मीडिया में ऐसी खबरें आई हैं कि चीन और दस आसियान देश दक्षिण चीन सागर में आचार संहिता के लिए बातचीत के एक मसौदे पर सहमत हो गए हैं। इसकी औपचारिक घोषणा जल्द ही की जा सकती है। आचार संहिता पर बातचीत अगले कुछ हफ्तों और महीनों में होगी। इसलिए ऐसा लग सकता है कि आसियान के भीतर ही मौजूद विरोधाभासों का फायदा उठाते हुए चीन स्थायी मध्यस्थता अदालत (पीसीए) के 2016 के फैसले से मिले झटके पर काबू पाने में सफल रहा है। उसने आसियान देश्ज्ञों को यह भी जता दिया है कि उनके पास चीन के रुख को स्वीकार करने और चीन के साथ अपने रिश्ते संभालने के अलावा कोई और चारा नहीं है।
दक्षिण चीन सागर के द्वीप दशकों से चीन और उसके पड़ोसियों के बीच विवाद का मुद्दा रहे हैं। पुराने चीनी नक्शों में दिखाई गई कथित ‘9-डैश लाइन’ के आधार पर चीन इन द्वीपों पर अपना अधिकार होने का दावा करता है इसे अपना ‘ऐतिहासिक अधिकार’ बताता है। विवाद के कारण अतीत में चीन और उसके कुछ पड़ोसियों के बीच सशस्त्र टकराव भी हुए हैं। चीन ने 1995 में मिसचीफ रीफ पर और बाद में कई अन्य द्वीपों पर कब्जा कर लिया। चीन का कहना है कि द्वीपों पर उसके दावे पर किसी तरह का मोलभाव नहीं हो सकता। उसने अंतरराष्ट्रीय मत को सिरे से खारिज करते हुए वहां अपना असैन्य और सैन्य बुनियादी ढांचा तैयार कर लिया है। चीन सैन्य और आर्थिक रूप से ताकतवर है। अंतरराष्ट्रीय समुदाय के पास उसके कामों को बदलने की क्षमता नहीं है।
हाइड्रोकार्बन और मत्स्य संसाधनों के लिहाज से समृद्ध दक्षिण चीन सागर हिंद-प्रशांत क्षेत्र में वैश्विक व्यापार एवं वाणिज्य के लिए जहाजों के गुजरने का प्रमुख मार्ग है। चीन के दावों से दक्षिण चीन सागर के रास्ते नौवहन की स्वतंत्रता कम हो सकती है। इस विवाद से चीन और अमेरिका के बीच भी तनाव उत्पन्न हो गया है। अमेरिका समय-समय पर इस क्षेत्र में चीन के द्वारा कब्जाए गए द्वीपों के नजदीक से अपने युद्धपोत निकालता रहा है ताकि चीन को संकेत मिल सके कि अमेरिका नौवहन की आजादी बरकरार रखेगा। भारत समेत अन्य देशों की नौसेनाओं के दक्षिण चीन सागर से गुजरने वाले जहाजों को भी कभी-कभार चीनियों से चुनौती मिलती रही है। दक्षिण चीन सागर पर विवाद अंतरराष्ट्रीय टकराव का बिंदु बन सकता है।
कई वर्षों की बातचीत के बाद नवंबर, 2002 में चीन और आसियान ‘दक्षिण चीन सागर में पक्षों के आचरण पर घोषणापत्र’ अथवा डीओसी पर सहमत हुए थे। डीओसी वास्तव में विश्वास बहाली के उपायों तथा व्यावहारिक सामुद्रिक सहयोग पर समझौता है। इसमें पांच क्षेत्र परिभाषित किए गए हैं: समुद्री पर्यावरण संरक्षण; समुद्री वैज्ञानिक अनुसंधान; समुद्र में नौहवहन एवं संचार की सुरक्षा; खोज एवं बचाव अभियान और अंतरराष्ट्रीय अपराधों से मुकाबला, जिसमें अवैध नशे की गैरकानूनी आवाजाही, समुद्र में डकैती और लूटपाट तथा हथियारों की गैरकानूनी आवाजाही के साथ-साथ कई अन्य अपराध शामिल हैं।
डीओसी गैर-बाध्यकारी दस्तावेज है, जो औपचारिक एवं बाध्यकारी आचार संहिता बनाने के लिए मंच तैयार करता है। उसके बाद से आचार संहिता पर सहमति बनाने के लिए कई दौर की बातचीत हो चुकी है। इतने वर्षों में बात ज्यादा आगे नहीं बढ़ी है। लेकिन अब स्थिति बदल रही है।
