1 फरवरी को श्रीलंका की सरकार ने भारत और जापान के सहयोग से प्रस्तावित कोलंबो बंदरगाह के पूर्वी कंटेनर टर्मिनल का विकास करने के उद्देश्य से मई, 2019 में किए गए समझौते को रद्द करने की घोषणा कर दी। इस करार को रद्द करने की मांग विगत जुलाई से श्रीलंका के 23 ट्रेड यूनियन कर रहे थे और इसका समर्थन विपक्षी वामपंथी पार्टी जनता विमुक्ति पेरामुना (जेवीपी) समेत कई बौद्ध भिक्षु तथा उग्र राष्ट्रवादी समूह कर रहे थे। उनकी मांग थी कि इस टर्मिनल के विकास के लिए किसी विदेशी शक्ति को काम देना सत्तारूढ़ पार्टी के चुनावी घोषणापत्र के विपरीत था। हालांकि बताया जाता है कि उन्हें सरकार ने यह समझाने की बहुत कोशिश की कि इस परियोजना की 51 % इक्विटी श्रीलंका पोर्ट अथॉरिटी के ही पास रहेगी, भारत और जापान के पास केवल 49 % इक्विटी होगी, लेकिन अंततः सरकार को अपनी पार्टी से सम्बद्ध ट्रेड यूनियनों की धमकियों के आगे घुटने टेकने पड़े। आशंका यह जताई जा रही है कि इस परियोजना के विरोध के पीछे चीन का हाथ हो सकता है।
श्रीलंका में चीन की रुचि और आर्थिक प्रभाव बढाने की कहानी नई नहीं है। प्रधान मंत्री महेंद्र राजपक्ष के गृहनगर हंबन्टोटा में चीनी ऋण से बने हुए बंदरगाह को चीन ने लगभग हड़प ही लिया है।
इस बंदरगाह की परियोजना में कई खामियां थीं जैसे इस स्थान का कोइ व्यापारिक महत्त्व नहीं था और इसमें किए गए निवेश की भरपाई असंभव थी, लेकिन इन व्यावहारिक कठिनाइयों को नज़रअंदाज़ करते हुए 2008 में राष्ट्रपति ( उस समय भी महेंद्र राजपक्ष राष्ट्रपति थे) के आदेश पर चीन को यह परियोजना दे कर 30 .7 करोड़ अमेरिकी डॉलर की कर्ज़े की पहली किश्त ले ली गई। 2012 में 6.3 % वार्षिक दर से ली गई 75 .7 करोड़ डॉलर की दूसरी किश्त के साथ ही स्पष्ट हो चला था कि यह परियोजना सफ़ेद हाथी सिद्ध होगी। इस लगभग एक अरब डॉलर के क़र्ज़ को को चुकाने की कोई सक्षम प्रतिभूति न दे पाने के कारण श्रीलंका को बंदरगाह 99 वर्षों के पट्टे पर चीनी कंपनी चाइना मर्चेंट पोर्ट को दे देना पड़ा। इसी कंपनी को कोलंबो इंटरनेशनल कंटेनर टर्मिनल बनाने की ज़िम्मेदारी दी गई है जो कि भारत और जापान द्वारा प्रस्तावित पूर्वी कंटेनर टर्मिनल से मात्र तीन किलोमीटर की दूरी पर है।
भारत की रुचि पूर्वी कंटेनर टर्मिनल के विकास में स्वाभाविक है क्योंकि इस टर्मिनल से होने वाले ट्रांसशिपमेंट का 70 % भारत को ही होता है। प्रारम्भ में विगत दशक में जब इस टर्मिनल के विकास की योजना बनी तो इसके लिए एशियाई विकास बैंक से क़र्ज़ की बात की गई, लेकिन काम शुरू नहीं हो पाया। भारत से बातचीत भी तब तक सफल नहीं हो पाई जब तक जापान भी इसमें भारत के साथ शामिल नहीं हो गया। अंततः मई 2019 एक त्रिपक्षीय समझौता हुआ जिसके तहत भारत और जापान इस परियोजना को करने पर सहमत हुए। इसके अनुसार, पूर्वी कंटेनर टर्मिनल का शतप्रतिशत स्वामित्व श्रीलंका पोर्ट अथॉरिटी के पास रहता, टर्मिनल के सञ्चालन के लिए एक कम्पनी बनती जिसमें 51 % हिस्सेदारी श्रीलंका पोर्ट अथॉरिटी की होती और 49 % भारत और जापान की । इससे साफ़ ज़ाहिर था कि हर तरह से अधिकांश प्रभुत्व श्रीलंका का होता। 