कोरिया में परमाणु ऊर्जा संयंत्रों को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने की मून की योजना
Prof Rajaram Panda

दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति मून जे-इन के लिए समय भागा जा रहा है क्योंकि उनका कार्यकाल इसी वर्ष मई में समाप्त हो रहा है। इसके पहले उनके समक्ष दो मुद्दे हैं, जिनका वे समाधान करना चाहते हैं। हालांकि वे दोनों के दोनों ही कठिन हैं। एक, उत्तर कोरिया से बातचीत करना है। इसके लिए उत्तर कोरिया के नेता किम जोंग-उन को परमाणुकरण प्रक्रिया पर चर्चा के लिए बातचीत की मेज पर लाना है। और, दूसरा पहले की तुलना में अधिक चुनौतीपूर्ण है और वह यह कि द.कोरिया के कुल ऊर्जा मिश्रण से परमाणु ऊर्जा संयंत्रों को को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने का उनका निर्णय है। इनमें, पहली चुनौती काफी समय से रही है और इसीलिए उसे इतनी जल्दी हल किए जाने की संभावना नहीं है। दूसरे, मून को कुछ किस्म के आत्म-विरोधाभास का सामना करना पड़ रहा है क्योंकि वे मध्य यूरोपीय देशों में घरेलू रिएक्टरों के निर्यात को तेजी से ट्रैक करने के लिए प्रतिबद्ध हैं।[1]

दुनिया के सबसे प्रमुख परमाणु ऊर्जा देशों में से एक देश के रूप में, दक्षिण कोरिया का परमाणु उद्योग न केवल देश की लगभग एक चौथाई ऊर्जा आवश्यकताओं को पूरा करता है बल्कि वह अपनी तकनीक का बड़े पैमाने पर निर्यात भी करता है। वर्तमान में, उसे संयुक्त अरब अमीरात के साथ किए गए $20​​ अरब डॉलर के अनुबंध के तहत उसके पहले परमाणु ऊर्जा संयंत्र का निर्माण करना है। मून 45 वर्षों से जारी इस रणनीतिक प्राथमिकता को कुछ चरणों में हटाना चाहते हैं,उसे बदलना चाहते हैं।

मून की चरणबद्ध तरीके से परमाणु संयंत्रों को खत्म करने की घोषणा खुद कोरिया के भीतर ऊर्जा की बढ़ती जा रही मांगों के खिलाफ है। फिर उनका निकटतम पड़ोसी उत्तर कोरिया से बढ़ते खतरों की चिंता है ही, अब जापान भी उसी ढर्रे पर चल पड़ा है। इसके मद्देनजर मून से देश के परमाणु विकल्प पर फिर से विचार करने का आग्रह किया जा रहा है। इसके अलावा, जापान की तरह, दक्षिण कोरिया की भी अपनी सुरक्षा के लिए अमेरिका पर निरंतर निर्भरता बनी हुई है। हालांकि वाशिंगटन परमाणु हमले की स्थिति में उसका प्रतिरोध करने के लिए प्रतिबद्ध है लेकिन इसके बावजूद अमेरिका अपने ऊपर उनकी सुरक्षा का बोझ बढ़ने से तनाव में आ गया है। यह एक अलग मुद्दा है और इसलिए यह विषय मौजूदा लेख में विचारणीय नहीं है।

मून के साथ एक संयुक्त प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान हंगरी के राष्ट्रपति जेनोस एडर के दावों को भुला नहीं सकते हैं कि कोरिया और हंगरी दोनों 2050 तक कार्बन तटस्थता तक पहुंचने के लिए प्रतिबद्ध हैं। हालांकि जिस कार्बन तटस्थता पर वे सहमत थे, वह परमाणु ऊर्जा के बिना हासिल नहीं की जा सकती है। इस तरह की खुली घोषणा द.कोरिया में परमाणु ऊर्जा संयंत्रों को चरणबद्ध तरीके से खत्म करने की मून की नीति के खिलाफ चली जाती है। निश्चित रूप से विपक्ष मून पर इस बात के लिए दबाव बनाएगा वे इन मुद्दों पर अपना वास्तविक रुख स्पष्ट करें।

