हालिया प्रदर्शनों में हाईब्रिड युद्ध का उपक्रम
Col Pradeep Jaidka (Retd.)

21वीं सदी में, परम्परागत युद्धों का दौर बीत गया है। उसके नये-नये रूपों जैसे कम घनत्व वाले युद्धों,सूचना युद्धों और हाईब्रिड युद्ध उभर कर सामने आए हैं। हाईब्रिड युद्ध राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, सूचना और संरचनागत परिदृश्य के पार राष्ट्रीय भेद्यताओं के विरुद्ध लक्षित सरकार की सत्ता को मंद करने या किसी चुनी गई सरकार को पलट देने के लक्ष्य के साथ एक इच्छुक पक्ष द्वारा की गई एक व्यवस्थित तथा गुप्त पहल है। इसकी कार्रवाई से पहले या बाद में लगाये जाने वाले किसी आरोप से बचने के लिए इसमें ऐहतियातन गोपनीयता और रहस्यमयता बरती जाती है। हाईब्रिड युद्ध पूरी तरह सक्रिय होने और लक्ष्य को नुकसान पहुंचाने के पहले तक गुप्त रहता है।

हाईब्रिड युद्ध किसी स्थापित हुकूमतों को अस्थिर करने और उन्हें चुनौती देने का एक आकर्षक विकल्प हो गया है। चूंकि इस काम में गोपनीयता बनाई रखी जाती है, इसको अंजाम देने वाले की संलग्नता रडार के नीचे रहती है और अस्वीकरण को सुनिश्चित किया जाता है। हाईब्रिड युद्ध में, शांति काल और युद्ध काल के बीच एक रेखा होती है। नागरिकों तथा जांबाजों के बीच की ये रेखाएं धुंधली रहती हैं। लक्षित ईकाई धुंधला (ग्रे जोन) युद्ध, विषम युद्ध (नॉनलिनियर) और अघोषित युद्ध के जरिये व्यवस्थित आक्रमण झेलती है।

बीते साल के दौरान नई दिल्ली के शाहीन बाग और किसान आंदोलनों (यह तो अभी भी जारी है) ने पूरे देश के मीडिया में खूब सुर्खियां वटोरी थीं। दोनों ने भारत की आंतरिक सुरक्षा के वातावरण पर विचित्र स्थितियां पैदा कर दी थीं। यह विश्लेषण दिखाएगा कि इन घटनाक्रमों ने हाईब्रिड युद्ध की विशेष अवधारणा पर ही अमल किया था, जिनमें आबादी के खास तबके ने राष्ट्रीय राज्य को चुनौती देने के अपने प्रदर्शन के बिना पर निश्चित आदेश दिया था।

यह आलेख इसकी पड़ताल करता है कि क्या हालिया प्रदर्शनों में हाईब्रिड युद्ध की अवधारणा का इस्तेमाल किया गया है।

हाईब्रिड युद्ध की विशेषताएं

आज हाईब्रिड युद्ध की मौजूदगी और हकीकत को वैश्विक स्तर पर स्वीकार कर लिया गया है। पर विडम्बना यह है कि इसे कोई समझता नहीं है, कि वस्तुत: हाईब्रिड युद्ध क्या है? इसलिए हाईब्रिड युद्ध की कुछ विशिष्टताओं को इस लेख में आगे विचार किया गया है। हालांकि हाइब्रिड जंग की अभी तक कोई सर्वमान्य परिभाषा तय नहीं हुई है। इसकी एक सामान्य रूप से स्वीकृत परिभाषा का अभी बाहर आना बाकी है। हाईब्रिड जंग की मौजूदा परिभाषाएं इसके किरदारों, युक्तियों, जटिलताओं, रहस्यमयता, स्वत:स्फूर्तता, और इस बारे में आरोपण और प्रतिहार की उपेक्षा की बात करती हैं। इस स्तर पर इतना तो स्पष्ट है कि हाईब्रिड वॉर युद्ध का एक प्रकार है, जिसमें लक्ष्य के विरुद्ध परम्परागत और गैर परम्परागत साधनों, प्रौपगैंडा, गुमराह करने वाली सूचनाएं, छल-छद्मों, औऱ मनोवैज्ञानिक अभियान चलाए जाते हैं।

