किस तरह सुगा जापान की नीतियों को रूस की तरफ मोड़ रहे हैं ?
Prof Rajaram Panda

शिंजो अबे के प्रधानमंत्री पद से सहसा इस्तीफा देने के बाद योशिहिदे सुगा जापान के प्रधानमंत्री बनाए गए हैं, लेकिन उन्हें विदेशी राजनय के बारे में बहुत कम अनुभव है। इसलिए ये सवाल पूछे जा रहे हैं कि क्या वे जापान के अंतरराष्ट्रीय संबंधों को निभा ले जा सकने में पूरी तरह सक्षम हैं? विगत 3 महीनों में जो हुआ है या जब से सुगा ने जापान के प्रधानमंत्री का पद संभाला है, उसमें यह खुलासा हुआ है, राजनय की समझदारी के मामले में वे इतने कच्चे भी नहीं हैं। सुगा ने न केवल केवल शिंजो अबे की विदेश नीति को जारी रखा है, बल्कि वे अंतरराष्ट्रीय संबंधों के क्षेत्र में भी अपनी भी छाप छोड़ते नजर आ रहे हैं। इस आलेख में इस बात पर विचार किया गया है कि मौजूदा जटिल विश्व में सुगा रूस के साथ जापान के संबंध पर अपना ध्यान किस तरह केंद्रित कर रहे हैं। पिछले 12 सितम्बर 2020 को अबे के नेतृत्व को अद्भुत कहते हुए सराहना के बावजूद सुगा इसे लेकर मुत्तमईन नहीं थे कि वे अबे की बराबरी कर पाएंगे। यद्यपि विदेश-नीति के मामले में उनका रिपोर्ट कार्ड अभी तक युक्तिपूर्ण ही रहा है।

रूस के साथ सुगा के समझौते का मूल्यांकन करने से पहले, विदेश नीति के क्षेत्र में जापान की स्थिति के सभी परिपथों का मूल्यांकन कर लेना शिक्षाप्रद हो सकता है। पहला, जापान को नई सैन्य भाव-भंगिमा देने में अबे को कुछ हद तक सफलता मिली थी। यद्यपि वे संविधान संशोधन की जटिल प्रक्रिया के कारण इससे संबंधित अनुच्छेद-9 में बदलाव लाने में सफल नहीं हो सके थे। इस मामले में सुगा भी अबे की तरह बेहतर नतीजा देने की स्थिति में नहीं होंगे। अबे को संविधान की पुनर्व्याख्या तथा सामूहिक आत्मरक्षा के नए मायने देने के मकसद को हासिल करने में कुछ हद तक सफलता मिली थी। सुगा से इसके और आगे की उम्मीद नहीं की जाती है। दूसरे, अबे जापानी लोगों के अपहरण का मामला उत्तर कोरिया से नहीं सुलझा सके थे, जबकि उन्होंने उनके परिजनों से सकुशल छुड़ा लाने का वादा किया हुआ था। सुगा से भी इस मामले में बहुत बेहतर कर सकने की उम्मीद नहीं की जा सकती है। तीसरा, शिंजो अबे उत्तर कोरिया के नेता किम जॉन्ग उन से अपनी भेंट के लगातार प्रयासों के बावजूद भी फेल हो गए थे, जबकि इसी दौरान किम ने अमेरिका, दक्षिण कोरिया, रूस और चीन के राष्ट्रपतियों के साथ मुलाकातें की थीं। सुगा के भी उत्तर कोरिया नेता से मिलने या बातचीत की संभावना कम ही है।

तो फिर किस क्षेत्र में सुगा से अपने पूर्ववर्ती की तुलना में बेहतर प्रदर्शन या बेहतर साबित होने की उम्मीद जा सकती है? सबसे पहले के साथ जापान के संबंधों की बात करें तो यह पहले की तरह बेहतर रहना है, जैसा कि वह विगत में भू-राजनीतिक प्रतिबद्धताओं और अन्य रणनीतिक हितों के अनुरूप तय होता रहा है। जहां तक आसियान समूह के साथ संबंधों की बात है तो सुगा ने अपनी पहली विदेश यात्रा के देशों के रूप में वियतनाम और इंडोनेशिया का चयन कर विदेशनीति की अपनी प्राथमिकता तय कर दी है। इसका मायने यह है कि जापान पहले की भांति एशिया पर ही अपना प्राथमिक जोर देगा। जहां तक भारत के साथ जापान का संबंध है, तो यह सभी आयामों में ऊंचाई पर होगा। चीन के मामले में उनका संबंध प्रेम और घृणा का होगा। यह इस बिना पर टिका होगा कि कोई दूसरे के बिना कुछ नहीं कर सकता य़ा फिर दोनों को ही परस्पर मतभेद वाले मसलों पर समझौते करने या समन्वय कर चलना होगा। इसमें रूस के साथ संबंध है जो जापान के लिए असल चुनौती बना रहेगा और यहीं सुगा के नेतृत्व को परखा जाएगा।