यदि मून वास्तव में द.कोरिया में परमाणु ऊर्जा संयंत्रों को 2079 तक समाप्त करना चाहते हैं और परमाणु ऊर्जा संयंत्रों और कोयले से चलने वाले बिजली संयंत्रों को नवीकरणीय ऊर्जा से बदलना चाहते हैं, तो इस दिशा में प्रयास ही कितना कर सकते हैं क्योंकि उनका कार्यकाल कुछ ही महीने का बचा है। लिहाजा, इतनी कम अवधि में यह काम हो पाएगा, इसमें संदेह है। यदि इस दिशा में कोई कदम उठाया जाता है, तो भी संभावित बिजली की कमी पर चिंता बनी रहेगी। द.कोरिया के मौजूदा की डीकमिशनिंग योजना के अनुसार ​मौजूदा 24​​ परमाणु रिएक्टर, जब प्रत्येक अपनी संबंधित डिजाइन जीवन के अंत तक पहुंच जाते हैं, तो उनकी संख्या 2031 तक घटा कर 18 और 2050 तक 9 कर देनी चाहिए। इस चिंता को दूर करते हुए कि यदि इस नियम का अनुसरण किया जाता है तो परमाणु ऊर्जा उद्योग ध्वस्त हो सकता है, मून इस बात को सही ठहराते हैं कि इस तरह की नीति का अनुसरण करने से उद्योग को प्रौद्योगिकियों का निर्यात करने और रिएक्टर को बंद करने से व्यवसाय में मदद मिलेगी। क्या इस तरह के नीतिगत रुख का वास्तव में कोई मतलब है कि कोरिया एक तरफ तो अपने यहां परमाणु ऊर्जा नीति के खिलाफ है और दावा करता है कि वह इस क्षेत्र से बाहर निकल रहा है, वहीं दूसरी तरफ वह अन्य देशों को परमाणु प्रौद्योगिकी बेचना चाहता है? इसलिए आलोचकों का कहना है कि इस मुद्दे पर विरोधाभास बना हुआ है और मून के दावे परस्पर असंबद्ध दिखते हैं।

​सार्वजनिक संचार के वरिष्ठ चेओंग वा डे सचिव पार्क सू-ह्यून ने स्पष्ट किया कि देश के परमाणु ऊर्जा संयंत्र तब तक अपनी भूमिका निभाते रहेंगे, जब तक कि 2050 में कार्बन तटस्थता प्राप्त नहीं हो जाती और मून ने एडर को जो वचन दिया वह यह है कि कोरिया कोई नया रिएक्टर नहीं बनाएगा।[2] अगर इस तरह का रास्ता अपनाकर कोरिया का लक्ष्य कामयाबी हासिल करना है तो यह लक्ष्य से बहुत दूर लगता है। ऐसे समय में जब पड़ोस में सुरक्षा का माहौल तेजी से बिगड़ रहा है और उत्तर कोरिया और चीन की तरफ से खतरे कम होने के कोई संकेत नहीं दिख रहे हैं तो क्या दक्षिण कोरिया परमाणु से दूर रहने की नीति पर चलने का जोखिम उठा सकता है, चाहे वह सत्ता के लिए हो या अन्य किस चीज के लिए? ऐसे में मून की इन बातों पर कोई भोला-भाला व्यक्ति ही विश्वास करेगा।

ऐसी नीति को चुनते हुए मून पोलैंड और चेक गणराज्य जैसे अन्य देशों में व्यापार के अवसरों को देखते हैं, जो अपने स्वयं के परमाणु रिएक्टर बनाना चाहते हैं लेकिन उनके पास इसकी प्रौद्योगिकी की कमी है। चूंकि द.कोरिया के पास उच्च गुणवत्ता वाली तकनीक के साथ-साथ अनुभव भी है, इसलिए मून परमाणु रिएक्टरों का निर्यात करके निर्यात और आयात करने वाले दोनों देशों के संदर्भ में अपने लिए एक विन-विन स्थिति की कल्पना करते हैं। मामले की खूबियों के बावजूद, लब्बोलुआब यह है कि मून का कार्यकाल नहीं बचा है। यदि कोई कट्टर व्यक्ति अगले वर्ष उनकी जगह राष्ट्रपति के पद पर आसीन होता है, तो वह पूरी प्रक्रिया एक झटके में पटरी से उतर सकती है।

