नवीन दक्षिण-बाध्य नीति
जनवरी 2016 में ताइवान डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी (डीपीपी) की नेता, साईं इंग वेन ने कुल मतों का 56 प्रतिशत हाँसिल करते हुए देश की पहली महिला राष्ट्रपति होने का दर्जा प्राप्त किया. 2016 के चुनावों में विदेशी-सम्बन्ध एक अहम मुद्दा रहे थे. डीपीपी सरकार की व्यापक विदेश नीति ने अमेरिका और जापान के साथ ताइवान के रिश्तों में काफ़ी सुधार लाया है और साथ ही पूर्वी एशिया व् दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों में भी व्यापार नीतियों में काफ़ी बेहतर प्रदर्शन किया है.
अपने कारोबार में विविधता लाने हेतु, डीपीपी सरकार ने सत्ता में आने के बाद से ही ‘नवीन दक्षिण-बाध्य नीतियों’ को अपनाते हुए भारत समेत दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों के साथ अपने संबंधों को मजबूत करने पर ज़ोर दिया है. इस नीति की शुरुआत 2016 में हुई थी जिसका मुख्य उद्देश्य ताइवान को चीन पर कम से कम निर्भर बनाना है और अन्य 18 देशों (ऑस्ट्रेलिया, नेपाल, म्यांमार, लाओस, भारत, कंबोडिया, न्यू ज़ीलैण्ड, पाकिस्तान, इंडोनेशिया, थाईलैंड, वियतनाम, फिलीपींस, सिंगापुर, श्रीलंका, बांग्लादेश, ब्रूनेई, भूटान, मलेशिया) के साथ ताइवान के संबध और प्रगाढ़ करना है. 20 मई 2016 को अपने निर्वाचन संबोधन में साईं इंग वेन ने कहा था, “हम अपने देश की बाह्य अर्थव्यवस्था को विविध बनाने और उसमें नई संभावनाएं पैदा करने पर कार्य करेंगे और एकल बाज़ार के अपने पुराने ढर्रे को अलविदा कहेंगे”.
2016 में ताइवान के शीर्ष 15 कारोबारी सहभागियों में से 9 हिन्द-प्रशांत क्षेत्र के थे. ताइवान ने जापान को 19.6 बिलियन डॉलर्स का माल निर्यात किया और 12.8 बिलियन अमेरिकी डॉलर दक्षिणी कोरिया को, 3.1 बिलियन ऑस्ट्रेलिया को और 2.8 बिलियन अमेरिकी डॉलर का सामान भारत को निर्यात किया. 2016 में ताइवान ने आशियान देशों में अपना वार्षिक निवेश 73.3 प्रतिशत बढ़ाकर 4.2 बिलियन डॉलर कर दिया है जिससे यह देश अब आशियान के निवेशकों में साँतवें पायदान पर पहुँच गया है. गौर करने की बात यह है कि, 2001 में भारत के साथ द्विपक्षीय कारोबार 1.19 बिलियन अमेरिकी डॉलर से बढ़कर 2016 में 5 बिलियन हुआ है. 2016 के अंत में दक्षिण-बाध्य नीतियों के आगमन के पश्चात भारत में 90 नई कंपनियों की स्थापना हुई है जिनका कुल निवेश 1.4 बिलियन डॉलर है.
इस क्षेत्र में अन्य देशों की तुलना में, ताइवान ‘चौराहे’ पर खड़ा है. इससे पहले भी उन्होंने, ट्रांस-पसिफ़िक पार्टनरशिप, एशियन इन्फ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट बैंक और व्यापक क्षेत्रीय आर्थिक सहभागिताओं से जुड़ने में दिलचस्पी दिखाई थी. वर्तमान समय में वे हिन्द-प्रशांत क्षेत्र में स्थित देशों के साथ आर्थिक सम्बन्ध बढ़ाने में दिलचस्पी ले रहें है. 13 दिसम्बर 2017 को तायपेई में एक अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी में उपराष्ट्रपति, चेन चिएन जेन ने हिन्द-प्रशांत रणनीति की प्रशंसा करते हुए कहा, “इस नवीन दक्षिण-बाध्य नीति के जरिये हम हिन्द-प्रशांत क्षेत्र में कारोबार और सहयोग में बढ़त के अवसर तलाश रहें है और साथ ही ताइवान की इसमें क्षेत्रीय भूमिका की संभावनाएं पर भी गौर कर रहें है”. इस कथन से यह स्पष्ट है कि ताइवान इस क्षेत्र में सक्रियता के नये आयाम तलाश रहा है.
