भारतीय इतिहासकारों ने देश के इतिहास में स्वामी विवेकानंद के सही स्थान और आधुनिक भारत के निर्माण में उनके योगदान का ठीक से आकलन नहीं किया है। इस बात को पूरी तरह समझना तो असंभव है कि राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रम पर उनका कितना प्रभाव पड़ा क्योंकि उन जैसे व्यक्तियों का प्रभाव बहुत गहरा और सर्वव्यापी तो होता ही है, बारीक और शांत भी होता है। यह लेख हमारे कुछ स्वतंत्रता सेनानियों पर उनके प्रभाव को संक्षेप में प्रस्तुत करने का छोटा सा प्रयास भर है। यह बात तो सभी जानते हैं कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस विवेकानंद के कितने ऋणी थे। मगर अन्य लोग? चाहे अहिंसा अपनाने वाले महात्मा गांधी जैसे (1869-1948) जैसे नेता हों या हेमचंद्र घोष (1880-1980) जैसे क्रांतिकारी नेता, सभी ने विवेकानंद की विराट देशभक्ति से बराबर प्रेरणा प्राप्त की। उन्होंने तो अरविंद घोष (1872-1950) पर भी गहरा आध्यात्मिक प्रभाव डाला और बाद में वह श्री अरविंद बन गए।
भारत के राष्ट्रीय आंदोलन पर स्वामी विवेकानंद के प्रभाव का वर्णन स्वयं राष्ट्रवादियों ने किया है। गांधीजी जब 1901 में पहली बार कांग्रेस अधिवेशन में हिस्सा लेने कलकत्ता पहुंचे तो उन्होंने स्वामी जी से मिलने का प्रयास भी किया था। अपनी आत्मकथा में गांधी लिखते हैं कि उत्साह में वह पैदल ही बेलुर मठ पहुंच गए। वहां का दृश्य देखकर वह विह्वल हो गए मगर यह जानकर बहुत निराश हुए कि स्वामी जी उस समय कलकत्ता में थे और बहुत बीमार होने के कारण किसी ने मिल नहीं रहे थे।1 यह शायद 1902 के आरंभ की बात होगी। कुछ ही महीनों बाद स्वामी जी ने देह त्याग दी। बाद में 30 जनवरी 1921 को महात्मा गांधी ने बेलुर मठ में स्वामी विवेकानंद की जयंती के समारोह में हिस्सा लिया। उनसे कुछ कहने का आग्रह किया गया और वह हिंदी में बोले। उन्होंने कहा कि “उनके हृदय में दिवंगत स्वामी विवेकानंद के लिए बहुत सम्मान है। उन्होंने उनकी कई पुस्तकें पढ़ी हैं और कहा कि कई मामलों में उनके इस महान विभूति के आदर्शों के समान ही हैं। यदि विवेकानंद आज जीवित होते तो राष्ट्र जागरण में बहुत सहायता मिलती। किंतु उनकी आत्मा हमारे बीच है और उन्हें स्वराज स्थापना के लिए हरसंभव प्रयास करना चाहिए। उन्होंने कहा कि उन्हें सबसे पहले अपने देश से प्रेम करना सीखना चाहिए और उनका इरादा एक जैसा होना चाहिए।”2 गांधीजी ने एक स्थान पर यह भी बताया था कि अपने ही समृद्ध भाइयों के हाथों “दबाए गए” दरिद्रों के साथ उन्हें वैसी ही सहानुभूति है, जैसी स्वामीजी को थीः “स्वामी विवेकानंद ने ही हमें याद दिलाया कि उच्च वर्ग ने अपने ही लोगों का शोषण किया है और इस तरह अपना ही दमन किया है। आप खुद नीचे गिरे बिना अपने ही स्वजातों को नीचा नहीं दिखा सकते।”3
