क्या भारत में लोकतंत्र का अर्थ विशेषाधिकार वालों के अधिकारों के जरिये, विशेषाधिकार वालों के द्वारा और विशेषाधिकार वालों के लिए शासन है? यह बात अतिशयोक्ति भरी लग सकती है और हास्यास्पद भी। और लगनी भी चाहिए क्योंकि देश को सत्तर वर्ष पहले जब आजादी मिली थी तो उसके सभी नागरिक समान नागरिक बन गए, चाहे उनका वर्ग, जाति, धर्म या सामाजिक-आर्थिक दर्जा जो भी रहा हो। 1950 में अंगीकार किए गए भारत के संविधान में यह भावना लिख भी दी गई है। और प्रतयेक व्यक्ति को मत देने का अधिकार है। जैसे 1980 के दशक के उत्तरार्द्ध में या 1990 के दशक के आरंभिक वर्षों में सोवियत संघ में हुआ था, उसी तरह हमें भी आजादी अचानक मिल गई थी। 2015 में साहित्य का नोबेल प्राप्त करने वाली स्वेत्लाना अलेक्सीविच अपनी पुस्तक सेकंड-हैंड टाइम में लिखती हैं: “आजादी एकाएक प्रकट हो गई; हर किसी पर उसका नशा चढ़ गया, लेकिन कोई भी वास्तव में उसके लिए तैयार नहीं था। यह आजादी कहां थी? केवल खाने की मेज पर, जहां लोग आदतन सरकार को कोसते रहते थे।”
लेकिन भारत के लोग आजादी अचानक मिलने के बाद भी उसके लिए तैयार थे। उन रूसियों की तरह नहीं, जिनके लिए बोरिस येल्तसिन और मिखाइल गोर्बाचेव अचानक प्रकट हो गए और पुराने खूबसूरत सोवियत संघ को उलट-पुलट दिया - पुराने नियमों को नए सिरे से लिख दिया और आजादी तथा आर्थिक उदारीकरण के ऐसे सिद्धांत गढ़ डाले, जो नागरिकों को उतनी ही दूर नजर आते थे, जितने आसमान के सितारे; जिन्हें देखा जा सकता था, पाने की ख्वाहिश की जा सकती थी, लेकिन पाया कभी नहीं जा सकता था। वामपंथ, दक्षिणपंथ और मध्यमार्ग से आए हमारे स्वतंत्रता सेना दशकों से औपनिवेशीकरण की बेड़ियों को झकझोर रहे थे और हर कोई जानता था कि कुछ ही समय में अंग्रेज चले जाएंगे। यह बात उपनिवेश बनाने वाले भी जाते थे और इसीलिए उन्होंने भारतीय नेताओं के प्रतिनिधित्व वाले अंतरिम प्रशासन की योजना तैयार की थी। अगस्त 1947 में अंततः उन्होंने देश छोड़ दिया, लेकिन उससे पहले उन्होंने देश को दो टुकड़ों में बांट दिया और भारतीयों तथा पाकिस्तानियों को उस विभाजन के कारण हुई मानवीय त्रासदियों को झेलने के लिए छोड़ दिया। उस समय शायद ही किसी भारतीय को वह करना पड़ा हो, जिसे अलेक्सीविच ने “आजादी का जुआ अपने कंधे पर उठाना” कहा है।
आज के दौर में यह कहना और भी अविश्वसनीय लगता है कि भारतीय लोकतंत्र विशेषाधिकार वालों का दास बन गया है क्योंकि बेहद मामूली शुरुआत करने वाला और आर्थिक या पारिवारिक विशेषाधिकार से वंचित पार्टी कार्यकर्ता देश का प्रधानमंत्री बन चुका है। वह अकेले नहीं हैं, वर्षों पहले एचडी देवेगौड़ा, जो अपने आप को “मामूली किसान” बताते थे, इस पद पर बिठा दिए गए थे, जिस पर देशवासियों को ही नहीं खुद उन्हें भी हैरत हुई थी। बहुत ही कम समय के लिए प्रधानमंत्री बनने वाले चरण सिंह भी लाखों दूसरे लागों की तरह किसान ही थे। हालांकि उन सभी के प्रधानमंत्री बनने के कारण वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से अलग थेः दोनों राजनीतिक प्रपंच और छलकपट के सहारे प्रधानमंत्री