हाईब्रिड जंग को एक सत्ता का एक व्यापक उपकरण समझा जाता है, जिनमें राजनीतिक, आर्थिक, सैन्य, नागरिक पहलुओं, असैनिक, गैरसरकारी संगठनों, नन स्टेट एक्टर, मीडिया, आर्थिक उपकरणों, साइबर उपकरणों, सूचना अभियानों, खुफिया एजेंसियों, तोड़फोड़ करने, दुष्प्रचार, आतंकवाद या, प्रभावित करने के लिए शत्रुतापूर्ण क्षणों तथा सत्ता संतुलन में हेर-फेर करने अथवा, लक्षित घरेलू आबादी की अवधारणा को बदल देने या समाजों को बांटने के काम शामिल हैं। इसके पहलकर्ता अपने लक्ष्य को सुरक्षित करने के लिए रणनीतिक स्तरों पर सूचना उपकरणों, जैसे कूटनीति, आतंकवाद और आर्थिक हमलों-का उपयोग करता है। इसके पहलकर्ता के नाम गोपनीय रखने का तकाजा यह बताता है कि मानवीय हस्तक्षेप या लक्ष्य आबादी की रक्षा करने की जिम्मेदारी गायब हो जाती है।

हाईब्रिड युद्ध के प्रारंभिक चरण में, मनोवैज्ञानिक अभियानों और दुष्प्रचारों के जरिये आम जनता के बीच पहले से तैयार एक संदेश (सामान्यत: सरकार विरोधी) फैला दिया जाता है। यह आम तौर पर : (1) समाज या राज्य के बेसहारों को लक्षित करने के आधार पर बना होता है, (2) नेटवर्क का विकास करना (3) मीडिया में एकाधिकार कायम करने तथा सूचना की अन्य ईकाइयों के जरिये लक्षित किये जाने वाले आम जन को प्रभावित करने का प्रयास करना। (4) स्थानीय अलगाववादी अभियानों का समर्थन करने (5) राजनीतिकों तथा प्रतिष्ठान के अन्य मुख्य किरदारों के संवर्द्धन करने (6) केंद्रीय अधिकरणों के साथ असंतोष के बीज बोने (7) गड़बड़ी फैलाने के कामों के लिए कुछ लुम्पेन तत्वों के साथ सम्पर्क करने (8) राज्य विरोधी हितों के अभियान का एक खाका बनाने और उसे शुरू करने, मार्च निकालने या प्रदर्शन करने (9) आधारभूत संरचनाओं तथा संस्थाओं को निशाना बनाने (10) हिंसा को उकसावा देने (11) लोगों को गुमराह करने तथा अवधारणा प्रबंधन अभियानों को शुरू करने (12) घरेलू पारम्परिक ताकतों का बल बढ़ाने (13) एक समांतर प्रशासनिक व्यवस्था खड़ी करने पर टिका होता है।

इसका मकसद विध्वंसक प्रयास और गत्यात्मक संचालन को एकसाथ मिला कर नीतियों तथा नीति-निर्माताओं के प्रभाव को चुनौती देना और उन्हें कमतर करना है। मौजूदा समय में, हाईब्रिड युद्ध का सत्ता-परिवर्तन करने, सॉफ्ट कू करने, मुद्दों पर आधारित विद्रोह करने, राज्य-सरकार विरोधी विद्रोहियों को उकसावा देने, उग्रवाद, नॉन स्टेट किरदारों की नागरिक आबादी में घुसपैठ कराने, जासूसी करने, मुख्यधारा के मीडिया और सोशल मीडिया में भ्रामक प्रचार के जरिये लोगों को गुमराह करने और छद्म युद्ध चलाने के लिए काम में लाने का संकेत मिलता है।

इस युद्ध की पहल करने वाले इस मुख्य सिद्धांत का अनुपालन करते हैं कि वह पूरे मामले का एक खाका बनाता है और इस गंदे काम को अंजाम देने के लिए दूसरे तत्वों को सुपुर्द कर देता है। इस प्रकार, वह ‘पीछे से नेतृत्व करता’, है। यह पर्याप्त संसाधन झोंके बगैर लक्ष्य को अस्थिर तथा उनके राजनीति संबंध को हलकान कर सकता है। इसमें हिस्सा लेने वाला व्यक्ति अपनी ही हुकूमत के साथ ‘लड़ने-भिड़ने’ के लिए राजी हो जाता है और उनका प्रदर्शन हिंसा की दहलीज पार नहीं करता है। वह यह सुनिश्चित करता है कि संघर्ष की उसकी मंशा और इस में लिप्त भागीदारों की भनक किसी को न लगे। इसी तरह, हाईब्रिड युद्ध के पहलकर्ता को किसी अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों या सेसरशिप से बचा लिया जाता है।

प्रदर्शनों

हाईब्रिड युद्ध के बारे में इस संक्षिप्त सार को समझने के बाद, निम्नलिखित खंड प्रदर्शनों को संक्षेप में दोहराया जाता है और विश्लेषण किया जाता कि कदाचित ये गुण उसमें अंतर्निहित हैं।

