द्विपक्षीय संबंध नई ऊँचाइयों को छुए इसके लिए किस बात की ज़रूरत होती है? हाल की स्थितियों को देखते हुए दक्षिण एशिया के अगर कोई दो पड़ोसी अपने संबंधों को नया आयाम दे सकते थे तो वे भारत और बांग्लादेश थे। अगर चाहें तो वे अभी भी ऐसा कर सकते हैं। दोनों देशों के बीच विभिन्न क्षेत्रों में जिस तरह के व्यापक सम्पर्क हो रहे थे, उसको देखकर लगता है कि भारत-बांग्लादेश के संबंधों ने निश्चित रूप से नई ऊँचाइयों को छुआ है और वे एक सुखद मोड़ पर खड़े हैं। पर हाल की अपनी बांग्लादेश-यात्रा के दौरान भविष्य के बारे में मैने कई तरह की आशंकाओं की बात सुनी। बांग्लादेश के राजनीतिक संभ्रांत वर्ग और वहाँ का नागरिक समाज द्विपक्षीय संबंधों को लेकर हमेशा ही मुखर और आगे रहा है। पर इस समय यह सब कुछ देखने को नहीं मिला। दोनों देशों के नेताओं के एक-दूसरे के देशों में लगातार आने-जाने से द्विपक्षीय संबंधों में व्यापक सुधार आया और बहुत सारे समझौते हुए हैं। पर इस बार वह गर्मजोशी ग़ायब दिखी।
दोनों पड़ोसियों ने 1970 के दशक के बाद से काफ़ी लंबी दूरी साथ तय की है। पिछले पाँच दशक के दौरान एक-दूसरे का नैतिक और भौतिक संबल बनना, संबंधों को मज़बूत करना और क्षेत्रीय सहयोग का मार्ग प्रशस्त करना कोई छोटी उपलब्धि नहीं है। पर कितना गहरा है यह द्विपक्षीय संबंध? दोनों ही देशों के मन में अभी भी बहुत सारे संदेह मौजूद हैं। बांग्लादेश में इस बात को लेकर चिंता रही है कि वह उसे ज्यादा तो कुछ देना नहीं चाहता पर उससे लाभ उठाना चाहता है। बांग्लादेश की भारत के प्रति यह चिंता और उसका चीन की ओर बढ़ता झुकाव दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय सहयोग को कमज़ोर कर रहा है। दोनों देशों के बीच जो द्विपक्षीय मुद्दे हैं, उन्हें सुलझाया जा सकता है पर दोनों के बीच बढ़ता सहयोग उनके बीच अविश्वास को कम नहीं कर पा रहा है। शुरू से ही द्विपक्षीय संबंधों पर यह असर डालता रहा है। हालाँकि, वर्तमान द्विपक्षीय संबंधों को दोनों पड़ोसियों के बीच अब तक का सबसे बेहतर संबंध माना जा रहा है, पर एक-दूसरे के प्रति संदेह अभी भी कहीं न कहीं बचा हुआ है। क्या यह घरेलू राजनीति की वजह से है? या इसका कोई गहरा कारण है?
बांग्लादेश को इस समय जो लगता है उसके अनुसार भारत-बांग्लादेश संबंधों में वर्तमान गरमाहट का श्रेय भारतीय नेताओं के साथ प्रधानमंत्री शेख हसीना के अच्छे ताल्लुक़ात को दिया जा रहा है। प्रधानमंत्री मोदी की मानें, तो भारत के क्षेत्रीय प्रसार के लिए बांग्लादेश से अच्छे संबंध ज़रूरी हैं। ये दोनों नेता खुद को अपने-अपने अलग अन्दाज़ में पेश करते हैं। बांग्लादेश को लगता है कि चीन को केंद्र में रखकर भारत से वह अच्छा मोल-भाव कर सकता है। ठीक इसी तरह, मोदी अपने दोनों ही कार्यकाल में पड़ोसियों के साथ अपनी नीतियों के संदर्भ में बांग्लादेश को केंद्र में रखते रहे हैं।
प्रधानमंत्री हसीना अगले माह भारत की यात्रा पर आनेवाली हैं जो मोदी के दूसरे कार्यकाल में उनकी पहली यात्रा होगी। अन्य शेष द्विपक्षीय मामलों के अलावा जल बँटवारे का मुद्दा महत्त्वपूर्ण होगा। तीस्ता का मुद्दा काफ़ी दिनों से दोनों देशों के बीच अटका पड़ा है पर पश्चिम बंगाल की असहमति के कारण तीस्ता जल बँटवारे पर कोई प्रगति नहीं हो पाई है। ऐसी अटकलें लगाई जा रही हैं कि भारत-बांग्लादेश 54 ऐसी नदियों के बारे में व्यापक समझौते पर हस्ताक्षर कर सकते हैं जिनका संबंध दोनों देशों से है। इन नदियों के बेसिनवार प्रबंध पर समझौता इस घटते संसाधन के उपयोग के बारे में अधिक व्यावहारिक होगा। यह इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि दोनों ही देशों की कृषि पर निर्भरता अधिक है।
