चीनी आक्रमण का एक वर्ष: ऐसे नतीजे जिनकी उम्मीद नहीं थी
Lt Gen (Dr) Rakesh Sharma (Retd.), Distinguished Fellow, VIF

हमला चाहे कितना ही सोच-विचार कर किया जाए, कोई भी व्यक्ति कभी भी हमले की हार-जीत या परिणामों का सटीक अनुमान नहीं लगा सकता। हमले के कारण ऐसी कई घटनाएं होंगी जो अनचाही होंगी और कई बार इसमें ऐसे नुकसान उठाने पड़ सकते हैं जो समझ से परे और अप्रत्याशित होंगे। आक्रमण झेलने वाले पक्ष को हमले से कई बार ऐसे अप्रत्याशित लाभ मिल सकते हैं जिन्हें कर्मों का ही फल समझा जा सकता है! आक्रमणकारी हालांकि कभी स्वीकार नहीं करेगा लेकिन हमले के परिणाम कई बार हमलावर की उम्मीदों से बिल्कुल विपरीत भी हो सकते हैं। पूर्वी लद्दाख में पीएलए द्वारा मई 2021 में किए गए सुविचारित, पूर्व नियोजित आक्रमण के बाद एक वर्ष बीत चुका है। इसलिए अब वह समय आ गया है, जब इस पर गहन चिंतन किया जाए और इस घटना से भविष्य का अनुमान लगाने का प्रयास किया जाए – हालांकि इस पूरे घटनाक्रम में प्रामाणिक जानकारी का नितांत अभाव है और दुष्प्रचार और झूठ का अंबार है!

चीनी आक्रमण के औचित्य पर वस्तुतः व्यापक बहस हुई है और यह तय है कि चीन ने सोच-विचार कर यह हमला किया है और इस हमले के आधार पर ही दोबारा हमला हो सकता है। दो यांत्रिक/मोटर चालित डिविजनें प्रशिक्षण केंद्रों से चलकर चोरी-छिपे अक्साई चिन पहुंच गईं जिसके बाद पूर्वी लद्दाख में एकाधिक सब-सेक्टर में हमला हुआ, यह दोनों ही घटनाएं पहली बार हुईं। स्पष्ट है कि पीएलए द्वारा यह सब सोच-समझकर किया गया था। साफ तौर पर चीन ने यह मान लिया है कि भौगोलिक-राजनीतिक उपलब्धियों के एक-दूसरे से जुड़े अलग-अलग क्षेत्रों में इसने काफी तरक्की की है। इसकी अर्थव्यवस्था का काफी विस्तार हो चुका है, विभिन्न देशों पर इसकी मजबूत राजनीतिक-आर्थिक पकड़ है और अपनी जरूरतों के अनुसार आधुनिक सेना के साथ-साथ इसके पास राष्ट्रवाद की व्यापक भावना रखने वाले नागरिक हैं। ऐसे में वह वक्त आ चुका था जब महामारी के बावजूद भौगोलिक-राजनीतिक ताकत दिखाई जानी चाहिए। राष्ट्रपति शी और केंद्रीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीसीपी) की भौगोलिक-राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं में यह सुस्पष्ट मूलभूत परिवर्तन आसपास के कई क्षेत्रों में दिखाई दिया है जिसमें पूर्वी लद्दाख भी शामिल है।

