जर्मनी और कतर के साझा प्रयास से 7 से 8 जुलाई 2019 को दोहा में दो दिवसीय अंतर-अफगान संवाद का आयोजन किया गया था। इस संवाद ने अफगानिस्तान में पिछले 18 वर्षो से चले आ रहे रोजाना के खून-खराबे के अब खत्म हो जाने की उम्मीदों को लहका दिया है। अमेरिका, रूस, जर्मनी जैसी बड़ी शक्तियों; और इनके साथ ही अफगानिस्तान के लोग एवं गनी सरकार तक ने संवाद को बहुत बड़ी कामयाबी मानते हुए इसका खूब जश्न मनाया था।1 इसे व्यापक अर्थ में, तालिबान और अफगानिस्तान सरकार के बीच भविष्य में अधिक से अधिक औपचारिक संवाद कायम होने के एक प्रारम्भिक प्रयास के रूप में देखा जा रहा है। हालांकि हालिया सम्पन्न इस अंतर-अफगान संवाद को जरा करीब से नजर डालने पर अफगानिस्तान में अमन का रास्ता अभी भी बहुत लम्बा और बेहद कठिन मालूम पड़ता है।
शांति-वार्ता में, अंततोगत्वा, जो एक नुकसानदायक कदम हो सकता है, वह यह कि अंतर-अफगान वार्ता का कुछ अहम मसलों पर चर्चा करने में विफल रहना। मसलन, आगामी राष्ट्रपति चुनाव और देश में आतंकवादी समूहों की मौजूदगी जैसे मुद्दे पर बात तक नहीं की गई। इसके अलावा, देश में संघर्ष विराम लागू करने की अफगानिस्तानी लोगों, खुद गनी सरकार और यहां तक कि वैश्विक बिरादरी की चिर लम्बित मांगों को कोई तवज्जो नहीं दी गई।2 गौरतलब है कि दोहा में आयोजित अंतर-संवाद में तालिबान के 17 और अफगानिस्तान के 50 नुमाइंदों ने शिरकत की थी। अब चूंकि तालिबान इस जिद पर अड़ा है कि वह गनी सरकार से कोई सीधी बातचीत नहीं करेगा, लिहाजा अफगानिस्तान के नुमाइंदों ने सरकार के प्रतिनिधि तौर पर नहीं बल्कि निजी हैसियत से ही उस गुफ्तगू में हिस्सा लिया था।3 इसके बावजूद उन्होंने अनारकली होनारयार जैसे एक जातीय और धार्मिक अल्पसंख्यक, पंजाबी सिख अफगान के एक राजनीतिक,10 महिला प्रतिनिधियों, नागरिक समाज के सदस्यों, युवाओं, पत्रकारों और राजनीतिक कुलीनों समेत अफगानिस्तान के एक व्यापक हिस्से का प्रतिनिधित्व किया।4
दो दिवसीय संवाद में, औरतों के अधिकारों, नागरिक संरक्षण, संघर्ष विराम, विदेशी फौजों की वापसी और अमन कायम होने के बाद सरकार के गठन जैसे बड़े मसलों पर चर्चा की गई। संवाद के अंत में गैर-बाध्यकारी एक संयुक्त प्रस्ताव भी जारी किया गया। इसका मसौदा अफगान के छह नुमाइंदों और तालिबान के तीन सदस्यों ने मिल-जुल कर बनाया था। इसकी अध्यक्षता एक महिला प्रतिनिधि और अफगानिस्तान हाई पीस कौंसिल की उपाध्यक्षा हबीबा सराबी ने की।5
नागरिकों के हताहत होने की मौजूदा दर को घटा कर किस तरह शून्य स्तर पर लाया जाए, यह अंतर-अफगान संवाद के साझा प्रस्ताव का सबसे अहम मसला था। इसके साथ, ‘‘सार्वजनिक संस्थानों, जैसे स्कूलों, मदरसों, अस्पतालों, बाजारों, जलाशयों के बांध और कार्यस्थलों’’ की सुरक्षा सुनिश्चित करने पर भी जोर दिया गया।6 साझा घोषणा पत्र ने निश्चित ही अफगान समाज के सभी वर्गों, सरकार और विश्व बिरादरी की उम्मीदों को बढ़ा दिया है। यद्य़पि यह समझना महत्त्वपूर्ण है कि पिछले साल 2018 से शुरू हुई शांति-वार्ता के बाद से तालिबान ने इस दौरान अपने हिंसक हमले तेज करने की रणनीति पर अमल करता रहा है ताकि शांति वार्ता में समझौते की सूरत बनने पर वह अपने पक्ष में ज्यादा मोल-जोल करने की हैसियत में रह सके। दरअसल, दोहा का अंतर-अफगान संवाद काबुल और गजनी में तालिबान के दो नृशंस हमलों की पृष्ठभूमि में हुआ था। इसमें अनेक नागरिक मारे गए थे और कई स्कूली बच्चे भी लहूलुहान हुए थे।7
