नीतियाँ और नज़रिया
Rajesh Singh

24 नवम्बर 2017 को सर्वोच्च न्यायालय ने यह मत दिया कि जनहित याचिकाओं की प्रणाली पर पुनर्विचार किया जाना चाहिए. न्यायालय की दो न्यायधीशों वाली बेंच छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में दायर एक याचिका पर बेहद आक्रोशित थी , जिसमें राजनीतिक पृष्ठभूमि वाले याचिकाकर्ता द्वारा 2015 में प्रधानमंत्री की एक जनसभा में संबोधन के दौरान मंच पर मौजूद डाईस के क्षतिग्रस्त होने को लेकर किसी सरकारी एजेंसी द्वारा अधिकारिक जाँच कराने की माँग की गयी थी. याचिकाकर्ता का कहना था कि मामला प्रधानमंत्री की सुरक्षा से जुड़ा है इसलिए इस विषय पर गंभीर रूप से जाँच होनी चाहिए. इस याचिका से उच्च न्यायालय इतना आक्रोशित हुआ कि न्यायालय द्वारा न सिर्फ याचिका रद्द कर दी गयी बल्कि याचिकाकर्ता पर 25 हज़ार रूपए का जुर्माना भी लगाया गया. इससे सबक लेने के बजाए याचिकाकर्ता ने सर्वोच्च न्यायालय कि ओर रूख़ किया. सर्वोच्च न्यायलय द्वारा उच्च न्यायालय के निर्णय को बरकरार रखते हुए याचिका को पहले की तरह रद्द किया गया और जनहित याचिका तंत्र के मुख्य उद्देश्य की तौहीन करने के लिए जुर्माने की रकम 25 हज़ार से बढ़ाकर एक लाख रूपए कर दी गयी.

ये ऐसी पहली और आखिरी याचिका नहीं है जिसे रद्द किया गया, हाल ही में सर्वोच्च न्यायलय ने भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी की एक जनहित याचिका को नामंजूर कर दिया गया था , जिसके तहत उन्होंने पूर्व में केंद्र सरकार द्वारा कुछ निजी कंपनियों को सुरक्षा-सम्बन्धी नियमों में विशेष रियायत देने के प्रावधानों की जाँच करवाने की माँग की थी. न्यायालय ने यह स्पष्ट कर दिया कि वह सरकार के नीति- सम्बन्धी मामलों में किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करेगा. 2010 में कुछ इसी तरह का निर्णय सर्वोच्च न्यायालय की एक अन्य तीन-न्यायधीशों वाली बेंच ने भी लिया था जिसका नेतृत्व तत्कालीन मुख्य न्यायधीश एस. एच. कपाड़िया कर रहे थे. कुछ याचिकाओं की सुनवाई के दौरान सर्वोच्च न्यायालय ने यह साफ़ कर दिया,“ सर्वोच्च न्यायालय को सरकार के नीति- सम्बन्धी मामलों में दखल देने का अधिकार नहीं है. हम शासन में हस्तक्षेप नहीं कर सकते. शौचालय की आपूर्ति जैसी अनेकादी समस्याओं को न्यायालय नहीं सुलझा सकता.” इसके साथ ही बेंच ने ये भी कहा की महज ख़बरों के आधार पर याचिकाओं को मंजूरी नही मिलनी चाहिए. हाल ही में इस तरह के अपने पहले बयान को जारी करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा “ अब समय आ गया है कि जनहित याचिका की संकल्पना पर पुनर्विचार किया जाए. कोई कैसे इस प्रकार के मसलों को अदालत के समक्ष जनहित का मुद्दा बनाकर ला सकता है? जनहित याचिका इन सभी चीज़ों के लिए नहीं है.”

