टोम्स ने स्वामी विवेकानंद की शिक्षा की अवधारणा के बारे में लिखा है। शिक्षा के बारे में उनकी उक्तियों से टोम्स ने अपनी किताब के पन्ने के पन्ने भर दिये हैं। लेकिन क्या उनमें से किसी भी उक्ति को व्यावहारिक रूप दिया गया है? इनमें से कुछ व्यक्ति और कुछ स्थानीय उदाहरण गिनाये जा सकते हैं, लेकिन हम राष्ट्रीय स्तर पर ऐसे किसी प्रयास से अवगत नहीं हैं। भारत में 2020 में लायी गई राष्ट्रीय शिक्षा नीति मुख्य रूप से रेखांकित किये जाने में से एक प्रमुख बिंदु है और इसके मद्देनजर भारतीयों का परम-पुनीत कर्तव्य है कि वह शिक्षा पर संवाद को फिर से उसे पुनरुज्जीवित करे। स्वामी विवेकानंद के विचार को किस तरह हमारी शिक्षा “प्रणाली” में जोड़ा जा सकता है? निस्संदेह शिक्षा पर उनके विचार के कई आयाम हैं। इस आलेख में, उनके केवल एक आयाम पर विचार किया जाएगा। आलेख में विवेच्य इस विशेष मसले पर शिक्षा को लेकर होने वाले आधुनिक विमर्शों में कम ही ध्यान दिया गया है। स्वामी विवेकानंद ने कहा था: “मेरे लिए तो शिक्षा का सार तथ्यों का संग्रहण नहीं बल्कि मस्तिष्क की एकाग्रता है। अगर मुझे मेरी शिक्षा की फिर से शुरुआत करनी पड़े और इस मसले पर अगर मेरी राय ली गई तो मैं तथ्यों-ब्योरों का अध्ययन एकदम नहीं करूंगा। इसके बजाय, मैं एकाग्रता और निर्लिप्तता की शक्ति विकसित करूंगा और फिर उपयुक्त उपकरणों के साथ अपनी इच्छा से तथ्यों को जमा कर सकता हूं।”1 हां, एकाग्रता। हम शायद ही शिक्षा पर कोई चर्चा सुनते हैं, जो मन की एकाग्रता के मुद्दे के साथ जुड़ी हुई हो।
यह कोई अलहदा विषय नहीं हैं; यह शिक्षा का अंतस्तल है। अब समय आ गया है, जब हम एकाग्रता को अपेक्षित महत्त्व दें।
शिक्षा का अहम अंग है-एकाग्रता। इसलिए कि इसके पीछे कारण हैं। एकाग्रता मन-मस्तिष्क की ऊर्जा को केंद्रित करने में सहायक होता है, और मन-मस्तिष्क शिक्षा में उपयोग किया जाने वाला एक प्रधान उपकरण है। अब अगर उसका उपकरण ही ज्ञान को पर्याप्त ग्रहण करने के लिए तैयार नहीं है तो ऐसे में कोई क्या सीख पाएगा? स्वामी जी कहते हैं: “ वर्तमान की शिक्षा प्रणाली सरासर गलत है। किसी विषय पर सोचने का सही तरीका आने के पहले व्यक्ति के मन-मस्तिष्क को तथ्यों से ठूंस दिया जाता है। पहले यह सिखाया जाना चाहिए कि मन के भटकाव को कैसे रोकें...इन चीजों को सीखने में लोगों को लम्बा समय लग जाता है क्योंकि वे अपने मन-मस्तिष्क पर नियंत्रण की इच्छा नहीं कर सकते।”।”2 उच्च गुणवत्ता की एकाग्रता के साथ कोई भी व्यक्ति किसी विषय को गहराई और तीव्रता से सीखने में निपुण हो जाएगा।