यह सच है कि परमाणु एक स्वच्छ ऊर्जा स्रोत है और भारत सहित दुनिया के कई देश परमाणु स्रोत से बिजली बढ़ाने की अपनी क्षमता बढ़ाने की नीति को आगे बढ़ाना चाहते हैं। असैन्य परमाणु सहयोग के लिए समझौतों पर हस्ताक्षर करना, जिसमें चेतावनी के साथ प्रौद्योगिकी का आयात करके नए रिएक्टरों का निर्माण करना शामिल है, हथियार बनाने के लिए परमाणु सामग्री के दुरुपयोग को रोकने का एक अच्छा संसाधन है। यहां तक कि एनपीटी पर दस्तखत न करके भी, भारत ने भी कई देशों के साथ असैन्य परमाणु समझौतों पर हस्ताक्षर किए हैं, ताकि बिजली की बढ़ती जरूरतों को पूरी करने के लिए अपनी परमाणु ऊर्जा क्षमता को बढ़ा सके। मून चेक गणराज्य, पोलैंड, स्लोवेनिया और हंगरी के एक संगठन, विसेग्राद समूह को अपनी परमाणु प्रौद्योगिकी के संभावित ग्राहकों के रूप में लक्षित कर रहे हैं, जो परमाणु ऊर्जा संयंत्रों के निर्माण के इच्छुक हैं।

मून ने 2017 में द.कोरिया के राष्ट्रपति का पदभार ग्रहण करने के बाद से ही परमाणु ऊर्जा संयंत्रों को चरणबद्ध तरीके से हटाने की नीति अपनाई थी।

​पोलैंड के पास वर्ष 2040 तक छह परमाणु रिएक्टर बनाने की एक महत्त्वाकांक्षी योजना है। ​कोरिया का हाइड्रो एंड न्यूक्लियर पॉवर कुल ​3​8.4​3​ गीगावाट की क्षमता वाले APR1400 रिएक्टर उसे देने के लिए इच्छुक है। चेक गणराज्य भी डुकोवानी के दक्षिणी क्षेत्र में अतिरिक्त रिएक्टर बनाना चाहता है। यदि राष्ट्रपति मून पद छोड़ने से पहले एक सौदा करते हैं, तो अगला प्रशासन खुद को एक मुश्किल स्थिति में पाएगा, यदि वह सुरक्षा चिंताओं का हवाला देते हुए वार्षिक समझौते करना चाहे तो। हो सकता है कि उनका निर्णय जापान के फुकुशिमा में मार्च 2011 के परमाणु दुर्घटना से लिए गए सबक से उपजा हो और वे नहीं चाहते कि उनके देश में भी ऐसा कोई हादसा हो।

इसलिए द.कोरिया की दुविधा जारी रहेगी क्योंकि नीतियां सुसंगत होनी चाहिए और चूंकि इसमें संधि संबंधी बाध्यताएं शामिल होंगी, लिहाजा ऐसे सौदों को तोड़ना समस्या पैदा कर सकता है। वर्तमान में चालू 24 परमाणु रिएक्टरों के साथ द.कोरिया परमाणु से ऊर्जा प्राप्त करने वाला दुनिया का छठा सबसे बड़ा उत्पादक देश है। वह अपने देश की कुल ऊर्जा जरूरतों का लगभग ​24​ फीसदी हिस्सा​ परमाणु ऊर्जा से हासिल करता है।[3] फिलहाल तो 24 में से दो परमाणु रिएक्टर बंद कर दिए गए हैं और चार अभी निर्माणाधीन हैं। शिन हनुल परमाणु ऊर्जा संयंत्र की 3री और 4थी इकाइयों में कुछ दिक्कतें थीं, जिनके कारण इन्हें बंद करना पड़ा था। मून द्वारा चरणबद्ध तरीके से परमाणु ऊर्जा से हाथ खींच लेने की नीति के बाद दो रिएक्टरों का निर्माण रोक दिया गया था। इसका मतलब है ​790​​ बिलियन वोन जो पहले ही परियोजना में खर्च किया जा चुका है, वह व्यर्थ हो गया है।[4]

