तिब्बत, भारत और चीन के संबंध को क्लाउड एर्पी के शब्दों में बेहतर तरीके से व्याख्यायित किया गया है। क्लाउड एक ख्यात इतिहासकार और पत्रकार हैं, जिन्होंने धारवाहिक रूप से तिब्बत, भारत और चीन पर किताबें लिखी हैं। इनके अलावा, उन्होंने दि फेट ऑफ तिब्बत : व्हेन दि बिग इंसेक्ट्स इट्स स्मॉल इंसेक्ट्स। एर्पी लिखते हैं:-
“यह दिलचस्प है कि तीनों देशों का इतिहास, जिनमें तिब्बत और चीन का संबंध हमेशा से ताकत और सत्ता पर आधारित था, जबकि तिब्बत और भारत में साझा आध्यात्मिक मूल्यों पर आधारित ज्यादा सांस्कृतिक और धार्मिक संबंध रहा है। ”
क्लाउड के उपरोक्त शब्दों की पृष्ठभूमि में शायद यह कहना सही होगा कि भारत और तिब्बत में समानता दुनिया के किसी भी पड़ोसी की तुलना में कहीं अधिक है। बौद्ध-धर्म और तिब्बती लिपि-तिब्बत को दिया गया भारत का सबसे बड़ा उपहार है। इन दोनों के अपने उद्भव और विकास में भारत के प्रख्यात गुरुओं और विद्बानों का प्रभूत योगदान रहा है। और भारत को तिब्बत का सबसे बड़ा उपहार नालंदा परम्परा के बौद्ध धर्म का संरक्षण करना और उनका सतत विकास करना है। दलाई लामा के अनुसार, नालंदा के बौद्ध-गुरुओं के सिद्धांतों पर आधारित बौद्धधर्म की सबसे अच्छी व्याख्या तिब्बती भाषा में ही उपलब्ध है। इस तरह, यह दोनों देशों के बीच अतीत के अनुबंध-मेलभाव और दीर्घकालीन जुड़ाव को दर्शाता है।
भारतीय विद्वान और गुरु ने तिब्बत में बौद्धवाद के विकास में प्रचुरता से योगदान किया है। अत: इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि तिब्बत के समय में पहला बौद्ध मठ जिसे समी को सैम्य मिंग्युर लुन्गि ड्रुप त्सुलाखांग के नाम से जाना जाता है, उसको बिहार में ओदंतपुरी त्सुलाखांग के मॉडल पर बनाया गया था, उसको आधिकारिक रूप से तिब्बत के राजा त्रिसोंग देत्सन (755-798 एडी)द्बारा संरक्षित किया गया था। इस मठ का निर्माण नालंदा के महंथ शांतरक्षिता, और गुरु पद्मसंभव के निर्देशन में बैद्ध धर्म के अध्ययन के लिए और बौद्ध-भिक्षुओं के प्रशिक्षण के लिए किया था। इसी अवधि में, मठाध्यक्ष शांतरक्षिता के शिष्य पंडित कमलसिला और चीन के एक छात्र होशांग महायान के बीच (792-794)बहुत शास्त्रार्थ हुआ था। उनके शास्त्रार्थ का विषय था-ज्ञान पाने का सही मार्ग क्या है। कहा गया है कि इस विषय पर शास्त्रार्थ पूरे दो साल तक चलता रहा। अंत में,पंडित कमलसिला को विजेता घोषित किया गया और उन्होंने होशांग महायान को फूलों का हार पहनाया। इसके बाद में, राजा ने आदेश दिया कि तिब्बत में भारतीय बौद्ध विद्वानों के अध्येताओं के रचे गये सिद्धांतों का अवश्य ही अध्ययन किया जाए और उनका अनुपालन-अनुसरण किया जाए। राजा ट्रिसॉन्ग डेट्सन ने बौद्ध धर्म को राज्य का धर्म बनाये जाने के लिए राजाज्ञा जारी कर दी। तब से ही, तिब्बती भारत के नालंदा में विकसित और अपनाये जाने वाले मठवाद का ही अनुकरण करते थे। नालंदा उत्तर भारत के बिहार राज्य में एक महान बौद्ध धर्म का विश्वविद्यालय था। यह घटना तिब्बती बौद्ध धर्म के विकास तथा उनकी जन्मजात प्रवृत्ति एवं धार्मिक-शास्त्रार्थ में व्यापक ज्ञान में भारतीय विद्वानों और गुरुओं के अन्यतम योगदान को वैधता प्रदान करती है।