चीनियों की तरह कुछ लोग दलील दे सकते हैं कि डीओसी के कारण क्षेत्र में स्थायित्व आया है और दूसरे लोग कह सकते हैं कि कुछ देशों ने डीओसी का उल्लंघन किया है और उन्हें सजा भी नहीं मिली है। अगर ऐसा नहीं है तो विवादित द्वीपों पर कब्जा करने और वहां भारी सैन्य एवं असैन्य निर्माण कराने की चीन की हरकत को और क्या कहा जा सकता है? सच कहा जाए तो डीओसी ने चीन को संभवतः द्वीपों पर कब्जे की अपनी हरकत छिपाने का रास्ता दे दिया है।
फिलीपींस इस विवाद को मध्यस्थता के लिए 2013 में पीसीए के पास ले गया। चीन ने मध्यस्थता की कार्यवाही में हिस्सा ही नहीं लिया। पीसीए ने 2016 में अपना फैसला सुनाया, जिसमें उसने “9 डैश लाइन” के आधार पर दक्षिण चीन सागर पर “ऐतिहासिक अधिकार” होने का चीन का दावा खारिज कर दिया। पीसीए ने स्पष्ट किया कि उसका फैसला न तो संप्रभुता के विवाद को निपटाने से जुड़ा है और न ही समुद्री सीमाएं तय करने करने के लिए है। फैसला यह निश्चित करने के लिए है कि ‘ऐतिहासिक अधिकार’ का दावा संयुक्त राष्ट्र की समुद्री कानून संधि (अंकलोस) के मुताबिक वैध है या नहीं। अदालत ने यह भी कहा कि अंकलोस के अनुच्छेद 9 के अनुसार न्यायाधिकरण की कार्यवाही में चीन के शामिल नहीं होने से मध्यस्थता में किसी तरह की रुकावट नहीं आती।1
अदालत ने चीन की ऐतिहासिक अधिकारों की दलील ठुकरा दी। उसके फैसले में विस्तृत उद्धरण दिया है, जिसमें कहा गया है:
“ऐतिहासिक अधिकार और ‘9 डैश लाइन’: न्यायाधिकरण ने पाया कि उसे दक्षिण चीन सागर में ऐतिहासिक अधिकारों तथा सामुद्रिक अधिकारों के स्रोत से संबंधित पक्षों के विवाद पर विचार करने का न्यायिक अधिकार है। न्यायाधिकरण ने तथ्यों के आधार पर निर्णय दिया कि संधि के तहत समुद्री क्षेत्रों को पूरी तरह अधिकार देती है और संसाधनों पर पहले से मौजूद अधिकारों की सुरक्षा पर विचार किया गया, लेकिन संधि में उसे शामिल नहीं किया गया। इसलिए न्यायाधिकरण ने निर्णय लिया कि दक्षिण चीन सागर के जल क्षेत्र में संसाधनों पर चीन के जो ऐतिहासिक अधिकार हैं, उनमें से उतने अधिकारों को खत्म कर दिया गया है, जो संधि में दिए गए विशिष्ट आर्थिक क्षेत्रों से मेल नहीं खाते। न्यायाधिकरण ने यह भी कहा कि इतिहास में चीन तथा अन्य देशों के समुद्रयात्री तथा मछुआरे दक्षिण चीन सागर के द्वीपों का प्रयोग करते थे, लेकिन इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि ऐतिहासिक रूप से चीन का जल क्षेत्र अथवा उसके संसाधनों पर इकलौता नियंत्रण था। न्यायाधिकरण इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि ‘9 डैश लाइन’ के भीतर स्थित समुद्री क्षेत्रों में मौजूद संसाधनों पर ऐतिहासिक अधिकारों के चीन के दावे का कोई कानूनी आधार नहीं है।”2
चीन एक पुराने और खुद तैयार किए गए नक्शे के सहारे दक्षिण चीन सागर पर अपने कब्जे का दावा करता है।
इस तरह न्यायाधिकरण का मुख्य तर्क यह था कि पहले से मौजूद अधिकारों को संधि में मान्यता नहीं दी गई है और इस बात का कोई प्रमाण नहंी है कि उन क्षेत्रों पर ऐतिहासिक रूप से चीन का नियंत्रण रहा है।
चीन ने फैसले को यह कहकर सिरे से खारिज कर दिया कि पीसीए ही गैर कानूनी है; विवाद उसके अधिकार क्षेत्र में नहीं आता; द्वीपों तथा उनके आसपास के जल क्षेत्र पर चीन का संप्रभु एवं ऐतिहासिक अधिकार है; अंतरराष्ट्रीय कानून एवं अंकलोस के अनुसार आचार संहिता पर बातचीत के लिए चीन आसियान के साथ मिलकर काम कर रहा है और क्षेत्रीय प्रकृति के विवाद में तीसरे पक्ष के हस्तक्षेप का कोई आधार नहीं है। उसके बाद से चीन ने तेजी से द्वीपों पर निर्माण कार्य आरंभ कर दिया है और सैन्य उपकरण भी लगा दिए हैं। आसियान का कोई भी देश दक्षिण चीन सागर में चीनी सेना को चुनौती देने की स्थिति में नहीं है। क्षेत्र में विभिन्न देशों के साथ सुरक्षा सहयोग रखने वाला अमेरिका भी चीन को कब्जाए गए द्वीपों में सेना तैनात करने से नहीं रोक पाया है।