बने थे, जबकि मोदी शानदार बहुमत के जरिये ईमानदारी से इस पद तक पहुंचे हैं। संसद तथा विभिन्न राज्य विधानसभाओं में चुने गए हमारे प्रतिनिधियों में से अधिकतर लोग भी बेहद मामूली पृष्ठभूमि से, मेहनत करते हुए, हार-जीत का स्वाद चखते हुए और सुख-दुख में जनता के साथ खड़े रहते हुए वहां तक पहुंचे हैं। उनके अतिरिक्त स्थानीय स्वशासन के मजबूत नमूने - पंचायती राज - भी हैं, जहां हमारी समझ वाला विशेषाधिकार या सौभाग्य तो एकदम ही दुर्लभ है। इसीलिए हमारे मन में यह बात आनी भी क्यों चाहिए कि विशेषाधिकार वाले दर्जे से आए मुट्ठी भर लोग भारतीय लोकतंत्र का दुरुपयोग कर रहे हैं? बेशक, ऐसा जहां भी है, असामान्य ही है और भारतीय लोकतंत्र की व्यापक भावना पर इसका अधिक प्रभाव नहीं है। इसके अलावा वर्ग विभेद वास्तविकता है और दनिया के सभी लोकतंत्रों में वह दिखाई देता है; विकसित देश भी इस मामले में अपवाद नहीं हैं। यहां तक कि वर्ग संघर्ष के सिद्धांत देने वाले और उनमें उत्पादन के साधनों पर नियंत्रण करने वाले शासक वर्ग (बुर्जुआ) को खलनायक तथा हाशिये पर पड़े कामगार समुदाय (सर्वहारा) को पीड़ित बताने वाले कार्ल मार्क्स की बौद्धिकता भी स्थायी तथा सकारात्मक परिवर्तन नहीं ला पाई। आज मार्क्स शिक्षा के क्षेत्र में ही अधिक प्रासंगिक रह गए हैं, जहां राजनीति विज्ञान के छात्रों के लिए उनके सिद्धांत पढ़ना जरूरी होता है। भारत समेत दुनिया भर की राजनीतिक व्यवस्था में मार्क्सवाद कोने में सिमटता जा रहा है।
इस मुद्दे का इस बात से कम लेना-देना है कि हमारे अधिकतर प्रतिनिधि जमीनी वर्ग से हैं और सामाजिक-आर्थिक बाधाओं को पार कर आए हैं। उनकी सफलता की सराहना की जानी चाहिए और की गई है। समस्या कहीं और है। समस्या उन लोगों के क्रियाकलापों से है, जो कठिनाइयों से जूझते हुए और सराहना योग्य दृढ़ता दिखाते हुए सत्ता में आते हैं, लेकिन अपने नए रुतबे का इस्तेमाल करते हुए वह मांगने (और जबरन हासिल करने) पर तुल जाते हैं, जिसे वे अपना ‘अधिकार’ मानते हैं। अधिकार और हक या पात्रता में निश्चित रूप से अंतर है और कहा जा सकता है कि सत्ता में बैठे कुछ लोगों कानूनी रूप से कुछ हक मिले हुए हैं - जैसे विमान या रेलगाड़ी में देश के भीतर मुफ्त यात्रा, सजे-संवरे सरकारी आवास, कार, कार्यालय के कर्मचारी, महंगी चिकित्सा सुविधा, सेवानिवृत्ति के बाद के लाभ आदि। इस बात पर बहस हो सकती है कि उन्हें यह सब मिलना चाहिए या कुछ लाभ खत्म कर देने चाहिए। यह दलील बहुत लुभावनी भी है क्योंकि इसमें सभी पार्टियों के प्रतिनिधि एक हो जाएंगे और मिलजुलकर उस तबके के साथ गरम और कटुता भरी बहस करेंगे, जिसे हम कोई बेहतर शब्द नहीं होने के कारण ‘नागरिक समाज‘ कहते हैं। फिर भी इस दलील पर अलग से बात की जानी चाहिए, जो इस लेख में संभव नहीं है।