भारतीय विद्बानों एवं गुरुओं के कुशल निर्देशन में तिब्बती तंत्र तथा तर्कशास्त्र के बौद्ध पाठों का शीघ्र ही तिब्बती भाषा में अनुवाद करने लगे थे। तिब्बती अनुवादकों द्बारा किये अनुवाद कार्य इतने समृद्ध और प्रभूत मात्रा में थे, जिसे देख कर एक बंगाली विद्बान तथा विक्रमशिला विश्वविद्यालय, के प्रमुख अतिश चकित रह गये थे। अतिश ने समये बौद्ध मठ के दौरे पर आए थे, तब उन्होंने वैसी दुर्लभ पांडुलिपियां भी देखीं थीं, जो भारत में भी उपलब्ध नहीं थीं। इनके समृद्ध संग्रहों को देख कर अतिश काफी प्रभावित और प्रसन्न हुए थे। तब इस महान भारतीय गुरु ने कहा था, “यह देख कर ऐसा प्रतीत होता है, जैसे बौद्ध धर्म का सिद्धांत भारत से भी काफी पहले तिब्बत में फैला था।”
भारत में अभी लगभग 281 तिब्बती बौद्ध विहार और मठ हैं, जो बौद्ध शिक्षण के उच्च संस्थान के रूप में भी काम करते हैं। तिब्बती बौद्धवाद और दलाई लामा के चलते प्रति वर्ष पूरी दुनिया से लाखों लोग भारत भ्रमण पर अाते हैं।
उदाहरण के लिए, बिहार में 2005 के पहले तक कुल 64,114 विदेशी पर्यटक बिहार भ्रमण के लिए आये थे। इनमें से 45,149 पर्यटक बौद्धस्थलों पर आए थे जबकि 18,965 विदेशी पर्यटकों ने अन्य स्थलों का भ्रमण किया था। संक्षेप में कहें तो लगभग 7 फीसद विदेशी पर्यटकों की आवाजाही बौद्ध स्थलों पर हुई जबकि मात्र 1 फीसद विदेशी पर्यटक गैर बौद्ध स्थलों पर घूमने गये थे। 2017-18 में कुल 10,87,971 विदेशी पर्यटक बिहार दौरे पर आए थे। विदेशी पर्यटकों की आमद के नजरिये से गोवा को पीछे छोड़ते हुए बिहार देश के 36 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में 9वें स्थान पर है। संयोगवश, जनवरी 2017 में, दलाई लामा द्बारा बिहार के बोध गया में कालचक्र का शुभारंभ किया गया। दलाई लामा के निजी कार्यालय की अधिकारिक वेबसाइट के मुताबिक कालचक्र में 200,000 विदेशी और घरेलू पर्यटक आए थे। बिहार सरकार के पर्यटन विभाग के डेटा के अनुसार जनवरी महीने में 75,250 पर्यटक बोधगया आये थे, जो 2017 के के अन्य महीनों में आने वाले पर्यटकों की तादात से कहीं ज्यादा थे। वहीं दूसरी ओर, 2018 में दलाई लामा ने 8 से 28 जनवरी के बीच बोध गया में 18 दिनों का प्रशिक्षण दिया था। इसी साल के दिसम्बर में भी दलाई लामा ने 10 दिनों का प्रशिक्षण दिया था। तदनुसार, 2018 के जनवरी में 57,928 विदेशी पर्यटक बोध गया आए थे, जो उस साल के किसी अन्य महीने में आने वाले पर्यटक की संख्या से कहीं ज्यादा थे। इसी साल के दिसम्बर में 29,328 विदेशी पर्यटक बोध गया आये थे, जो 2018 में भारत के किसी भी अन्य स्थलों पर भ्रमण करने आने वाले पर्यटकों के लिहाज से चौथे नम्बर पर था। थोड़े शब्दों में, केवल 2018 में ही बोध गया आने वाले पर्यटकों की तादाद 270,787 थी। जनवरी और दिसम्बर के महीने में विदेशी पर्यटकों की तादाद 87,256 थी। विद्बान दया कृष्ण थस्सु और शोधार्थी शांतनु किश्वर दलाई लामा और तिब्बती लोगों की मौजूदगी के चलते बौद्ध धर्मस्थलों में नवशक्ति संचार तथा दुनिया में भारत की छवि में और सुधार की बात करते हैं।