मनुष्य जीवन की उपलब्धियों में मन-मस्तिष्क की एकाग्रता के महत्त्व को कोई भी व्यक्ति अतिरंजना नहीं कह सकता। ऊंची या बड़ी उपलब्धियों तथा सफलताएं हासिल करने वाले किसी व्यक्ति और उसकी तुलना में कम उपलब्धियों पाने वाले दूसरे व्यक्ति में अंतर एकाग्रता के स्तर का ही होता है। स्वामी जी इसको समझाते हैं कि दरअसल यह एकाग्रता की क्षमता ही है, जो किसी मनुष्य और मवेशियों में अंतर लाती है, दूसरी तरफ एक व्यक्ति के अन्य से भिन्नता को भी बताती है: “मनुष्य और मवेशी में मुख्य भेद एकाग्रता की ताकत का ही है। इसी वजह से व्यक्ति को सभी कामों में सफलता मिलती है। हरेक कोई इस एकाग्रता के बारे में थोड़ा बहुत जानता है। हम दैनिक जीवन में इसके परिणाम देखते हैं। कला, संगीत आदि में उच्च कोटि की उपलब्धियां सब के सब इसी एकाग्रता के परिणाम हैं। किसी पशु को एकाग्रता की बहुत ही कम शक्ति मिली हुई है। जिन लोगों को मवेशी पालने का अनुभव है, उन्हें उनको पालने में आने वाली कठिनाइयों का भान होगा क्योंकि पशु को जो भी सीखाया जाता है, उसे वे लगातार भूलते रहते हैं। वे किसी खास विषय पर एक समय में देर तक अपने मस्तिष्क को एकाग्र नहीं कर सकते। अत: मनुष्य और मवेशी में अंतर है-मनुष्य के पास एकाग्रता की महत्तम शक्ति है। एकाग्रता की शक्ति में अंतर भी मनुष्य और मनुष्य में भिन्नताएं लाता है। यह महान और निम्न व्यक्ति में तुलना से स्पष्ट हो जाता है। उन दोनों में दिखने वाला अंतर एकाग्रता के स्तर में भेद के कारण है। मनुष्य और मनुष्य के स्तर में एकमात्र यही अंतर है।”।”3
एकाग्रता की क्षमता के दो घटक हैं-इसके मायने इच्छा के स्तर पर संलिप्तता और निर्लिप्तता दोनों होते हैं। अगर कोई व्यक्ति दूसरी क्षमता को विकसित किये बिना ही पहली क्षमता को विकसित कर लेता है, तो वह अधूरी है और यह बड़े नुकसान की तरफ ले जाएगी। अतएव, स्वामी जी चेताते हैं :“ नैतिक दृष्टि से एकाग्रता की शक्ति से विकास से खतरा है- किसी वस्तु पर एकाग्रता का खतरा है और फिर इससे इच्छा के मुताबिक निर्लिप्त होने में सक्षम न हो पाना...हमारी लगभग सभी दुश्वारियों की एकमात्र वजह किसी चीज से निर्लिप्त होने की हमारी क्षमता का विकसित न हो पाना है। इसलिए हमें किसी खास चीज पर अपने दिमाग को एकाग्रता करने के बारे में ही नहीं सीखना चाहिए बल्कि हमें अवश्य ही पल भर में ही उससे निर्लिप्त होने तथा इसकी जगह दूसरे विषय-वस्तु को रखने की कला भी आनी चाहिए। सुरक्षा के लिए इन दोनों गुणों-क्षमताओं का विकास करना चाहिए।4
दूसरी बात जो हमें ध्यान के बारे में पता होना चाहिए वह ध्यान की वस्तुओं के प्रति इसकी प्रतिक्रिया के संदर्भ में अप्रशिक्षित मन की प्रकृति है। प्राय: लोग जब किसी चीज पर गौर करते प्रतीत होते हैं, तो वह अपनी प्रकृति में पूरी तरह से ऐच्छिक होती है। “विभिन्न चीजों में आकर्षण के जरिये उन पर एकाग्र होने के लिए हमारे मन-मस्तिष्क पर जोर डाला जाता है, जिसे वह टिक नहीं पाता।5 जबकि आदर्श स्थिति यह होनी चाहिए : “हमें अपने मन को चीजों पर रखना चाहिए; उन्हें हमारे मन को आकर्षित नहीं करने देना चाहिए।”6 यही अपने मन का स्वामी होने की क्षमता को विकसित करने की चाबी है।