स्वामी द्वारा दाखिल याचिका के सन्दर्भ में तीन न्यायधीशों ने गौर किया था कि इस याचिका का उद्देश्य “ गरीबों, वंचितों एवं पीड़ितों तथा वे लोग जिनके मौलिक अधिकारों का हनन होता है तथा जिनकी शिकायतों को अनदेखा और अनसुना कर दिया जाता है, उन लोगों को सहयोग प्रदान करना था न की सरकार की नीतियों को चुनौती देना.” इसी वर्ष जुलाई में सर्वोच्च न्यायालय ने एक अन्य याचिका जिसमें कश्मीर घाटी में विस्थापन के दौरान मारे गये कश्मीरी पंडितों की मौतों कि विशेष जाँच की माँग की गयी थी, को यह कहते हुए नामंजूर कर दिया कि लगभग तीन दशक पहले हुए एक वाक्ये में साक्ष्य जुटाना बेहद कठिन होगा. ” लगभग 27 साल बीत चुके हैं, अब सुबूत कहाँ से मिलेगा? इस तरह की याचिका को बहुत पहले दाखिल किया जाना चाहिए था” . ये याचिका कश्मीर में कार्यरत एक गैर-सामाजिक संगठन ने दायर की थी. न्यायालय के इस फैसले से उन सभी लोगों को बेहद दुःख हुआ जो नरसंहार के इस वीभत्स अपराध के लिए न्यायालय से दोषियों के प्रति कार्यवाही करने की आस लगाये बैठे थे.

इसके बावजूद कई ऐसे मामले देखने को मिले हैं जहाँ सर्वोच्च न्यायलय ने कई अजीबोगरीब याचिकाओं कि सुनवाई की है. ऐसे ही एक मामले में एक वकील द्वारा ‘सरदार-सम्बंधित चुटकुलों’ पर प्रतिबन्ध लगाने कि माँग की गयी. याचिकाकर्ता के अनुसार इससे एक विशेष समुदाय के लोगों की भावनाएं आहत होती हैं. स्पष्ट है कि यह एक सांप्रदायिक विषय था, जिसमें कोई विशेष जनहित नहीं प्रतीत हो रहा था. इस याचिका के माध्यम से न तो गरीबों के अधिकार की बात उठाई जा रही थी और न ही ये किसी के अधिकारों के हनन का विषय था. फिर भी सर्वोच्च न्यायालय ने तत्कालीन मुख्य न्यायधीश टी. एस. ठाकुर की अध्यक्षता में बेंच गठित करते हुए इस पर सुनवाई की और शिरोमणि गुरु द्वारा प्रबंधन कमेटी जैसे पक्षों को भी शामिल किया. एक और याचिका में भारत में कोहिनूर वापस लाने के माँग की गयी थी. कोहिनूर की भारत में वापसी को लेकर कोई कानूनी-पक्ष नहीं है लेकिन फिर भी बेंच ने इस तरह की याचिका को मंजूरी देना उचित समझा. एक अन्य याचिका की सुनवाई करते हुए मुख्य न्यायधीश ठाकुर ने सरकारी वकील को कंडोम के पैकेट की जाँच कर यह पता करने का निर्देश दिया कि पैकेट में इस्तेमाल होने वाली तस्वीरें अश्लील हैं या नहीं ? सूची लम्बी है परंतु एक अन्य उदहारण से यह बात और अधिक स्पष्ट हो जाएगी, एक जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान लिए गये एक निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा वायु प्रदूषण को रोकने के लिए डीजल कारों के एक विशेष क्षमता एवं आकार वाले इंजन वाली कारों पर रोक लगा दी गयी. इस निर्णय में समस्या ये है कि इस बात का कोई वैज्ञानिक प्रमाण मौजूद ही नहीं है कि प्रतिबंधित कारों का वायु प्रदूषण में अधिक योगदान है.

