तालिबान की रंगाई-पुताई करने से बाज आएं
Arvind Gupta, Director, VIF

काबुल हवाई अड्डे एवं एक होटल करीब एक साथ दो विध्वंसक आतंकवादी हमलों में 160 से ज्यादा लोग मारे गए, जिनमें 13 अमेरिका के फौजी जवान थे। इस्लामिक स्टेट-खुरसान (आइएस-के) आतंकवादी संगठन ने ये हमले करने का दावा किया है, जो उस देश के प्रतीक्षारत मनहूस भविष्य का स्मरण कराता है। अमेरिकी राष्ट्रपति जोए बाइडेन ने इन “हमलों के साजिशकर्ताओं को कहीं से भी ढूंढ़ निकालने और उन्हें इनका ‘अंजाम’ भुगतने की” शपथ ली है। अफगानिस्तान तालिबान की पुनर्वापसी ने पूरे विश्व को हिंसा एवं प्रतिहिंसा के दौर के फिर से शुरू होने की तरफ धकेल दिया है।

तालिबान के हिमायतियों ने तुरंत ही इसका तोड़ निकाला कि आइएस-के का तालिबान के साथ ही झगड़ा-फसाद है। आइस-के ने कहने तालिबान को बदनाम करने के लिए ही यह हमला किया है। यह विचार तालिबान को एक अच्छी रोशनी में पेश करता है और उसको ही आतंकवाद से पीड़ित बताता है।

चूंकि तालिबान ने 15 अगस्त को ही काबुल पर कब्जा जमा लिया था, तो कई खेमों की तरफ से उसे अफगानिस्तान के एक ‘बचावकर्ता’ के रूप में दिखाने के केंद्रित प्रयास शुरू हो गए और काबुल की व्यवस्था के सरकार के हाथ से जाने एवं इसके बाद, वहां अफरा-तफरी मचने का सारा दोष अफगानिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति अशरफ गानी, जो देश को अराजक स्थिति में छोड़ कर भाग गए थे, उन पर एवं अमेरिका पर डाल दिया गया। तर्क दिया गया कि ऐसी स्थिति में तालिबान ने अगर बागडोर नहीं संभाली होती तो अफगानिस्तान अराजकता एवं रक्तपात में फंस गया होता।

तालिबान ने अपने पहले प्रेस कॉन्फ्रेंस में एक समावेशी सरकार का गठन करने एवं महिलाओं को पढ़ाई जारी रखने की इजाजत देने तथा शरीअत के मुताबिक हुकूमत चलाने की बात कर अपने बारे में भी एक बेहतर महौल बनाने की कोशिश की थी। ये बातें तालिबान के सुधरे चरित्र के सबूत के तौर पर की गई थीं। इसके बाद से तर्क दिया जा रहा है कि तालिबान पहले वाला नहीं रहा, वह काफी बदल गया है और उसे अपने कहे हुए को पूरा करने का मौका दिया जाना चाहिए।

तालिबान के साथ बेहतर व्यवहार करने के पक्ष में एक जो दूसरा तर्क दिया जाता है, वह यह कि अफगानिस्तान में व्यापक मानवीय संकट उत्पन्न हो रहा है। ऐसा देश जो पहले से ही सुखाड़ के चंगुल में है, अब वह खाद्यान्न संकट से जूझ रहा है। सरकारी व्यवस्था ध्वस्त हो चुकी है। सरकारी खजाना खाली हैं। तर्क यह है कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय को ऐसे विकट हालात में अफगानिस्तान का हाथ-साथ नहीं छोड़ना चाहिए, बल्कि उसे दौड़ते हुए आ कर तालिबान को गले लग लेना चाहिए, उसकी सहायता करनी चाहिए ताकि अफगान के लोगों तक तत्काल उनकी मानवीय मदद पहुंचाई जा सके। यह कहा गया कि तालिबान को अलग-थलग कर देने से अफगान के लोगों की त्रासदी कई गुनी बढ़ जाएगी।