जोर इस बात पर दिया जाना चाहिए कि सत्ता अथवा प्रभावशाली स्थिति वाले लोगों को मिलने वाले हक उन्हें बाकी लोगों से अलग बेशक कर देते हैं, लेकिन उनके पास अधिकार वही होते हैं, जो दूसरों के पास होते हैं; उतने ही अधिकार होते हैं, जितने किसी अनसुने गांव में चंद रुपयों के लिए खेतों में पसीना बहाने वाले गरीब किसान के पास हैं या सड़क पर भीख मांगने वाले के पास हैं - अगर वह भिखारी उन अधिकारों का प्रयोग करने की ठान ले तो न तो विधायिका और न ही अदालतें उसके रास्ते में आड़े आ सकती हैं। इसीलिए अधिकारों और विशेषाधिकारों के बीच भ्रम नहीं होना चाहिए (एक बार फिर यह बात याद दिला दी जाए कि प्रत्येक विशेषाधिकार के साथ कुछ शर्तें जुड़ी होती हैं)।
जब अधिकारों और हक के बीच की रेखा धुंधली करने की कोशिश होती है और ऐसे हक मांगे जाते हैं, जो होते ही नहीं हैं तो संघर्ष होता है और यह चिंता भी उत्पन्न होती है कि कहीं हमारा देश ऐसा तो नहीं है, जो विशेषाधिकार प्राप्त लोगों के ‘अधिकारों’ के मुताबिक चलता हो। इस मुद्दे को आगे बढ़ाने के लिए हाल की तीन घटनाओं पर गौर करते हैं। हालांकि इन घटनाओं को भारतीय राजनीति का असली चरित्र बिल्कुल भी नहीं कहा जा सकता किंतु उनसे यह पता जरूर चलता है कि कितनी सड़न शुरू हो चुकी है और यदि उसे खत्म नहीं किया गया तो वह कैंसर की तरह तेजी से फैल जाएगी।
भारत के जो लोग राजनीतिक घटनाक्रम पर सरसरी निगाह भर दौड़ाते हैं, उनकी नजर से भी रवींद्र गायकवाड़ का मामला चूका नहीं होगा। शिव सेना के सांसद ने इसी वर्ष मार्च में एयर इंडिया के विमान में एक वरिष्ठ कर्मचारी को केवल इसीलिए पीट दिया क्योंकि बिजनेस श्रेणी की सीट नहीं दिए जाने के कारण वह नाराज थे। विमान से बाहर आने के बाद उन्होंने सीना फुलाकर बताया कि किस तरह उन्होंने कर्मचारी को पच्चीस बार चप्पल से मारा। उनका दावा था कि सांसद होने के नाते बिजनेस श्रेणी की सीट पर उनका हक है। जब उनका नाम ‘नो फ्लाई सूची’ में डाल दिया गया और आधा दर्जन विमानन कंपनियों ने उन्हें काली सूची में डाल दिया तो उन्होंने मुश्किल से पार पाने के लिए नाम बदलकर हवाई यात्रा करने की कोशिश की, लेकिन हर बार वे पकड़ में आ गए। उसके बाद उन्होंने कहा कि खुद पर लगाए गए प्रतिबंध के कारण सांसद के तौर पर अपना कर्तव्य पूरा करने में उन्हें कठिनाई हो रही है। उनकी पार्टी के सदस्यों ने इस मसले पर लोक सभा की कार्यवाही बाधित कर दी और उनमें से कुछ तो केंद्रीय नागर विमानन मंत्री के साथ मारपीट करने तक को खड़े हो गए। कोई रास्ता नजर नहीं आने पर उन्होंने खेद व्यक्त किया, लेकिन माफी नहीं मांगी। सरकार ने हस्तक्षेप किया और विमानन कंपनियों ने उनका नाम ‘नो फ्लाई सूची’ से हटा दिया। गायकवाड़ बिजनेस श्रेणी की सीट के हकदार थे, इस बात से किसी ने इनकार नहीं किया था; लेकिन समस्या यह थी कि जिस उन्होंने जिस विमान का टिकट लिया था, उसमें बिजनेस श्रेणी ही नहीं थी। यह छोटी सी बात थी; लेकिन सांसद अपना ‘अधिकार’ जताना चाहते थे।
