7 सितम्बर को अफ़ग़ानिस्तान में नई सरकार की घोषणा हो गयी। तैतीस सदस्यीय मंत्रिमंडल में तीस मंत्री तालिबान के ही हैं। तालिबान की ओर से जारी एक बयान में यह कहा गया है कि यह अंतरिम सरकार है क्योंकि एक स्थायी सरकार बनाने के लिए वार्ता अभी भी जारी है। यह इस बात का संकेत है कि अफ़ग़ानिस्तान में काबिज़ गुटों के बीच में कुछ ठीक नहीं चल रहा है और सत्ता सुख की जोड़तोड़ में शायद जनहित की बात पूरी तरह से भुला दी गई है।अफ़ग़ानिस्तान पर कब्ज़े के शुरुआती दिनों में शासक तालिबान द्वारा ये संकेत दिए गए कि उनकी सरकार एक समावेशी सरकार होगी जिसमें सभी गुटों और कबीलों का समुचित प्रतिनिधित्व होगा। दोहा में ऐसी वार्ताओं का दौर भी चला जिसमें अफगानिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति हामिद करजई तथा पूर्व विदेशमंत्री डा. अब्दुल्ला अब्दुल्ला भी शामिल थे, किन्तु उनकी नज़रबंदी की ख़बरों ने ये साबित कर दिया कि तालिबान का कट्टर धड़ा और उसका सहयोगी कुख्यात हक़्क़ानी नेटवर्क किसी ऐसे उदारवादी चेहरे को सरकार में जगह न देने पर अड़ा हुआ है। यह बात तब और साफ़ हो गई जब ख़बरों के अनुसार संभावित शासन- प्रमुख मुल्ला ग़नी बरादर को वार्ता के दौरान ही गोली मार कर घायल कर दिया गया। इस गतिरोध को दूर करने अपने ही बुलावे पर पाकिस्तान की आईएसआई के प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल फैज़ हामिद काबुल पहुंचे और अपने पालित हक़्क़ानी नेटवर्क को सरकार में महत्वपूर्ण जगह दिलाने के लिए कोशिश में जुट गए। अफ़ग़ानिस्तान में राजनीतिक अस्थिरता के कारण बढ़ रहे विश्व समुदाय के दबाव के चलते ज़ल्दबाज़ी में एक अंतरिम सरकार का गठन कर दिया गया जिसके आधे से अधिक मंत्री संयुक्त राष्ट्र संघ या अमेरिका की आतंकवादी सूची में हैं। प्रमुख हक़्क़ानी नेता सिराजुद्दीन हक़्क़ानी को गृह मंत्री बनाया गया है जिस पर अमेरिका ने पचास लाख डॉलर का ईनाम घोषित किया है और जो काबुल में भारतीय दूतावास पर हुए हमले का भी मास्टरमाइंड था।
तालिबान ने जोड़तोड़ कर और पाकिस्तान के दबाव में एक अंतरिम सरकार तो बना ली है, किन्तु उसके लिए सत्ता पर निर्विरोध और निर्विवाद कायम रहना काफी मुश्किल लग रहा है। निर्विरोध इसलिए कि जहाँ अभी तक पूरे पंजशीर पर तालिबान का कब्ज़ा नहीं हो पाया है, वहीँ ईरान समेत तमाम देशों में सरकार में शामिल चेहरों को लेकर विरोध हो रहा है और इस सरकार को तब तक मान्यता न देने का सुर जोर पकड़ रहा है जब तक वह अपनी नेकनीयती का सबूत अपने कार्यों से न दे दे। लेकिन सरकार में शामिल कई मंत्रियों के बयान यह दिखाते हैं कि अभी सरकार की कुछ मुद्दों पर नीतियां या तो स्पष्ट नहीं हुई हैं (क्योंकि कट्टरपंथियों और अपेक्षाकृत उदारवादियों के बीच खींचतान जारी है) या फिर जानबूझ कर यह सोच कर भ्रमोत्पादक बयान दिए जा रहे हैं कि अगले कुछ दिनों में कुछ मुद्दे स्वतः ही ठंढे पड़ जाएंगे। शिक्षा मंत्री द्वारा यह कहना कि "उच्च शिक्षा की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि अंततः ताक़त ही काम आती है" या एक और मंत्री का यह कथन कि "महिलाओं का काम सिर्फ बच्चे पैदा करना है, वे सरकार में राजनीतिक पदों या ऊंची नौकरियों के योग्य नहीं हैं", यही प्रदर्शित करता है कि सरकार के घटकों की सोच में परिवर्तन नहीं आया है।