रूस के साथ बातचीत में अबे की विरासत

जहां तक रूस के साथ वार्ता का संबंध है, तो सुगा विदेश नीति के क्षेत्र में हनीमून अफोर्ड नहीं कर सकते। कोरियाई प्रायद्बीप में, जहां 1950-53 का कोरियाई युद्ध बिना किसी शांति समझौते के युद्ध विराम के साथ समाप्त हो गया था, तब से ही जापान-रूस (तब सोवियत संघ) संबंध दशकों तक तनावपूर्ण रहे हैं। इसकी वजह यह रही कि कुराइल द्वीप समूह विवाद द्बितीय विश्वयुद्ध के पश्चात स्थायी शांति समझौते पर दस्तखत करने में मुख्य अड़चन बना रहा है। चार प्रायद्वीपों-इतुरुप, कुनाशीर, शिकोतन और हाबोमई-के एक समूह, जिसे रूस दक्षिणी कुराइल समूह कहता है, इस पर रूस अपना दावा जताता है और दि नार्दन टेरिटरिज पर जापान का दावा है। इसके चलते दोनों क्षेत्र विवादित बने हुए हैं। वर्तमान में, इन चार प्रायद्बीपों की श्रृंखला जिसे होक्काइडो कहा जाता है, उस पर रूस की हुकूमत चलती है, लेकिन जापान इस पर अपना दावा जताता है। रूस इन प्रायद्वीपों को अपने सम्प्रभु-क्षेत्र में स्थित होने पर जोर देता रहा है, जो दूसरे विश्वयुद्ध के बाद वैधानिक रूप से सोवियत संघ का हिस्सा हो गया था, यह निर्विवादित है।

25 अक्टूबर 2020 को जापान डायट के अवसर पर सुगा ने अपने पहले नीतिगत भाषण में वादा किया कि उनकी सरकार रूस के साथ भूभाग संबंधी विवाद सुलझाने को लेकर प्रतिबद्ध है। रूस के साथ एक शांति समझौते सहित संबंधों के समग्र विकास का उनका लक्ष्य है। सुगा ने कहा,"हमें नार्दन टेरिटरिज मसले को भावी पीढ़ी के लिए छोड़ने के बजाय पर वार्ता में समाधान के करीब पहुंचने की आवश्यकता है। रूस के साथ शीर्ष अधिकारियों के स्तर पर साफ-साफ बातचीत की मदद से मैं रूस के साथ शांति-समझौते समेत संबंधों के समग्र विकास के लिए पुरजोर प्रयास करूंगा।"1 इसके पहले 29 नवम्बर को, सुगा के साथ टेलीफोन पर पहली बातचीत के बाद रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने खास कर दोनों देशों के लोगों के हित में और सामान्य रूप से एशिया-प्रशांत क्षेत्र में हित में जापान के साथ द्बिपक्षीय सहयोग के सभी आयामों को लगातार बढ़ावा देने की अपनी प्रतिबद्धता को दोहराया।

