नव-सेना में बदलाव को सुधारना
Lt Gen (Dr) Rakesh Sharma (Retd.), Distinguished Fellow, VIF

सेना में सुधार का मतलब है उसकी प्रकृति और रूप में स्पष्ट बदलाव लाना-जो अमूमन उसकी बेहतरी के लिए और विरासत की व्यवस्था से दूर हटने के लिए होता है। सामान्यतया, बदलाव लानेवाले इस सुधार का स्वरूप सैनिक स्वरूप में बदलाव के इस बात से जुड़ा है कि “लड़ाई का हमारा तरीक़ा क्या होगा”। बदलाव लानेवाले विचार साधारणतया नए और बेहतर जहाज़, टैंक और युद्धक विमानों की ज़रूरत पर एक मत होते हैं। पर युद्ध लड़ने के सिद्धांत और रणनीतियों के संदर्भ में रूपांतरण बहुस्तरीय होता है (उदाहरण के लिए सक्रियता की रणनीति), व्यापक तकनीकी परिवर्तन (जैसे सूचना युद्ध के रूप में) या धीमी तीव्रता वाले काउंटर इन्सर्जेंसी (जैसे भारत में राष्ट्रीय राइफ़ल-आरआर का गठन)। अब के बाद से भारतीय सेना का जो रूपांतरण होगा, वह बहुत ही दिलचस्प है-सामान्य सैनिकों के स्तर पर मानव संसाधन में आमूलचूल परिवर्तन इसकी अगुवाई करेगा। आधुनिक अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में ऐसा कोई एक उल्लेखनीय उदाहरण देखने में नहीं आता जिसके माध्यम से जो बदलाव हो रहा है उसको समझा जा सके!

पर मज़मून स्पष्ट है। यह बताता है कि कॉंट्रैक्ट पर चार साल के लिए अखिल भारतीय स्तर पर सभी वर्ग़ों (एआईएसी) के लिए ‘कर्तव्य निर्वहन’ नामक सैनिकों की बहाली का निर्णय ले लिया गया है और अब इसे किस तरह लागू किया जाए इस पर विचार हो रहा है। इस समय इस बदलाव बारे में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विरोधी दलील को दुहराना भी अनावश्यक है। इसका समय बीत चुका है, सेना के अतिरिक्त वजन की कटाई-छँटाई होगी जो वैसे ही है जैसे मनुष्य की त्वचा से अतिरिक्त वसा को हटाना जिसे ‘लायपोसक्शन’ कहा जाता है। किसी संगठन को हमेशा ही अपनी युवावस्था में बनाये रखने और अपने दो विरोधियों के ख़िलाफ़ हमेशा ही प्रतिबद्ध होने के फ़ायदे से लाभान्वित होने के लिए इसका सुव्यवस्थीकरण जरूरी है। संदर्भ को देखते हुए ये दो विपरीत सूत्र हैं “कर्तव्य निर्वहन” और एआईएसी जिनकी जाँच-पड़ताल और इनमें वाजिब बदलाव के सुझाव की ज़रूरत है।

इनमें पहला है ‘कर्तव्य निर्वहन’ को लागू करना। यहाँ सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण मुद्दा यह है कि जिन लोगों को निकाला जाएगा, उन्हें आवश्यक रूप से अन्यत्र उपयुक्त नौकरी देना और इसी पर इस योजना की सफलता निर्भर करेगी। भारतीय समाज महत्त्वाकांक्षी समाज है और इसलिए छँटनी के बाद नौकरी दिए जाने के निश्चित आश्वासन को भर्ती के नियमों और शर्तों में शामिल किया जाना चाहिए ताकि यह इस सेवा में आनेवाले लोगों के लिए यह सबसे बड़ी प्रेरणा बने। चार साल तक प्रशिक्षण लेने वाला अनुभवी सिपाही अगर सड़कों पर बिना किसी रोज़गार के घूमेगा तो वह ग़लत काम करने को उद्यत हो सकता है और वह समाज के लिए हानिकारक होगा। फिर, कॉंट्रैक्ट के ये सिपाही अगर युद्ध के दौरान विकलांग हो जाते हैं या इनकी मौत हो जाती है तो उस स्थिति में इनके सेना से बाहर होने का सम्माजनक रास्ता होना चाहिए या इसके बाद इनके आश्रितों के लिए पर्याप्त सुविधा का आवश्यक रूप से प्रावधान होना चाहिए। जिन्होंने देश की सेवा की है उनके सम्मान के लिए यह बुनियादी प्रतिबद्धता है, भले ही वे कॉंट्रैक्ट पर ही काम क्यों नहीं कर रहे हों।

