नरेन्द्र मोदी सरकार ने जुलाई 2017 में जब वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) को लागू किया तब हमारे कुछ छोटे कद के पड़ोसियों के मन में इसको लेकर कुछ शंकाएं थीं। वह यह कि भारत को उनकी वस्तुओं के निर्यात-कारोबार में जीएसटी मजबूत अड़ंगा लगाएगा। कहने की आवश्यकता नहीं कि उनकी ये आशंकाएं बिल्कुल निराधार थीं क्योंकि जीएसटी एक आंतरिक कर-व्यवस्था थी। इसने स्रोत और विनिमय-आधारित पुरातन कर-व्यवस्था को वस्तुओं की पहुंच वाले स्थान कराधान द्वारा बदल दिया है, जो हरेक वस्तु और सेवा के लिए पूरे देश में समान कर लिया जाना सुनिश्चित करता है। अब तो यह स्पष्ट हो गया है कि निर्यात को जीएसटी के साथ मिला देने से भारत के छोटे पड़ोसी देशों को काफी लाभ हुआ है और पिछले दो सालों में प्राय: सभी के निर्यात-कारोबार में तेजी से बढ़ोतरी हुई है।
सार्क देशों (बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, श्रीलंका और मालदीव) से भारत के आयात में 2017 और 2019 के बीच 33 फीसद की वृद्धि के साथ कुल आयात 3.67 बिलियन डॉलर तक पहुंच गया है। भारतीय आयात में यह बढ़ोतरी तीन फीसद से भी ज्यादा हुई है। इसी अवधि के दौरान, चीन का सार्क देशों (भारत को छोड़कर) के साथ आयात 10 फीसद की बढ़ोतरी के साथ 3.33 बिलियन डॉलर तक ही पहुंच पाया है। चीन-पाकिस्तान के जबर्दस्त कारोबारी संबंध के बावजूद य़ह हाल है।
निस्संदेह, 2018 की अवधि में सार्क देशों के साथ भारत के आयात में व्यापक बढ़ोतरी हुई है और वह 3.87 बिलियन डॉलर की रिकॉर्ड ऊंचाई पर पहुंच गया है। अलबत्ता, इसमें गिरावट आई है, पिछले साल 2019 में,जब भारत ने पुलवामा में नृशंस आतंकी हमले के बाद पाकिस्तान से आयात पर फिर से रोक लगा दी। लेकिन कुल मिलाकर पिछले दो साल में, हरेक छोटे पड़ोसी देशों (पाकिस्तान, म्यांमार और मालदीव को छोड़कर) ने भारत को किये जाने वाले आयात में बड़ी छलांग लगाई है। (तालिका देखें)।
पाकिस्तान से कारोबार एक राजनीतिक मसला है। म्यांमार का अपने कृषि उत्पादों और वन-उत्पादों पर बहुत ज्यादा जोर देने के कारण आयात ठप पड़ा है। अभी तक यह अबूझ है कि मालदीव से होने वाले आयात में 2018 में तेजी से बढ़ोतरी होने के बावजूद 2019 में क्यों गिरावट आ गई है। हालांकि उसके साथ कुछेक मिलियन डॉलर का ही व्यापार होता है।
दरअसल, आयात में इस उछाल के कुछ निश्चित कारण हैं। हालांकि इसको समझने के लिए भारत द्वारा अपने छोटे पड़ोसी देशों को विभिन्न प्रक्रियाओं के अंतर्गत दी जाने वाली तरजीही कारोबारी संरचना को जानना आवश्यक होगा। हांगकांग में विश्व व्यापार संगठन के सदस्य मंत्रियों की घोषणा के मुताबिक भारत अपेक्षाकृत कम विकसित देशों (एलडीसी) को कर मुक्त सीमा शुल्क वरीयता (डीएफटीपी) देता है। पूर्णरूपेण यह योजना वर्ष 2012 (2015 में संशोधित) में लागू की गई थी। इसके तहत भारत की 98 फीसद से अधिक टेरिफ लाइनों में कर-मुक्त पहुंच दी गई थी। बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, म्यांमार, अफगानिस्तान को इस वरीयता प्राप्त योजना के तहत रखा गया था।
इसके अलावा, नेपाल, बांग्लादेश, अफगानिस्तान और भूटान के विभिन्न उत्पादों का साउथ एशिया फ्री ट्रेड एरिया (साफ्टा) के अंतर्गत भारत के बाजारों तक कर-मुक्त, कोटा-फ्री पहुंच है। श्री लंका, जो एलडीसी की कोटि में नहीं आता है, वह चाहे तो साफ्टा अथवा भारत-श्री लंका एफटीए (यह 2000 में लागू हुआ था) के तहत परस्पर व्यापार कर सकता है। एफटीए कोलंबो को परिधान सहित बहुत सारे उत्पादों के भारतीय बाजारों में अबाध आपूर्ति सुनिश्चित करता है। नेपाल और भूटान तो बंदरगाहविहिन भू-प्रकृति और भारतीय रुपये के साथ अपनी विनिमय दर रखने के कारण भारत के साथ वरीयतापूर्ण व्यवहार पाते हैं। नेपाल के साथ द्विपक्षीय संधि (दोनों देशों के बीच यह संधि 1996, 2009 में की गई थी) के मुताबिक भारत साफ्टा एवं एलडीसी स्कीम से मिलने वाले फायदों के अलावा भी कुछ अनोखी रियायतें देता है।
