रूस-पाकिस्तान संबंध एक भुलावा
Arvind Gupta, Director, VIF

रूस के विदेश मंत्री लावरोव 5-6 अप्रैल 2021 को भारत दौरे पर आए था। उनका मकसद अपने राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के भारत दौरे की तैयारी का जायजा लेना था, जो इस साल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ सालाना शिखर वार्ता के लिए आ रहे हैं।

इसमें कोई संदेह नहीं कि भारत और रूस संबंध काफी गहरा है, किंतु वे अंतरराष्ट्रीय संबंधों में पैदा होने वाली लहरों से अछूते नहीं हैं। दोनों में सैन्य-तकनीकी सहयोग गहराई लिए हुए है तो स्पूतनिक वैक्सीन के भारत में निर्माण की सुविधा देने के साथ द्विपक्षीय संबंधों में एक नया उछाल आ गया है। भारत में इस वैक्सीन की 750 मिलियन खुराकों का उत्पादन किया जाना है।

लावरोव के दिल्ली के बाद इस्लामाबाद की यात्रा करने से कुछ प्रश्न बन गये हैं। क्या रूस भारत को पाकिस्तान के साथ जोड़ कर देख रहा है? यह चिंता की बात है। ठीक वैसे ही, रूस और चीन से बढ़ती साझेदारी भारत के लिए चिंता का सबब बन रही है। इस तथ्य से इनकार नहीं कि भारत-चीन के संबंध दशकों में अभी सबसे निचले स्तर पर है। रूस-चीन-पाकिस्तान का नया बना त्रिगुट भी भारत की सुरक्षा पर गंभीर प्रभाव डालेगा।

यह जानी-मानी बात है कि नीतियां भावनाओं पर नहीं टिकाई जातीं। भारत को यह धरातलीय वास्तविकता स्वीकार कर लेनी चाहिए और इस पर उसे अति प्रतिक्रिया नहीं देनी चाहिए। जिस तरह भारत ने अमेरिका सहित विभिन्न दिशाओं के देशों में अपने संबंधों का विस्तार किया है; उसी तरह रूस पश्चिमी देशों की शत्रुता का सामना करते हुए चीन के साथ अपने संबंध को और मजबूत करेगा, उसे गहराई देगा। ऐसा ही वह दूसरे क्षेत्रों में भी कर सकता है।

यह वास्तविकता है कि रूस विगत कई सालों से पाकिस्तान के साथ संबंध विकसित करने की कोशिश कर रहा है। दोनों देशों ने सहयोग बढ़ाने के लिए उपयुक्त मशीनरी का भी गठन किया है। रूस-पाकिस्तान संयुक्त आयोग की तो कई बार बैठकें भी हो चुकी हैं। हालांकि उनका द्विपक्षीय व्यापार 750 मिलियन अमेरिकी डॉलर है, जो बहुत ज्यादा नहीं है लेकिन उसमें वृद्धि का रुझान दिख रहा है। दोनों ही देशों ने 2015 के इंटरगवर्नमेंटल एग्रीमेंट को लागू करने का फैसला किया है, जिसके तहत कराची से लाहौर तक गैस पाइप लाइनें बिछाई जानी हैं। लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि इसके लिए धन कहां से आएगा। पाकिस्तान का खजाना खाली है और उसकी अर्थव्यवस्था गहरे संकट में है। तो क्या इसके लिए रूस या चीन धन देगा? रूस और पाकिस्तान के आर्थिक संबंध एक स्वाभाविक सीमा तक ही जा सकते हैं।

तेजी से बदलते वैश्विक और क्षेत्रीय परिदृश्य में, भारत को रूस और पाकिस्तान के बीच व्यापक रक्षा एवं सुरक्षा सहयोग की उम्मीद करनी चाहिए। रूस पाकिस्तान को आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई के मकसद से ‘उपकरणों’ की आपूर्ति करने जा रहा है। विगत में उसने पाकिस्तान को एमआई 17 हेलीकॉप्टर्स दिये हैं। रूस निर्मित इंजिन चीन द्वारा पाकिस्तान को मुहैया कराए गए लड़ाकू विमानों में एकदम फिट बैठते हैं। इसके अलावा, रूस और पाकिस्तान अरब सागर में तथा ऊंची चोटियों पर भी एक संयुक्त सैन्य अभ्यास करने वाले हैं। इस घटनाक्रम पर भारत को निश्चित ही चिंता होनी चाहिए।