इस तरह, तिब्बती बौद्धधर्म ने दो महीने की अवधि में पर्याप्त विदेशी पर्यटकों को अपनी तरफ खींचा है। यह लेखक विश्वास करता है कि यह रुझान भारत में अन्य सभी बौद्धस्थलों पर ही दोहराया जा सकता है। चूंकि तकनीकी सुविधा ज्यादा परिष्कृत हुई हैं, तो ऐसे में मानव के लिए किसी व्यक्ति को ढूंढना आवश्यक है, जिसमें व्यक्ति आध्यात्मिक पनाह ले सके। बौद्धवाद में, इस आध्यात्मिक शून्य को भविष्य में भर सकने की पूरी क्षमता है।
ग्रेग ब्रूनो ने 2018 में प्रकाशित अपनी किताब Blessings from Beijing: Inside China’s Soft Power War on Tibet”,में लिखा है कि दलाई लामा ट्विटर पर बेहद लोकप्रिय हैं। पूरी दुनिया में उनके 13.1 मिलियंस फॉलोअर्स हैं, जो ट्विटर पर तुर्की, फ्रांस और इस्राइल के राष्ट्रपतियों के कुल फॉलोअर्स से कहीं ज्यादा है। मौजूदा समय में, दलाई लामा के अपने इस ट्विटर हैंडल(@DalaiLama) पर 19.3 फॉलोअर्स हैं। इस लेखक ने पाया कि दलाई लामा के फॉलोअर्स चीनी कम्युनिस्ट पार्टी (सीसीपी) के विस्तारित प्रोपैगेंडा विभागों के कुल ट्विटर हैंडल्स : दि ग्लोबल टाइम्स, चाइना डेली, दि पीपुल्स डेली (चाइना), प्रवक्ता हुआ चुनयिंग, प्रवक्ता लिजियन झाओ, इनके साथ ही, चीन के ब्रिटेन, अमेरिका, नेपाल, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, मिस्र और आस्ट्रिया में तैनात राजदूतों और उनके दूतावास कार्यालयों के आधिकारिक ट्विटर फॉलोअर्स से कहीं ज्यादा हैं। यह विकास दिखाता है कि तिब्बत के दलाई लामा नरम राष्ट्र की कूटनीतिक क्षेत्र में सीसीपी के खिलाफ अपनी लड़ाई को आगे ले जा रहे हैं।
तिब्बती पॉलिसी इंस्ट्टियूट सीटीडी, धर्मशाला के पूर्व निदेशक और तिब्बत-चीन के मसले पर भारी लिक्खाड़ थब्तेन समफेल अपने मोनोग्राफ“दि आर्ट ऑफ नन-वॉयलेंस” में लिखते हैं :“तिब्बत के सम्पूर्ण भाग्य पर, चीन अभी जंग जीतता लग सकता है, लेकिन इस विशेष युद्ध में तिब्बत का सॉफ्ट पॉवर चीनी स्कॉलर्स और लेखकों की बढ़ती संख्या को तिब्बत की कहानियां सुना कर उनकी राय बदलने के जरिय चीन के खिलाफ ब़ड़े आघात कर रहा है।” उन्होंने आगे कहा,“अपनी दुरावस्था की असल कहानी चीनियों को सुना कर उन्हें अपने पक्ष के प्रति सहमत कर लेने की तिब्बत की दक्षता का परिणाम कहानी स्वयं ही तय कर सकती है।” इस प्रकार, तिब्बत के सॉफ्ट पॉवर की जीत भारत के सॉफ्ट पॉवर की भी जीत है। सॉफ्ट पॉवर की भूमिका को प्रभावी तरीके से निभाने के लिए भविष्य को ध्यान में रखते हुए किसी को भी सरजमीनी स्तर पर काम करने की आवश्यकता है। भारत सरकार के अपनी सॉफ्ट पॉवर डिप्लोमेसी को मजबूत बुनियाद देने में कुछ चीजें उसके काम आ सकती हैं। वह तिब्बती भाषा के अध्ययन के लिए इच्छुक छात्रों को प्रोत्साहन और छात्रवृत्ति देकर यह काम कर सकती है क्योंकि नालंदा आधारित समस्त बौद्ध परम्परा का लगभग समस्त समृद्ध ज्ञान तिब्बत भाषा में ही उपलब्ध है।
