भारत-बांग्लादेश मिताली (मैत्री) यात्रा
Dr Sreeradha Datta

मिताली एक्सप्रेस ढाका (बांग्लादेश) और जलपाईगुड़ी (भारत, पश्चिम बंगाल) के बीच चलेगी। इसका विधिवत शुभारंभ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना 27 मार्च की सुबह करेंगे। प्रधानमंत्री 26-27 मार्च 2021 को दो दिवसीय दौरे पर ढाका में मौजूद रहेंगे। यह दौरा न केवल इस वजह से विशिष्ट है कि प्रधानमंत्री मोदी कोविड-19 के पूरे विश्व में प्रकोप होने के बाद पहली बार किसी विदेश दौरे पर जा रहे हैं, बल्कि यह तिथि इस लिहाज से अधिक खास है कि आज से 50 साल पहले इसी तारीख को बांग्लादेश आजाद हुआ था, जो 1971 के पहले पाकिस्तान का पूर्वी हिस्सा हुआ करता था। यह दौरा न केवल बांग्लादेश मुक्ति संग्राम की स्वर्ण जयंती समारोह के दौरान किया जा रहा है बल्कि भारत-बांग्लादेश के बीच स्थापित औपचारिक राजनयिक संबंधों का भी यह स्वर्ण जयंती वर्ष है तथा बंगबंधु के नाम से मशहूर शेख मुजीबुर्रहमान की 100वीं सालगिरह भी है। भारत के भी प्रिय मित्र रहे मुजीबुर्रहमान न केवल सीमा के आर-पार के सभी बंगालियों के लिए एक आइकन थे बल्कि उन्होंने अपने विजन से, और अपने संघर्ष से पूरी एक पीढ़ी को प्रेरित-प्रभावित किया था। मुक्ति संग्राम में मिली ऐतिहासिक विजय के बाद उन्हें अपने देश का पहला प्रधानमंत्री बनाया गया था। मुक्ति संग्राम स्वतंत्रता, संप्रभुता और समानता के सार से सुवासित था, जिसका मुजीब और मुक्ति संग्राम के नेताओं ने समर्थन किया था। सच में, ये विचार आज भी इस तरह से प्रासंगिक और महत्वपूर्ण हैं, न केवल बांग्लादेश के लिए बल्कि समस्त भारतीय उपमहाद्वीप के लिए और व्यापक अर्थ में पूरे विश्व के लिए भी।

यह वास्तव में किसी के लिए भी एक ऐतिहासिक अवधि है, जो आगे बांग्लादेश को दो भिन्न चौखटों को पार करने के लिए मजबूत बनाया। संयुक्त राष्ट्र की तरफ से कम विकसित देश के रूप में परिभाषित और विश्व बैंक के नजरिये से कम आय वाले देश की श्रेणी में परिगणित होने की स्थिति से उसने क्रमश: अभिवृद्धि ही की है। बांग्लादेश एक असाधारण उपलब्धियों की जीवंत कहानी है और यह वर्ष तो इस मायने में कहीं अधिक उपलब्धियों का है। बिला शक, बांग्लादेश के लिए विगत के 50 साल उसके काबिलेतारीफ दौर का एक दिलचस्प किस्सा रहा है। बांग्लादेश अपनी बेहद नाजुक शुरुआत और एक बेहद अपनी कठिन राजनीतिक यात्रा के बाद आज अपने को उस बिंदु पर तैयार करने में कामयाब होता गया है, जो न केवल उसके पड़ोसी देश भारत द्वारा अभिसिप्त है, बल्कि इस क्षेत्र के अन्य देशों और व्यापक रूप से पूरे विश्व के स्तर पर अपेक्षित है।