लावरोव के शब्दों में, रूस और चीन के संबंध इतिहास के बेहतर दौर से गुजर रहे हैं। हालांकि उन्होंने तुरंत इसको दुरुस्त करते हुए कहा कि वह गठबंधन नहीं कर रहे। ऐसी सूरत में, भारत चीन को लेकर अपनी चिंताओं के बारे में रूस से सिर्फ बेहतर समझदारी दिखाने की उम्मीद कर सकता है और अपनी सुरक्षा के लिए आवश्यक कदमों को उठाने पर बाध्य हो सकता है। इसी मोड़ पर चतुष्टय (क्वाड) की प्रासंगिकता बनती है।

लावरोव हिंद-प्रशांत अवधारणा एवं चतुष्टय (क्वाड) के कठोर आलोचक रहे हैं। उन्होंने नई दिल्ली में क्वाड का नाम लिए बिना ही ‘एशियाई-नाटो’ के बारे में बातचीत की और इस्लामाबाद में इसे उन्होंने एक ‘अस्पष्ट गठन’ करार दिया, जो आसियान की केंद्रिकता में तनाव पैदा कर रहा है और उसे नुकसान पहुंचा रहा है। उनके इस वक्तव्य के बाद भारत को चाहिए कि वह रूस को फिर से आश्वस्त करे कि क्वाड का गठन उसके हितों को नुकसान पहुंचाने के लिए नहीं है। यह मुख्य रूप से चीन की आक्रामकता के विरुद्ध है, जो क्षेत्र में तनाव पैदा करता है। भारत चीन के विस्तारवाद को चुपचाप सहन नहीं कर सकता।

भारत हिंद-प्रशांत क्षेत्र में रूस की चिंताओं से वाकिफ है। यही वजह है कि उसने क्षेत्र में रूस को एक महत्वपूर्ण साझेदार कहा है और अपने एक्ट फॉर ईस्ट पॉलिसी और चेन्नई-व्लादिवोस्तोक समुद्री संपर्क परियोजना पर चर्चा की है। इन परियोजनाओं का तेजी से समय पर पूरा होना भारत के हित में है।

इन सबके साथ, भारत को रूस एवं अमेरिका के साथ अपने संबंधों को संतुलित करना होगा। सीएटीएसएसए के तहत अमेरिकी प्रतिबंध की तलवार भारत पर भी लटक रही है। अगर भारत ने रूस से एस-400 एवं मिसाइल रक्षा प्रणाली की खरीद की तो भी उसे इसकी आंच सहनी पड़ेगी। अगर भारत इन सौदों को तज देता है तो इसकी कोई गारंटी नहीं कि अमेरिका आगे भी उस पर दबाव नहीं डालेगा।

रूसी विदेश मंत्री लावरोव ने स्पष्ट कहा है कि उनका देश भारत की सैन्य खरीद विविधिकरण की इच्छा को अच्छी तरह से समझता है। ठीक इसी तरह, उनका आकलन है कि रूस अभी भी भारत का सबसे बड़ा रक्षा आपूर्तिकर्ता सहयोगी बना हुआ है। ऐसे में रूस भारत के साथ अपने लाभदायक संबंधों का टूटना बर्दाश्त नहीं कर सकता। वह भी ऐसे समय में जब भारत द्रुत गति से अपनी सेना का आधुनिकीकरण कर रहा है।

अब हमें यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि अफगानिस्तान, भारत और रूस के विचार अलग-अलग हो सकते हैं। रूस के विचार पाकिस्तान के करीब हो सकते हैं। फिर भी यह समझना एक पहेली से कम नहीं कि अफगानिस्तान के मसले पर रूस के लिए पाकिस्तान का क्या मूल्य होगा। तालिबान की वापसी रूस के हित में कतई नहीं होगी।