इसके पहले, अबे और पुतिन ने नवम्बर 2018 की बातचीत में इस बात पर सहमति जताई थी कि सोवियत युग के संयुक्त घोषणा पत्र के आधार पर शांति समझौते पर बातचीत को आगे बढ़ाया जाए। 1956 में जारी हस्ताक्षर युक्त घोषणापत्र में अन्य बातों के अलावा इस बात पर सहमति बनी थी कि इसके बाद होने वाले शांति-समझौते के बाद सोवियत संघ दो विवादित प्रायद्बीपों-शिकोतन और हाबोमई-को जापान को सौंप देगा।2 इसी संयुक्त घोषणापत्र को आधार मान कर भविष्य में शांति-समझौते के लिए बातचीत करने पर रजामंदी हुई थी। अबे और पुतिन में इस आशय की सहमति होने के बाद के वर्षों में उनके विदेश मंत्रियों के बीच कई दौर की बातचीत हुई थी, लेकिन इसका कोई नतीजा नहीं निकला।3 2016 में जापान के अपने दौरे के दौरान, पुतिन ने बरसों से चले आ रहे विवाद का हल तलाशने की बात कही थी। दोनों देश नवम्बर 2018 में मसले के हल के लिए संधि के करीब भी पहुंच गये थे। लेकिन रूस और अमेरिका में क्रीमिया को लेकर बढ़ते तनाव ने मास्को और टोक्यो में शांति समझौता होने से रोक दिया। रूस के उक्रेन के क्रीमिया क्षेत्र में 2014 में दखल से वाशिंगटन के साथ उसका रिश्ता बदतर हो गया। मास्को ने चिंता जताई कि अगर प्रायद्बीप जापान को हस्तांतरित किया गया तो अमेरिका नार्दन टेरिटरिज में अपना सैन्य अड्डा बना लेगा। वास्तव में, क्रीमिया को लेकर रूस और अमेरिका के बीच तनातनी एक बहुत बड़ा कारक है, जिसकी वजह से जापान और रूस के बीच नवम्बर 2018 में शिखर सम्मेलन होने के बावजूद टेरिटोरियल मसले पर कोई तरक्की संभव नहीं हो सकी।

पुतिन के 2016 में जापान दौरे के बाद, दोनों पक्षों में विवादित प्रायद्बीपों के हल के लिए संयुक्त परियोजनाओं पर रजामंदी बनी थी। इसमें अबे ने रूस के साथ आठ सूत्री आर्थिक सहयोग का एक प्रस्ताव किया था और प्रायद्बीपों तथा शांति-समझौते के लिए मास्को के साथ एक ‘नये दृष्टिकोण’ से बातचीत की पेशकश की थी। फिर, 2018 में सिंगापुर में, अपने रुख में बदलाव करते हुए अबे ने उन चारों प्रायद्बीपों को वापस लेने की अपनी बुनियादी मांग छोड़ दी थी। फिर जल्द ही यह मसला वहीं पहुंच गया मालूम होता है, जहां कोई पक्ष किसी को मुरव्वत देने के लिए तैयार नहीं है।4

जब अबे 2018 में सिंगापुर में पुतिन से मिले थे, उन्होंने उनसे यहां तक वादा कर लिया था कि अगर प्रायद्बीप जापान को लौटाया जाता है तो वे वहां अमेरिका को अपना सैन्य अड्डा स्थापित करने की इजाजत नहीं देंगे। उस समय अबे के दिमाग में उभरते चीन को काबू में करने के लिए रूस से संबंध सुधारने की बात चल रही थी। जापान को सम्प्रभुता के हस्तांतरण से जुड़े किसी भी समझौते को, अमेरिका-जापान सुरक्षा समझौता, जो जापान के राजनय का मूल है, इसका समुचित जवाब देना होगा कि क्या इन प्रायद्बीपों पर वाशिंगटन को सैन्य अड्डे बनाने का अधिकार होगा। ये द्बीप समूह रूस के लिए सामरिक महत्व रखते हैं, जो पश्चिमी प्रशांत क्षेत्र में उसकी समुद्री पहुंच को सुनिश्चित करते हैं।5 अबे को इसका अहसास होने के बाद, उन्होंने अपने पहले के रुख में बदलाव लाते हुए रूस को यह बता दिया कि 1956 के संयुक्त घोषणा पत्र के मुताबिक इन प्रायद्बीपों को सौंपे जाने की स्थिति में जापान यहां अमेरिकी सैन्य अड्डे स्थापित करने की इजाजत नहीं देगा। तब सोवियत संघ ने युद्ध खत्म होने के बाद शांति समझौते के तहत छोटे-छोटे प्रायद्बीपों को जापान को सौंप देने के लिए तैयार हो गया था।

विगत 70 सालों से टोक्यो और मास्को नार्दन टेरिटरिज विवाद के कारण अपने देशों की सीमा तय करने में फेल रहे हैं। 1956 का संयुक्त घोषणा पत्र कहता है कि शांति समझौता हो जाने के बाद शिकोतन और हबोमाई प्रायद्वीपों को जापान को सौंप दिया जाएगा। लेकिन दोनों पक्ष 1956 के संयुक्त घोषणापत्र को सुपरफ्लोअस बताते हुए इसकी अपने तरीके से भिन्न-भिन्न व्याख्या करते रहे हैं।