50 करोड़ डॉलर की इस परियोजना के लिए जापान 40 वषों की अवधि के लिए सिर्फ 0 .1 % प्रतिवर्ष के ब्याज पर ऋण मुहैया करवाता जो चीनी ऋण की तुलना में नगण्य था। वैसे भी जापान अभी तक श्रीलंका को 1 . 3 अरब डॉलर का ऋण दे चुका हैI ज़ाहिर है की इस परियोजना को वापस लेने की प्रतिक्रिया तीव्र होती। श्रीलंका में जापानी राजदूत अकिरा सुगियाना ने श्रीलंका के निर्णय को "एकपक्षीय और अफ़सोसजनक" बताया। ध्यान रहे कि श्रीलंका हाल ही में दिसम्बर में जापान की एक परियोजना को निरस्त कर चुका है। कोलोंबो में स्थित भारतीय उच्चायुक्त ने कहा कि यह एक त्रिपक्षीय समझौता था जिसे बिना अन्य पक्षों को भरोसे में लिए श्रीलंका को समाप्त नहीं करना चाहिए था।
श्रीलंका की सरकार को इस निर्णय पर संभावित प्रतिक्रियाओं का अंदेशा था, इसीलिए इस परियोजना के बदले में भारत को पश्चिमी कंटेनर टर्मिनल का विकास करने कि अनुमति देने का प्रस्ताव रखा गया है। श्रीलंका ने पश्चिमी कंटेनर टर्मिनल परियोजना की खूबियां गिनाते हुए यह बताया की यह पूर्वी टर्मिनल जितना ही बड़ा है और इसमें पूर्वी टर्मिनल के 49 : 51 प्रतिशत भागीदारी की अपेक्षा 85 : 15 प्रतिशत का प्रावधान होगा। यह भी बताया गया कि हालांकि पूर्वी टर्मिनल की तुलना में प्रस्तावित पश्चिमी टर्मिनल को सञ्चालन योग्य बनाने में थोड़ा अधिक काम करना पड़ेगा, फिर भी यह निवेशकों के लिए अधिक लाभकारी सिद्ध होगा। यह भी आश्वाशन दिया गया कि ट्रेड यूनियनों द्वारा इस पर किसी संभावित विरोध से बचने के लिए उनसे सरकार ने एक समझौता कर लिया है कि वे पश्चिमी टर्मिनल के विकास में सरकार के रुख का समर्थन करेंगे जिस पर 23 में से 22 यूनियनों ने दस्तख़त का दिए हैं। लेकिन इस प्रस्ताव को, जिसे अभी तक कोलंबो ने औपचारिक रूप से भारत को नहीं भेजा है, मानने में कुछ कठिनाइयां हैं। एक तो इसमें भारतीय और जापानी निवेशकों को अधिक निवेश करना पड़ेगा, दूसरे इस टर्मिनल को संचालन योग्य बनाने के लिए काम से कम डेढ़ साल लगेंगे जबकि पूर्वी टर्मिनल के लिए यह समय मात्र छह- सात माह का होता। तीसरी आशंका यह है कि यदि श्रीलंका की संप्रभु सरकार किसी त्रिपक्षीय समझौते पर हस्ताक्षर करने के बाद भी उसे निरस्त कर सकती है तो प्रस्तावित समझौते को न रद्द करने की क्या गारंटी होगी? फिर तो यह भी निश्चित नहीं है कि भविष्य में आने वाली सरकारें इस समझौते का सम्मान करेंगी ही।