रूसियों के लिए तो अफगानिस्तान में आइएसआइएस मुख्य अड़चन है। भारत के लिए तालिबान तो एक समस्या बना ही हुआ है। रूस ने मास्को में हालिया संपन्न हुए त्रिगुट जोड़ 1 वार्ता में भारत को आमंत्रित नहीं किया। पर इसमें कोई डील भी नहीं हुई। अफगानिस्तान में शांति लाने का कोई ढांचा बनाने में कामयाबी नहीं मिली। अमेरिकी राष्ट्रपति जोए बाइडेन की तरफ से अफगानिस्तान से अमेरिकी फौज वापसी की नई मियाद सितम्बर 2021 तय कर देने के बाद से खेल शुरू हो गया है। इसके बावजूद कहीं भी शांति समझौता होता हुआ दिखाई नहीं देता। इस स्थिति में तालिबान अमेरिकी फौज की वापसी का चुपचाप इंतजार करेगा और फिर सत्ता पर काबिज होने की तैयारी करेगा। अमेरिका के ताजा फैसले ने सभी के लिए खुला मैदान छोड़ दिया है, जिसने जोखिम को अनेक गुना बढ़ दिया है।

इन सबके मद्देनजर, भारत के पास तीन विकल्प बचते हैं। पहला, वह पूरी तरह से अमेरिका और पश्चिमी देशों की तरफ आ जाए, जहां रूस विरोधी भावनाएं चरम पर हैं। हां, तब यह होगा कि भारत-रूस संबंध निश्चित तौर पर बुरी तरह बिगड़ जाएगा। दूसरा विकल्प यह है कि रूस-पश्चिमी देशों के बीच शत्रुता में भारत पूरी तरह से रूस के साथ हो ले। इसके साथ जाने पर भारत को उन सभी उपलब्धियों से हाथ धोना पड़ेगा, जो उसने पिछले कुछ वर्षों में हासिल किया है। तीसरा रास्ता है कि भारत इधर या उधर के समर्थन खोने का खतरा कम करते हुए संतुलित आचरण करता रहे।

भारत पहले की तुलना में भू-सामरिक खेल बेहतर खेलने की स्थिति में है। अपनी बड़ी अर्थव्यवस्था, मजबूत नेतृत्व और द्रुत गति से आत्मनिर्भर बनाने वाले कार्यक्रमों के विकास के साथ भारत अब मामूली हैसियत वाला देश नहीं रहा। यह तथ्य है कि न तो अमेरिका और न रूस ही भारत को नजरअंदाज करने का विकल्प चुन सकता है। भारत को चाहिए कि वह स्वयं को दोनों पक्षों के लिए मूल्यवान बनाएं। अपने ‘मेक इन इंडिया’ को विकसित करने के जरिए और निवेश के अवसरों को मुहैया कराने के साथ वह दोनों पक्षों को कुछ न कुछ ऑफर कर सकता है। अमेरिका भारत के लाभदायक बाजार की ओर देख रहा है तो रूस भी। चतुष्टय का त्याग किये बिना भारत को चाहिए कि वह रूस के सुदूर पूर्व में निवेश के लक्ष्य से अपनी एक्ट फार ईस्ट नीति को कामयाब बनाए। उसे अपने यहां रक्षा क्षेत्र में विनिर्माण के लिए रूस को न्योता देना चाहिए। इसके लिए रूस इच्छुक भी है।

इन तकाजों के आधार पर यह मानने का कोई कारण ही नहीं है कि भारत दोनों ही देशों-रूस एवं अमेरिका-के साथ अपने संबंध नहीं रख सकता। बहुत हो गया एक या दूसरे के पीछे चलना! अब एक बड़े भू-राजनीतिक खेल में, भारत को अपनी अंतर्निहित शक्तियों का निर्माण करके बहुध्रुवीय दुनिया में खुद को एक नेता के रूप में उभारना चाहिए।

रूस-पाकिस्तान संबंध एक भुलैया है। भारत को बस अपने सैन्य विकास, आर्थिक और प्रौद्योगिकी की ताकत बढ़ाने पर केंद्रित रहना चाहिए, जो बड़े महत्त्व का है। बाकी काम अपने आप हो जाएगा।

Translated by Dr Vijay Kumar Sharma (Original Article in English)


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