हमारी परम्परा में, मन के चंचल स्वभाव की तुलना बंदर या मदोन्मत्त हाथी से की गई है। अधिकांश मनुष्य अपना पूरा जीवन यह जाने बिना ही काट जाते हैं कि मन को काबू में करने की आवश्यकता होती है और इसके लिए खास तरह के प्रशिक्षण चाहिए होती है। आज अधिकतर लोग, खास कर युवा लोग, मन पर ‘नियंत्रण’ करने के विचार को ही झटक देते हैं। वे चाहते हैं कि चीजें जैसी हैं, उन्हें वैसी ही रहनी चाहिए। यह स्वतंत्रता की एक सामान्य धारणा है। लेकिन यह सही समझदारी नहीं है। मनुष्य जाति को निरंतर ही अपनी आंतरिक प्रकृति से युद्धरत रहना पड़ता है और इसी का फल हमें अपने मन का स्वामी होने के रूप में मिलता है। यह सच्ची स्वतंत्रता को रचती है। मन को इधर-उधर उन्मत्त भटकने के लिए छोड़ने के बजाए हमें उसकी ऊर्जा को नियंत्रित कर उसको उपयोग में क्यों नहीं लाना चाहिए, जब यह हमें उपहार में मिला हुआ है? मनुष्य जाति एक ताकतवर मन की सहायता से जीवन में महत्तर उपलब्धियां हासिल करने में पूरी तरह सक्षम है। आज की शिक्षा प्रणाली में एकाग्रता के मुद्दे पर अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए। हम आज बच्चों तथा युवाओं में एडीएचडी या अटेंशन डिफिसिट हाइपरएक्टिविटी डिसऑर्डर पर चर्चा कर रहे हैं। क्यों हम हमारे वच्चों को उस अवस्था की प्रारंभिक दशा की तरफ धकेल रहे हैं? क्यों नहीं हम उनकी किशोर अवस्था में ही मन को साधने के अभ्यास को लागू कर देते हैं?
तो, हम अपने मन को कैसे साधें? इस विषय के कई विद्वान और विशेषज्ञ हैं। लेकिन संक्षेप में निम्नलिखित बातें कही जा सकती हैं। हमारी सांसों का हमारे मन-मस्तिष्क के साथ गहरा संबंध है। जब हमारी सांस धीमी होती है, हमारा मन-मस्तिष्क भी स्थिर होता है। स्वामी जी इसको समझाते हैं: “मन को साधने के अभ्यास में पहला कदम हमारी सांस लेने की प्रक्रिया के साथ ही शुरू होता है। सांसों की एक नियमित लय हमारे शरीर को सामंजस्य की स्थिति में रखते हैं; और तब मन तक पहुंचना आसान हो जाता है।”7 गहरे सांस लेने का अभ्यास बचपन से ही किया जाना चाहिए। गहरी श्वसन-प्रक्रिया प्राय: हमारे मन-मस्तिष्क को चिंता, क्रोध और बेचैनी की जकड़न से मुक्त रखती है। यह हमारे मन की गतिविधियों पर दृष्टि रखने में सहायता देती है।
सांस लेने की सही प्रक्रिया पहला चरण है और अगला चरण ध्यान है। स्वामी जी कहते हैं: “ध्यान का अभ्यास...व्यक्ति को मानसिक एकाग्रता की तरफ ले जाता है।”8 ध्यान और कुछ नहीं, बस उच्च कोटि की एकाग्रता है। सच्चा ध्यान वास्तव में कम ही लगता है लेकिन इसकी तरफ लगातार प्रयास करते रहने का अनोखा परिणाम होता है। एक सभ्य और पवित्र समाज के लिए ध्यान परम आवश्यक है। हम संभवत: यहां झगड़े में पड़ जाएंगे! किसके ध्यान के तरीके का अनुसरण करना चाहिए? हिंदू एक खास तरीके से ध्यान करते हैं, बौद्ध अलग तरीके से ध्यान करते हैं। किसका तरीका श्रेष्ठ है? किसका तरीका “सेकुलर” है? हमें ऐसे ही और इसी तरह के अन्य प्रासंगिक सवालों का सामना करना पड़ेगा। असलियत तो यह है कि सभी के लिए कोई एक तरीका नहीं हो सकता; इसलिए कि लोगों का मन-मस्तिष्क के स्तर अलग-अलग हैं और इसीलिए उनके ध्यान के तरीके भी अलग-अलग होंगे। ध्यान के तरीके का चयन लोगों के मन-मस्तिष्क की दशा को देखते हुए किया जाना चाहिए। यह सही है कि ध्यान के कुछ घटक सर्वजनीन हैं तो कुछ खास हैं। इनमें से जो आपको जंचे उसका चुनाव करना चाहिए, लेकिन चयन करें और उपयुक्तता के आधार पर चयन करें।
