निकटस्थ पड़ोसी के रूप में भारत और श्रीलंका दोनों ही अपने व्यापक द्विपक्षीय संबंधों का लाभ उठाते हैं। सह-अस्तित्व के दो हजार वर्षों में, कई मुद्दे द्विपक्षीय संबंधों पर हावी रहे हैं, जिनमें से कई गतिशील घरेलू वातावरणों से बने हैं और कुछ अतिरिक्त क्षेत्रीय अपरिहार्यताओं से उत्पन्न हुए हैं। दोनों देश जबकि लगातार सद्भाव एवं सहयोग बनाए हुए हैं, फिर भी विवाद के बिंदु द्विपक्षीय संबंधों को दबाने लगते हैं। इन्हीं मुद्दों में, मछुआरे एवं मछली पकड़ने के अधिकारों के मुद्दे, अल्पसंख्यक तमिल आबादी के जातीय मसले उन कई मसलों में शामिल हैं, जिनसे द्विपक्षीय संबंधों में उबाल आता रहता है। लेकिन श्रीलंका का चीन को अपने और अधिक करीब ले आना का फैसला, भारत-श्रीलंका के भविष्य के द्विपक्षीय संबंधों पर गंभीर एवं दूरगामी परिणाम डालेगा।
कोलंबो एवं पेईचिंग काफी लंबे समय से मित्र रहे हैं, और व्यापकता पर आधारित उनके संबंध किसी से छिपे नहीं हैं, पर श्रीलंका की संसद से 24 मई 2021 को पारित किया गया कोलंबो पोर्ट सिटी इकोनॉमिक कमीशन बिल का न केवल खुद श्रीलंका की दृष्टि से बल्कि भारत और दक्षिण एशिया के लिए भी विशेष महत्वपूर्ण है। इस बिल को वहां के सर्वोच्च न्यायालय में संविधान के अनुच्छेद 121 (1) के तहत चुनौती दी गई थी। न्यायालय ने उस याचिका पर संज्ञान लिया जिसमें राष्ट्रपति की निगरानी वाले पैनल की संवैधानिक अंखडता के बारे में तथा श्रीलंका के सेंट्रल बैंक सहित नियामकों द्वारा निगरानी की कमी के कई मामले उठाए गए थे।1 हालांकि सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्देशित सभी संशोधनों को स्वीकार कर लिया। इसके अलावा, प्रधानमंत्री महिन्दा राजपाक्षे ने भी आश्वस्त किया कि कोलंबो पोर्ट सिटी इकोनामिक कमीशन (सीपीसीईसी) में संशोधन किया गया है, और पोर्ट सिटी परियोजना के चलते सृजित होने वाले रोजगार का 75 फीसदी हिस्सा श्रीलंकाई नागरिकों के लिए आरक्षित करने की अनुमति दे दी गई है। पोर्ट सिटी इकोनॉमिक कमीशन श्रीलंकाई नागरिकों के मामले में नियुक्ति की शर्तों के ढीली कर देगा, जो इस परियोजना में काम करने के लिए अपेक्षित विशेष कौशल भी नहीं रखते हैं।2
कोलंबो पोर्ट परियोजना की बुनियाद 2014 में चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के श्रीलंका दौरे के दौरान रखी गई थी। इसमें एक विशेष आर्थिक जोन (सेज) को भी शामिल किया जाएगा, जहां यह किसी भी मुद्रा में विनिमय करने के लिए स्वतंत्र होगा। यह पोर्ट सिटी हिन्द महासागर के अपने दावे की भूमि पर 5.7 मिलियन वर्ग मीटर में बनाया जाएगा, जिसे इस तरह से डिजाइन किया गया है कि वह अन्य स्थानीय हितधारकों के बीच बहुराष्ट्रीय उद्यमों, कॉर्पोरेट मुख्यालयों को भी आमंत्रित करे। कोलंबो पोर्ट सिटी परियोजना राजपाक्षे सरकार द्वारा परिकल्पित एक बृहद योजना का हिस्सा है और जो नाविक एवं वित्तीय क्षेत्र की मेजबानी करेगा। इस परियोजना में अस्पताल, शापिंग मॉल्स एवं अपार्टमेंट भी शामिल होंगे।