शाहीन बाग का प्रदर्शन : संसद से नागरिकता (संशोधन) अधिनियम(सीएए) पारित किये जाने के विरोध में धरना-प्रदर्शन शुरू हो गया था। नई दिल्ली के जामिया मिलिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी के छात्रों ने इसका विरोध किया, जिसमें पुलिस को दखल देना पड़ा था। इसके बाद मुख्य रूप से (मुस्लिम) महिलाओं की कमान में शाहीन बाग में 11 दिसम्बर 2019 को प्रदर्शन शुरू हुआ, जो 24 मार्च 2020 तक चला था। इसके बाद, दूसरे-दूसरे राज्यों में प्रदर्शन शुरू हो गये थे। वैश्विक महामारी कोविड-19 से निबटने के लिए लॉकडाउन ने शाहीन बाग का प्रदर्शन स्थल खाली कराने के लिए दिल्ली पुलिस को एक अवसर दे दिया।

किसानों का प्रदर्शन : सितम्बर 2020 को संसद में तीन कृषि कानून पारित किये जाने के विरोध में किसानों ने (खास कर पंजाब और हरियाणा के) प्रदर्शन शुरू कर दिया था। वे इस कानून को लौटाये जाने से कम पर किसी भी बातचीत के लिए राजी नहीं थे। यहां तक कि इन कानूनों पर अमल करने से सुप्रीम कोर्ट की लगाई रोक तथा इनकी समीक्षा के लिए कमेटी गठित किये जाने के बावजूद प्रदर्शन खत्म करने से इनकार कर दिया था। इन किसानों की देखादेखी अन्य राज्यों में भी अपेक्षाकृत छोटे और प्रतीकात्मक प्रदर्शन किये गये।

साम्यता

इस संदर्भ में कुछ आयाम महत्वपूर्ण हैं। दोनों प्रदर्शन राजधानी के भीतर या बाहर की सड़कों पर कथित रूप से ‘वाजिब’ मांगों को लेकर किये गये पर रास्तों के जाम होने के बाद आम नागरिकों की आवाजाही में परेशानी होने लगी। प्रदर्शनकारियों ने अपनी मांगों पर पुनर्विचार की सरकार की अपील ठुकरा दी, प्रोपगैंडा किया, तोड़फोड़ की औऱ हिंसा में शामिल रहे।

मीडिया के एक समूह ने प्रदर्शनकारियों के सरोकारों को अतिरंजित कर अपनी रिपोर्टें देने लगा। कुछ चैनलों की मंशा और कवरेज के नतीजतन भ्रामक खबर प्रसारित की जाने लगीं। इससे इसके पीछे के बड़े प्रभावों का खुलासा हुआ।

शाहीन बाग का प्रदर्शन उस समय शुरू किया गया था, जब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भारत दौरे पर आने वाले थे। किसानों का प्रदर्शन तब किया गया, जब ब्रिटिश प्रधानमंत्री गणतंत्र दिवस के परेड समारोह में मुख्य अतिथि की हैसियत से आने वाले थे। हालांकि बाद में स्वयं ब्रिटेन ने ही कोरोना के हालात को देखते हुए अपने प्रधानमंत्री का दौरा रद्द कर दिया।

राजनीतिक रूप से, कुछ राजनीतिक नेताओं ने, शुरुआत में इन दोनों कार्यक्रमों का समर्थन किया था, यद्यपि वे इन दोनों में सीधे तौर पर शामिल नहीं हुए थे। दोनों प्रदर्शनों के मामले में उनके नेता या तो स्थानीय व कम कद्दावर थे, या राजनीति में नवआगंतुक थे। इसने मुख्य राजनीतिक पार्टियों को इनसे उनसे पल्ला झाड़ लेने का सहज ही कारण दे दिया। किसानों के प्रदर्शनों के मामले में राजनीतिक पार्टियों ने गणतंत्र दिवस की घटना के बाद फिर से अपना समर्थन दे दिया था, ऐसा उन्होंने बजट सत्र को ध्यान में रखते हुए किया था। शाहीन बाग का प्रदर्शन भी दिल्ली विधानसभा चुनाव के ठीक पहले किया गया था, किसानों के प्रदर्शन का प्रारंभ भी पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु आदि विधानसभा चुनावों के ठीक पहले किया गया है।

