नवम्बर 2021 में ग्लासगो में जलवायु परिवर्तन कॉप26 (COP26) की बैठक से पहले कुछ कठिन सवाल उभर कर सामने आए हैं। इनमें सबसे अहम है कि क्या अंतरराष्ट्रीय समुदाय जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए गंभीर है?
COP26 के अध्यक्ष एवं ब्रिटिश सांसद, आलोक शर्मा ने UNFCC (जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र का फ्रेमवर्क कन्वेंशन) के सदस्यों को लिखे अपने पत्र में COP26 के समक्ष प्रमुख मुद्दों में वैश्विक तापमान "1.5 ° C को बनाए रखने" और "$ 100 बिलियन डॉलर लक्ष्य को पूरा करने के जरिए "जलवायु वित्तपोषण को आगे बढ़ाने" के रूप में सूचीबद्ध किया है।[1]
यह याद किया जा सकता है कि 2015 के पेरिस जलवायु परिवर्तन समझौते ने इस पर हस्ताक्षर करने वाले देशों (पूरी दुनिया!) को इस पर सहमत होने के लिए बाध्य कर दिया था कि वे ग्लोबल वार्मिंग के स्तर को पूर्व-औद्योगिक युग के स्तरों की तुलना में 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे (अधिमानतः 1.5 डिग्री सेल्सियस तक) सीमित करने की दिशा में काम करें। इसने "जितनी जल्दी हो सके ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के वैश्विक शिखर" और "मध्य शताब्दी तक एक जलवायु तटस्थ दुनिया" बनाने के बारे में भी बात की थी।[2] दरअसल, इन सहमत लक्ष्यों से चूक जाने का खतरा है, जब तक कि इस दिशा में कुछ कठोर कार्रवाई नहीं की जाती है।
वास्तव में जिम्मेदारी उन देशों की है, जो कार्बन के ऐतिहासिक उत्सर्जन के लिए प्राथमिक रूप से जिम्मेदार हैं।
इस संदर्भ में जरा इस पर विचार किया जाए कि पेरिस समझौते पर हस्ताक्षर करने के बाद से देशों का क्या रिकॉर्ड रहा है? यूएनईपी की एक हालिया रिपोर्ट में कहा गया है कि "बढ़ी हुई जलवायु महत्त्वकांक्षाओं और शुद्ध-शून्य प्रतिबद्धताओं के बावजूद, दुनिया की सरकारें अभी भी 2030 में जीवाश्म ईंधन की मात्रा को दोगुना से अधिक उत्पादन करने की ही योजना बना रही हैं, जो कि ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के अनुरूप होगा।"[3]
इंटरनेशनल पैनल ऑफ क्लाइमेट चेंज (आइपीसीसी) की रिपोर्ट और कई अन्य वैज्ञानिक आकलन अंधकारमय भविष्य की ओर इशारा कर रहे हैं क्योंकि जलवायु परिवर्तन पृथ्वी ग्रह पर जोर पकड़ रहा है। मौसम के ऐसे चरम परिवर्तन के परिदृश्यों से जाहिर होता है कि यदि जीवाश्म ईंधन की खपत में वर्तमान दर से वृद्धि जारी रहती है तो 2100 तक वैश्विक तापमान 5 डिग्री सेल्सियस पार कर सकता है।
चरम जलवायु घटनाओं की बढ़ी हुई आवृत्ति ने सभी को आश्चर्यचकित कर दिया है। हर दिन एक विनाशकारी तूफान, पिघलती बर्फ की चादरें, जंगल की आग, नष्ट होते तट, भयंकर बाढ़, और अन्य प्राकृतिक घटनाओं को देखा-सुना जाता है, जो बड़े पैमाने पर सभी तरह के विकास का विनाश करते हैं-हालांकि वे सार्वजनिक धारणा में जलवायु परिवर्तन से जुड़े हुए प्रतीत होते हैं। संसाधनों के साथ सबसे विकसित देश भी प्रकृति के इन कहरों के आगे बेबस हैं। तूफान, बाढ़, समुद्र के स्तर में वृद्धि से होने वाले नुकासन की भरपाई में खरबों डॉलर की आर्थिक लागत लगती है। इन सबमें मानवीय नुकसान तो अगणनीय है। इसलिए कि मानव लागत अमूर्त है।