संयुक्त राष्ट्र ने अफगानिस्तान पर 2018 में जारी अपनी रिपोर्ट में दावा किया था कि ‘‘हताहत होने वाले सभी नागरिकों में 28 फीसद बच्चे थे, जिनमें 927 बच्चे मारे गए थे और 2,135 जख्मी हुए थे। वर्ष 2019 के पहले तीन महीने में तो शिक्षण संस्थानों पर 18 हमले किये गए थे। अफगानिस्तान में जारी खूनी संघर्ष में इन बच्चों की मौत विध्वंसकारी हथियारों के इस्तेमाल से हुई थी।’’8 इसके अलावा, 2018 में, स्कूलों में तालिबानी हमलों में 2017 के 68 हमलों के बनिस्बत 2018 में तीन गुना यानी 192 हमले किये गए थे।9 यूनिसेफ के प्रमुख हेनरिएट्टा फोर ने हाल में ही कहा है, ‘‘अफगानिस्तान में शिक्षा निशाने पर है। स्कूलों पर संवेदनहीन हमले, शिक्षकों की हत्या करना, उन्हें जख्मी कर देना और उनका बलात् अपहरण करना तथा तालिम के खिलाफ धमकियां देने के चलते बच्चों की मौजूदा पूरी पीढ़ी की उम्मीदों और सपने को नेस्तनाबूद कर रहा है।’’10
यह तब है जबकि तालिबान यह भयानक संघर्ष को तत्काल रोक देने के अफगान के नागरिक समाज, यहां तक की सरकार और अंतरराष्ट्रीय समुदाय की मांगें मानने से लगातार इनकार करता आया है। इस बात की संभावना ज्यादा है कि मनपसंद या ठोस परिणाम हासिल किये बगैर संघर्ष विराम पर सहमत न होने के लिए तालिबान नेतृत्व पर उनके कमांडरों का दबाव हो। अत: अमन की दिशा में आगे बढ़ने के पहले देश में हिंसा को रोकने और सार्वजनिक संस्थानों की इज्जत करने के प्रति तालिबान के दावे की गंभीरता को स्थापित करने की आवश्यकता है। अंतरराष्ट्रीय समुदाय का तालिबान के तुष्टीकरण के बजाय इस सशस्त्र समूह के साथ दाम और दंड की नीति अख्तियार करना उतना ही महत्त्वपूर्ण है, ताकि सफल नतीजे मिल सकें।
इसी तरह, एक बड़ा ही प्रबल डील-ब्रेकिंग मसला था, अफगानिस्तान के अगले राष्ट्रपति के चुनाव का, जिसे अंतर-अफगान संवाद के दौरान दोनों ही पक्षों ने पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया। राष्ट्रपति गनी ने हाल ही में कहा है कि पहले दो बार स्थगित होने के बाद अफगानिस्तान में राष्ट्रपति चुनाव 28 सितम्बर 2019 को होंगे और इसमें कोई विलम्ब नहीं किया
जाएगा।11 उनकी इस घोषणा के मुताबिक ही तय समय पर चुनाव कराने के लिए स्वतंत्र निर्वाचन आयोग (इंडिपेन्डेंट इलेक्शन कमीशन/आइईसी) ने मतदाता सूची में संशोधन-सुधार का काम शुरू कर दिया है, 9 मिलियन अफगानों को मतदाता सूची में शामिल किया गया है, बायोमीट्रिक उपकरणों की खरीद के लिए 30 मिलियन डॉलर धन का भी आवंटन किया गया है और प्रांतीय चुनाव आयोग के लिए 11 नये आयुक्तों की नियुक्ति की गई है।12 आइईसी ने राष्ट्रपति चुनाव के लिए 149 मिलियन डॉलर व्यय का प्राक्कलन किया है, जिसमें 90 मिलियन डॉलर अफगानिस्तान सरकार देगी और शेष राशि की पूर्ति अंतरराष्ट्रीय समुदाय करेगा।13 इसके पहले, स्वतंत्र चुनाव आयोग ने राष्ट्रपति पद के लिए 18 प्रत्याशियों का नामांकन स्वीकृत किया था। इनमें मौजूदा राष्ट्रपति गनी, मुख्य कार्यकारी अब्दुल्लाह अब्दुल्लाह और पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हनीफ अतमर समेत अन्य लोग शामिल हैं।
अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोम्पियो ने जून 2019 में अफगानिस्तान के अपने दौरे के दौरान यह संकेत दिया था कि उनका देश चाहता है कि 1 सितम्बर 2019 तक यानी राष्ट्रपति चुनाव के पहले ही तालिबान से कोई समझौता हो जाए।14 हालांकि राष्ट्रपति चुनाव के पहले शांति समझौता अफगानिस्तान में भानुमति का पिटारा खोल देगा। इसलिए कि तालिबान आगामी राष्ट्रपति के निर्वाचन समेत देश की सभी चुनावी प्रक्रियाओं को लगातार खारिज करता आया है। इसके साथ ही, उसने अफगानिस्तान के संविधान को पश्चिमी ताकतों का देश में बोलबाला बढ़ाने वाला करार देते हुए उसे मानने से इनकार कर दिया है।
दोहा में हुआ अंतर-अफगान संवाद अफगानिस्तान में भविष्य की सरकारों का स्वरूप तय करने में विफल रहा है। तालिबान देश की मौजूदा गणतांत्रिक लोकतांत्रिक व्यवस्था को ध्वस्त कर इस्लामिक अमीरात की हुकूमत लाने पर जोर देता है। ऐसे में राष्ट्रपति चुनाव के पहले शांति समझौता करने का मतलब इन सभी विवादित मसलों का एकमुश्त हल करना होगा। राष्ट्रपति चुनाव और शांति समझौतों से सम्बन्धित किसी स्पष्ट रोड मैप के अभाव में देश को अराजकता के भंवर में फंसा सकता है। मौजूदा समय में जबकि अमेरिका तालिबान के साथ बातचीत का आयोजन कर रहा है, तो यह बेहद अहम होगा कि किसी भी बहाने अफगानिस्तान में राष्ट्रपति का चुनाव स्थगित और निलम्बित न हों। इसलिए कि केवल स्वतंत्र और निष्पक्ष राष्ट्रपति चुनाव ही देश में वांछित लोकतांत्रिक राजनीतिक ढांचे की वैधानिकता को स्थापित कर सकता है।
अमेरिका चाहता है कि तालिबान इसकी गारंटी दे कि वह किसी भी आतंकवादी समूहों को बाहरी देश पर हमले में अफगानिस्तान की सरजमीं के इस्तेमाल की इजाजत नहीं देगा। अफगानिस्तान के राजनीतिक कुलीनों, क्षेत्र के देशों और अंतरराष्ट्रीय समुदाय की यह सबसे बड़ी चिंता का विषय है; क्योंकि इसी तालिबान का अफगानिस्तानी भू भाग में अल कायदा से हुए गठजोड़ के बाद अमेरिका को 2001 में यहां जमे रहने पर विवश कर दिया था। यद्यपि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की अमेरिका से सात बार की बातचीत के बाद यह राय है कि तालिबान ‘‘अफगानिस्तान में सक्रिय सभी विदेश आतंकवादी समूहों-अपवाद केवल इस्लामिक स्टेट-का प्राथमिक साझेदार रहेगा’’ और यह कि “तालिबान की छत्रछाया में अल-कायदा अफगानिस्तान के बाहर भी ताकतवर हो गया है, बल्कि यह पिछले सालों के बनिस्बत और ज्यादा सक्रिय हो गया है। यह अफगानिस्तान-पाकिस्तान के सीमावर्ती हलकों में लश्कर-ए-तैय्यबा और हक्कानी नेटवर्क के साथ सघन सम्बन्ध बना रहा है। तालिबान के कर्मियों और उनके परिजनों के लिए अल-कायदा के सदस्य निर्देशक और उपदेशक की भूमिका निभाते हैं।” 15
अफगानिस्तान में शांति और सद्भाव कायम करने की गरज से तैनात अमेरिका के स्थायी प्रतिनिधि जलमे खालिजाद ने अमेरिका-तालिबान के बीच ताजा बातचीत के दौर को ‘‘बेहद उत्पादक’’ बताया है, जिसमें ‘‘ढेर सारी तरक्की’’ हासिल हुई है।16 हालांकि अमेरिका के साथ सात दौरों की शांति वार्ता के बावजूद तालिबान अगर अल-कायदा जैसे आतंकवादी समूहों के साथ अपनी सांठगांठ बरकरार रखे हुए है तो अमेरिका की अगुवाई में अफगानिस्तान में शांति स्थापना की उसकी पहल और वास्तविक लक्ष्यों को लेकर कुछ गंभीर सवाल खड़े होते हैं। ठीक इसी तरह, तालिबान का स्वयं को एक राष्ट्रवादी ताकत के रूप में परिष्करण के उसके दावे के दोहरेपन उजागर करता है। तो इन सवालों और सरोकारों की फिक्र किये बिना अफगानिस्तान में जल्दबाजी में किया गया शांति-समझौता अमेरिका के हितों और क्षेत्रीय देशों की सुरक्षा के लिए अधिक हानिकारक होगा।
