अफगानिस्तान; भारत की उससे संबंधित नीतियां और भारत पर उसके प्रभाव
Amb Satish Chandra, Vice Chairman, VIF

दिनानुदिन इस बात के बढ़ते साक्ष्य के बावजूद कि मौजूदा तालिबान 2.0 तालिबान 1.0 में थोड़ा ही अलग है, क्योंकि यह उसी तरह पाकिस्तान की मदद से बना और उसके द्वारा उकसाए गए आतंकवादियों के एक समूह से अधिक नहीं है, फिर भी इसके पक्ष में दुनिया के कई हिस्सों में माफी मांगने वालों की भीड़ उमड़ पड़ी है। यह शायद अपेक्षित ही था क्योंकि भारत को छोड़ कर विश्व के अधिकतर देश तालिबान से बातचीत करते रहे हैं, और वे इसे अफगानिस्तान पर हुकूमत करने की इजाजत देने के खिलाफ नहीं हैं।...इसके मुताबिक, एक पूरी तरह मिथ्या कथा गढ़ी जा रही है, जो तालिबान को अच्छाई की सर्वाधिक संभव रोशनी में रखने का पक्ष लेता है और इसी के साथ उसे आर्थिक सहायता दिए जाने का आह्वान करता है। यह न केवल तालिबानों द्वारा मानवाधिकारों के प्रति किए जा रहे घोर अत्याचारों पर एक कफन डालने की मांग करता है बल्कि बढ़े-चढ़े दावे किए जा रहे हैं कि उसने संयुक्त राज्य अमेरिका को परास्त कर दिया है। हालांकि अमेरिका के बारे में यह सफेद झूठ बोला जा रहा है क्योंकि उसके एवं तालिबान के बीच कोई लड़ाई ही नहीं थी। यह भी कि अमेरिका यहां से हार कर नहीं बल्कि अपनी घरेलू परिस्थितियों के कारण अपनी मर्जी से गया है। यह नैरिटव एक कदम आगे जा कर यह भी कहता है कि अफगानिस्तान में अभियान के दौरान की गई क्रूरताओं के कारण अमेरिका की तुलना तालिबान अधिक जनप्रिय है। यह बात भी पूरी तरह गलत है।

एक भारतीय के रूप में मैं अफगानिस्तान के तालिबान के हाथ जाने से काफी क्षुब्ध हूं। हालांकि इसके हमारे लिए निश्चित ही गंभीर सुरक्षा परिणाम होंगे, जिनके बारे में इस लेख में आगे विचार किया गया है, पर इस परिघटना के कई सकारात्मक प्रभाव भी हैं, जिन पर ध्यान दिया जा सकता है:

  • अफगानिस्तान से अमेरिका की वापसी के बाद पाकिस्तान के साथ उसके संबंधों के स्तर में गिरावट होगी;
  • पाकिस्तान एवं तालिबान के बीच सांठगांठ का पूरी तरह खुलासा हो जाने के बाद से तालिबान की तरफ से की जानेवाली ज्यादतियों, खास कर मानवाधिकार के उल्लंघन एवं आतंकवाद के कहर की जवाबदेही तब पाकिस्तान को भी लेनी होगी;
  • तालिबान शासित अफगानिस्तान से राजनीतिक, सैन्य एवं आर्थिक संसाधन-स्रोतों की निकासी पाकिस्तान जैसे प्राथमिक समर्थक देशों को करनी होगी।

चूंकि तालिबानी अफगानिस्तान आतंकवाद के एक प्रजननस्थल के रूप में उभर सकता है, इसलिए कोई भी देश यहां तक कि उसके मौजूदा संरक्षक देश भी इस दौरान या लंबी अवधि में उसका साथ छोड़कर भाग खड़े होंगे। वास्तव में, एक दूसरे 9/11 की घटना से इनकार नहीं किया जा सकता। इस प्रकार क्रूरता की उसकी प्रकृति तालिबान 1.0 की तरह ही विनाश का बीज अपने अंतस्तल में छिपाए हुई है।