भारत के शीर्ष नेताओं ने नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटिज़ेन (एनआरसी) को असम में लागू करने और बांग्लादेश पर इसके प्रभावों को लेकर उसकी चिंताओं को दूर कर दिया है, पर आम लोग इन बातों से संतुष्ट नहीं हैं। इसी तरह रोहिंग्या संकट से निपटने में भारत से किसी भी तरह की मदद नहीं मिलने और सभी रोहिंग्या शरणार्थियों को वापस भेज देने का भारत का ऐलान म्यांमार की सीमा की प्रकृति को देखते हुए खोखला लगता है। ज़मीनी हालात को बदलने के प्रति भारतीय अक्षमता से वे भली भाँति परिचित हैं और चूँकि संयुक्त राष्ट्र उच्चायुक्त द्वारा चलाए जा रहे शरणार्थियों शिविरों में अभी भी शरणार्थियों का आना जारी है, बांग्लादेश को यह समस्या भारी पड़ रही है।
भारत-बांग्लादेश के बीच द्विपक्षीय व्यापारिक संबंध मज़बूत हो रहे हैं और पहली बार बांग्लादेश ने एक अरब डॉलर से ज्य़ादा मूल्य की वस्तुओं का निर्यात भारत को किया है जिनमें सिले-सिलाए वस्त्र और कपड़े मुख्य रूप से शामिल हैं। बांग्लादेश को भारत से सबसे ज्य़ादा ऋण ( .8 अरब) प्राप्त होता है। इस ऋण का अधिकांश हिस्सा ऊर्जा और परिवहन क्षेत्र में प्रयोग होता है। लोगों का इसका भारी लाभ हो रहा है और आगे भी होगा। विकास परियोजनाओं के अलावा भारत, जापान और बांग्लादेश मिलकर वहाँ आम परिवहन परियोजना का निर्माण कर रहे हैं, जिससे वहाँ के आम लोगों को लाभ होगा पर इसके बावजूद आम लोगों में द्विपक्षीय संबंधों को लेकर शिथिलता अचंभित करती है। वर्तमान बांग्लादेश सरकार को आम लोगों का समर्थन नहीं मिलने का असर भारत पर भी पड़ रहा है। मूल प्रश्न हमेशा ही यह रहा है कि ऐसा समय कब आएगा जब भारत-बांग्लादेश के बीच संबंध अटूट हो जाएँगे? दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय संबंधों में आई तेज़ी के बावजूद इसकी प्रभावोत्पादकता के बारे में निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता। बांग्लादेश में चीन की बढ़ती दिलचस्पी से भारत-बांग्लादेश के बीच संबंधों को मज़बूती नहीं मिल रही है।
इस बीच भारत ने बांग्लादेश के साथ प्रतिरक्षा संबंध भी मज़बूत किया है। और जब ऐसा लग रहा था कि दोनों देशों के बीच सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा है, बांग्लादेश ने चीन के साथ व्यापक व्यापार और प्रतिरक्षा समझौता कर लिया है। विलंब से 1975 में शुरू होने के बावजूद, आज चीन बांग्लादेश का एक विसनीय साझीदार बन गया है। भौगोलिक दूरी और दोनों के बीच इतिहास का अभाव इनके बीच द्विपक्षीय संबंधों को प्रगाढ़ बनाने में मदद की है। दूर से देखने पर, ऐसा लगता है कि भारत और चीन दोनों ही बांग्लादेश की कृपा प्राप्त करने के लिए प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं और लग रहा है कि एक नई बात हो रही है। बंदरगाहों, सड़कों, रेलवे, पुलों और आर्थिक क्षेत्रों के निर्माण में सहयोग के साथ ही भारत और चीन के बीच यह दायरा हर दिन बढ़ रहा है। पर इस बात को कोई भी देख सकता है कि बांग्लादेश के रक्षा साझीदार के रूप में वहाँ चीन की भूमिका का काफ़ी विस्तार हो रहा है।
इस रिपोर्ट ने भारत को चिंता में डाल दिया है कि बांग्लादेश को चीन ने जो तीन पंडुब्बियाँ बेची थीं, उसके लिए चीन वहाँ बेस बना रहा है। चीन भारत के खिलाफ़ बांग्लादेश का प्रयोग कर सकता है, यह चिंता हमेशा से रही है। विशेषकर अगर बांग्लादेश में ग़ैर-अवामी सरकार सत्ता में आती है तो। दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय समझौते तो होते रहेंगे, पर क्या अब समय नहीं आ गया है जब भारत-बांग्लादेश इस क्षेत्र में एक प्रतिरक्षा ढाँचे में साझीदार बनें जो दूसरों को बहुपक्षीय ताक़त तो बनाए पर आनुषांगिक विध्वंस न करे? इस समय इस कार्य को मोदी और हसीना से बेहतर और कोई नहीं कर सकता। दोनों पक्षों को द्विपक्षीय संबंधों की दैनिक बातों से आगे जाकर ऐसे प्रश्नों का उत्तर देना होगा जो एशियाई ताक़तों की समझ के अनुरूप हो। सत्ता में बने रहने और एक-दूसरे को पीछे छोड़ने की रेस में शामिल होने से किसी को कोई फ़ायदा होनेवाला नहीं है। क्या मोदी और हसीना क्षेत्रीय गतिशीलता को बदलने और एक अलग तरह का क्षेत्र बनाने के लिए किसी योजना को सामने रखेंगे? दोनों पक्षों को चाहिए कि वे इस अवसर को हाथ से नहीं निकलने दें।
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