यह अंतरिम सरकार विवादित भी है। जिस समावेशी सरकार की बाद तालिबानी नेता अपने कई बयानों में कर चुके हैं, वैसी सर्वप्रतिनिधित्व वाली सरकार तो यह है ही नहीं! इसमें न तो पंजशीर का कोई प्रतिनिधित्व है न ही हज़ारा समुदाय का। महिलाओं और युवकों का भी कोई स्थान नहीं है, यह सरकार सिर्फ मदरसों और हक्कानिया विश्वविद्यालय, क्वेटा से बाक़ाएदा आतंकवाद का प्रशिक्षण पाए मुल्लाओं की सरकार है। पढ़े लिखे अनुभवी नेताओं जैसे हामिद करज़ई और डा. अब्दुल्ला अब्दुल्ला (जिनसे आरम्भ में सरकार के गठन पर बातचीत हो रही थी) की तो बात ही छोड़ें, सुहैल शाहीन जैसे उच्च शिक्षा प्राप्त पत्रकार को भी सरकारी तंत्र से बाहर रखा गया है।
विवाद का सबसे बड़ा मुद्दा अफ़ग़ानिस्तान में पाकिस्तान की भूमिका भी है। तालिबान पाकिस्तान के सहयोग से पैदा हुआ और हक़्क़ानी नेटवर्क तो सरासर पाकिस्तान के आईएसआई की ही उत्पत्ति है। हक़्क़ानी ग्रुप को प्रमुख स्थान दिलाने के लिए न सिर्फ पाकिस्तान ने नैतिक समर्थन दिया, बल्कि अंतर्राष्ट्रीय कानूनों को धता बताते हुए अपनी 11वीं कोर की बटालियन भी पंजशीर में तालिबान की ओर से लड़ने के लिए भेजी। साथ ही वायुसेना रहित तालिबान को पाकिस्तानी वायुसेना ने सहयोग भी दिया। इतना ही नहीं, इस अभियान को संचालित करने और "सरकार के गठन में सहयोग करने के लिए" आईएसआई के प्रमुख फैज़ हामिद काबुल पहुँच गए। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद के विगत 76 वर्षों में ऐसा पहली बार हुआ कि किसी देश का "ख़ुफ़िया प्रमुख" दूसरे देश में खुल्लमखुल्ला सरकार बनवाने पहुँच जाए! ज़ाहिर है, इस पर विवाद और विरोध होना ही था और हुआ भी। आख़िर पाकिस्तान को ज़ल्दबाज़ी में ऐसा कदम उठाने की क्या आवश्यकता आ गयी? इसकी सम्भावना है कि पाकिस्तान स्वयं को तालिबान का संरक्षक और एकमात्र सलाहकार के रूप में दिखाना चाहता था। तालिबान और अन्य देशों के साथ (ख़ास तौर से चीन के साथ) संबंधों के निर्धारण में पाकिस्तान एकमात्र बिचौलिया बन कर सारा श्रेय लेना चाहता था लेकिन तालिबानी नेताओं द्वारा कुछ वार्ताओं के बाद चीन से सीधी बात शुरू कर देने से पाकिस्तान की चौधराहट की योजना को धक्का लगा। इसीलिए पाकिस्तान ने आगे बढ़ कर सीधे तालिबान को सशस्त्र सहायता देने और हक़्क़ानी नेटवर्क को सत्ता में स्थापित करने का काम शुरू कर दिया, हालाँकि इससे पाकिस्तान को अफ़ग़ान जनता के प्रबल विरोध का सामना करना पड़ा और विश्व बिरादरी में जो फ़ज़ीहत हुई सो अलग। ज़ाहिरी तौर पर पाकिस्तानी हुक्काम या मीडिया इस पर अभी तक चुप्पी साधे हुए थे लेकिन अब उसके प्रवक्ता का यह हास्यास्पद बयान आया है कि आईएसआई प्रमुख बिना सरकार की अनुमति लिए व्यक्तिगत रूप से वहां पंहुचे थे। अफ़ग़ानी सरकार का शपथग्रहण टलना इस बात का संकेत है कि पाकिस्तान की योजना पूरी तरह सफल नहीं रही और इसी पर लीपापोती करते हुए इसका ठीकरा जनरल हामिद के सर फोड़ दिया गया ।