ताइवान-अमेरिका सम्बन्ध
अमेरिका एक ऐसा देश है जो ताइवान की मौजूदा सक्रियता में और अधिक वृद्धि कर सकता है. पर क्या अमेरिका ताइवान को इतनी जगह देने में सक्षम होगा जिसमें की ताइवान अपने लिए एक अलग पहचान स्थापित करने के साथ ही, चीन और अमेरिका के रिश्तों पर प्रभाव न डाले? ताइवान और अमेरिका के रिश्तों का आधार 1979 का ताइवान रिलेशन एक्ट है. पहली बार, राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति दस्तावेज 2017 में अमेरिका की ताइवान के लिए प्रतिबद्धता साफ़ तौर पर नज़र आई है. इस दस्तावेज में, “‘एक चीन नीति’ के तहत ताइवान के साथ मजबूत रिश्तों को स्थापित करना और ताइवान रिलेशन एक्ट के तहत ताइवान को उचित रक्षा सूत्र प्रदान करना और दबाब रोकना” शामिल है.
9 जनवरी 2018 को अमेरिका की विदेशी मामलों की समिति ने ‘नाजुक अमेरिका-ताइवान सहभागिता’ को मजबूत करने के लिए 2 बिल पारित किये. इन दोनों बिलों में से एक ताइवान यात्रा अधिनियम और दूसरा बिल ताइवान को विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लू एच ओ) में शामिल करने के पक्ष में आधारित है. यात्रा अधिनियम अमेरिका और ताइवान के बीच यात्राओं को बढ़ावा देने के लिए है वहीँ दूसरा बिल ताइवान को डब्ल्यू एच ओ में शामिल न करने के दुष्परिणामों को लेकर है.
इसके अलावा अमेरिका ने ताइवान को हथियार बेचने की घोषणा करते हुए एक अधिनियम पारित किया है. 12 दिसम्बर 2017 को अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने 2018 के लिए राष्ट्रीय रक्षा प्राधिकृति अधिनियम (एनडीडीए) पर हस्ताक्षर किये थे. ताइवान के मसले पर ऐसे कई प्रावधान है जिनके माध्यम से ताइवान और अमेरिका के बीच रक्षा सहभागिता को बढ़ावा दिया जाएगा. संभव है, कि ताईवानी सेना को अमेरिकी सेना के साथ ‘रेड फ्लैग’, विशिष्ट हवाई युद्ध, प्रशिक्षण अभ्यास, जैसे सैन्य अभ्यासों में शामिल होने का आमंत्रण भी दिया जाए. संभव यह भी है कि नौसेना में ‘अड्डों के हस्तांतरण’ के लिए दोनों देशों के बीच आपसी सहमती बन सके. 30 जून 2017 को अमेरिकी स्टेट विभाग ने ताइवान को 1.4 बिलियन अमेरिकी डॉलर की युद्ध सामग्री का पैकेज देने के समझौते की घोषणा की थी. इस समझौते में एंटी-रेडिएशन मिसाइल, पूर्व-सूचना राडार, टोर्पेडोस और एसएम-2 मिसाइल्स के कुछ अवशेषों के लिए तकनीकी सहयोग उपलब्ध करवाया गया है.
आर्म्स कण्ट्रोल एसोसिएशन के अनुसार, 1980 से 2010 तक ताइवान और अमेरिका के बीच 21.21 बिलियन अमेरिकी डॉलर के हथियार सम्बन्धी समझौते हुए है. जबकि ताइवान को तय सीमा से भी अधिक यानी कुल 25.39 बिलियन डॉलर्स के हथियार ताइवान को उपलब्ध करवाए गये. इसके अलावा बराक ओबामा के कार्यकाल में भी ताइवान द्वारा 1.83 बिलियन अमेरिकी डॉलर के हथियारों की खरीद के समझौते को मंजूरी प्रदान की गयी. इन समझौतों और खरीद को अमेरिका ताइवान सम्बन्ध अधिनियम के माध्यम से न्यायसंगत ठहरता है. इस अधिनियम के अनुसार, “अमेरिका, ताइवान को उचित आत्म-रक्षा की क्षमता बनाये रखने के लिए उपयुक्त रक्षा सामग्री और रक्षा सेवाएं आवश्यकतानुसार उपलब्ध करवाता रहेगा”.
इस बात पर भी गौर करना चाहिए की साईं इंग वेन ने डोनाल्ड ट्रम्प को औपचारिक रूप से राष्ट्रपति बनने से पहले ही बधाई दी थी. इसके अलावा पूर्व-सत्ताधीन दल की नेता यु शई-कुन के नेतृत्व में एक ग्यारह-सदस्यीय प्रतिनिधि मंडल ने 20 जनवरी 2017 को डोनाल्ड ट्रम्प के शपथ ग्रहण समारोह आयोजन में भाग लिया था जिसकी चीन में कड़ी आलोचना की गयी थी. अभी तक साईं इंग वेन ने अमेरिका के दो दौरे किये है. अमेरिका द्वारा मिल रहे सहयोग में हो रही बढ़त को नज़र में रखते हुए यह कहना ठीक होगा कि अमेरिका ताइवान को अपनी पहचान बनाये रखने में पूरा सहयोग करेगा. हालाँकि अब तक अमेरिका ने हिन्द-प्रशांत क्षेत्र में ताइवान की भागेदारी/सदस्यता पर कोई टिप्पणी नही की है. इस सम्बन्ध में अमेरिका के अन्य मित्र देश जैसे जापान और ऑस्ट्रेलिया का भी यही रुख है. इस वक़्त अमेरिका के लिए सबसे चुनौतीपूर्ण उत्तरी कोरिया द्वारा परमाणु परिक्षण की घटना है जिसके लिए उसे लगातार चीन के सहयोग की आवश्यकता होगी. निश्चित रूप से ताइवान को अलग-अलग स्तर पर सहयोग प्रदान करते हुए अमेरिका चीन को एक छिपी चेतावनी दे रहा है कि यदि उत्तरी कोरिया के मसले पर चीन ने अमेरिका का साथ नही दिया तो वह उसके खिलाफ़ ताइवान को हथियार बना सकता है.