जलवायु परिवर्तन को लेकर काफी चिंता जताई गई है लेकिन इससे कैसे निपटा जाए, इस पर सभी देशों में पर्याप्त सहमति नहीं बन पाई है।
2015 के पेरिस जलवायु परिवर्तन समझौते ने देशों को विभिन्न देशों द्वारा निर्धारित राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (आईएनडीसी) के लिए साथ आने को प्रोत्साहित किया था, लेकिन उन देशों ने ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस से कम रखने की दिशा में पर्याप्त प्रयास नहीं किया। हाल के दिनों में लोकप्रिय परहेज देशों को अपनी अर्थव्यवस्थाओं को डी-कार्बोनाइज करने और 2050 तक शुद्ध शून्य उत्सर्जन में परिवर्तन करने के लिए राजी करना रहा है। इसके लिए जीवाश्म ईंधन से ऊर्जा के स्वच्छ स्रोतों की ओर स्थानांतरित करके अर्थव्यवस्था को डीकार्बोनाइज करने के लिए बड़े पैमाने पर प्रयासों की आवश्यकता होगी।
डीकार्बोनाइजेशन का बोझ अनुपातहीन है। विकासशील देश जो कुल उत्सर्जन के प्रतिशत के रूप में उत्सर्जन में अपेक्षाकृत कम योगदान करते हैं, उन्हें उसी तरह से डीकार्बोनाइजेशन का बोझ उठाने के लिए कहा जा रहा है, जैसे विकसित देश जो ऐतिहासिक रूप से प्रारंभिक औद्योगीकरण के कारण CO2 के मुख्य उत्सर्जक रहे हैं।
क्योटो प्रोटोकॉल (जिस पर 1997 में सहमत बनी और 2005 में उसे लागू किया गया) ने यह परिकल्पना की थी कि औद्योगिक देशों द्वारा मौजूदा समय किए जा रहे कार्बन के उत्सर्जन में 2012 तक 5 प्रतिशत की कमी लाते हुए उसे 1990 के स्तर पर ला दिया जाएगा। क्योटो प्रोटोकॉल में दोहा संशोधन (जो दुर्भाग्य से कभी लागू नहीं हुआ) ने फिर इस अवधि को बढ़ा कर 2020 कर दिया, जिसके मुताबिक उत्सर्जन का स्तर 1990 के स्तर से 20 प्रतिशत नीचे आ जाना चाहिए था। इसकी बजाय, हमने किया क्या है? 1990 में 22 बिलियन टन के स्तर की तुलना में 2018 तक वैश्विक उत्सर्जन 36 बिलियन टन तक पहुंच गया! इसमें अमेरिका, चीन और यूरोपीय संघ के वार्षिक उत्सर्जन का दो-तिहाई हिस्सा है।
जलवायु परिवर्तन की बहस के शुरुआती दिनों में, प्रदूषण के जिम्मेदार देशों को भुगतान करने, इसकी ऐतिहासिक जिम्मेदारी लेने और प्रदूषण के अंतर उपचार के सिद्धांत आम थे। तब विचार यह था कि उत्सर्जन में कमी की मुख्य जिम्मेदारी विकसित देशों द्वारा वहन की जानी है, जिन्होंने अपने विकास को बढ़ावा देने के लिए सस्ते ईंधन का लाभ उठाया था और अधिकांश उपलब्ध कार्बन स्थान पर कब्जा कर लिया था। लेकिन अब तो कोई भी उस जलवायु न्याय के बारे में बात नहीं करता है। इस अर्थ में पेरिस समझौता प्रतिगामी था। यह दुर्भाग्यपूर्ण है।
COP26 में कई समाधानों पर बात की जाएगी। देशों को अपने उत्सर्जन में कटौती करने और इलेक्ट्रिक वाहनों और कार्बन पृथक्करण (एक प्राकृतिक या कृत्रिम प्रक्रिया जिसके द्वारा कार्बन डाइऑक्साइड को वायुमंडल से हटा दिया जाता है और ठोस या तरल रूप में रखा जाता है।) जैसी नई तकनीकों को पेश करने के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा। लेकिन जलवायु परिवर्तन के मूल में व्याप्त भौतिकवाद पर अंकुश लगाने की आवश्यकता के बारे में कोई बात नहीं करेगा। कोई यह नहीं कहेगा कि गरीब लोगों को भी सभ्य जीवन का अधिकार है, जो कि सस्ती ऊर्जा तक उनकी पहुंच से वंचित किए जाने पर उस जीवन जीने से वंचित हो जाएंगे। प्रदूषण कम करने का सबसे अच्छा तरीका गरीबी हटाना है। लेकिन इस बारे में पवित्र वादे किए जाएंगे। किंतु इस बारे में अगर विगत हमारा मार्गदर्शक है, तो इस आधार पर कहा जा सकता है कि इन वादों का कोई मूल्य नहीं है।