कॉंट्रैक्ट पर ‘कर्तव्य निर्वहन’ के लिए रखे जाने के बाद सैनिक बनने तक का बदलाव भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है। ज़ाहिर है कि सेवा में भर्ती किए जानेवाले सैनिक अपने सेवा के कॉंट्रैक्ट से निर्देशित होंगे और ऐसा नहीं लगेगा कि वे सेना में अंतिम रूप से पंजीकृत हैं। चार साल की अवधि के पूर होने के बाद पूरे बैच (आँकड़ों के अनुसार वार्षिक 60,000 पर इसमें बदलाव संभव है) को केंद्रीकृत भर्ती या पुनर्भर्ती की प्रक्रिया से गुजरना होगा ताकि इनमें से 25 फीसदी (या 50 फीसदी जो भी तय किया जाता है) का चुनाव किया जा सके। पुनर्भर्ती की प्रक्रिया के तरीक़ों का स्पष्ट उल्लेख होना चाहिए ताकि सैनिक उसके लिए अपनी तैयारी कर सकें। इसमें शारीरिक तंदुरुस्ती की जाँच/शारीरिक माप के मानदंडों, लिखित परीक्षा-मेडिकल-मेरिट मॉडल को दुहराने की ज़रूरत नहीं होनी चाहिए। किसी भी सूरत में, भर्ती की व्यवस्था में बदलाव की ज़रूरत होगी जिसमें पहले कंप्यूटर आधारित आम प्रवेश परीक्षा ली जा सकती है ताकि शारीरिक और मेडिकल जाँच के लिए सिर्फ इतनी संख्या में उम्मीदवारों का चुनाव किया जा सके जिनको मैनेज करना आसान हो।

ऐसा लगता है कि चार साल के लिए चुने गए सैनिक एक नयी शुरुआत करेंगे और कॉंट्रैक्ट अवधि वाले उनके शुरुआती चार साल को ध्यान में नहीं रखा जाएगा-ताकि कॉंट्रैक्ट और औपचारिक बहाली के बीच अंतर किया जा सके! यह एक ऐसी व्यवस्था है जो बाद में मुश्किल पैदा कर सकती है या यह पेंशन जैसी सुविधा प्राप्त करने की गरज़ से काफ़ी संख्या में मुक़दमेबाज़ी को भी जन्म दे सकता है अगर कॉंट्रैक्ट की अवधि का नियमितीकरण नहीं किया गया तो। जिनको सेवा में रख लिया जाएगा उनके लिए यह परिवर्तन निर्बाध होना चाहिए और मेडल प्राप्त करने या पुरस्कार या यहाँ तक कि मामूली दंड दिए जाने की ज़िम्मेदारी में भी उन्हें शामिल किया जाना चाहिए।

दूसरा बड़ा मुद्दा है एआईएसी में भर्तियों का। यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि मिश्रित श्रेणी के रेजिमेंटों ने बहुत ही अच्छा प्रदर्शन किया है और एआईएसी भर्ती की एक स्वीकार्य व्यवस्था होनी चाहिए। पर एआईएसी में संतुलन के बिगड़ने की आशंका हो सकती है क्योंकि ऐसे क्षेत्र या राज्य हो सकते हैं जहां के प्रत्याशी शारीरिक जाँच और/या लिखित परीक्षा में शैक्षिक योग्यता में अव्वल आएँ। एआईएसी ऐसे प्रत्याशियों या राज्यों के लिए लाभदायक सिद्ध होगा और यह राष्ट्रीय प्रतिनिधित्व की उम्मीद पर खड़ा नहीं उतरेगा। अगर प्रयास राष्ट्रीय, क्षेत्रीय और राज्यवार भर्ती में संतुलन लाने का है तो एआईएसी अंततः यथास्थिति क़ायम रखनेवाला साबित होगा और यह सिर्फ कुछ राज्यों या क्षेत्रों को ही लाभ पहुँचाएगा।