भारतीय सशस्त्र बल शुरुआत में हालांकि हक्के-बक्के रह गए, फिर भी 15 जून 2020 को गलवान में उन्होंने दृढ़ कार्रवाई की और सर्दियों में तैनात सैनिकों की जरूरतें पूरी करने के लिए रसद की आपूर्ति सुनिश्चित की। पैंगोंग त्सो (पीटीएसओ) के उत्तर में स्पैंग्गुर गैप और फिंगर्स क्षेत्र की ऊंचाइयों पर भारतीय सेना की टुकड़ियों द्वारा किए गए बाजी पलटने वाले जवाबी हमले ने भारतीय सेना की क्षमताएं साबित कीं। वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर सैन्य तेवरों और भारतीय सशस्त्र बलों की तैयारियों ने पूरे राष्ट्र को अत्यधिक आत्मविश्वास प्रदान किया। भारत और चीन के विदेश मंत्रियों द्वारा 10 सितंबर 2020 को मास्को में हस्ताक्षरित समझौतों, चुशुल/मोल्डो में व्यापक सैन्य वार्ता के ग्यारह दौरों और पूर्वी लद्दाख में सब-सेक्टर में सेनाएं पीछे हटाने के बावजूद चीन पर अभी भी विश्वास नहीं किया जा सकता और कम से कम एलएसी पर तो बिल्कुल विश्वास नहीं किया जा सकता। अतीत के समझौते और विश्वास बनाने संबंधी उपाय फिलहाल निरर्थक हैं।

वास्तविक नियंत्रण रेखा की वर्तमान स्थिति ने कुछ ऐसे परिणाम उजागर किए हैं जिनके दीर्घकालिक प्रभाव हैं। इन्हें पांच व्यापक हिस्सों में परखा गया है। सबसे पहले पूर्वी लद्दाख में पीएलए और भारतीय सेना की यूनिटों के बीच स्पष्ट बफर क्षेत्रों का निर्माण है। ऐतिहासिक रूप से 1959 रेखा प्रस्तावित करते हुए प्रधान मंत्री झोउ एन लाई ने स्वीकार किया था कि "...दोनों देशों ने औपचारिक रूप से इस सीमा का परिसीमन नहीं किया है और सीमा के संबंध में दोनों देशों के विचार अलग-अलग हैं।" फिर उन्होंने यह संस्तुति की कि ‘... शांति सुनिश्चित करने के लिए...पूर्व में तथाकथित मैकमोहन रेखा से और पश्चिम में उस रेखा से जहां तक प्रत्येक पक्ष वास्तविक नियंत्रण रखता है, 20 किलोमीटर पीछे हटा जाए …’। इतिहास के उस मोड़ पर और उसके बाद के छह दशकों में एलएसी पर सेनाओं के बीच 'बफर' की यह अवधारणा भारत ने कभी स्वीकार नहीं की। अब तक हस्ताक्षरित किए गए छह समझौतों में भी इसे स्वीकार नहीं किया गया।

इस हमले का मुख्य अप्रत्याशित परिणाम यह रहा कि विवादित क्षेत्रों में गश्त अब स्थगित कर दी गई है जिसका चाहे-अनचाहे निहितार्थ यही है कि जिन रेखाओं पर दावे किए जाते हैं उन्हें चुनौती दिए बिना बफर जोन सृजित हो चुका है। 15 जून 2020 की घटना के बाद गलवान से इसकी शुरुआत हुई। दोनों देशों की सेनाएं इसके बाद पीपी14 के दोनों ओर एक से दो किलोमीटर पीछे हट गईं। इसके बाद दसवें दौर की बातचीत के बाद पीटीएसओ उत्तरी किनारे के फिंगर्स 4 और 8 के साथ एक बफर निर्मित किया गया था। पीटीएसओ की दक्षिण और कैलाश रेंज में भी सेना हटाने की प्रक्रिया से सत्यापन प्रणाली सहित बफर जोन निर्मित हुआ है। हालांकि औपचारिक रूप से ऐसा तय नहीं किया गया है परंतु हॉट स्प्रिंग्स के पास डेपसांग पठार और गोगरा में राकी नाला पर दोनों सेनाएं आपस में दूरी बरकरार रखती हैं। शांति बरकरार रखने और भविष्य में संघर्ष से बचने के तरीके के रूप में वास्तविक नियंत्रण रेखा पर बफर जोन को हालांकि औपचारिक रूप नहीं दिया गया है। फिर भी यह स्पष्ट है कि चीन जब भी सेनाएं पीछे हटाने की ओर कदम उठाएगा तो इसके परिणामस्वरूप मध्य और पूर्वी सेक्टर में भी बफर जोन की नींव रखी जा सकती है जिससे सीमा रेखा पर बेल्ट या जोन निर्मित करने का प्रयास किया जा सकता है।