विकासशील देशों की मदद के लिए सालाना 100 बिलियन अमरीकी डॉलर उपलब्ध कराने का वादा कागजों पर ही बना हुआ है। प्रौद्योगिकी के मोर्चे पर भी कोई मदद नहीं मिली है।
विशुद्ध रूप से आर्थिक और तकनीकी समाधान काम नहीं कर सकते क्योंकि विकासशील देश ऊर्जा संक्रमण की लागत वहन नहीं कर सकते।
इसके अलावा, अमेरिका, यूरोपीय संघ और चीन जैसे शीर्ष प्रदूषक देश कार्बन उत्सर्जन को नियंत्रित करने के लिए पर्याप्त काम नहीं कर रहे हैं। उन्हें डीकार्बोनाइजेशन को त्वरित गति से करना चाहिए और कम प्रदूषकों को डीकार्बोनाइज करने के लिए अधिक समय देना चाहिए।वही न्यायसंगत और न्यायपूर्ण होगा।
भारत पर दबाव डाला जा रहा है कि वह जितनी जल्दी हो खुद के लिए एक शुद्ध-शून्य उत्सर्जन तिथि घोषित कर ले। 2050 तक शुद्ध-शून्य उत्सर्जन भारत की संवृद्धि और विकास के लिए हानिकारक होगा। कुछ लोगों का तर्क है कि भारत को 2070 तक नेट जीरो का लक्ष्य हासिल कर लेना चाहिए। सरकार ने अभी तक अपने इरादे घोषित नहीं किए हैं, और ऐसा कर ठीक ही किया है। इसलिए कि भारत अपने विकास से समझौता नहीं कर सकता। हालांकि इसका यह भी मतलब नहीं है कि भारत जलवायु परिवर्तन को लेकर चिंतित नहीं है।
1.4 बिलियन की आबादी वाले भारत जैसे देश के लिए, और जीवाश्म ईंधन और कोयले पर अत्यधिक निर्भरता, तेजी से, अनियोजित डीकार्बोनाइजेशन के परिणाम बहुत गंभीर होंगे। स्वच्छ ऊर्जा की ओर बदलाव, हालांकि इस दिशा में काम चल रहा है, पर यह आसान नहीं होने वाला है। पश्चिमी देश जिस स्वच्छ प्रौद्योगिकी की बात करते हैं, वह भी महंगी होने वाली है। भारत को इन तकनीकों के लिए पश्चिमी देशों पर निर्भर रहना होगा। एक तरह की निर्भरता को दूसरी तरह की निर्भरता में बदल जाएगी।
भारत का उत्सर्जन से निपटने का अच्छा रिकॉर्ड है। हमारा प्रति व्यक्ति वार्षिक उत्सर्जन अमेरिका के 15.2 टन, चीन के 7.4 टन, जापान के 8.7 टन, कोरिया के 15.2 टन और यूरोपीय संघ के 6.4 टन से भी कम है ही, वह विश्व औसत 4.4 टन से बहुत कम 1.8 टन ही है।[4] जबकि हमारा 2030 तक स्वच्छ स्रोतों से 450 गीगावॉट ऊर्जा पैदा करने का महत्वाकांक्षी लक्ष्य है, स्वच्छ और नवीकरणीय ऊर्जा का हिस्सा अभी भी 10 प्रतिशत से कम है। भारत में कोयले और पेट्रोलियम खपत पर भी उच्च कर लगाए गए हैं। इसने एक अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन का भी नेतृत्व किया है।
हां, दुनिया को जलवायु परिवर्तन से तत्काल निपटने की जरूरत है। लेकिन इसको निष्पक्ष और न्यायपूर्ण तरीके से किया जाना चाहिए। यह किस तरह होगा?
[1]https://unfccc.int/sites/default/files/resource/210921_Pre-COP_letter_CPD_final.pdf
[2]https://unfccc.int/news/governments-fossil-fuel-production-plans-dangerously-out-of-sync-with-paris-limits
[3]https://unfccc.int/news/governments-fossil-fuel-production-plans-dangerously-out-of-sync-with-paris-limits
[4]https://data.worldbank.org/indicator/EN.ATM.CO2E.PC
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