राष्ट्रीय जनगणना पर आधारित मौजूदा भर्ती योग्य पुरुष जनसंख्या (आरएमपी) घटक एक आदर्श रूप से विकसित मॉडल है, जिसमें हर राज्य को उनकी जनसंख्या के अनुरूप वार्षिक भर्ती का निर्धारित कोटा आवंटित है। एआईएसी के भिन्न रूप में, भर्ती के लिए रिक्तियों को राज्य के बाशिंदों के लिए आवंटित किया जा सकता है, लेकिन राज्य में होनेवाले चयन मेरिट के आधार पर होने चाहिए और यह व्यवस्था वर्तमान वर्गीय-आधार पर रेजिमेंट को बढ़ावा देनेवाला नहीं होना चाहिए। उदाहरण के लिए, पंजाब राज्य का आरआएमपी 2.5 है और उसे हर साल 1200 की भर्ती का कोटा मिलेगा जबकि गुजरात (दादर और नागर हवेली, दमन और दीव सहित) का आरएमपी मान लीजिए कि 5.0 है तो उस स्थिति में उसे 2400 लोगों की भर्ती का कोटा प्राप्त होगा (यह वार्षिक अनुमान पर निर्भर करेगा) अगर भर्ती मेरिट के आधार पर हो रहा है तो। राज्यों से कम भर्तियों जैसी ख़ामियों को दूर करने के लिए प्रक्रियागत संशोधन किए जा सकते हैं।

एआईएसी की इस नयी व्यवस्था में कई इन्फ़ंट्री, आर्मर्ड, मेकेनाइज्ड इन्फ़ंट्री, आर्टिलरी रेजीमेंट्स और इंजिनीयर्स कोर की प्रकृति और इनके स्वरूप बहुत नाटकीय रूप से बदल जाएंगे। इन रेजिमेंटों के अपनी संस्कृति और इतिहास रहे हैं, जो सदियों से चले आ रहे हैं और स्वतंत्रता-बाद के अवधि में उनकी वीरता, रन कौशल और युद्ध सम्मान पर आधारित हैं। ज़ाहिर है, सिख रेजीमेंट्स या गोरखा राइफ़ल्स को एआईएसी के गठन के बाद उन नामों से बुलाने का कोई मतलब नहीं होगा। ये रेजीमेंट्स फ़ील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ के समादृत नाम का गर्व से धारण करते हैं!

क्या यह संभव है कि अपने मूल वर्ग के कुछ प्रतिशत, जिनका चुनाव अब एआईएसी के माध्यम से होगा, के साथ ये रेजीमेंट्स अपने मौलिक चरित्र को बनाए रखें? यह बहुत आसानी से कहा जा सकता है कि एआईएसी के आधार पर राज्यवार भर्ती से अपव्यय (हर वर्ष होनेवाले रिटायरमेंट), उदाहरण के लिए 23 बटालियन वाले रेजिमेंट, को बनाए रखना संभव नहीं होगा। हालाँकि, 23 बटालियन वाले रेजिमेंट में 7-8 बटालियनों को समाप्त करना संभव हो पाएगा। या सीधे-सीधे कहें तो अगर किसी रेजिमेंट में एक वर्ग के सैनिकों की संख्या अगर 22,000 है तो वह अब भी इसमें से उस वर्ग के 7,000 लोगों को रखा जा सकता है और शेष एआईएसी से आएँगे। भर्ती की इस तरह की शर्तों में, जो कि आरएमपी-एआईएसी पर आधारित होगी, रेजिमेंट के गौरवपूर्ण नाम को जारी रखना अब भी संभव होगा भले ही एकल वर्ग की संख्या एक-तिहाई ही क्यों न रह जाए या इससे भी कम हो जाए। इसलिए, जम्मू एवं कश्मीर राइफ़ल्स, डोगरा, पंजाब, राजपूत, गोरखा राइफ़ल्स एवं अन्य अपनी वृहत्तर पहचान बनाए रख सकते हैं और इस तरह भारतीय सेना की भी पहचान बनी रह पाएगी। कुछ रेजीमेंट्स को समाप्त करना या उनका नाम बदलना जरूरी हो सकता है और अंततः यह भर्ती की प्रक्रिया पर निर्भर करेगा। यह कहना आवश्यक नहीं है कि इस प्रस्ताव में तफ़सील, आंकड़े और इसकी आगे और पड़ताल की ज़रूरत होगी और उस स्थिति में यह संभव हो सकता है।