यह आधुनिक सेवा क्षेत्र का एक उत्प्रेरक होगा, जो सेवा-निर्देशित विकास के मॉडल के रूप में श्रीलंका के रूपांतरण में सहायक होगा और अर्थव्यवस्था को ऊंच आय की हैसियत में पहुंचा देगा।3 सरकार के मुताबिक यह परियोजना अपने पहले पांच वर्षों में लगभग 200,000 लाख रोजगारों को सृजित करेगी। इससे अगले पांच वर्षों में कम से कम 15 बिलियन अमेरिकी डॉलर निवेश की अपेक्षा है। यह पोर्ट सिटी कोलंबो पोर्ट से जुड़ी है, जो दक्षिण एशिया का सबसे बड़ा ट्रांसशिपमेंट पोर्ट है, स्पष्ट है कि इससे चीन को बेशुमार फायदा होगा। जारी सेज परियोजना पर चीन का आवश्यक रूप से दखल रहेगा। यह सेज कारोबार और नए उद्योगों को सुगम करेगा, उन्हें बढ़ावा देगा। चीन के लिए अपने देश से बाहर रोजगार उत्पन्न करना और अन्य चीनी उत्पादन सुविधाओं का समर्थन करना संभव होगा।
श्रीलंका में विपक्षी दलों ने सम्प्रभुता के उल्लंघन का मामला उठाया और इस परियोजना को एक ‘चीनी एनक्लेव’ के सृजन के रूप में आंका। सरकार ने विपक्ष की इन तमाम आपत्तियों को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि श्रीलंका की अर्थव्यवस्था के लिए यह बिल एक परिवर्तनकारी बिंदु साबित होगा। श्रीलंका के वित्त राज्य मंत्री अजिथ निवरद काबराल (Ajith Nivard Cabraal) ने भी आश्वस्त किया कि इस परियोजना पर श्रीलंका का ही दखल रहेगा। ‘यह दखल पोर्ट कमीशन कानून के जरिए रखा जाएगा। ऐसा नहीं कि यह परियोजना सभी नियंत्रण से मुक्त होगी, बल्कि उसे पोर्ट कमीशन एक्ट के जरिए इस देश के कानूनों का अनुपालन करना होगा, न कि अन्य कानूनों का।’ 4 सरकार की तरफ से यह भी कैफियत दी गई कि इस परियोजना पर, श्रीलंका सरकार बिना कोई पूंजी लगाए, भारी मात्रा में निजी निवेश को आकर्षित करने में सफल रही हैI5
दिलचस्प है कि, कुछेक लोगों ने कोरोना महामारी से ग्रस्त अर्थव्यवस्था में निवेश के तत्काल प्रवाह के दावों पर सवाल भी उठाए हैं, पर कहा गया है कि पोर्ट सिटी एक विदेशी वित्तीय केंद्र (ओएफसी) में रूप में काम कर रही है, उसके पास कारोबार की बेशुमार संभावनाएं हैं। वास्तव में लेखक का तर्क है कि ओएफसी द्वारा मुहैया करायी जा रही सेवाओं की मांग, खास कर विकासशील देशों में, अधिकतर चीन के, उभरते नए अरबपतियों की तरफ से आ रही है।6