26 मार्च 2021 को खास जलसे में शिरकत करने के लिए हसीना ने मोदी को न्योता दिया था (पिछले हफ्ते ढाका में मौजूद रहे दक्षिण एशियाई देशों के नेता समारोह में शामिल रहे थे।) लेकिन भारतीय प्रधानमंत्री को खास बुलावा यह जताता है कि बांग्लादेश के लिए भारत की खास अहमियत है। यद्यपि बांग्लादेश की मुक्ति में भारत की भूमिका ने पड़ोसियों के मन में भिन्न धारणाएं पैदा कीं पर वे दोनों ने ही विगत दशकों में कामयाब होने के लिए काफी संघर्ष किया है। उनका वर्तमान भाईचारा और उनके बीच सघन द्विपक्षीय संबंध, न केवल विगत के बोझ से दबा हुआ है बल्कि यह साझा इतिहास की बुनियाद से भी सुसमृद्ध है और आवश्यक रूप से भविष्य की ओर देख रहा है। इसीलिए यह स्वाभाविक है कि किसी भी पड़ोसी देश खासकर जिनके साथ लंबी जमीनी सीमा लगती है और समुद्री सीमा भी, उनके विचार के लिए कुछ मसले बचते हैं। लेकिन इस ऐतिहासिक अवसर पर पड़ोसी देश अपने द्विपक्षीय मामलों पर स्वयं को केंद्रित करेंगे, जिन्हें उन्होंने साथ मिलकर हासिल किया है और इस यात्रा को अगले मुकाम तक ले जाने के लिए रास्तों की तलाश करेंगे। वर्तमान के निर्धारण में अतीत हमेशा से एक महत्वपूर्ण कारक रहा है। एक संप्रभु देश के रूप में बांग्लादेश के अभ्युदय में भारत की भूमिका समकालीन समय में दोनों देशों के बीच के संबंध को समझने के लिए महत्वपूर्ण सूत्र है और यह आने वाले समय में भी ऐसा ही रहेगा। मुक्ति संग्राम में भारत के तगड़े समर्थन के लिए बांग्लादेश में बड़ा बहुमत भारत के प्रति कृतज्ञ लोगों का है, क्योंकि बिना भारत के सहयोग के बांग्लादेश ने यह कामयाबी कभी हासिल न की होती। ऐसी भूमिका के लिए परिस्थितियां जुड़ जाती हैं। आज, वे एक विषम समय के चरण को पार कर प्रगति और विकास के मार्ग के घनिष्ठ साझीदार के रूप में उभरने में कामयाब हो गये हैं। ऐतिहासिक और सांस्कृतिक जुड़ावों, आर्थिक-अंतर आश्रितता और भू-सामरिक हित भारत और बांग्लादेश को परस्पर अपरिहार्य बनाते हैं। यह नया चरण जनवरी 2010 से शुरू हुआ है, जिसने द्विपक्षीय परिपथ को द्विपक्षीय सहयोग के पथ में बदल दिया है। संग-संग समृद्धि के विचार ने दोनों पक्षों को उन विभिन्न क्षेत्रों में अभिसरण के लिए उन्मुख किया है, जो अंतस्थ सामाजिक और सांस्कृतिक समताओं के भी पार जाते हैं। भारत और बांग्लादेश ने सघन व्यापार और वाणिज्य संधियों में अंतर्निहित सहकार को परस्पर लाभदायक पाया है। अब वे और टिकाऊ द्विपक्षीय संबंधों के लिए मौजूदा परिवहन और आधारभूत संरचनागत विकास से समर्थित मूल्य श्रृंखला के निर्माण की तरफ बढ़ रहे हैं।

यह रेखांकित करने की जरूरत है कि विभिन्न प्रकार की आवश्यकताओं के चलते अवामी लीग की कमान वाली सरकार ने ढाका में भारत के साथ करीबी जुड़ाव के साथ काम किया है। इस शाश्वत विरासत में इतिहास और व्यक्तित्वों का बहुत बड़ा योगदान रहा है। आगे के कार्यनीतिक अभिसरण के जरिये भी उसे टिकाये रखा गया है। दोनों देशों ने 2010 में आगे की यात्रा की में परस्पर प्रतिष्ठा के साथ साझा लाभ देखा है। अवामी लीग और मुक्ति संग्राम के समय मुजीबुर्रहमान समेत उनकी पार्टी के नेताओं को भारत का भरपूर समर्थन दिया गया। दुर्भाग्य से अपने पिता मुजीब की 1975 में हत्या के बाद शेख हसीना को अपने जीवन के इस भयावह समय में भारत ने उन्हें आदर से शरण दिया। सहयोग-समर्थन का यह दोहराव चलता रहा। इन अनुभवों ने भारत और अवामी लीग के नेताओं को रिश्ते की एक मजबूत डोर में बांध दिया, जो पिछले 50 सालों में और मजबूत होता गया है। इससे भी अधिक, भारत और बांग्लादेश के लिए पाकिस्तान एक साझा दुख रहा है। वह न केवल बड़े पैमाने पर जनसंहार का दोषी है, जिसे उसने 1971 ऑपरेशन सर्चलाइट के नाम पर शुरू किया था, जिसमें तीन मिलियन से ज्यादा लोगों का कत्लेआम कर दिया गया था, 10 मिलियन लोग शरणार्थी हो गये थे, और कई मिलियन लोग बेघार हो गये थे। इस वाकयात ने शेख हसीना तथा हरेक बांग्लादेशियों के दिलो-दिमाग पर ऐसा प्रभाव छोड़ा, जिसे कभी मिटाया नहीं जा सकेगा। उस समय, पूर्वी पाकिस्तान में ऐसा कोई परिवार नहीं बचा था, जो पश्चिमी पाकिस्तान की फौजों के क्रूर दमन का शिकार न हुआ हो।