इस विषय में, आहार दूसरा महत्वपूर्ण कारक है। यह सही है कि आहार से मन को नहीं साधा जा सकता, लेकिन यह ध्यान साधने के काम में सहूलियत दे सकता है या उसे बिगाड़ सकता है। आज अधिकतर बच्चे स्कूल में अपना भोजन करते हैं, लेकिन जब हम स्वस्थ और पोषक आहार पर चर्चा करते हैं तो हम पाते हैं कि हम केवल शरीर के लिए ही आहार ले रहे हैं। जबकि भोजन का सीधा संबंध मन-मस्तिष्क से है। हमारा शास्त्र कहता है, हम जैसा अन्न खाते हैं, हमारा शरीर और मन वास्तव में वैसा ही होता है। हलका और आसानी से पंच जाने वाला आहार एकाग्रता में सहायता करता है। गुणवत्ता में भारी आहार हमारी चिंतन प्रक्रिया को धीमी कर देते हैं; विशिष्ट स्वाद वाले आहार हमारे मन-मस्तिष्क को उत्प्रेरित कर सकते हैं।9 यदि हम अपने मन पर नियंत्रण करना चाहें तो हमें आहार के इन आयामों को लेकर जागरूक होने की आवश्यकता है। अधिक उपवास और ठूंस-ठूंस कर किया भोजन, दोनों ही मन-मस्तिष्क को बेचैन कर देते हैं।
ब्रह्मचर्य मन की एकाग्रता के विकास का एक महत्वपूर्ण पहलू है। हमारे देश में, स्वर्ण युग में व्यक्ति को अपने छात्र जीवन (लगभग 12 साल की अवस्था) में ब्रह्मचर्य का पालन करना पड़ता था। जीवन के इस निर्माणावस्था में, जब कोई व्यक्ति शिक्षा प्राप्त कर रहा है और उसके लिए मन को साधने की कला सीख रहा है, तो जोर एकाग्रता पर दिया जाना चाहिए और मन-मस्तिष्क की ऊर्जा का सही तरीके से देखभाल करनी चाहिए। इस अवस्था में ब्रह्मचर्य का पालन व्यक्ति को मन की महत्तर शक्ति की तरफ ले जाता है, क्योंकि उसकी ऊर्जा बर्बाद नहीं होती, अक्षुण्ण रहती है। स्वामी जी लिखते हैं: “…केवल ब्रह्मचर्य की कठोर अनुपालना के जरिए थोड़े ही समय में सभी विषयों में पारंगत हुआ जा सकता है-ऐसे कि एक बार जब कोई छात्र किसी चीज को सुन लेगा या पढ़ लेगा, वह उसे हमेशा के लिए याद हो जाएगा। इसको जारी न रखने की कारण ही हमारे देश में सब कुछ बर्बाद होने के कगार पर है।”10
स्वामी जी का दृष्टिकोण “मनुष्य का निर्माण करने वाली शिक्षा” का दृष्टिकोण है। मनुष्य को यहां-आत्म निर्भर, सक्रिय, ऐसे व्यक्ति के रूप में सोचने का है, जिसमें सभी गुण विकसित हो गए हों, जिसका हृदय पूरी तरह जागरूक हो और जो एक व्यक्ति के वास्तविक स्वभाव आत्म के प्रति पूर्ण रूप से सचेत है-जैसे बृहत्तर गुणवान के रूप में परिभाषित है। लेकिन इससे पहले कि हम छलांग लगा सकें, हमें एक कदम उठाना होगा। मन को साधना ही शिक्षा में पहला कदम है।
Translated by Dr Vijay Kumar Sharma (Original Article in English)
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