जापान लम्बे समय से इस पर जोर देता रहा है कि किसी भी शांति समझौते पर दस्तख्त किये जाने के पहले सभी चारों प्रायद्बीपों पर उसकी सम्प्रभुता की पुष्टि अवश्य की जाए। इसके बाद, जापान ने अपने रुख में बदलाव लाते हुए एक “टू प्लस अल्फा” फार्मूले पर जोर दिया जिसके तहत रूस उसे दो छोटे-छोटे प्रायद्बीप सुपुर्द करेगा तथा बड़े द्बीपों पर बीजा मुक्त आवाजाही की इजाजत देगा। इसके अतिरिक्त, संयुक्त आर्थिक परियोजना का प्रस्ताव किया था।6 यद्यपि अबे मसले का हल करना चाहते थे, लेकिन यह इतना जटिल था कि इस दिशा में अपेक्षित तरक्की नहीं हो सकी।

सुगा के विकल्प

इस पृष्ठभूमि में, रूस के साथ बातचीत और टेरिटोरियल मसले के निबटारे में जापानी प्रधानमंत्री सुगा का नजरिया क्या हो सकता है? और, वे अपने पूर्ववर्ती अबे की रूस-नीति से क्या सबक ले सकते हैं? तमाम सारे संबंधों के आधार पर यह मालूम पड़ता है कि सुगा चीन की चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए रूस के प्रति नरम रुख ही अपनाएंगे क्योंकि वे पड़ोस में दो ताकतवर दुश्मनों से एक साथ नहीं निबट सकते। ऐसे में सुगा आर्थिक सहयोग के लिए विकास की परियोजनाओं पर इस उम्मीद में जोर देंगे कि इस दृष्टिकोण से विवादित प्रायद्बीपों के मसले को हल करने की राह खुलेगी। सुगा का परियोजनाओं में निवेश करने के जरिये आर्थिक सहयोग के विकास का व्यावहारिक दृष्टिकोण को रूस के नजरिये से एक नया चिंतन समझा जाएगा जिसकी वजह से इन प्रायद्बीपों को जापान को सौंपे जाने की संभावना बढ़ेगी।

तब क्या कोई सुगा की रूस नीति को उनके अपने पूर्ववर्ती से भिन्न होने की उम्मीद कर सकता है? इसका बेहद संक्षिप्त उत्तर है-नहीं। सुगा के मुख्य कैबिनेट सेक्रेटरी कटसुनोबु काटो ने टिप्पणी की कि जापान की कार्यनीति प्रायद्बीप मसलों को सुलझाने की है और फिर शांति-समझौतों पर दस्तखत करने के मामले में कोई बदलाव नहीं किया गया है। सुगा ने रूस से संवंधित मसले को देख रही अबे की टीम में कोई बदलाव नहीं किया है। इसका यह भी संकेत है कि रूस को लेकर जापान की नीति में कोई बदलाव नहीं होने जा रहा है। विदेश मंत्री तोशिमित्सु मोटेगी के साथ वरिष्ठ राजनयिक टेको अकीबा और टेको मोरी सुगा की डिप्लोमेटिक टीम का हिस्सा होंगे जो रूस के साथ बातचीत करेंगे। इसके बावजूद, रूस ने 2020 की शुरुआत में संवैधानिक संशोधनों के जरिये देश के किसी भी हिस्से को किसी के भी सौंपे जाने के प्रतिबंधित कर दिया। इस प्रावधान के साथ, पुतिन शायद ही अपने रुख में कोई तब्दीली कर पाएं। लिहाजा, टेरिटोरियल मसला अनिश्चित स्थिति में लटक गया लगता है। ऐसे में यह बिल्कुल संभव है कि सुगा रूस से संबंधित जापान की नीतियों के बाबत अपने पूर्ववर्ती अबे की तुलना में बेहतर प्रदर्शन न कर पाएं।