भारत और बांग्लादेश संबंधों का यह मौजूदा स्वर्णिम दौर, इंदिरा गांधी-मुजीबुर्रहमान के दौर में ले जाता है, जिसकी शुरुआत दिसम्बर 2008 में शेख हसीना के चुनाव जीतने के साथ हुई थी। तब से दोनों पड़ोसी देशों ने पीछे मुड़कर नहीं देखा है और द्विपक्षीय सहयोग को ईंट दर ईंट मजबूत, और मजबूत ही करते गये हैं। शेख हसीना के कमांड में बांग्लादेश ने केवल भारत की सुरक्षा चिंताओं का निराकरण किया है बल्कि पारगमन सुविधाएं देने के लिए भी रजामंद हुआ है। इससे भारत की बांग्लादेश के भू-भाग हो कर अपने पूर्वोत्तर के दुर्गम क्षेत्रों तक पहुंच सुगम हो गई है। भारत ने लाइंस ऑफ क्रेडिट बढ़ाने का प्रस्ताव किया है, जो इस क्षेत्र में ऐसी सुविधा प्रदान करने का अपनी तरह का एक विलक्षण इतिहास ही है।

सघन द्विपक्षीय संबंधों, जिनमें ऊर्जा कारोबार, विकासात्मक परियोजनाएं शामिल हैं, के जरिए भारत और बांग्लादेश में अपने द्विपक्षीय व्यवसायों को, यहां तक कि कोविड-19 वैश्विक महामारी जैसी कठिन परिस्थितियों में भी जारी रखने का रास्ता ढूंढ़ लिया है। सार्वजनिक स्वास्थ्य क्षेत्र में सहयोग-समर्थन को द्विपक्षीय संबंधों में शामिल कर वैक्सिन कूटनीति की तरफ अग्रसरित होते हुए भारत और बांग्लादेश ने साथ-साथ मीलों लंबी दूरी तय की है। दोनों ने सीमा पार परिवहन संपर्क, कोराबार सुगम करने के उपायों, रक्षा सहयोग और सबसे महत्वपूर्ण एक साझेदारी जो द्विपक्षीय हदों के भी पार जा कर न केवल दक्षिण एशिया बल्कि बंगाल की खाड़ी के उप-क्षेत्र में एक समन्वयकारी भूमिका निभाने की अनुमति देता है। निस्संदेह, द्वपक्षीय संबंध की स्थिति जिसे भारत और बांग्लादेश परस्पर उपभोग करते हैं, वह इस क्षेत्र तो क्या कहीं भी तुलनीय नहीं है। सचमुच, दोनों पड़ोसी देश क्षेत्रीय साझेदारी के लिए एक अन्वेषक हैं, जो दक्षिण एशिया में अब तक लिए अनजान रहा है।

निरंतर शीर्ष स्तरीय राजनीतिक संपर्क रखने, विभिन्न स्तरों पर संबंधों में गहराई लाने, भविष्य के संबंधों के सुचारु विकास को देखते हुए निरंतर संवाद बनाये रखने की गरज से सांस्थानिक संरचना को मजबूती देना ताकि पड़ोसी से जुड़े लंबित मसले द्विपक्षीय विकास के परिपथ को बाधित नहीं कर सके। प्रासंगिकता के साथ, दोनों पक्षों के लोगों को अपनी साझा बेहतरी के लिए परस्पर विचारों का निवेश करना जिससे कि प्रत्येक दूसरा, अपने संकीर्ण घरेलू स्वार्थों के इतर सोच सके।

मिताली एक्सप्रेस का शाब्दिक मतलब मित्रता है, जिसकी किसी एक को क्या सभी को आवश्यकता होती है। जबकि देश से देश और सरकार से सरकार में संबंध जबर्दस्त बना हुआ है, इस रिश्ते के प्रति लोगों का भरोसा ही किसी टिकाऊ यात्रा की कसौटी होता है। उम्मीद है कि बहुक्षेत्रीय और बहुस्तरीय संबंध सतत स्थिरता को सुनिश्चित करेंगे, इस चिंता से परे कि दिल्ली में किसकी सरकार है और बांग्लादेश में किसी हुकूमत है। वे इस द्विपक्षीय संबंधों, जिनमें दोनों पक्षों की जीत है, के इस उपक्रम में सन्निहित मूल्य को देखेंगे। इससे भी अहम बात यह कि दोनों एशियाई शक्तियां अब इस स्थिति में हैं कि क्षेत्र की नियति को साझा आकार दे सकें, जिसकी जड़ें अवश्य ही कानून के शासन, जवाबदेही, सद्भाव और सहयोग में होनी चाहिए। इक्कट्टे वे अपने देश को एक नये क्षितिज की तरफ ले जा सकते हैं। हालांकि उसके लिए, दोनों नेताओं को अपने सुविधा क्षेत्रों से बाहर निकलना चाहिए और अपने कुछ घरेलू यथार्थों का समाधान करना चाहिए। इनसे जनाधार के जुड़े होने के कारण उन्हें मतभेदों के मंद कोलहाल को भी टालना जोखिम होगा पर कोई विकल्प भी नहीं है। यह समय अवश्य ही उत्सव मनाने का है लेकिन कुछ बिंदुओं पर आत्मनिरीक्षण के बगैर नहीं।

Translated by Dr Vijay Kumar Sharma (Original Article in English)


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