दोनों प्रदर्शनों में प्रदर्शनकारियों के व्यवहार में अक्खड़पन देखा गया, क्योंकि वे सभी कानूनों की वापसी चाहते थे। प्रदर्शन में भाग लेने वाले किसानों के रहने के लिए घर तथा उनके भोजन आदि के प्रबंध से उनके व्यवस्थित आयोजन और (बाहरी) कोष का प्रवाह जाहिर हुआ। इस पर उनके समर्थन और विरोध (अपनी पार्टी के मुताबिक अवधारणा के आधार पर) को लेकर नागरिकों में एक संशय की स्थिति बनी रही।

किसानों का प्रदर्शन तब शुरू किया गया, जब देश कोविड-19 जैसी वैश्विक महामारी और चीन से लड़ रहा था। पंजाब में कम्युनिकेशन टॉवरों में तोड़फोड़ की गई। प्रदर्शन शुरुआत में तो शांतिपूर्ण था लेकिन बाद में-वह भी गणतंत्र दिवस के अवसर पर-बेकाबू और हिंसक हो गया।

दोनों ही मामलों में सरकार ने अति आसाधारण धीरज का परिचय दिया, यहां तक कि जब हिंसा पर उतारू प्रदर्शनकारियों ने उनके संयम की एक तरह से परीक्षा ले रहे थे और आम लोगों को आने-जाने में भारी परेशानी उठानी पड़ रही थी। गणतंत्र दिवस पर हुई हिंसा का नतीजा यह हुआ कि उनके आसपास के स्थानीय लोग भी प्रदर्शनस्थलों को खाली कराने की मांग करने लगे। कुछ किसान समूहों ने विचारधारा को लेकर हुए मतभेदों के चलते अपना समर्थन वापस ले लिया। शुरुआत में अधिकारियों ने प्रदर्शन को समाप्त करने के लिए पहल की थी, लेकिन कुछ किसान यूनियनों ने इससे इनकार कर दिया था। गणतंत्र दिवस के दिन हुई हिंसा औऱ तोड़फोड़ के बाद बैकफुट पर आया किसानों का प्रदर्शन टिकैत के रोने के बाद रातोंरात फिर से ताकतवर हो उठा।

हाईब्रिड युद्ध के साथ प्रदर्शनों में साम्यता

क्या इन प्रदर्शनों ने हाईब्रिड युद्ध की अवधारणाओं का पालन किया था? अथवा, यह कुछ प्रकार के दिग्भ्रम हैं? हालांकि इन दोनों में कोई कड़ी जोड़ना अभी जल्दबाजी होगी लेकिन उसको नजरअंदाज करना भी उसी तरह का जोखिम होगा। यह याद ऱखा जाना चाहिए कि किसी भी अलगाववादी अभियान (विद्रोह, उग्रवाद) के शुरू किये जाने के पहले विवेकपूर्ण घोषणा नहीं की गई। यह बाद में किया गया।

बाद में प्रदर्शनों के प्रमुख संकेतकों और इनमें अंतर्निहित तत्वों ने प्रदर्शनों एवं हाईब्रिड युद्ध के बीच कड़ी जोड़ी है-अबूझ वित्तीय स्रोतों से प्रदर्शनकारियों के ठाट-बाट से रहने के इंतजामात, पंजाब के मुख्यमंत्री का गणतंत्र दिवस की हिंसा के पीछे पाकिस्तान का हाथ होने संबंधी बयान, दरअसल यह अपनी पार्टी कांग्रेस की हिंसा में संलिप्तता के आरोप को नकारने के लिए दिया गया था, पर यह पाकिस्तान के साथ सीधी मुठभेड़ के लिए एक उकसावा ही है। किसी भी प्रकार से, यह सरकार के सामने कठिन हालात दरपेश करता है।

संसद से पारित वैध विधेयकों के विरोध में मुसलमानों औऱ किसानों के कुछ तबकों का मुद्दों पर आधारित अलगाव दिखा है। एक खास क्षण में तो सरकार बैकफुट पर देखी जाने लगी थी-दोनों प्रदर्शनों से निबटने में असहाय। इसने किसानों के विधेयक के क्रियान्वयन में 18 महीने की देर करा दी, जो अपने आप में एक उदाहरण है। इस प्रकार, प्रदर्शन ने अपना मनचाहा परिणाम हासिल करने की कीमत वसूल ली है।

राजनीतिक पार्टियों ने, सुविधानुसार, इन सबसे अपने को अलग-थलग कर लिया। खुद ही यह मान कर कि कहीं उन पर प्रदर्शनकारियों के साथ सांठगांठ होने के आरोप न चस्पां कर दिये जाएं। जनवरी के अंत में, वे उनका खुलेआम समर्थन करने लगे, संभवत: बजट सत्र के दौरान राजनीतिक लाभ उठाने की मंशा से।