ये सारे तर्क आत्मतोष के तर्क हैं। इन्हें तालिबान के घिनौने रिकार्ड को धोने-पोंछने के इरादे से गढ़े गए हैं। कुछ हफ्ते पहले तक यही तालिबानी आतंकवादी हमलों के जरिए अपने ही मुल्क के बेकसूर लोगों को मौत के घाट पहुंचाने के काम में अग्रिम मोर्चे पर लगे थे। सच तो यह है कि उनकी स्त्री-द्वेषी, मध्ययुगीन सोच एवं आततायी मानसिकता जरा भी नहीं बदली है। उनका अत्याचार देश के अनगिनत हिस्सों में बदस्तूर है। आम अफगानी खौफ में हैं। अगर तालिबानी सुधर गए होते या नेक इंसान हो गए होते तो जैसा कि कहा जा रहा है, तो पुरुष-महिलाएं, बूढ़े एवं बच्चे अपनी जान को जोखिम में डाल कर भी मुल्क से क्यों भाग रहे होते?

कल्पना की किसी भी हद से तालिबानी अफगान के रक्षक नहीं हैं। वे शरीअत कानून के मुताबिक अफगानिस्तान को इस्लामिक अमीरात बनाने के अपने सपना को पूरा करने के बेहद करीब हैं। इस मौके को उन्होंने वर्षों तक बड़े पैमाने पर किए गए रक्तपात के बाद हासिल किया है। तालिबान दरअसल एक हिंसक आतंकवादी संगठन हैं। उन्हें संयुक्त राष्ट्र की वैश्विक आतंकवादी संगठनों की सूची में शामिल किया गया है। तालिबान का अल कायदा से अब भी सांठगांठ बरकरार है, यह बात संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट में दर्ज है।

इस तालिबान को खड़ा करने एवं उसे जारी रखने की खुराक देने में पाकिस्तान की भूमिका तो भुलाई ही नहीं जा सकती। दुनिया इस बात को जानती है कि पाकिस्तान की मदद के बिना तालिबान अफगानिस्तान की सत्ता में लौट ही नहीं सकता था। इसके आतंकवादी पाकिस्तानी मदरसे में पढ़े-लिखे हैं और उन्हें पाकिस्तान के सत्ता प्रतिष्ठानों ने रचा है। उनके आका पाकिस्तान में रहते हैं और उन्हें पाकिस्तान सरकार का समर्थन हासिल है। हक्कानी नेटवर्क, एक वैश्विक आतंकवादी संगठन है और वह तालिबान का एक अजेय घटक है, जिसने अफगानिस्तान स्थित भारतीय दूतावास पर 2010 में भीषण आतंकवादी हमला किया था, जिसमें 50 से अधिक लोग मारे गए थे।

आतंक का यह नया अवतार आइएस-के का हक्कानी नेटवर्क से गहरी सांठगांठ है। अमेरिकी इस बात को बखूबी जानते हैं कि हक्कानी नेटवर्क पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आइएसआइ का असल हाथ है। अब इसी हक्कानी नेटवर्क के हवाले काबुल की सुरक्षा है। इसलिए वे काबुल हवाईअड्डे पर हमले की जवाबदेही से नहीं बच सकते। तालिबान का आइएस-के के साथ अपनी दूरी बताना, बस एक बिडम्बना है। आइएस-के का सरगना आइएसआइ के संरक्षण में है।

अपनी खुलेआम मुनादी के बावजूद तालिबान ने वास्तविकता में एक समावेशी सरकार का गठन नहीं किया है। दोहा शांति समझौते में उन्होंने किसी अन्य को सत्ता का भागीदार बनाने से बारहां परहेज किया है। इसलिए उनके सार्वजनिक घोषणा के आधार पर दुनिया को मूर्ख नहीं बनाया जा सकता।

तालिबान का अफगानिस्तान की हुकूमत पर काबिज हो जाने का एक गंभीर परिणाम यह हुआ है कि वैश्विक जेहादी नेटवर्क्स को संजीवनी मिल गई है। भले ही इन आतंकी समूह एक दूसरे समूह को सुहाते नहीं हों, उनमें मार-काट रहती हो, पर ये बातें उनके आतंक-अत्याचार से पीड़ित लोगों के लिए कोई राहत या सांत्वना नहीं हैं।