दूसरा, पिछले एक वर्ष में सेना की संख्या और ढांचागत विकास में आए त्वरित बदलाव से संबंधित है। पीएलए ने सैनिकों को प्रशिक्षण स्थलों से मोर्चे पर पहुंचाया, बंकर और चौकियां बनाईं जैसा कि फिंगर 5 की पर्वतीय ढलानों पर देखा गया है। 1979 के वियतनाम युद्ध के बाद से बेहद दुर्लभ घटना के रूप में 2020 में पीएलए टैंकों को दुश्मन के बिल्कुल पास ले गई, गोलों से लैस तोपखाने के साथ बंदूकों के ट्रिगर्स पर अंगुलियां रखे सैनिक भी बेहद तनाव पूर्ण माहौल में चारों तरफ तैनात थे। क्षेत्र में सैनिकों की बढ़ी संख्या के रहने के लिए चीन ने जी219 पश्चिमी राजमार्ग पर रुडोग और नगारी (अली) में आवासीय क्षमता बढ़ाई है। 2020 की घटनाओं के चलते बुनियादी ढांचे और क्षमता का निर्माण और तुलनात्मक रूप से एलएसी के करीब सेनाओं की स्थायी या अस्थायी तैनाती से पीएलए के भविष्य के रुख का पता चलता है और इससे यह अनिवार्य हो जाता है कि समुचित प्रतिक्रिया की क्षमता सुनिश्चित की जाए।

गलवान संघर्ष का तीसरा परिणाम है कि इस घटना के सात महीने बाद ही सही, 19 फरवरी 2021 को चीन के सरकारी स्वामित्व वाले पीपुल्स लिबरेशन आर्मी डेली ने सूचित किया (बेशक ऐसा करना चीन के लिए बेहद मुश्किल रहा हो) कि गलवान संघर्ष में कराकोरम पर्वतों पर तैनात 'चार' चीनी सीमा अधिकारी और सैनिक मारे गए जबकि मरने वाले भारतीय सैनिकों की संख्या 20 थी। 1962 के भारत-चीन युद्ध (जिसे चीन ने "चीन-भारत सीमा पर आत्मरक्षा में जवाबी हमला" बताया था) में मारे गए 722 पीएलए सैनिकों और लगभग 1400 घायलों की संख्या का आंकड़ा पीएलए द्वारा 32 वर्ष बाद 1994 में आंतरिक इतिहास दस्तावेज में बताया गया था। इसके दो कारण थे। एक, जनता में प्रतिकूल भावना का डर और दूसरा, पीएलए और सीसीपी की अजेयता का प्रभा मंडल बरकरार रखना! जाहिर है कि संघर्ष समाप्त होने पर चीन को यदि बड़ी संख्या में हताहतों की संख्या स्वीकार करनी पड़े तो इसके अन्य अप्रत्याशित परिणामों के साथ-साथ अपनी जनता के सामने इसकी छवि धूमिल हो सकती है। यह उलझन विकट सैन्य विषमता के तरीके की उपयोगी संकेत है।