इस तरह के विषयांतर तब और अधिक स्पष्ट हो जाते हैं जब अदालत द्वारा असल जनहित के विषयों पर दायर की गयी याचिकाओं को नामंजूर कर दिया जाता है. दिनेश ठाकुर द्वारा दायर एक ऐसी ही जनहित याचिका थी, जिसमें उन्होंने देश में औषधीय उद्योग सम्बंधित नियमों पर आवश्यक परिवर्तन करने की माँग उठाई थी. इस याचिका में प्रतिबंधित दवा की बिक्री से सम्बंधित कई गड़बड़ियों की सरकारी जाँच करवाने की माँग भी की गयी थी. याचिकाकर्ता ने कई मुख्य दवा-निर्माण कम्पिनियों द्वारा सेफ्टी डेटा में गड़बड़ी करने की जाँच की रिपोर्ट को सार्वजनिक करने की माँग की थी, पर न्यायालय को इस याचिका से ऐसा प्रतीत हुआ कि याचिकाकर्ता ने केवल एक शैक्षिक-मुद्दा उठाया है . इसलिए याचिकाकर्ता ने अपनी याचिका वापस ले ली. हालाँकि कई बार सर्वोच्च न्यायालय ने प्रक्रियात्मक-आधार पर सही निर्णय लेते हुए याचिकाओं को रद्द भी किया है. अगस्त 2015 में बेंच ने कई याचिकाओं को नामंजूर किया जिसमें छत्तीसगढ़ जन-वितरण प्रणाली में एक बड़े घोटाले की सीबीआई जाँच की माँग की गयी थी. याचिकाकर्ता एक पूर्व कांग्रेस विधायक थे जिनके साथ कुछ अन्य लोग भी शामिल थे| ये एक राजनैतिक खेल था | सर्वोच्च अदालत ने ‘वापसी’ के साथ ही इसे रद्द कर दिया और याचिकाकर्ता को अपनी शिकायत के समाधान हेतु उच्च न्यायालय जाने की हिदायत भी दी.

सिर्फ राजनीति ही नहीं बल्कि कारोबार और यहाँ तक की निजी मामलों के लिए जनहित याचिकाएं दायर की जाने लगी हैं. कल्याणेश्वरी बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया (2011) में भी अदालत ने इस तरह के कारोबारी विषयों पर जनहित याचिका के दुरूपयोग होने की बात की थी. गुजरात उच्च न्यायलय में एक लिखित याचिका दायर की गयी जिसमें याचिकाकर्ता ने कुछ औद्योगिक इकाइयों को बंद करने की माँग इस आधार पर की थी कि वहाँ पर बनने वाला उत्पाद (अस्बेस्तोस) इंसानों के लिए खतरनाक है. उच्च न्यायालय में याचिका प्रतिद्वंदियों द्वारा दायर की गयी थी इसलिए न्यायालय ने यह याचिका नामंजूर कर दी. जब यह मामला सर्वोच्च अदालत में पहुँचा तो उसे वहाँ न केवल इस आधार पर नामंजूर किया गया बल्कि जुर्माना भी लगाया गया. न्यायाल ने कहा कि “याचिका में प्रमाणिकता की कमी है इसके साथ ही याचिकाकर्ता एक प्रतिद्वंदी औद्योगिक समूह से जुड़ा हुआ है.” परन्तु न्यायालय ‘न्यायिक प्रक्रिया’ से जुड़े याचिकाओं पर बेहद सतर्क रवैया अपनाता है. इस साल के शुरुवात में ही सर्वोच्च अदालत ने केंद्र की एक याचिका को नामंजूर किया जिसमें यह कहा गया था कि न्यायिक सुधारों की सुनवाई न्यायिक पक्ष के साथ नहीं होनी चाहिए और उन्हें नामंजूर कर देना चाहिए.

केंद्र सरकार इस बात पर पहले से ही समस्या में थी की न्यायधीशों की नियुक्ति जैसे विषय अन्य याचिकाओं के बीच फंस जाते हैं जिससे प्रक्रिया में अनिश्चितता बढ़ जाती है और देरी भी होती है. परन्तु मुख्य न्यायधीश जे एस खेहर की अध्यक्षता वाली बेंच ने कहा “यह हमारा मामला है, हम अपने ही मामले से कैसे भाग सकते हैं ?”