भारत द्वारा अफगानिस्तान में मेहनत से बनाई गई कुछ आधारभूत संरचनाओं पर तालिबानियों के उन्मत्त हमलों का नतीजा यह होगा कि वे आम अफगानियों की नजरों से गिर जाएंगे।

अफगानिस्तान में भारत की प्राथमिकताओं कुछ इस रूप में सूचीबद्ध की जा सकती हैं:
  • अफगानिस्तान में रह रहे अपने नागरिकों को एवं वहां के अन्य सभी हितों को सुरक्षित बाहर निकाल लाना;
  • यह सुनिश्चित करना कि अफगानिस्तान हमारे खिलाफ आतंकवाद का निर्यात न कर पाए या वह खुद को हमारे विरुद्ध उपयोग न होने दे;
  • एक समावेशी एवं दोस्ताना अफगानिस्तान को पैदा करने वाली परिस्थितियों को बढ़ावा देना, जिनसे कि वह पाकिस्तान के इशारे या उकसावे पर नहीं, बल्कि अपनी बुद्धि-विवेक से कोई निर्णय करे।

अफगानिस्तान में, भारत की आगामी भूमिका के संदर्भ में हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि विगत अनेक दशकों से वहां हमने एक विशेष भूमिका निभाई है और हम कम या मध्यम अवधि में वैसी ही भूमिका निभाएंगे। हालांकि अफगानियों के साथ हमारी पुरानी दोस्ती और वहां इस दौरान अफगानिस्तान के सभी हिस्सों में हमारी तरफ से चलाई गईं विकास की विशिष्ट गतिविधियों की वजह से वहां के लोगों में हम शायद एक इज्जतदार देश माने जाते हैं। हम इन साख-संबंधों की पूंजी का अपने भावी उद्यम-उपक्रमों में लाभ ले सकते हैं। अफगानिस्तान की किसी भी नई सत्ता द्वारा की जानेवाली हमारी उपेक्षा की भारी कीमत उसे जनता की नजरों में गिरकर चुकानी होगी।

अफगानिस्तान में तालिबान के काबिज होने के लिए भारत की नीति को दोषी नहीं ठहराया जा सकता और वास्तविकता तो यह है कि उसकी नीति पारंगत रही है। हम अपने राजनयिकों को बिना किसी खरोंच के ही अफगानिस्तान से निकालने में होशियारी दिखाई है। हालांकि हमने तालिबानियों की सीधी मुखालफत नहीं की है, और न ही उसे मान्यता दी है, इसकी बजाए हमने अपना सारा ध्यान वहां से अपने नागरिकों को सुरक्षित निकालने पर केंद्रित रखा है। यह काम एक बार संपन्न हो जाए, वहां तालिबान की सरकार पूरी तरह स्थापित हो जाए, इसके बाद हमें और अधिक निश्चयात्मक कदम उठाने होंगे। यह अवश्य ही तालिबानी सरकार की आगे की प्रवृत्ति-रुझानों और भारत के प्रति उसकी नीतियों पर निर्भर करता है। इस बात पर भी निर्भर करता है कि वे किस हद तक पाकिस्तान के असर में हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि इनमें से कुछ संकेत तालिबानी नेताओं की बातचीत से मिलेंगे। तालिबान की हुकूमत को मान्यता तभी दी जानी चाहिए अगरचे हम पूरी तरह से मुत्तमईन हो जाएं कि उसकरी सरकार भारतीय हितों के खिलाफ काम नहीं करेगी। इस बारे में हमें विगत में पाकिस्तान की तरफ किए जुबानी वादों-दावों के जैसे ही तालिबान पर ऐतबार नहीं कर लेना चाहिए। हमें पुख्ता गारंटी की तरफ देखना चाहिए। यदि यह नहीं मिलती है तो उस सूरत में तालिबान को मान्यता भी नहीं दी जानी चाहिए। इस मामले को भारत को हड़बड़ी नहीं करनी चाहिए। सब्र से इंतजार करने का खेल हमें फायदा ही दिलाएगा क्योंकि अफगानिस्तान में तालिबान की हुकूमत का ढांचा अपनी ही दुश्वारियों से तंग आ जाएगा, तब उन मौकों का इस्तेमाल अपने फायदे के लिए कर सकते हैं।