चौथा परिणाम एलएसी की स्थिति से जुड़ा है। चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता वांग वेंगबिन ने 27 सितंबर 2020 के बयान में संकेत दिया है "... चीन-भारत सीमा की वास्तविक नियंत्रण रेखा स्पष्ट है, यह 7 नवंबर 1959 की एलएसी है। चीन ने 1950 के दशक में इसकी घोषणा की थी और भारत समेत अंतरराष्ट्रीय समुदाय भी इस बारे में स्पष्ट रूप से जानते हैं।” भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने इस पर जवाब दिया "... तथाकथित एकतरफा चिह्नित 1959 एलएसी भारत ने कभी भी स्वीकार नहीं की है। यह स्थिति सुसंगत रही है और चीनियों सहित सभी लोग इससे अवगत हैं।" वास्तविक नियंत्रण रेखा की अवधारणा अत्यंत त्रुटिपूर्ण है और इसके दायरे में रहकर 'शांति और सद्भाव' की तलाश करना बेहद मुश्किलों भरा काम है। 2018 में 13वीं एनपीसी के पहले सत्र की समापन बैठक में राष्ट्रपति शी ने कहा था "सभी चीनी लोगों की यह साझा विश्वास है कि ऐसा कभी भी नहीं होने दिया जाएगा और हमारे महान देश के क्षेत्र की एक इंच भूमि को भी चीन से अलग करना बिल्कुल असंभव है।" भारत भी हर कीमत पर अपनी क्षेत्रीय अखंडता की रक्षा करेगा और इसे बिल्कुल गैर-सहमति वाले क्षेत्र के रूप में समझा जा सकता है। भारतीय सेना के 29/30 अगस्त के आपरेशन के बाद यह भी बिल्कुल स्पष्ट है कि जमीन का कोई भी नुकसान (चाहे ऐसा मात्र दावा किया गया हो) पीएलए/सीसीपी को काफी नुकसान पहुंचाता है। सेना, टैंक और पैदल सेना भेजकर स्पैंगुर त्सो से रेज़ंगला-रेचिनला तक चढ़ाई करके वहां तैनात भारतीय सेना टुकड़ियों से मात्र हाथ भर की दूरी पर भारी अति-प्रतिक्रिया हुई। परंतु प्रदर्शित किए गए गोला बारूद-नियंत्रण के अलावा किसी भी अन्य परिस्थिति में ऐसा करना सीधे-सीधे पैरों पर कुल्हाड़ी मारना था! जाहिर है कि पीएलए/सीसीपी के लिए उसकी '1959 रेखा' का कोई भी उल्लंघन पूरी तरह से अस्वीकार्य है और यह उनकी लड़ने की दृष्टि में उल्लेखनीय असुरक्षा को दर्शाता है। इस तरह इस अत्यधिक ऊंचाई पर भी आक्रमण ही बचाव का सबसे अच्छा तरीका है। इसी से गैर-आनुपातिक और त्वरित प्रतिक्रिया करने के लिए मजबूर किया सकता है, बेशक ऐसा किया जाना सैन्य विवेक के क्षेत्र से परे हो।

इसलिए पीएलए की आक्रामकता, भारतीय सशस्त्र बलों की प्रतिक्रिया और लंबी बातचीत और वर्तमान यथास्थिति से यह स्पष्ट है कि एलएसी का समाधान और दीर्घकालिक शांति चुशुल/मोल्दो में सैन्य वार्ताओं से नहीं बल्कि वृहत् राजनीतिक-राजनयिक पहल के माध्यम से आएगी। इस दौरान एलएसी पर तनाव पूर्ण शांति की स्थिति बनी रहेगी जिसमें सेनाएं एक-दूसरे के सामने चौबीसों घंटे डटी रहेंगी।