प्रभावशाली व्यक्तियों के अधिकारों और विशेषाधिकारों का दूसरा नमूना तृणमूल कांग्रेस नेता और संसद सदस्य डोला सेन ने उस समय पेश किया, जब गायकवाड़ का मामला गरम था। सेन ने दिल्ली से कोलकाता जा रही एयर इंडिया की उड़ान में व्हील-चेयर पर बैठी अपनी मां को आपातकालीन निकास के निकट वाली सीट से हटाने से इनकार करते हुए बखेड़ा खड़ा कर दिया। खबरों में विमानन कंपनी के कर्मचारियों के हवाले से बताया गया कि सांसद को कर्मचारियों ने समझाया कि व्हील-चेयर पर सवार किसी भी यात्री को सुरक्षा प्रोटोकॉल के कारण आपातकालीन निकास के निकट नहीं बिठाया जा सकता, लेकिन सांसद “चीखती-चिल्लाती” रहीं। जब कर्मचारियों ने उनकी मां को बिजनेस श्रेणी में बिठाने की पेशकश की तो सेना इस बात पर अड़ गईं कि उन्हें और उनके साथ आ रहे एक अन्य यात्री को भी बिजनेस श्रेणी में ही बिठाया जाए। जब कर्मचारियों ने बताया कि उनकी यह इच्छा पूरी नहीं हो पाएगी तो उनका पारा चढ़ गया। गायकवाड़ की ही तरह डोला सेन ने दिखाना चाहती थीं कि उन्हें अपनी मर्जी से काम कराने का अधिकार है।
तीसरी घटना तो और भी तुच्छ स्तर की है। मामला उस दिन का है, जब उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के परिणाम आए थे। समाजवादी पार्टी के नेता और अखिलेश यादव की सरकार में वरिष्ठ मंत्री आजम खान अपने विधानसभा क्षेत्र रामपुर में थे। जिला प्रशासन ने उनकी कार को रामपुर मंडी में घुसने से रोक दिया और कार्यालय से विधायक के तौर पर पुनः चुने जाने का प्रमाणपत्र लेने के लिए उन्हें कुछ दूर पैदल चलना पड़ गया। आजम खान कीचड़ भरे उस रास्ते को देखकर भड़क गए और उपमंडल अधिकारी (एसडीएम) से कहा कि वह यह न भूलें कि वही (मंत्री के रूप में) उन्हें “कूड़े” से निकालकर रामपुर लाए थे। इतने से मन नहीं भरा तो आजम खान ने “रंग बदलने” के लिए उनकी खिंचाई की और यह भी पूछा कि कहीं प्रधानमंत्री मोदी ने तो नहीं कहा था कि उन्हें पैदल ही चलवाया जाए! पूरी घटना के दौरान अधिकारी शांत रहे, उस समय भी चुप रहे, जब आजम खान ने उन्हें याद दिलाया कि जब तक नई सरकार नहीं बनती तब तक वह मंत्री बने रहेंगे। यहां एक विधायक था, जो अपने अधिकारों का इस्तेमाल करने पर अड़ा हुआ था। उसकी विशेषाधिकार की भावना कीचड़ भरे रास्ते पर चलने भर से आहत हो गई, जबकि उसके क्षेत्र के हजारों आम मतदाता बिना किसी शिकायत के उसी रास्ते पर चले होंगे।
ऐसा नहीं है कि बदतमीजी की सूची में केवल ये तीन उदाहरण ही हैं, लेकिन यह बात तो इनसे ही स्पष्ट हो जानी चाहिए कि प्रभावशाली व्यक्ति किस तरह गलत अधिकार मांगते हैं और जब उनकी मंशा पूरी नहीं होती है तो वे हिंसक भी हो सकते हैं और गालीगलौच भी कर सकते हैं। ऐसी हरकतें उस काल की याद दिलाती हैं, जब यूरोप में राजपरिवार के शासन के विरुद्ध अधिक आजादी और लोकतंत्र की मांग के साथ ही अभिजात्य या कुलीन वर्ग का भी उद्भव हुआ। कुलीनों में केवल शैक्षिक विशेषाधिकार वाला वर्ग ही नहीं था बल्कि राजनीतिक गतिविधियों के लिए धन देने वाले कारोबारी और व्यापारी भी थे। इन्हीं कुलीनों ने लोकतंत्र की ऐसी व्यवस्था तैयार की, जो उनके ही उद्देश्यों की पूर्ति करती थी। लोकतंत्र का मूल बिंदु है ‘जनता की ताकत’; दूसरे शब्दों में कहें तो ताकत बटुए या परिवार या बंदूक की नली से नहीं निकलती है बल्कि जनता से आती है। कुलीनों ने इस शर्त को तोड़मरोड़कर ‘जनता की लेकिन चुनिंदा ताकत’ बना दिया। गायकवाड़, डोला सेन और आजम खान जैसे लोग उसी पुराने लोकतंत्र पर अटके हुए हैं।