जब तक हम इस उधेड़बुन या असमंजस में हैं कि तालिबान को मान्यता दी जाए या नहीं, तब तक हमें वे काम करने चाहिए जो हम पहले से करते आ रहे हैं, खुली औऱ सीधी मुखालफत न करने की बजाए अफगानिस्तान में मानवाधिकारों के उल्लंघन होने एवं उसके आतंकवाद के पनाहगाह के रूप में उभरने से विश्व में खतरों की आशंका के प्रति आवाज बुलंद करने का काम जारी रखना चाहिए। हालांकि, हमारे मीडिया, गैरसरकारी संगठनों (एनजीओज) को प्रेरित किया जा जाना चाहिए कि वे तालिबान के मसले पर खुली एवं सीधी लगातार आलोचना करते रहें। संयुक्त राष्ट्र प्रतिबंध समिति में हमारी स्थिति मामले के जायज-नाजायज होने से तय होनी चाहिए, भले ही उससे तालिबान चिढ़ जाए।

जहां तक तालिबान प्रतिरोधी अभियान का सवाल है तो हमें प्रकट रूप से इनकार किंतु गुप्त रूप से इसका समर्थन करना चाहिए। रही बात, अफगानिस्तान को आर्थिक सहायता देने का सवाल तो यह मदद उसे केवल तभी दी जानी चाहिए जब हम वहां काबिज तालिबानी हुकूमत को अपनी मान्यता दे लें और वहां बाकायदा अपने दूतावास फिर से खोल लें। इस तर्कपूर्ण सार्थक सहायता के बिना कोई प्रयोजन हल नहीं होगा। इस अवांछित घटनाक्रम में हमें यह तो भलीभांति मालूम है कि तालिबान भारत के साथ खेल करेगा तो हम इसको जाहिर करने पर विचार कर सकते हैं, जो हमें करना चाहिए, वह यह कि हम पाकिस्तान एवं अधिकांश अंतरराष्ट्रीय समुदाय के बनिस्बत डूरंड लाइन की व्याख्या के लिए तैयार होंगे।

चूंकि अफगानिस्तान में काबिज तालिबान 2.0 पहली तालिबानी हुकूमत की ही कॉपी है, लिहाजा भारत के लिए उसकी सुरक्षा पर दीर्घकालीन प्रतिकूल असर पड़ेगा लेकिन वे चुनौतियां अजेय नहीं होंगी कि उनका मुकाबला न किया जा सके। यह न केवल कश्मीर में आतंकवाद को बढ़ाने के प्रयास के रूप में सामने आएगा बल्कि देश के अन्य हिस्सों में उसका विस्तार देखने को मिलेगा। यह काम होगा पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आइएसआइ के निर्देशन में और उसके इशारे पर। तालिबानी हुकूमत में भारत में मादक द्रव्यों की घरेलू उपयोग एवं निर्यात करने के लिए, दोनों ही मायनों में, उसकी तस्करी के बढ़ जाने की भी आशंका हो सकती है। शायद, इन सबसे संगीन बात है कि भारत के खिलाफ आतंकवाद फैलाने के काम में तालिबान द्वारा स्थानीय कट्टरवादियों को उकसाने की आशंका। इन परिस्थितियों में, हमें अधुनातन तकनीक के इस्तेमाल के साथ आतंकवाद के खिलाफ अपने ग्रिड और मजबूत करने की फौरी जरूरत है। इसमें कोई शक नहीं कि भारत की किलेबंदी अभेद्य है, पर इसी के साथ यह भी नहीं भूलना चाहिए कि हम विगत दशकों में इसे लेकर ठगे रह गए हैं। अतः हमारी प्रणाली में लगातार सुधार एवं सतत निगरानी इस समय की आवश्यकता है।

Translated by Dr Vijay Kumar Sharma (Original Article in English)


Image Source: https://c.ndtvimg.com/2021-08/gqqt2lnc_kabul-airport-blast-reuters-650_625x300_27_August_21.jpg

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