पांचवां और महत्वपूर्ण परिणाम स्थिति के पारंपरिक युद्ध तक पहुंचने की आशंका पर होने वाली बहस है। यह विचार किया गया है कि पूर्वी लद्दाख में नाजुक स्थिति संघर्ष के अनचाहे या आकस्मिक रूप से बढ़ने के लिए खतरनाक थी – ऐसे संघर्ष की अंतिम स्थिति का कोई अनुमान नहीं लगाया जा सकता। क्या पीएलए संघर्ष बढ़ने का लाभ उठाकर युद्ध और बड़े संघर्ष की शुरुआत कर सकती थी? पीएलए द्वारा पूर्वी लद्दाख में लाए गए सैन्य बलों की संख्या से अगर संभावित आक्रामक अभियानों का पूर्वानुमान लगाया जाए तो यह स्पष्ट हो जाता है कि इस संघर्ष का बड़ा उद्देश्य महत्वपूर्ण जमीनी विस्तारवाद की बजाय आक्रांत और भयभीत करना था। गलवान और फिंगर 4 (पीटीएसओ) में उपयोग किए गए पुराने हथियार कुछ और ही कहानी बताते हैं। पूर्वी लद्दाख एक प्रकार की 'गन बोट' कूटनीति नहीं थी और सैन्य बलों की तैनाती से यह संकेत नहीं मिलता कि हम युद्ध के मुहाने पर हैं। पीएलए सीसीपी का हिस्सा है जिसमें मजबूत राजनीतिक-सैन्य संबद्धता की प्रणाली है और इसमें शीर्ष निर्णय लेने वाली सीएमसी के अध्यक्ष के रूप में राष्ट्रपति होते हैं। युद्ध शुरू करने का अधिकार मोर्चे पर तैनात कमांडरों को नहीं सौंपा जाता है। 29/30 अगस्त 2020 को पीटीएसओ के दक्षिण में भारतीय सेना के कब्जे वाले गलवान में सैनिकों की मौत की परिणामी घटनाएं और रिपोर्ट नहीं की गई युद्ध संबंधी घटनाओं से पता चलता है कि अनियोजित युद्ध की संभावनाएं बेहद कम हैं। इसलिए मोर्चे पर किसी झड़प की सतत प्रक्रिया से युद्ध शुरु नहीं हो सकता; इसका निर्णय सीएमसी द्वारा लिया जाएगा। हालांकि अपनी बात मनवाने के लिए नियंत्रित बल उपयोग से इनकार नहीं किया जाता है। यह बात भारतीय पक्ष पर भी लागू होती हैं। भारत और चीन के बीच यदि कभी भी युद्ध होता है तो यह सुविचारित, सुनियोजित और भलीभांति निष्पादित निर्णय होगा, न कि उप-रणनीतिक अनचाही कार्रवाई या दुर्घटनावश कोई आवेशपूर्ण संघर्ष।

वास्तव में उच्च राजनीतिक नेतृत्व शामिल करते हुए क्वाड शिखर बैठक और गहरे समुद्र में अभ्यास चीन के हमले का बहुत ही महत्वपूर्ण परिणाम था। चीन की श्रृंखलाबद्ध अति-प्रतिक्रियाएं उसकी दुश्चिंताओं को प्रकट करती हैं! हमले के प्रति भारतीय बलों की प्रतिक्रिया मजबूत और नपी तुली थी और इसने रीयल-टाइम आईएसआर ग्रिड का हल निकालने को प्रोत्साहित किया है। सामरिक संरचनाओं के लिए जिम्मेदारियों के प्रबंध संबंधी क्षेत्रों को पुनर्गठित करने, अनुकूलित सुरक्षित भंडार बरकरार रखने और पश्चिमी क्षेत्र से सैन्य बलों के लंबे समय से लंबित पुनर्संतुलन के महत्व को उल्लिखित किया गया है। वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों ने भी अपने सभी सार्वजनिक वक्तव्यों में आधुनिक युद्ध की तैयारियों में बेहद व्यापक दृष्टिकोण अपनाने का संकेत दिया है।

मोर्चे पर मौजूद सैनिकों और कमांडरों ने भी कई सामरिक सबक सीखे होंगे। इस ज्ञान-आधार का लाभ उठाने के लिए इसकी कड़ियां जोड़ने और योजना बनाने की आवश्यकता है।

Translated by Shivanand Dwivedi (Original Article in English)


Image Source: https://akm-img-a-in.tosshub.com/indiatoday/images/story/202008/Tso_0.jpeg?L_vlZ6.dLeOC_2rN9.sLLJhGp5if4644&size=770:433

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