लेकिन यह परियोजना जितनी या जिस रूप में दिखाई देती है, उसके कहीं अधिक गहरी अहमियत रखती है। निश्चित रूप से, वाणिज्यिक एवं व्यावसायिक गतिविधियों के संचालित होने से श्रीलंका के अन्य पड़ोसियों पर खतरा होने के बहुत सारे कारण नहीं हैं,परंतु चीन का इस क्षेत्र में दिलचस्पी लेना कोई नई बात नहीं है। और उसकी यह दिलचस्पी दक्षिण एशिया में मात्र आधारभूत संरचना के निर्माण तक ही सीमित नहीं है, बल्कि उसके पार चली गई है। इस क्षेत्र में चीन के अधिकांश जारी द्विपक्षीय संबंध सड़कों के निर्माण एवं विकास, पुल, बंदरगाहों और अन्य भौतिक संरचनाओं के निर्माण, जिनकी इन देशों की अपेक्षा होती है और जिन संरचनाओं के साथ रणनीतिक अवयव जुड़ा होता है, उन पर केंद्रित रहे हैं। चीन की इस नीति से श्रीलंका सबसे बड़ा फायदेमंद देश रहा है।
यह महत्वपूर्ण है कि चीन ने श्रीलंका को 7 बिलियन अमेरिकी डॉलर का कर्ज मुहैया कराया है, जिनमें हम्बानटोटा में एक बंदरगाह का निर्माण के लिए दिया गया ऋण भी शामिल है। यही वह परियोजना है, जिस पर काफी कुछ कहा-सुना-लिखा गया है। इसे चीन ने कोलंबो के लिए निर्मित किया है। बाद में चीन ने इस अप्रयुक्त बंदरगाह के निर्माण एवं विकास में लगाए गए धन के सधान के लिए श्रीलंका सरकार पर जोर डाल कर 99 साल के लिए चीनी कंपनियों को लीज पर दिला दिया था। इसके बावजूद यह तथ्य है कि कोलंबो को पांच कर्जों का सधान करना होगा, जो उसने हम्बानटोटा बंदरगाह के निर्माण के लिए एक्जिम बैंक ऑफ चाइना से लिए हैं।
पोर्ट लीज को कर्ज-प्रतिभूति के रूप में नहीं बदला जा सकता, जो किसी परिसंपत्ति को प्रतिभूति के बदले ऋण को रद्द करने से संदर्भित है। इस मामले में कर्ज का कोई निरस्तीकरण नहीं था।7 दिलचस्प है कि, यह बुरा अनुभव भी श्रीलंका को भावी परियोजनाओं पर साथ काम करने से नहीं रोक पाया और पोर्ट सिटी उपक्रम उसका नया उदाहरण है। वास्तव में, इसका फैसला लेने के कुछ हफ्तों के भीतर ही श्रीलंका सरकार ने अपनी एक दूसरी महती परियोजना राजधानी कोलंबो में एक्सप्रेसवे बनाने का ठेका पोर्ट सिटी का निर्माण और विकास करने वाली चीनी संस्था के सिपुर्द कर दिया।8
इसके अलावा, चीन ने मैरिटाइम सिल्क रूट पहल के अंतर्गत लगभग 24 बिलियन अमेरिकी डॉलर के निवेश का वादा किया है, जिसके तहत एशिया से यूरोप होते हुए अफ्रीका को जोड़ने वाली सिल्क रोड सड़क का फिर से आरंभ करना है, जिस होकर प्राचीन काल में व्यापार होता था। चीन ने इन मैरिटाइम एवं सामरिक उपक्रमों के जरिए हिन्द महासागर में अपना प्रभुत्व कायम करने के मंसूबे को छिपाया भी नहीं है। चीन जबकि अपनी मजबूत उपस्थिति सुनिश्चित करने का प्रयास कर रहा है, भारत ने भी हिन्द महासागर में अपनी द्विपक्षीय एवं बहुउद्देश्यीय अभ्यासों को बढ़ा दिया है। यह भी कि श्रीलंका में उसकी रणनीतिक मंशा उसके निवेश की प्रकृति से प्रतीत होती है, जिनमें से कुछेक निवेशों का बहुत सीमित वाणिज्यिक मूल्य हैं, इनमें क्रिकेट स्टेडियम एवं कन्वेंशन हॉल के निर्माण शामिल हैं। चीन ने श्रीलंका को राजनीतिक समर्थन भी दिया है, खास कर उस समय जब कोलंबो मानवाधिकार उल्लंघन के आरोपों के बाद विश्व में अलग-थलग पड़ गया था। राजपाक्षे के शासनकाल में श्रीलंका आर्थिक सहयोग-समर्थन, सैन्य उपकरणों एवं संयुक्त राष्ट्र संघ में संभावित प्रतिबंधों को रोकने में राजनीतिक ढाल के लिए चीन पर आश्रित था।9
लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि, चीन-भारत में तनाव के प्रदत्त इतिहास एवं इस क्षेत्र में चीन के सतत हित को देखते हुए, उसकी योजना पर भारतीय संदर्भ में चर्चा करना बेमानी नहीं होगी। इसके अधिकांश उपाय इस क्षेत्र में भारतीय हितों को हाशिये पर डालने के चीनी प्रयासों की ओर इशारा करते हैं। ठीक इसी समय, वह दक्षिण एशिया में अपने प्रभाव को बढ़ा रहा है। यह भी देखने वाली बात है कि यह पोर्ट परियोजना भारत के तट से 300 किलोमीटर से भी कम दूरी पर है, जो भारत और चीन तथा हिन्द महासागर क्षेत्र के अन्य क्षेत्रीय देशों की पहुंच के लिहाज से एक क्रिटिकल स्पेस है। कोलंबो पोर्ट के इस्ट कंटेनर टर्मिनल के विकास के त्रिपक्षीय समझौते को रद्द करने के श्रीलंका सरकार के फैसले ने भारत का डर बढ़ा दिया है। अनुमानित 500-700 मिलियन अमेरिकी डॉलर के उस प्रोजेक्ट को भारत, जापान और श्रीलंका मिल कर करने वाले थे। इस परियोजना पर जनाक्रोश का बहाना बनाते हुए श्रीलंका ने पश्चिमी कंटेनर टर्मिनल (WCT) बंदरगाह भारत को ऑफर किया था। हालांकि भारत से अडानी पोर्ट इस डब्ल्यूसीटी का विकास कर रहा है, भारत सरकार ने इस परियोजना से दूर रहना पसंद किया है। यह भी कहा गया है कि नई दिल्ली अनुभव करती है कि इससे उसकी सुरक्षा हितों पर असर पड़ेगा और यह भारत-श्रीलंका के बीच 1987 में हुए समझौते का उल्लंघन है, जिसमें कहा गया है कि कोई भी देश अपने बंदरगाहों को ऐसी गतिविधियों के लिए इस्तेमाल नहीं करने देगा जिनसे कि दूसरे देश की “एकता, अखंडता एवं सुरक्षा” 10 बाधित हो।
भारत-श्रीलंका अपने आर्थिक एवं कारोबारी संबंधों को और गहरा करने की समीक्षा कर रहे हैं। अगर द्विपक्षीय एवं बहुपक्षीय संवादों में सुधार न भी होता है। तो अनेक उप क्षेत्रीय एवं क्षेत्रीय समूहों के सदस्य देश के रूप में अपने संबंधों को सतत रखने में दोनों की भलाई है। लेकिन संबंधों को एक ऊंचाई तक ले जाना बाध्यकारी है, जिसे कोलंबो भी समझता है। कोलंबो ने भारत के सुरक्षा हितों के प्रति कोलंबो की पर्याप्त संवेदनशीलता की कमी के बारे में भारतीय आशंकाओं को समझता है और पर्याप्त रूप से इसके हल की कोशिश की है। दोनों पड़ोसी देशों को अपने संबंधों को वाग्जाल से आगे ले जाने के लिए काम करने पर फिर से सोचना है और अपने संबंधों को मजबूत बनाने के उपायों की परख करनी है। जब अहम सुरक्षा हितों पर खतरे हों तो केवल कोरे आश्वासन काफी नहीं हो सकते। मौजूदा तनाव को दूर करने के लिए दोनों मित्रवत पड़ोसी देशों के बीच स्पष्ट संवाद कायम होना एक तात्तकालिक प्राथमिकता है।
Translated by Dr Vijay Kumar Sharma (Original Article in English)
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