हालांकि मध्यस्थता अदालत का निर्णय पूरी तरह फिलीपींस के पक्ष में था, लेकिन राष्ट्रपति दुतेर्ते के सत्ता में आने के बाद पालटी मारने वाला वही पहला देश था। कंबोलिया और लाओस पहले ही चीन के रुख के समर्थक रहे हैं, जबकि दूसरे देश मूक आपत्ति जताते रहे हैं। कूटनीतिक मोर्चे पर चीन ने आसियान तथा अलग-अलग देशों से दक्षिण चीन सागर के मसले पर बातचीत की बात कही है।
इसी बीच चीन और आसियान ने 2002 के डीओसी के ढांचे के भीतर ही आचार संहिता तैयार करने का प्रयास किया है। लेकिन अभी तक वे किसी सहमति पर नहीं पहुंच सके हैं।
आसियान असहाय होकर चीन को विवादित द्वीपों पर हमला करते और कब्जा करते देखता रहा है। अपने कब्जे को कानूनी करार देने के लिए चीन ने आसियान की ओर नए सिरे से पींगें बढ़ाई हैं। आसियान के भीतर मौजूद विरोधाभासों का और व्यापार एवं निवेश में आसियान तथा चीन की परस्पर निर्भरता का फायदा उठाते हुए चीन ने आसियान के पास नए संदेश भेजे। 2017 में दोनों पक्ष 2030 तक के चीन-आसियान संबंधों के लिए नया दृष्टिकोण एवं खाका बनाने पर सहमत हो गए। नवाचार एवं पर्यटन जैसे सहयोग के कई नए क्षेत्र पहचाने गए हैं।
2017 में चीन ने आचार संहिता पर अपना रुख बता दिया। चीन के विदेश मंत्री ने एक संवाददाता सम्मेलन में खुलासा किया कि सभी पक्ष आचार संहिता पर बातचीत के लिए रूपरेखा पर सहमत हो गए हैं। उन्होंने कहा, “हमने दक्षिण चीन सागर के मसले पर भी चर्चा की। सभी पक्षों ने दक्षिण चीन सागर पर मौजूदा सकारात्मक गति को पूर्ण स्वीकृति दे दी। सभी पक्ष दक्षिण चीन सागर में आचार संहिता के ढांचे से सहमत थे और उन्हें विश्वास था कि इससे भविष्य में आचार संहिता पर अधिकाधिक विमर्श की ठोस नींव पड़ेगी।” उन्होंने क्षेत्रीय विवाद के समाधान में बाहरी हस्तक्षेप को नकार दिया।
अप्रैल, 2018 में सिंगापुर के नेतृत्व में आसियान की 32वीं शिखर बैठक हुई। इस कठिन मुद्दे से निपटने के तरीके पर आसियान के भीतर आम सहमति की कमी स्पष्ट नजर आई। अध्यक्ष के बयान में “क्षेत्र के भीतर विश्वास तोड़ने वाली और तनाव बढ़ाने वाली गतिविधियों एवं भूमि कब्जे पर कुछ नेताओं द्वारा जताई गई चिंता पर केवल मामूली ध्यान दिया गया, लेकिन ध्यान भर दिया गया”, लेकिन “आसियान एवं चीन के बीच बढ़ते सहयोग का गर्मजोशी से स्वागत किया गया।” आसियान नेताओं को “दक्षिण चीन सागर में आपस में तय की गई समय-सीमा के भीतर जल्द से जल्द प्रभावी आचार संहिता तैयार करने की दिशा में महत्वपूर्ण बातचीत आधिकारिक रूप से आरंभ होने के कारण प्रोत्साहन मिला।”
इस तरह आज मामला ऐसा है। बहुप्रतीक्षित आचार संहिता पर आधिकारिक बातचीत जल्द शुरू हो सकती है। कोई नहीं बता सकता कि इसमें कितना समय लगेगा। इस बीच चीन का पलड़ा भारी है क्योंकि वह पहले ही द्वीपों पर कब्जा कर चुका है। आचार संहिता चीन के कब्जे को औपचारिक और कानूनी जामा ही पहनाएगी और आसियान देशों को सहयोग के बदले कुछ फायदे मिल जाएंगे। इससे यह संकेत भी मिलेगा कि बाहरी ताकतों का क्षेत्रीय विवाद से कोई लेना-देना नहीं है।
Post new comment