चीन की प्रतिक्रिया
चीन ने अमेरिका के इन सभी क़दमों की समय-समय पर आलोचना की है और अमेरिका को ‘एक चीन’ की नीति पर अटल रहने के लिए कहा है. साथ ही चीन, ताइवान का कूटनीतिक क्षेत्र भी सीमित करने की कोशिश में है. 13 जून 2017 को पनामा ने चीन के साथ अपने कूटनीतिक रिश्तों को बढ़ाते हुए ताइवान के साथ अपने रिश्ते तोड़ दिए. ताइवान में डीपीपी सरकार के आगमन के बाद साओ टोम और प्रिंसिपी (पश्चिमी अफ़्रीकी देश) के बाद पनामा दूसरा देश है जिसने ताइवान के साथ अपने कूटनीतिक संबंधों की तिलांजलि दे दी है. राष्ट्रपति साईं इंग वेन ने इसके लिए चीन की आलोचना भी की थी. हालाँकि चीन इसी रणनीति से ताइवान को अकेला करते हुए ‘एक चीन’ की नीति पर खरा उतरना चाहता है. जबकि अमेरिका ताइवान को इस क्षेत्र में अपना स्थान और विश्व स्वास्थ संगठन (डब्ल्यू एच ओ) और विश्व स्वास्थ सभा में ताइवान को उसकी सही जगह दिला कर ताइवान की मदद कर करने में आगे है.
भारत-ताइवान सम्बन्ध: सहयोग की आवश्यकता
भू-राजनैतिक तौर पर हिन्द-प्रशांत क्षेत्र अपना आकार ले रहा है. ऐसे में यदि ताइवान की भूमिका और अधिक सक्रिय होती है तो यह भारत के लिए आर्थिक एवं अनौपचारिक रूप से बेहतर स्थिति हो सकती है. फरवरी 2017 में एक तीन-सदस्यीय संसदीय प्रतिनिधि मंडल ने भारत का दौरा किया था जिसकी चीन ने कड़ी आलोचना की थी. इस प्रतिनिधि मंडल के स्वागत से यह साफ है की भारत अब चीन के लिए ‘एक चीन’ नीति से अलग दिशा में सोच रहा है. भारत ने अनेक मौकों पर यह भी कहा था कि चीन यदि ‘एक चीन’ की नीति पर खरा उतरना चाहता है तो यह जरूरी है कि वह ‘एक भारत’ की नीति को भी उतना ही महत्त्व दे. सितम्बर 2014 में विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने कहा था, “यदि चीन चाहता है हम ‘एक-चीन’ नीति को गंभीरता से ले तो उसे ‘एक भारत’ नीति को गंभीरता से लेना होगा.” “जब उन्होंने हमसे तिब्बत और ताइवान के मसलों पर बातचीत की तो हमने उनकी संवेदनाओं को समझा और इसलिए हम चाहेंगे की चीन भी अरुणाचल प्रदेश को लेकर हमारी संवेदनाओं को समझें”. उन्होंने साफ़ तौर पर यह संकेत दिए की जिस अरुणाचल प्रदेश को चीन ‘दक्षिणी चीन’ का नाम देता है वह भारत का हिस्सा हिया उर चीन को अपनी सेंधमारी कम करनी चाहिए. इस बात को लेकर अब तक चीन रजामंदी नही बना सका है.
डोकलाम विवाद के बाद भारत-चीन रिश्तों में काफी दरार आई है और शायद यही मौका है कि भारत को ताइवान से अपनी नजदीकी बढ़ानी चाहिए. बल्कि भारत द्वारा ताइवान को विश्व स्वास्थ संगठन में स्थान दिलाने के प्रयास भी किये जाने चाहिए. साईं इंग वेन ने जैसा की पहले भी कहा था, “यह स्वाभाविक है कि हम आशियान और भारत से अपने संबंधों को सबसे अधिक प्राथमिकता देंगे”.
(लेखक द्वारा व्यक्त विचारों से वीआईएफ का सहमत होना जरुरी नहीं है)
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