इसको प्रभावी बनाने के लिए यह काम जितनी जल्दी हो किया जाना चाहिए। तिब्बत भाषा को जाने-समझे बगैर तिब्बती बौद्ध धर्म की अवधारणा को समझ पाना दुष्कर है। और तिब्बती बुद्ध धर्म के समग्र ज्ञान के बिना, नालंदा की बौद्ध परम्परा समझना कठिन है और सॉफ्ट पॉवर डिप्लोमेसी को लागू करना भी मुश्किल है। यह लेखक का मानना है कि अब निष्ठावान चेला ही तिब्बती बौद्ध-धर्म का उपदेश-प्रवचन और शिक्षण के जरिये गुरुदक्षिणा देने की स्थिति में होता है। तिब्बती भाषा सीखने की शुरुआत करने वाले छात्रों के लिए भारत सरकार अपने प्रत्येक राज्य में तिब्बती भाषा के जानकारों की नियुक्ति कर सकती है। और विशेष कर, उन्हें बौद्ध धर्मस्थलों पर नियुक्त किया जा सकता है।
उच्चस्तर की कक्षाओं के लिए, मौजूदा समय में कुछ तिब्बती संस्थान तिब्बती भाषा, तिब्बती साहित्य और बौद्ध-दर्शन की शिक्षा दे रहे है। ये संस्थान हैं, सेंट्रल इंस्टिट्यूट ऑफ हायर तिब्बतेन अध्ययन, वाराणसी; कॉलेज फॉर हायर तिब्बतन स्टडीज,(सराह) धर्मशाला; दि दलाई लामा इंस्टिट्यूट फॉर हायर एजुकेशन, बेंगलौर; अम्मी माचेन इंस्ट्टियूट, धर्मशाला (यह शोध-अनुसंधान आधारित केंद्र है, जो फिलहाल मशहूर इतिहासकार एवं तिब्बत के तिब्बतीशास्त्री ताशी टेरिंग की एकल देखरेख में है।);और सांगत्सेन लाइब्रेरी (इसे सेंटर फॉर तिब्बत और हिमालयन अध्ययन केंद्र कहा जाता है) उत्तर भारत के देहरादून में है।
एक अन्य काम भारत सरकार कर सकती है। वह विश्व की सबसे बड़ी और प्रतिबद्ध पुस्तकालय की आधारशिला रख कर और उसकी स्थापना के जरिये। यह पूरी दुनिया के बौद्ध स्कॉलर्स, शिक्षक और बड़ी संख्या में बौद्ध धर्म के अनुयायियों का आकर्षण का अनोखा केंद्र हो सकता है। इस काम में बिहार सरकार और केंद्र सरकार दोनों ही सहभागी हैं। तिब्बती लाइब्रेरी ऑफ तिब्बती वर्क्स एंड आर्काइव्स (एलटीडब्ल्यूए) पहले से ही प्रचुर सेवाएं कर रही हैं और पूरी दुनिया के स्कॉलर्स और छात्रों को अपनी तरफ खींच रही है। एलटीडब्ल्यूए और सांगत्सेन लाइब्रेरी भारत में भविष्य में बौद्ध-पुस्तकालय (यों) की स्थापना में रोल मॉडल का काम कर सकती है।
चीन में सीसीपी की मौजूदा वैधता अधिकांश में कार्य-कौशल संबंधी प्रदर्शन आधारित वैधता पर निर्भर करती है। लिहाजा, अपनी शक्तिशाली अर्थव्यवस्था के लिए संसाधनों तथा सेवाओं के प्रवाह और बहिर्वाह में एक निश्चित लय बनाये रखने की खातिर, शी जिनपिंग के मातहत सीसीपी ने बीआरआइ के रूप में बृहदकाय योजना पेश की है। सीसीपी के नेतृत्व वाली सरकार दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों में अपनी बौद्ध विरासत को रोपने के लिए बीआरआइ के माध्यम से मिलियन्स डॉलर्स रकम खर्च करती है। सीसीपी विभिन्न परियोजनाओं पर काम कर रही है, जैसे नेपाल में 3 बिलियन