अफ़ग़ानिस्तान की घटनाओं का भारत पर असर और उसकी प्रतिक्रिया बहुत संतुलित रही है। बहुत से हल्कों में यह आशंका व्यक्त की गयी कि अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिका के प्रस्थान और तालिबान के कब्ज़े से भारत में, खासकर कश्मीर में फिर से आतंकवादी घटनाएं हो सकती हैं क्योंकि तालिबान अपनी विचारधारा के कारण निकट भविष्य में कश्मीर में आतंकवादियों को भेज कर उपद्रव करा सकता है। किन्तु ऐसा सोचने वाले यह भूल जाते हैं कि किसी भी देश द्वारा आतंकवादी भेजने के लिए ज़रूरी है कि उस देश में एक स्थिर सरकार हो जिसका पूरे देश पर निर्बाध शासन हो और जिसकी जनता के पास कुछ न कुछ जीवन निर्वाह के साधन हों। यह सब होने के बाद ही किसी भी सरकार का ध्यान दूसरे देश में आतंकी घटनाएं कराने पर जा सकता है। अफ़ग़ानिस्तान में अभी ऐसा कुछ भी नहीं है- जनता भूखी है, कोष खाली और प्रशासन बदहाल, दिशाहीन। हाँ, पाकिस्तान में एक स्थायी सरकार है, भले ही वह नेपथ्य से सेना द्वारा संचलित होती है, इस लिए पाकिस्तान ऐसी हरकतें करा सकता है। दूसरी बात यह है कि 1996 के और 2021 के कश्मीर में बहुत अंतर है। अब वहां हमारी सुरक्षा प्रणाली अधिक सन्नद्ध और विकसित है। इसलिए आतंकवादियों की वहां घुसपैठ अब उतनी आसान नहीं होगी। लेकिन यही सोच कर हमें सुरक्षा व्यवस्था में कोइ ढील नहीं देनी चाहिए।
जहां तक भारत की प्रतिक्रिया और विकल्प का सवाल है, हमने हमेशा ही आतंकवाद और शक्ति के बल पर सत्तांतरण का विरोध किया है। पूरे घटनाक्रम पर भारत की नज़र है और सरकार देशहित की प्राथमिकताओं के आधार पर विकल्पों पर विचार कर रही है। बचे खुचे भारतीयों की अफ़ग़ानिस्तान से वापसी, हमारे सहयोग से बनी और चल रही विकासोन्मुख परियोजनाओं की सुरक्षा तथा उनके फलस्वरूप हमारी बढ़ी हुई साख की निरंतरता ही हमारी प्राथमिकताएं हैं। अभी किसी भी देश ने वर्तमान तालिबानी सरकार को औपचारिक मान्यता नहीं दी है जिसकी उसे बहुत दरकार है। स. रा. संघ सुरक्षा परिषद् की एक माह की अपनी अध्यक्षता में भारत ने बड़े संतुलित ढंग से व्यवहार किया है। इसके 30 अगस्त के प्रस्ताव का 13 सदस्यों के बहुमत से रूस और चीन के वीटो के बिना पारित होना और हाल में ही संपन्न ब्रिक्स शिखर सम्मेलन के दिल्ली घोषणापत्र में अफ़ग़ानिस्तान की धरती को आतंकवाद की शरणस्थली न बनने देने का सर्वसम्मति से पारित प्रस्ताव यह दिखाता है कि चीन को भी आतंकवाद पनपने का डर सता रहा है। पिछले सप्ताह हुई इंग्लैण्ड, अमेरिका और रूस के सुरक्षा प्रमुखों की भारतीय राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार से दिल्ली में हुई बैठक तथा आगामी दिनों में प्रधान मंत्री की अमेरिकी राष्ट्रपति के साथ वार्ता से यही संकेत मिलता है कि परदे के पीछे से गहन मंत्रणा चल रही है और शीघ्र ही किसी ठोस कदम की घोषणा की जा सकती है। तब तक हमें व्यर्थ के अनुमान लगाने से बचना चाहिए। वैसे भी, विदेश नीति और सैन्य रणनीति में कई बातें तब तक पब्लिक डोमेन में नहीं आनी चाहिए और न आती हैं, जबतक अंतिम निर्णय न हो जाए।
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