फिर इनके संगठन में भी विशिष्टताएँ हैं, जिनको बनाए रखने की ज़रूरत होगी। जम्मू एवं कश्मीर लाइट इन्फ़ंट्री, टेरिटोरीयल आर्मी (होम एंड हर्थ) बटालियन्स, स्काउट्स यूनिट (लद्दाख़, गढ़वाल राइफ़ल्स, कुमाऊँ, सिक्किम एवं अरुणाचल) की विशिष्ट भूमिकाएँ और औचित्य हैं और वे माटी के सपूत की परिकल्पना को मानते हैं। किसी भी बदलाव को इस विशिष्टताओं को ऑपरेशन की दृष्टि से आवश्यक समझना चाहिए और इसकी अनुमति देनी चाहिए।

कुल मिलाकर ‘कर्तव्य निर्वहन’ और एआईएसी के द्वारा भर्ती सेना में आमूल बदलाव लाएँगे। इस तरह के बदलाव में विभाजक रेखा अकादमिक रूप से शीर्ष से नीचे तक होनेवाला बदलाव और शांति और युद्ध के समय सेना की भूमिका होनी चाहिए। अंततः, सेना में बदलाव लाने और इसके अनुरूप खुद को ढालने का माद्दा है। हालाँकि, लोगों के लिए सेना एक प्रतिष्ठापूर्ण सेवा बनी रहे, यह जरूरी है जिसमें शामिल होकर ग्रामीण युवाओं को गौरव का एहसास होता है। कॉंट्रैक्ट की समाप्ति को उसका समुदाय उस व्यक्ति के लिए कलंक नहीं माने क्योंकि अगर ऐसा होता है तो यह राष्ट्र निर्माण के ख़िलाफ़ जाएगा। व्यवस्था को प्रशिक्षित और अनुशासित युवाओं का लाभ उठाना चाहिए और ऐसा उनको सुनिश्चित अवसर देकर किया जा सकता है।

भर्ती में बदलाव की जहां तक बात है, अधिकांश सेना एआईएसी है और इन यूनिट्स में पूरा तालमेल है। फिर भी, इनके अपने चरित्र हैं और एकल या बहुवर्गीय रेजीमेंट्स के अपने कमाए गौरव हैं। कहा जाता है कि इन रेजीमेंट्स की संस्कृति को आरएमपी-एआईएसी के सटीक नियमों के तहत डोमिसाइल-आधारित भर्ती में बनाए रखा जा सकता है। नव-सेना के बदलाव को सुधारने की प्रक्रिया का आधार उस ठोस नींव पर होना चाहिए जिसे पुरखों ने अपने पराक्रम से तैयार किया है!

(The paper is the author’s individual scholastic articulation. The author certifies that the article/paper is original in content, unpublished and it has not been submitted for publication/web upload elsewhere, and that the facts and figures quoted are duly referenced, as needed, and are believed to be correct). (The paper does not necessarily represent the organisational stance... More >>


Translated by Dr Vijay Kumar Sharma (Original Article in English)

Image Source: https://indianexpress.com/article/cities/chandigarh/tour-of-duty-recruitment-release-all-recruits-after-4-years-re-enlist-25-of-them-after-a-month-7940352/

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