डॉलर्स की लागत से लुम्बिनी परियोजना और हाल में ही श्रीलंका को 1.1 बिलियंस डॉलर्स का लोन सड़क मार्ग बनाने के लिए दिया गया है। चीन अपनी खराब छवि को मुलायम करने और बीआरआइ परियोजना में बौद्ध धर्म की आबादी वाले देशों का मन-विश्वास जीतने के लिए अच्छी-खासी रकम खर्च कर रहा है। नेपाल, श्रीलंका, मंगोलिया, भूटान, जापान, दक्षिण अफ्रीका, थाइलैंड, म्यांमार, मलयेशिया, वियतनाम ऐसे देश हैं जहां बौद्ध धर्मावलंबियों की बड़ी संख्या बसती है।
बीआरआइ को बढ़ावा देने में बौद्ध धर्म के उपयोग के जरिये, चीन सामान्यत : बौद्ध धर्म और खास कर तिब्बती बौद्ध-धर्म के आध्यात्मिक स्वामित्व को वैधानिक तथा उपयुक्त बनाने का प्रयास कर रहा है। तिब्बत के त्सोंगों किन्हाई क्षेत्र में, 2018 में दो दिवसीय संगोष्ठी आयोजित की गई थी, इस पर विचार के लिए तिब्बती बौद्ध-धर्म का बीआरआइ में बेहतर उपयोग किया जाए तथा अलगाववाद का प्रतिरोध किया जाए। चीनी अकादमी ऑफ सोशल साइंस (सीएएसएस) के रिसर्च फेलो किन योंगझंग को ग्लोबल टाइम्स में यह कहते हुए उद्धृत किया गया है कि “चूंकि मध्य एशिया और दक्षिण एशिया में धार्मिक और सांस्कृतिक विश्वास एक हैं, इसलिए तिब्बती बौद्ध धर्म बीआरआइ देशों के बीच बेहतर संवाद के जरिये उनके बीच एक बेहतर पुल का काम कर सकता है।” उन्होंने आगे कहा कि “तिब्बती बौद्ध-धर्म के बीआरआइ को बढ़ावा देने के इस्तेमाल के रास्ते में भारत से तत्काल चुनौती मिलती है, जो भू-राजनीतिक कारणों से इसे रोके हुए है।“
अभी हाल में, पिछले साल 29-30 अगस्त को बीजिंग में सातवें तिब्बत वर्क फोरम की बैठक हुई थी, जिसमें सीसीपी के महासचिव शी जिनपिंग ने जोर दिया था कि “ समाजवादी समाज को अंगीकार करने तथा उसे चीनी संदर्भ में विकसित करने के लिए तिब्बती बौद्ध धर्म को निर्देशित किया जाएगा।” इस प्रकार, उपरोक्त सभी विकास ये संकेत करते हैं कि सीसीपी तिब्बती बौद्ध धर्म के जरिये बीआरआइ को बढ़ावा देने के लिए एक सघन योजना बना रहा है।
चीन की तुलना में, भारत के पास न केवस युवा आबादी है, बल्कि यह पहले से ही अंग्रेजी जुबान में पीढियों से रवां है। इसका मतलब है कि वे भारत के सॉफ्ट पॉवर को सकारात्मक तरीके से व्यक्त करने में बेहतर स्थिति में हैं। बौद्ध सॉफ्ट पॉवर डिप्लोमेसी के जद्दोजहद में, चीन न केवल तिब्बती और इंग्लिश सीखने के लिए संघर्ष करेगा बल्कि अपने के अतीत के इतिहास और चीन में धर्मों के प्रति उसके आचरण और उसके अधिक्रात किये गये क्षेत्र : तिब्बत, पूर्वी तुर्केमिस्तान और दक्षिण मंगोलिया को देखते हुए सीसीपी के नेतृत्व वाले चीन के लिए एशिया के अन्य देशों के बौद्ध मतावलंबियों का दिल-दिमाग को जीतना कठिन होगा। संक्षेप में, सॉफ्ट पॉवर डिप्लोमेसी में चीन की तुलना में कामयाब होने के लिए, भारत को स्मार्ट चयन करने तथा कड़े कदम उठाने की आवश्यकता है।
Translated by Dr Vijay Kumar Sharma (Original Article in English)
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