खोखली जनहित याचिकाओं ने कई सरकारों को परेशान किया है. सितम्बर 2008 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने जनहित याचिकाओं के बढ़ते प्रचलन पर चिंता जताई थी. उन्होंने कहा,” कई लोग इस बात से सहमत होंगे कि सार्वजनिक जीवन में अन्य कई चीज़ों की तरह हम जनहित याचिकाओं के मामले में भी काफ़ी आगे बढ़ गये हैं. शायद एक सही कदम उठाने की जरूरत थी और हमने पिछले कुछ समय में संतुलन बना लिया है.” उनके कानून मंत्री ने उचित सहायता से जनहित याचिकाओं के इस प्रवाह को नियमित करने की कोशिश की थी. परन्तु इससे कोई फायदा नहीं हुआ. पहले ही भ्रष्टाचार के अनेक आरोपों और कई घोटालों से घिरे मंत्रियों के बीच उस सरकार की विश्वसनीयता खतरे में पड़ गयी थी. ऐसे समय में जनहित याचिकाओं को नियमित करने का यह कदम उनके ऊपर भारी पड़ जाता. इस तरह से सर्वोच्च न्यायालय का जनहित याचिकाओं का क्रम काफी मिला-जुला है. लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि इस तंत्र में वर्षों से भ्रष्टाचार हो रहा है और इसमें सुधार की काफ़ी आवश्यकता है. ऐसा संभव है यदि न्यायालयों द्वारा तीव्रता से तुच्छ और निजी हितों पर केन्द्रित याचिकाओं को नामंज़ूर किया जाये और साथ ही आवश्यक याचिकाओं को मंजूरी दी जाए. शायद जनहित याचिका की एक व्यवस्थित परिभाषा के होने से न्यायालय और याचिकाकर्ताओं को भी सहूलियत होगी. इस परिभाषा का मुख्य तत्व जैसा की कि स्पष्ट ‘जनहित’ होना चाहिए. ऐसे जन हित वाले विषयों पर या तो जनहित याचिका दायर की जा सकती है अथवा न्यायालय द्वारा उस विषय को स्वतः संज्ञान में भी लिया जा सकता है.

जनहित याचिका की संकल्पना भारत में सन 1980 के दौर में आई ( जिसे जुडिशल एक्टिविज्म की शुरुआत भी कहा जा सकता है) अथवा तत्कालीन मुख्य न्यायधीश पी एन भगवती द्वारा जबरन लायी गयी. बतौर मुख्य न्यायधीश एवं उससे पहले अपनी पदोन्नति से पूर्व सर्वोच्च अदालत में बतौर न्यायधीश भी उन्होंने नये न्यायशास्त्र को बढ़ावा देना शुरू कर दिया था जिसके तहत जनहित याचिकाओं की संकल्पना ने तेजी से विकास किया. निजी, सामूहिक अधिकारों का हनन, विशेषकर वंचित समाज से आने वाले लोग जिनके लिए न्याय दुर्लभ था, को उनके कार्यकाल में न्यायालय में अधिक स्थान मिला. ‘कानूनी-सहायता’ यानी लीगल ऐड की संकल्पना भी उनकी ही देन है. ऐसा कहा जाता है कि 1985-86 के दौर में जब भगवती मुख्य न्यायधीश थे, एक आम आदमी महज 25 पैसे के पोस्टकार्ड पर अपनी शिकायत लिखकर उन तक पहुँचा सकता था और यदि उसकी शिकायत में सच्चाई पाई जाती तो आवश्यकता होने पर उसे भी कानूनी मदद प्रदान की जाती थी. न्यायमूर्ति भगवती का यह मानना था की जनहित याचिकाओं से इस देश के कानूनी परिदृश्य को हमेशा-हमेशा के लिए बदला जा सकता है और यह बताया जा सकता है की कानून महज अमीर लोगों के लिए नहीं है , जो इसको तोड़-मरोड़कर अपने निजी स्वार्थ हेतु प्रयोग करे बल्कि एक जरूरतमंद गरीब भी कानून की दृष्टि में एक ही है. हालाँकि बहुत समय बाद मनमोहन सिंह की सरकार के दौरान उन्होंने भी यह माना कि जनहित याचिकाओं से एक प्रकार की खिचड़ी बन गयी है और इसे नियमित करने की आवश्यकता है.
(अपनी जनहित याचिका एक्टिविज्म से अलग न्यायमूर्ति भगवती शायद अपनी छवि सुधारने का प्रयास कर रहे थे जो एडीएम् जबलपुर केस जिसे हाब्स कार्पस केस के नाम से भी जाना जाता है, से धूमिल थी. इस केस में यह निर्णय सुनाया गया था की आपातकाल के दौरान व्यक्ति के मौलिक अधिकार निरस्त किये जा सकते हैं.)