किसानों के लिए बाहर से समर्थन कनाडा के प्रधानमंत्री का आया और रिहाना, मिया खलीफा, अमांदा सेर्नी, लीली सिंह और ग्रेटा थन्बर्ग जैसे अनपेक्षित व अ-सरोकारी लोगों की तरफ से भी।

निष्कर्ष

किसी भी गलत काम का विरोध करना नागरिकों का वैध अधिकार है। समाधान पाना तथा बातचीत के जरिये समाधान दोनों समान हैं, बशर्तें कि पूरी तरह शून्य-एक परिणाम की परिकल्पना न कर ली जाए।

हाईब्रिड युद्ध का मुख्य लक्ष्य सीधी मुठभेड़ से बचना, लक्षित राज्य को चुनौती देना अथवा उसे अस्थिर करना है। इसमें पहलकर्ता को पहचानना कठिन है, इस तरह कि वह अपनी ‘मर्जी’ मुताबिक स्थापित नियम-कायदों का उल्लंघन करना जारी रख सकता है। इसके अलावा, अंतर्निहित लचीलापन पहलकर्ता को अपनी गतिविधियों में बदलाव, लक्ष्य और मुद्दे को बदलना, उन्हें घटाना या बढ़ाना तथा लक्षित उपलब्धि को हासिल करने के लिए समय में परिवर्तन करने की छूट देता है।

प्रदर्शनकारियों पर किये गये अध्ययन ये दिखाएंगे कि कथित गलत का विरोध करने के लिए समर्थन हासिल करने, लोगों में दुविधा फैलाने के लिए अस्पष्टता को बढ़ावा देने और सरकार के प्रति अराजकता के प्रदर्शन के लिए हाईब्रिड युद्ध के व्यापक स्पेक्ट्रम के उपकरणों का उपयोग किया गया है। सरकार विरोधी संदेश देने के लिए प्रोपैगेंडा करने, मीडिया के कुछ स्थापित घटकों और अन्य सूचना प्रतिष्ठानों को आबादी के वृहद तबकों में संशय फैलाने के लिए नियुक्त किया गया था।

दिल्ली में प्रदर्शनकारियों के स्वरूप, मार्च, उसने लम्बे समय तक डटे रहने के लिए घरों के निर्माण, हिंसा के उपकरणों का प्रदर्शन, भ्रामक सूचनाएं और भाषण, राज्य की कानून लागू करने वाली एजेंसियों को खुली चुनौती देना आदि इसके संकेतक हैं।

सैद्धांतिक रूप से, अगर शाहीन बाग को अधिकारियों की प्रतिक्रिया को थाहने का पहला प्रयोग था, तो किसानों का प्रदर्शन भारत के समक्ष पेश हाईब्रिड युद्ध की चुनौतियों का एक्ट-दो है। इस जंग के पहलकर्ता समाज के खास तबकों के लिए मॉस अपील रखने वाले मसले को चुनने में अनिश्चितता और नमनीयता का इस्तेमाल करते हैं। इन अवसरों को क्षैतिजिय और ऊर्ध्वधरीय दोनों तरीकों से उपयोग किया गया है। इन प्रदर्शनों का आह्वान विदेशी मेहमान के आगमन के मौके पर ही किया गया है, जिससे कि भारत को लेकर अंतरराष्ट्रीय धारणा पर प्रतिकूल असर पड़े। वहीं दूसरी ओर, सरकार या उसके अधिकारी ऐसे ‘शांतिपूर्ण’ प्रदर्शनों पर समुचित जवाब देने से अपने को रोकते रहे हैं। बैरिकेड्स जैसे किसी नियामक उपाय करने, निगरानी की आधुनिक पद्धतियों तथा भीड़ नियंत्रण के उपायों (जैसे इसमें शामिल लोगों के चेहरों की पहचान) के उपयोग की आलोचना यह कह कर की जाएगी कि यह तरीका ‘ज्यादतीपूर्ण तथा दमनकारी’ है।

जैसा कि सरकार की विश्वसनीयता और प्रभावशीलता को नष्ट करने के उद्देश्य से प्रदर्शनों की पुनरावृत्ति और विरोध की आवृत्ति में वृद्धि हो सकती है। इस लिहाजन, महत्वपूर्ण प्रतिरोधक उपायों को आजमाने की आवश्यकता है। खुद वक्त ही इस परिकल्पना की जांच करेगा और अपना फैसला सुनाएगा।

Translated by Dr Vijay Kumar Sharma (Original Article in English)


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