हेमचंद्र घोष क्रांतिकारी थे। ढाका मुक्ति संघ के संस्थापक और सबसे अग्रणी नेता थे। उपन्यासकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास पाथेर दाबी (1926) के आदर्श क्रांतिकारी सव्यसाची का पात्र उन्हीं से प्रेरित था। कलकत्ता में राइटर्स बिल्डिंग पर धावा बोलने वाले तीन युवा क्रांतिकारियों विनय, बादल और दिनेश के गुरु भी घोष ही थे। 1901 में जब विवेकानंद ढाका गए तो घोष अपने मित्रों के साथ उनके मिले थे। अपने संस्मरण में वह लिखते है कि स्वामीजी ने उन्हें दोटूक निर्देश दिया थाः “भारत को पहले राजनीतिक स्वतंत्रता मिलनी चाहिए क्योंकि विश्व में कोई भी देश किसी औपनिवेशिक देश का न तो कभी सम्मान करेगा और न ही उसकी बात सुनेगा। और मेरी बात याद रखना कि भारत स्वतंत्र होगा। धरती पर कोई भी ताकत इसे रोक नहीं सकती और मैं मानता हूं कि वह क्षण बहुत दूर नहीं है।”4 उन्हें स्वामीजी की यह सलाह भी याद रहीः “सबसे पहले चरित्रवान बनो। यदि तुम मां भारती की सेवा करना चाहते हो तो वीर बनो। पहले शक्ति और साहस अर्जित करो, उसके बाद उन्हें पीड़ा से मुक्त कराने चलो।”5 हेमचंद्र स्वामी जी को दूर बैठे किसी आदर्श व्यक्ति की तरह नहीं बल्कि भारतीय युवाओं का मार्गदर्शन करने वाले बड़े भाई की तरह याद करते थे, ऐसे व्यक्ति के रूप में याद करते थे, जो देश के लिए इतनी कम आयु में जीवन अर्पण करने वाले क्रांतिकारियों के हृदय के बहुत निकट थे।
इस तरह हम देखते हैं कि एक ओर गांधी जी को दमित वर्गों के लिए विवेकानंद की सहानुभूति ने द्रवित किया तो दूसरी ओर स्वामीजी ने हेमचंद्र जैसे युवाओं को अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष के लिए स्वयं को संगठित करने की प्रेरणा भी दी। स्वामीजी ने राष्ट्रवादी नेता अरविंद घोष के आध्यात्मिक विकास में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और अरविंद घोष ने अंत में परमात्मा की खोज में सांसारिक बंधन त्याग दिए। श्री अरविंद ने कहा है कि अलीपुर जेल में स्वामीजी की आत्मा से कई बार उनका साक्षात्कार हुआ और आध्यात्मिक चेतना के उच्चतर स्तरों के बारे में स्वामीजी ने उन्हें बतायाः “यह सत्य है कि कारागार में एकांत में ध्यान साधना के समय एक पखवाड़े तक लगातार विवेकानंद की आवाज सुनता रहा, जो मुझसे बात कर रहे थे। मैंने उनकी उपस्थिति भी अनुभव की। वह स्वर आध्यात्मिक अनुभूति के केवल एक विशेष और सीमित किंतु बहुत महत्वपूर्ण क्षेत्र के बारे में ही बताता था। उस विषय पर पूरी बात कहते ही वह स्वर शांत हो गया।”6 श्री अरविंद ने आध्यात्मिक ऋणी होने की बात स्वीकार की और लिखाः “याद रखिए कि हमें रामकृष्ण से क्या मिला। मेरे लिए रामकृष्ण ही थे, जो स्वयं आए और मुझे इस योग की ओर प्रवृत्त किया। अलीपुर कारागार में विवेकानंद ने मुझे उस ज्ञान का आधार समझाया, जो हमारी साधना का भी आधार है।”7
कई अन्य राष्ट्रवादी नेता भी विवेकानंद से प्रभावित रहे। हम यह भी देखते हैं कि अलग-अलग लोगों पर उनका अलग-अलग और बहुआयामी प्रभाव पड़ा था। ये लोग सामाजिक, राजनीतिक और आध्यात्मिक क्षेत्रों के थे मगर प्रभाव राष्ट्र के लिए था, इतना अधिक था कि उन्हें भारत के लिए जीने और मरने की प्रेरणा मिली। 1897 में स्वामीजी ने कहाः “अगले 50 वर्षों के लिए हमारा एक ही ध्येय होना चाहिए - हमारी महान भारत माता।”8 और ठीक पचास वर्ष बाद भारत को स्वतंत्रता मिल गई!
Translated by Shiwanand Dwivedi (Original Article in English)
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