ऐसे में, तालिबान का आश्वासन एक भ्रम है। वे अतीत के अपने क्रूर-व्यवहारों से और उनसे संबंध को न तोड़ने को लेकर काफी स्पष्ट हैं। तालिबान अमीरात अथवा शरीअत कानून पर किसी तरह का कोई समझौता नहीं करेंगे। अंतरराष्ट्रीय समुदाय इस तथ्य को नजरअंदाज नहीं कर सकता।

अफगानिस्तान में इस बढ़ते मानवीय संकट को बेशक हल निकाला जाना चाहिए। संयुक्त राष्ट्र का मानवाधिकार मिशन आगे नहीं बढ़ सकता, जब तक कि उसकी सहायता पहुंचाने वाली टीम के सदस्यों की जान पर आफत हो। इसलिए यूएन सहायताकर्मियों के जानमाल की सुरक्षा अहम है। इस बात की कोई गारंटी नहीं कि उन पर आतंकवादी हमले नहीं किए जाएंगे। तो इस काम में पहले उन देशों को लगाया जाए जो तालिबान के आने की खुशी में थिरक रहे थे।

यह छिपा तथ्य नहीं रहा है कि आइएसआइ अफगानिस्तान में होने वाले आतंकवाद की जननी है, जबकि उसका अनेक आतंकी संगठनों के रिश्तों में खट्टास है। इसलिए पाकिस्तान इन आतंकवादी संगठनों को खुराक देने की अपनी जवाबदेही से यह दावा करके नहीं बच सकता कि ये सभी भी आतंक के शिकार हैं। वास्तविकता तो यह है कि इसने ही फ्रैंकस्टीन को पहले रचा था।

अमेरिका भी जिहाद एवं सोवियत रूस के खिलाफ लड़ रहे अल कायदा जैसे संगठनों को वैध ठहराने के इल्जाम से बच नहीं सकता। अमेरिका तो तालिबान की पहली हुकूमत के साथ कारोबार करने के लिए तैयार हो गया था। लेकिन 9/11 के बाद उसे फैसले से बाज आना पड़ा। अब इस दूसरे चक्र में, तालिबान को वैधता प्रदान की गई और यह अमेरिका के साथ दोहा में नामूदार हुआ जब वाशिंगटन ने अफगानिस्तान से निकलने के लिए उससे दोहा में समझौता किया था।

काबुल के नए शासक के रूप में तालिबान के सहज अवतरण एवं अंतरराष्ट्रीय समुदाय द्वारा उसकी मान्यता दिलाने के लिए बुनियाद पहले से तैयार की जा रही थी। लेकिन तालिबान के इतिहास और वर्तमान को देखते हुए तालिबान को वैधता देना एवं उसकी सरकार को मान्यता देना एक भूल साबित होगी। इसके लिए तालिबान को पहले पाक-साफ होना है और अपनी हानिकारक विचारधारा से तौबा करनी है तथा आतंकवाद से पूरी तरह अपना नाता तोड़ना है। तब उसे वैधता एवं मान्यता देने पर विचार किया जाए।

फिलहाल, तालिबान की छवि को चमकाने का काम किया जा रहा है। अंतरराष्ट्रीय समुदाय को चाहिए कि वह सतर्क-सावधान हो जाए। तालिबान को अपनी वैश्विक मान्यता खुद उपार्जित करने देना चाहिए और इसे एक तश्तरी में उसे नहीं परोसा जाना चाहिए। देश की एक निर्वाचित सरकार को आतंकित कर, डरा कर, उसे धोखा दे कर एवं मीडिया मैनेज कर सत्ता में आने के तरीके को कतई पुरस्कृत नहीं किया जाना चाहिए। उसके पापों को इतनी आसानी से भुलाया नहीं जा सकता।

Translated by Dr Vijay Kumar Sharma (Original Article in English)


Image Source: https://images.news18.com/ibnlive/uploads/2021/08/afghanistan-3-16291259913x2.jpg?impolicy=website&width=510&height=356

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