हालांकि ऐसी वरीयतापूर्ण संरचना के बावजूद सार्क देशों के साथ भारत का सकल आयात वर्ष 2012 (जब एलडीसी स्कीम पूरी तरह लागू हुई) से लेकर 2016 (जीएसटी लागू होने के एक साल पहले) के बीच मात्र 12 फीसद बढ़ा है। इसके पीछे कई कारण हैं। अफगानिस्तान के साथ व्यापार रणनीतिक कारणों से उलझ गया है। बेहद छोटे देश होने की वजह से मालदीव और भूटान भी आयात को बहुत प्रभावित कर सकने की स्थिति में नहीं हैं। नेपाल में अंतरराष्ट्रीय बाजारों में प्रतिस्पर्धा कर सकने का तत्व नहीं है और उसका 71 फीसद निर्यात सीधे भारत को होता है। बांग्लादेश और श्री लंका को क्रमश: 85 फीसद और 45 फीसद राजस्व गारमेंट के निर्यात से मिलता है। भारत की वस्त्र उत्पादन की क्षमता इन सबसे बड़ी और ज्यादा समेकित है।
आखिर में, विश्व व्यापार में ‘‘ड्यूटी-फ्री’’ मुहावरे का मतलब कोई कर नहीं चुकाना नहीं होता है। इसका अर्थ इतना ही होता है कि अमुक वस्तु बुनियादी ‘सीमा शुल्क’ से बाहर है। पूर्व-जीएसटी की अवधि में, आयातित वस्तुओं पर अतिरिक्त सीमा शुल्क, विशेष अतिरिक्त सीमा शुल्क आदि लगाया जाता था। इससे बढ़कर अपने घरेलू उत्पादों की हिफाजत में आयातित वस्तुओं पर बुनियादी सीमा शुल्क (बेसिक कस्टम ड्यूटी) भी लगाया जाता था। दूसरी ओर, आयातित वस्तुओं पर प्रतिकारी सीमा शुल्क (सीसीवी) भी उसी तरह वसूला जाता था जैसा कि उसी तरह की घरेलू उत्पादित वस्तुओं पर देश में केंद्रीय उत्पाद शुल्क लिया जाता था। भारतीय बाजारों में आयातित आइटमों की बिक्री पर वैट (वीएटी) भी घरेलू उत्पाद के समान ही लगाया जाता था।
शुल्कों-करों का यह ढांचा जीएसटी के काल में पूरी तरह बदल गया है। भारत द्वारा अपनाये गए दोहरे कराधान मॉडल के मुताबिक जीएसटी को तीन श्रेणियों-सेंट्रल जीएसटी (सीजीएसटी), स्टेट जीएसटी (एसजीएसटी) और आइजीएसटी-में बांटा गया है। सीजीएसटी और एसजीएसटी के तहत आने राजस्व सीधे केंद्र और उपभोक्ता राज्य के पास चला जाता है।
अगर कोई वस्तु उसी राज्य में उत्पादित और उपभोग की जाती है तो उसे केवल सीजीएसटी और एसजीएसटी से प्राप्त राजस्व ही मिलता है। लेकिन अगर यही वस्तु दूसरे राज्य में उपभोग में लाई जाती है, तब आइजीएसटी लागू होता है। तब इससे मिले राजस्व का हिस्सा राज्यों के बीच बांटा जाएगा। आयातित वस्तुओं को अंतर-राज्यीय विनिमय के रूप में माना जाता है और वह आइजीएसटी के दायरे में आती हैं। इन पर भी घरेलू उत्पादों के समान ही कर लगाया जाता है और आइजीएसटी के नियमों के अंतर्गत लिये जाने वाले बुनियादी उत्पाद शुल्क के अलावा भी दूसरे शुल्क लिये जाते हैं। कुल जमा परिणाम है : अब जबकि हमारे पड़ोसी पहले से ही बुनियादी उत्पाद शुल्क के भुगतान में छूट का फायदा उठा रहे हैं, जीएसटी लागू होने के बाद के समय में अतिरिक्त उत्पाद शुल्क, विशेष उत्पाद शुल्क इत्यादि प्रभावी तरीके से वापस ले लिये गए हैं।
पड़ोसी, खास कर वे देश जो एलडीसी के दायरे में आते हैं, अब भारत को किये जाने वाले शुल्क-मुक्त आयात का सच में फायदा उठा रहे हैं और आंकड़ों में यह झलक भी रहा है। वर्ष 2017 और 2019 के दरम्यान बांग्लादेश का निर्यात 105 फीसद, श्री लंका का 50 फीसद, नेपाल का 57 फीसद, अफगानिस्तान का 20 फीसद और भूटान का 21 फीसद बढ़ा है। इन सबसे में बांग्लादेश सबसे ज्यादा फायदा उठाने वाला देश है। इसके बाद श्री लंका और फिर नेपाल का नम्बर आता है। हालांकि इन पड़ोसी देशों की अर्थव्यवस्थाओं में आयात की ऐसी संवृद्धि का लम्बे समय तक टिका रहना असंभव है; क्योंकि प्रतियोगिता के स्वरूप में बदलाव नहीं आया है।
बांग्लादेश या श्री लंका के वस्त्र-उत्पादक लम्बे समय तक भारतीय उत्पादकों की बराबरी नहीं कर सकते हैं, जिनकी कच्चे माल तथा सहायक सामानों की घरेलू आपूर्ति तक सीधी पहुंच है। यह भी कि, बांग्लादेश एलडीसी के दायरे से जल्द ही बाहर आने वाला है। आकार और क्षमता में भिन्नता वाले दक्षिण एशिया में भविष्य की संवृद्धि पूरक मूल्य श्रृंखला के सृजन पर निर्भर करेगी।
Translated by Dr Vijay Kumar Sharma(Original Article in English)
Image Source: https://english.cdn.zeenews.com/sites/default/files/2017/10/22/633303-gst.jpg
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