लोकतंत्र के सिद्धांतकारों के पास अधिकारों के गठन के बारे में स्पष्ट विचार रहे हैं, हालांकि यह विचार प्रचलन में आने के बाद से तीन सदियों में अधिकारों का अर्थ और दायरा बहुत विस्तृत हो चुका है। राजनीतिक विचारक हैरल्ड लास्की ने अधिकारों की परिभाषा इन शब्दों में दी हैः “अधिकार सामाजिक जीवन की वे शर्तें हैं, जिनके बिना सामान्यतः कोई व्यक्ति सर्वश्रेष्ठ होने का प्रयास नहीं कर सकता।” एक अन्य प्रख्यात राजनीतिक सिद्धांतकार लियोनार्ड हॉबहाउस ने कहा, “अधिकार वे हैं, जिनकी अपेक्षा हम दूसरों से और दूसरे हमसे कर सकते हैं और सभी वास्तविक अधिकार समाज कल्याण की शर्त होते हैं।” और 19वीं शताब्दी के अंत तथा 20वीं शताब्दी के आरंभ के ब्रिटिश राजनीतिक दार्शनिक बर्नार्ड बोजनकेट ने कहा कि “अधिकार वह दावा होता है, जिसे समाज मान्यता देता है और राज्य लागू कराता है।” उपरोक्त तीनों राजनीतिक विचारों के दृष्टिकोण से यह स्पष्ट है कि मूलतः अधिकारों की प्रकृति सामाजिक होती है, उन्हें सामाजिक मान्यता मिली होनी चाहिए, उन्हें कानूनन लागू करने योग्य होना चाहिए और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि उन्हें भ्रमवश विशेषाधिकार नहीं माना जाना चाहिए क्योंकि विशेषाधिकारों से भी शर्तें जुड़ी होती हैं।
लोकतंत्र रास्ता बदलते हुए, नए आयामों को समाहित करते हुए, पुराने आयामों को छोड़ते हुए और ‘जनता से शक्ति’ के बजाय ‘जनता को शक्ति’ पर जोर देते हुए तथा अधिकारों एवं विशेषाधिकारों को सही संदर्भ में रखते हुए सदियों में विकसित हुआ है, लेकिन इस प्रयास से हमेशा सर्वश्रेष्ठ परिणाम नहीं मिले हैं। नाटककार ऑस्कर वाइल्ड ने निराशा के क्षण में - हालांकि उस निराशा में उनकी हाजिरजवाबी कुंद नहीं पड़ी - कहा था कि “लोकतंत्र का सीधा सा मतलब है लोगों को, लोगों द्वारा, लोगों के लिए पीटा जाना।” विंस्टन चर्चिल इतने अड़ियल थे कि असली लोकतांत्रिक हो ही नहीं सकते थे, लेकिन उनका विचार बहुत निराशावादी था। तीखी हाजिरजवाबी के साथ एक बार उन्होंने कहा था, “अन्य तरीकों को छोड़ दें तो लोकतंत्र शासन का सबसे खराब तरीका है।” सांस्कृतिक रूप से इतनी विविधता भरे भारत के लिए लोकतंत्र ही एकमात्र विकल्प है क्योंकि दूसरे विकल्प और भी खराब हैं। लेकिन जब लोकतंत्र विशेषाधिकारों को अधिकार की तरह थोपने का रास्ता बन जाता है तो यह हरकत करने वालों को सही पाठ पढ़ाना जरूरी हो जाता है। जनता का इरादा एकदम स्पष्ट हैः वह अधिकार के नाम पर विशेषाधिकार मांगने वालों का सम्मान नहीं करती। राजनीतिक वर्ग को इस यह आक्रोश भांपना होगा और अपना व्यवहार बदलना होगा। इस बीच जो लोग शक्ति को उन्हीं लोगों के खिलाफ आजमाकर उसका मखौल उड़ाते हैं, जिन्होंने वह शक्ति उनके हाथ में सौंपी है, उन लोगों को इसका उदाहरण बनाया जाना चाहिए। दुख की बात है कि ऐसा न तो ठीक से हो रहा है और न ही तेजी से हो रहा है।
(लेखक द पायनियर में ओपिनियन एडिटर, वरिष्ठ राजनीतिक टिप्पणीकार और लोक मामलों के विश्लेषक हैं)
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