एक अन्य सर्वोच्च न्यायालय के न्यायधीश – कृष्णा अय्यर भी जनहित याचिकाओं की वकालत किया करते थे. ‘जस्टिस एट हार्ट: लाइफ जर्नी ऑफ़ वी आर कृष्णा अय्यर में एक वकील ने कहा “ न्यायमूर्ति कृष्णा अय्यर के कार्यकाल के दौरान भी जनहित याचिकाओं का काफी बोलबाला था क्योंकि वे गरीबों और शोषित वर्गों की आवाज़ सुनते थे जो न्याय की माँग लिए उनके पास न्यायालय में आते थे.” किताब में न्यायमूर्ति अय्यर का उद्धरण करते हुए लेखक लिखते हैं “ याचिकाकर्ता, दरअसल कानूनी मरीज है जो अन्याय के घाव को सहते हुए न्याय की दवा प्राप्त हेतु न्यायालय रुपी अस्पताल आया है, क्या आप एक मरीज को अस्पताल में ये कहकर कि उसने एक लक्षण देर से बताया, उसे उपचार से वंचित रखेंगे?” ये टिपण्णी संयोग से उसी समय आई थी जब सर्वोच्च न्यायलय में कश्मीरी पंडितों की हत्या की जाँच की माँग करने वाली याचिका इसलिए रद्द कर दी गयी थी क्योंकि याचिका को काफी समय बीत जाने के बाद दायर किया गया था. हालाँकि उन्होंने भी इस बात को स्वीकार किया क़ि जनहित याचिकाओं को धर्मपथ से हटाने वाले उद्देश्यों और परोक्ष भाव से दायर याचिकाओं को रद्द होना ही चाहिए.

अतः जनहित याचिकाओं का होना आवश्यक है और उन्हें यहाँ होना ही चाहिए. ये भारत के संविधान की प्रस्तावना में उल्लिखित सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक न्याय को स्थापित करने में सहायक है. साथ ही यह प्रस्तावना में उल्लिखित ‘उन सबमें व्यक्ति की गरिमा’ को भी सुनिश्चित करने का एक मार्ग है. आवश्यक एवं उपयोगी जनहित याचिकाओं से प्रत्येक व्यक्ति को सामाजिक न्याय एवं गरिमा की सुनिश्चितता प्रशस्त होती है. उद्देश्य-आधारित याचिकाएं इसके उलट निजी स्वार्थ की पूर्ति हेतु होती हैं. सकारात्मक कानूनी एक्टिविज्म को एक खतरा इस तरह की नकारात्मक जनहित याचिकाओं से भी रहता है. जैसा कि न्यायमूर्ति ए. के. सिकरी एवं अशोक भूषण ने प्रधानमंत्री की रैली के दौरान टूटने वाले डाईस की जाँच सम्बंधित याचिका को रद्द करते हुए कहा था कि अब वह समय आ गया है जब जनहित याचिकाओं के दुरूपयोग पर रोक लगायी जाए.

(लेखक वरिष्ठ राजनैतिक टिप्पणीकार एवं जन-सम्बन्ध विश्लेषक एवं विवेकानंद अंतर्राष्ट्रीय अधिष्ठान में विजिटिंग फ़ेलो हैं. ये उनके निजी विचार हैं)


Translated by: Shiwanand Dwivedi (Original Article in English)
Image Source: http://egov.eletsonline.com/2017/03/supreme-court-to-turn-digital-in-the-coming-months/

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