वर्तमान में, देश में कुल ऊर्जा जरूरतों की 35.6 फीसदी ऊर्जा कोयले से चलने वाले बिजली संयंत्रों से मिलती है। अब सरकार की योजना परमाणु रिएक्टरों को पूरी तरह से बंद करने की है क्योंकि वह इसकी भरपाई अक्षय ऊर्जा पर निर्भरता बढ़ा कर करना चाहती है। यह 2050 तक नेट-शून्य कार्बन तटस्थता प्राप्त करने के कई तरीकों में से एक है। कोरियाई ऊर्जा विशेषज्ञ हालांकि योजना की सफलता के बारे में उत्साहित नहीं हैं क्योंकि अक्षय ऊर्जा की तरफ उन्मुख होने से प्रतिस्पर्धात्मकता का अभाव काफी समय के लिए होगा।[5]

सौर ऊर्जा पर निर्भरता एक व्यवहार्य विकल्प प्रतीत नहीं होता है क्योंकि इसका एक दिन में औसतन 3.5 घंटे ही उत्पादन किया जा सकता है। पवन ऊर्जा पर निर्भरता भी आशाजनक नहीं लगती। द. कोरिया में न केवल जीवाश्म ईंधन ऊर्जा की कमी है, बल्कि नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत भी कम हैं। यदि कोरियाई सरकार मध्य से लंबी अवधि में अक्षय ऊर्जा का विस्तार करने की इच्छुक है, तो उसे देश के भूगोल को ध्यान में रखते हुए एक रणनीतिक दृष्टिकोण अपनाने की जरूरत है। जब तक ऐसा नहीं किया जाता, विकल्पों में प्रतिस्पर्धी आर्थिक बढ़त का अभाव बना रहेगा।

यह परमाणु ऊर्जा और उसके भविष्य की भूमिका को फिर से फोकस में लाता है। यद्यपि परमाणु ऊर्जा को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करना, अब एक वैश्विक प्रवृत्ति बन गई है, फिर भी वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों पर निर्भरता की गति धीमी होगी। द.कोरिया भी इसका कोई अपवाद नहीं है। कुछ देशों का लक्ष्य अल्पावधि में परमाणु ऊर्जा जारी रखते हुए कार्बन तटस्थता हासिल करना है। उदाहरण के लिए, फ्रांस वर्तमान में परमाणु ऊर्जा पर अपनी 75 फीसदी निर्भरता को 2035 तक घटा कर 50​​ प्रतिशत करना चाहता है। हालांकि वह छोटे मॉड्यूलर रिएक्टरों (एसएमआर) के उत्पादन सहित परमाणु ऊर्जा अनुसंधान और विकास में 1 अरब यूरो का निवेश करने जा रहा है।

​इसी तरह, इंग्लैंड जो 2050 तक कार्बन तटस्थता हासिल करने की योजना बना रहा है, वह परमाणु ऊर्जा संयंत्र भी बना रहा है। जापान जो मार्च 2011 में फुकुशिमा परमाणु दुर्घटना के बाद वैश्विक सुर्खियों में आया था ​और इसकी प्रतिक्रिया में अपने सभी परमाणु रिएक्टरों को बंद कर और अपनी कुल ऊर्जा आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए परमाणु ऊर्जा पर एक चौथाई निर्भरता को घटा कर शून्य कर दिया था, अब वह भी कड़ी सुरक्षा जांच के बाद अपने कुछ रिएक्टरों को पुनर्जीवित किया है और इस तरह, वह ​अपनी ऊर्जा जरूरतों का 6 प्रतिशत परमाणु उर्जा से हासिल करता है। लेकिन अब वह इस अनुपात को 2030 तक 20 से 22 फीसदी के बीच बढ़ाने का फैसला किया है। इसे देखते हुए, मून प्रशासन कार्बन तटस्थता प्राप्त करने के लिए एक समान नीति को आगे बढ़ाने के लिए, विशेष रूप से व्यापारिक समुदाय से तीव्र दबाव में आ जाएगा।