यह विचारणीय है कि क्या इस समझौते के निरत करने के पीछे सिर्फ ट्रेड यूनियनों और कुछ विरोधी दलों का दबाव ही था या इसके कुछ निहित कारण भी हैं? बेशक वामपंथी दलों और ट्रेड यूनियनों को चीन का पक्ष समर्थन रहा होगा और जनता के मध्यम वर्ग को चीन की शह पर भड़काया गया होगा। हम्बनटोटा बंदरगाह और कोलम्बो इंटरनेशनल कंटेनर टर्मिनल, दोनों ही चीनी कंपनी चाइना मर्चेंट पोर्ट के पास हैं, ऐसे में चीन की यह भी योजना लगती है कि पूर्वी टर्मिनल परियोजना से भारत और जापान को अभी बेदखल किया जाए ताकि कोलम्बो बंदरगाह पर चीनी उपस्थिति निर्बाध हो जाए। बाद में यदि भारत को पश्चिमी टर्मिनल के सञ्चालन का काम मिल भी जाता है तो इसी प्रकार विरोध की चिंगारी को हवा देकर भारत को बाहर किया जाए। चीन के भारी ऋण के बोझ तले दबी श्रीलंका सरकार चीन के दबाव का कुछ भी विरोध कर पाएगी, इसमें संदेह है। यह भी आरोप लगाया जा रहा है की महिंद्रा राजपक्ष के पिछले शासनकाल में चीन ने उनका चुनावी खर्च उठाया था और उनकी जेबें भी भरी थीं । ऐसे में उनके द्वारा चीन के किसी भी दबाव का विरोध बड़ा मुश्किल होगा।
सवाल यह है कि अब भारत के पास क्या विकल्प हैं? एक रास्ता तो यह है कि " जैसे को तैसा" कि नीति अपनाते हुए श्रीलंका के लिए भी मुश्किलें खड़ी कर दी जाएं जो श्रीलंकाई मछुआरों और अन्य पोतों को रोक कर किया जा सकता है। दूसरा उपाय श्रीलंका को दी जाने वाली सहायता को बंद या सीमित किया जा सकता है। लेकिन इन दोनों उपायों में खतरा यह है कि श्रीलंका पूरी तरह चीन कि गोदी में गिर सकता है और चीन का हिन्द महासागर में वर्चस्व हो उठेगा। फिर इस कदम से हमारे वे छोटे पड़ोसी भी हमारे प्रति और सशंकित हो जाएंगे जो अभी भी गाहे बगाहे भारत पर दादागिरी का आरोप लगाते रहते हैं। तीसरा और सर्वोत्तम विकल्प यही प्रतीत होता है कि पश्चिमी टर्मिनल के विकास का औपचारिक प्रस्ताव आने पर उसमें अपने लिए अधिक से अधिक छूट लेकर स्वीकार कर लिया जाए और श्रीलंका की सरकार को भरोसे में लेकर समझाया जाए कि उसका दीर्घकालीन हित भारत के ही साथ है न की चीन की विस्तारवादी और कर्ज़ के मकड़जाल की नीतियों के साथ। यद्यपि वर्तमान परिस्थिति में यह काफी कठिन होगा लेकिन कठिनाइयों के बीच से राह निकलना ही तो कूटनीति कि सफलता है।
(The paper is the author’s individual scholastic articulation. The author certifies that the article/paper is original in content, unpublished and it has not been submitted for publication/web upload elsewhere, and that the facts and figures quoted are duly referenced, as needed, and are believed to be correct). (The paper does not necessarily represent the organisational stance... More >>
Post new comment