पूरी निष्पक्षता में, यह सुगा सरकार और जापान के राष्ट्रीय हित में है कि उत्तर कोरिया से जुड़ा मुद्दा और रूस के साथ टेरिटोरियल के मसले सुलझाने की कोशिश को अपनी विदेश नीति की प्राथमिकता में निचले पायदान पर रखें क्योंकि इन विवादों का तत्काल हल क्षितिज पर दिखाई नहीं देता है। सुगा को यह सलाह दी गई है कि जापान के सहयोगी के साथ संबंधों को सही दिशा में रखें और आसियान, भारत तथा हिन्द-प्रशांत महासागर क्षेत्र के अन्य लोकतांत्रिक देशों के साथ गहरे संबंध बनाने पर जोर दें।

पाद-टिप्पणियां
  1. “न्यू जापानि’ज पीएम प्लान्स टू फाइनालाइज टॉक्स ऑन कुराइल आइसलैंड”, 26 अक्टूबर 2020,https://tass.com/world/1216253;https://sputniknews.com/world/202010261080880782-new-japanese-prime-minister-suga-says-determined-to-resolve-dispute-with-russia/
  2. जापान और तात्कालीन सोवियत संघ द्बारा 19 अक्टूबर 1956 को जारी एक संयुक्त घोषणापत्र के जरिये युद्ध को समाप्त कर दिया गया था और दोनों देशों के बीच लोकतांत्रिक तथा कॉन्सुलर संबंध जोड़े गये थे। संयुक्त घोषणापत्र में, जापान और सोवियत संघ परस्पर राजनय संबंध सामान्य बन जाने के बाद एक इसकी तार्किक परिणति के रूप में शांति-समझौते पर राजी हुए थे। शांति-समझौते हो जाने के बाद की स्थिति में सोवियत संघ ने दो प्रायद्बीपों हबोमाई और शिकोतन को जापान को सौंप देने के लिए तैयार हुआ था। इस संयुक्त घोषणापत्र को दोनों देशों की संसदों ने भी अपना अनुमोदन दिया था। जापान की संसद ने सबसे पहले 5 दिसम्बर 1956 को अपना अनुमोदन दिया था जबकि इसके तीन दिन बाद सोवियत संघ की प्रेसिडियम ने 8 दिसम्बर 1956 को अपनी मंजूरी दी थी। इस अनुसमर्थन के उपकरण को 12 दिसम्बर 1956 को टोक्यो में आदान-प्रदान किया गया था। 1960 में नई जापान-अमेरिकी सुरक्षा संधि होने के बाद सोवियत संघ ने यह कहना शुरू कर दिया था कि हबोमाई और शिकोतन प्रायद्बीपों को जापान को इस शर्त पर सौंपा जाएगा जब उसकी धरती से सारी विदेशी फौजें रुखसत हो जाएं। इसके जवाब में जापान सरकार ने कहा था कि उसके और सोवियत संघ के बीच लिखे गये संयुक्त घोषणापत्र के प्रावधानों को एकतरफा नहीं बदला जा सकता क्योंकि यह अंतरराष्ट्रीय समझौता है, जिसकी दोनों देशों की संसदों ने अपनी मंजूरी दी हुई है। सोवियत पक्ष ने दृढ़ता से कहा कि जापान और सोवियत संघ के बीच टेरिटोरियल मसला दूसरे विश्वयुद्ध के परिणाम के रूप में हल कर लिया गया था और अब उनके बीच ऐसा कोई मुद्दा नहीं है। विस्तृत विवरणों और आगे के घटनाक्रमों के लिए, देखें https://www.mofa.go.jp/region/europe/russia/territory/edition92/preface.html
  3. https://sputniknews.com/world/202010271080887279-new-japanese-prime-minister-to-follow-in-abes-footsteps-on-peace-treaty-talks-with-russia/
  4. https://sputniknews.com/asia/202009261080576712-japan-russia-were-very-close-to-signing-peace-treaty-in-fall-2018-abe-says/
  5. “जापान पीएम टेल्स रसियाज पुतिन ऑन यूएस बेसेज ऑन डिस्पुटेड इस्लेस इफ हैंडेड ओवर”, 16 नवम्बर 2018, https://www.straitstimes.com/asia/east-asia/japan-pm-abe-tells-russias-putin-no-us-bases-on-disputed-isles-if-handed-over
  6. https://www.straitstimes.com/asia/east-asia/japan-pm-abe-tells-russias-putin-no-us-bases-on-disputed-isles-if-handed-over

Translated by Dr Vijay Kumar Sharma (Original Article in English)
Image Source: MOFA, Japan

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