मून प्रशासन की ऊर्जा स्रोतों में फेरबदल की नीति का व्यावसायिक गतिविधियों पर गंभीर प्रभाव पड़ सकता है क्योंकि इससे बिजली की आपूर्ति संकट में पड़ सकती है और इसके परिणामस्वरूप उसकी दरों में वृद्धि हो सकती है। विशेष रूप से, नए उपाय, यदि लागू किए जाते हैं, तो सेमिकंडक्टर, ऑटोमोबाइल और इस्पात उद्योगों जैसे भारी ऊर्जा खपत करने वाले उत्पादनों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। ​कोरिया हाइड्रो एंड न्यूक्लियर पॉवर के अध्यक्ष और सीईओ चुंग जे-होन का मानना है कि यदि नई चरण-आउट योजना का अनुसरण किया जाता है तो कार्बन तटस्थता प्राप्त नहीं की जा सकती है।[6] सरकार को जिस चीज की जरूरत है, वह सामाजिक सहमति है,क्योंकि परमाणु ऊर्जा से हाथ खींचने की नीति जारी रखी गई तो देश में बिजली की दरें 2017 की तुलना में 2030 में ​25.8​​ फीसद तक बढ़ जाएंगी और 2040 में 33 फीसदी तक हो जाएंगी।[7]

​​दक्षिण कोरियाई सरकार वर्तमान में नए नवीकरणीय ऊर्जा कानून और विनियमों का मसौदा तैयार कर रही है। मई 2020 में सरकार ने ​​2020-2034​​ योजना, जो एक दीर्घकालिक ऊर्जा संक्रमण योजना है, उसकी घोषणा की थी। इस योजना के अनुसार, अक्षय ऊर्जा ​40​ फीसदी​ ऊर्जा जरूरतों के लिए जवाबदेह होगी। तरलीकृत प्राकृतिक गैस (एलएनजी) प्रज्वलित संयंत्रों की 32 फीसदी हिस्सेदारी को बनाए रखा जाएगा: और कोयले से चलने वाले सभी बिजली संयंत्रों के साथ नौ परमाणु संयंत्रों को भी बंद कर दिया जाएगा, जिससे परमाणु ऊर्जा का हिस्सा घट कर 10 फीसद रह जाएगा।[8] यह लेख इनके विस्तृत विवरण में जाने की अनुमति नहीं देता है।

पाद-टिप्पणियां

[1] नाम ह्यून-वू,“कोरिया’ज न्यूक्लियर फेज आउट पॉलिसी ट्रैप्ड न पैराडॉक्स”, कोरिया टाइम्स, 4 नवम्बर 2021, https://www.koreatimes.co.kr/www/nation/2021/11/120_318214.html
[2]“च्योंग वा डे कहते हैं कि न्यूक्लियर फेज आउट पॉलिसी रिमेन्स इन प्लेस”, कोरिया टाइम्स, 4 नवम्बर 2021, https://www.koreatimes.co.kr/www/nation/2021/11/371_318211.html
[3]फॉर दि डिटेल्स ऑफ कोरिया’ज न्यूक्लियर पॉवर इंडस्ट्री, देखें,“न्यूक्लियर पॉवर इन साउथ कोरिया”, अक्टूबर 2021, https://world-nuclear.org/information-library/country-profiles/countries-o-s/south-korea.aspx
[4]यूं जा यंग, “कोरिया’ज न्यूक्लियर फेज आउट प्लान रेज्स नेट-जीरो डिलेमा”, कोरिया टाइम्स, 29 अक्टूबर 2021, https://www.koreatimes.co.kr/www/nation/2021/11/281_317786.html
[5] वही।
[6] वही।
[7] वही।
[8] इस विषय पर समग्रता में अवलोकन करने के लिए देखें, मुनीर हसन एवं सबरीना पोलिटो, “रिन्यूएवल एनर्जी लॉ एंड रिगुलेशन इन साउथ कोरिया”, 18 दिसम्बर 2020, https://cms.law/en/int/expert-guides/cms-expert-guide-to-renewable-energy/south-korea


Translated by Dr Vijay Kumar Sharma (Original Article in English)
Image Source: https://images.indianexpress.com/2017/06/moon-jae-in1.jpg

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