दोहा में तालिबान और अफगानिस्तान के शिष्टमंडलों के बीच हुए संवाद ने भविष्य में सशस्त्र समूह और गनी सरकार के बीच होने वाली औपचारिक वार्ताओं की उम्मीदें बढ़ा दी हैं। यह भी कि इस संवाद के जरिये परस्पर विश्वास बहाली के कुछ परिणाम भी मिले हैं; जैसे कि जेल से बुजुर्गों, अपंगों और बीमार कैदियों की बिना शर्त रिहाई।17 इसके अलावा, तालिबान ने राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में महिलाओं के अधिकारों पर जोर दिया है; पर इस्लाम के दायरे में ही।18 निस्संदेह ये सब शांति-प्रक्रिया की अहम उपलब्धियां हैं। हालांकि इस वक्त सबसे अहम काम व्यावहारिक उपायों के आधार पर शांति वार्ताओं में प्रगति लाने का है ताकि भविष्य में होने वाली चूकें या रुकावटें आड़े न आएं। तालिबान का महिलाओं अधिकारों, मानवाधिकारों, मीडिया की आजादी, अभिव्यक्ति और बोलने की स्वतंत्रता जैसे अहम मसलों को इस्लामिक कायदे-कानूनों और सिद्धांतों के दायरे में रखने पर जोर देना शक पैदा करता है कि यह हथियारबंद समूह भविष्य में इसका इस्तेमाल इन स्वतंत्रताओं को संकुचित करने में करेगा।
इसके अलावा, तालिबान ने अभी तक एक भी ऐसा काम नहीं किया है, जिससे कि उसके परिष्कृत क्रिया-कलापों या परिवर्तित वैश्विक नजरिये का पता चल सके। इसके विपरीत, तालिबान ने अफगानिस्तान के मीडिया घरानों को यह धमकी दी है कि उसके खिलाफ कुछ छापना खुद उनके विरुद्ध ‘‘दुष्प्रचार’’ माना जाएगा।19 अफगानिस्तान में जारी जंग को लेकर राजनीतिक समर्थन के अभाव की पृष्ठभूमि में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की घरेलू राजनीतिक बाध्यता ने हथियारबंद समूह को जैसे यह आश्वस्त कर दिया है कि वह अमेरिका के साथ बातचीत में अपनी शर्तें थोप सकता है। अत: आतंकवादी समूहों को समर्थन की तिलांजलि देने, महिला अधिकारों, मानवाधिकारों, संघर्ष-विराम और अफगान संविधान को मानने जैसे अनेक असल मुद्दों पर वास्तविक प्रतिबद्धता जताये बिना तालिबान ने कुछ खास अंतरराष्ट्रीय वैधता हासिल कर ली है। इस अर्थ में कि आज अमेरिका, चीन, रूस समेत ईरान जैसे कुछ क्षेत्रीय देश उसके साथ वार्ता कर रहे हैं।
आखिरकार, तालिबान एकाश्मीय समूह नहीं है, इसलिए तालिबान नेतृत्व की अपने सभी धड़ों में अमेरिका के प्रस्तावित शांति समझौतों को मंजूर न करा सकने की अक्षमता पूरी शांति प्रक्रिया को ठप कर सकती है। इस क्षण जो महत्त्वपूर्ण है, वह कि तालिबान को और अंतरराष्ट्रीय वैधानिकता का अनुग्रह करने के पहले उसका तुष्टिकरण रोका जाए और उससे उसके ठोस परिष्कृत रुख के साक्ष्य मांगे जाए।
(The paper is the author’s individual scholastic articulation. The author certifies that the article/paper is original in content, unpublished and it has not been submitted for publication/web upload elsewhere, and that the facts and figures quoted are duly referenced, as needed, and are believed to be correct). (The paper does not necessarily represent the organisational stance... More >>
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