्फ्रास्ट्रक्चर, सॉफ्टवेयर-आधारित सेवा प्लेटफॉर्म के विकास को भी प्राथमिकता दी जानी चाहिए। निरंतर सीखने को एक राष्ट्रीय प्राथमिकता बनाने के साथ ही शैक्षिक तंत्र में व्यापक सुधार के लिए भी प्रयास किए जाने की दरकार है। कंपनियां, शैक्षणिक संस्थानों और सरकारी एजेंसियों को तेजी से बदलती कौशल जरूरतों को समझने की आवश्यकता है ताकि वे नए वैश्विक परिवेश में काम करने के लिए उपयुक्त लोगों को तैयार करने के लिए कार्यक्रमों की रूपरेखा बना सकें।
भारत सरकार अपने स्तर पर इस बदलाव के साथ ताल मिलाती दिख रही है और डिजिटल इंडिया, आधार, स्किल इंडिया, स्टार्ट अप इंडिया और मेक इन इंडिया जैसे मोर्चों पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है। इसके मूल में नए डिजिटल दौर के लिए एक तंत्र बनाना है। जहां मौद्रिक और राजकोषीय उपाय भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए अंतिम सिरे तक नहीं पहुंच पाए हैं, लेकिन भविष्य के लिहाज से भारत को डिजिटलीकरण को इस तरह अपनाना होगा कि वह बदलते वक्त के साथ महज दिखावटी नहीं, बल्कि कायापलट करने वाली क्षमताओं के अनुरूप समायोजित हो सके।
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