चीन का अमेरिका के साथ सम्बन्धों में आ रही गिरावट और भारत का अमेरिका के साथ संपूर्ण रूप से बिना किसी शर्त के परस्पर सम्बन्धों में वह सहज खिलाव नहीं आय़ा है। य़द्य़पि, जैसा कि भारत चीन के साथ सैन्य़ टकराव देखता है, जैसा कि उसके साथ लद्दाख में झड.प हुई, तब से भारत में अमेरिका से मिलने वाली सैन्य़ सहाय़ता को लेकर संदेह रहा है। दरअसल, य़ह ऩिश्चित रूप से लम्बे समय़ से चली आ रही संशय की विरासत पर आधारित है, जिसमें अपने मित्रों को लज्जित करने का अमेरिका का इतिहास रहा है और इस बात का डर ज्य़ादा है कि चुनाव बाद अंमेरिका में बदला हुआ प्रशासन अपनी चीन-नीति को बदल सकता है। यह संदेह सही हो या नहीं, लेकिन इसको देखते हुए अमेरिका के साथ भारत के संबंधों को और सावधानी से देखने की आवश्यकता है। इस तथ्य के साथ कि भारत और अमेरिका के साथ हाल के दिनों में सैन्य संबंध एक अपेक्षित ऊंचाई पर पहुंचे हैं। इससे भी अमेरिका-चीन संबंध में एक दुराव आ गया है।
तो इस तरह का कोई भी काम करने के पहले यह तय है कि चीन या किसी भी अन्य देश के साथ सैन्य झड़प होने की स्थिति में भारत अमेरिकी सेना को अपनी सरजमीं पर नहीं बुलाएगा, जैसा पंडित जवाहरलाल नेहरू ने 1962 में किया था। आज के भारत को इसकी आवश्यकता नहीं है। वह अपने हिस्से की लड़ाई लड़ देने के लिए किसी की चिरौरी नहीं करेगा। इस संदर्भ में दूसरे देशों से भारत की अपेक्षाएं अधिक शालीन और कुछेक क्षेत्रों तक सीमित होंगी। लिहाजा, वह उनसे राजनयिक समर्थन पाने, दुश्मन देश की सामरिक मामलों की खुफिया जानकारियां देने तथा समुन्नत सैन्य साजो-सामान की त्वरित आपूर्ति की मांग करेगा, और संभवत: वह प्रशांत महासागर में अपनी नौसेना को सन्नद्ध कर भारतीय युद्धक्षेत्र में चीनी सेना की तैनाती या उसकी बढ़त को प्रभावी तरीके से रोकने का काम करेगा।
इस सदी की शुरुआत से ही भारत-अमेरिका के बीच विकसित होते सैन्य संबंधों में एक असरकारक तेजी रही है। सन् 2008-2018 की अवधि में अमेरिकी सैन्य उपकरणों का निर्यात पहले के बुरी तरह से निचले स्तर से उछल कर 18 बिलियन डॉलर1 तक पहुंच गया था। इसके अलावा, कई अन्य तरह के निर्यात का आरहन किया गया। फिर, दोनों देशों ने सर्वाधिक संयुक्त सैन्याभ्यास किया है, जितना कि इन्होंने अन्य किसी देश के साथ नहीं किया है। साथ ही साथ, दोनों देशों ने सैन्य स्तर पर अनेक बार जबर्दस्त तरीके से बहुआयामी बातचीत की है। भारत ने अमेरिका के साथ चार में से तीन बुनियादी समझौते पर दस्तखत किये हैं। चौथा बेसिक एक्सचेंज और कोऑपरेशन एग्रीमेंट (बीईसीए) के रूप में उल्लेखनीय है, जिस पर दोनों देशों में जल्द ही करार हो जाने की उम्मीद है। ये समझौते दोनों देशों की सेनाओं की अंतरसक्रियता को सुगम-सरल करेंगे। इसके अलावा, अमेरिका ने दिसम्बर 2016 में भारत को ‘‘बड़ा रक्षा जोड़ीदार’’ (मेजर डिफेंस पार्टनर) नामित किया हुआ है और इसके फलस्वरूप भारत 2018 में अमेरिका के वाणिज्यिक रणनीतिक व्यापार प्राधिकरण के टायर-1 में दाखिल हो गया है। इसका मतलब यह हुआ कि भारत की सीधी पहुंच अमेरिका के बेहद संवेदनशील हथियार प्रणाली और प्रौद्योगिकी तक हो गई है। ध्यान रखने की बात है कि अमेरिका यह दर्जा या छूट हर किसी को नहीं बल्कि अपने बेहद करीबी पाटर्नर को ही देता है। इसलिए कोई आश्चर्य नहीं, और जैसा मीडिया रिपोर्ट में कहा गया है, कि अमेरिका भारत को उत्तम कोटि के आर्म्ड प्रेडेटर द्रोन देने पर राजी हो गया है। दरअसल, ‘‘फॉरेन पालिसी’’ ने खबर दी है कि ‘‘अमेरिका अपने पार्टनर भारत को बड़ी मात्रा में हथियार बेचने का विचार कर रहा है, जो पूर्ववर्त्ती अमेरिकी प्रशासन समय की तुलना में कहीं ज्यादा होगा। इन हथियारों में आर्म्ड द्रोन के जैसे उन्नत स्तर की प्रौद्योगिकी और परिष्क हथियार प्रणाली भी शामिल होगी। और इसके लिए अमेरिका सारी तैयारियां मुकम्मल कर रहा है।’’2
अब यह खुला रहस्य है कि अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप के काबिज होने के बाद से ही चीन के साथ उसके संबंध में तेजी से बिगड़े हैं। अमेरिका और चीन के बीच पहले शुरू हुए व्यापार-युद्ध ने आज व्यापक रूप ले लिया है। दरअसल, चीन-अमेरिका के बीच आए तनाव के मूल में कहीं न कहीं यह तथ्य शामिल है कि अपने किसी भी पूर्ववर्त्ती राष्ट्रपतियों की तुलना में अधिक विफल रहे ट्रंप ने तेजी से यह ताड़ लिया कि अमेरिका के लिए अगर कोई सबसे बड़ा खतरा है तो वह है-चीन।
ट्रंप सरकार ने इस तथ्य को राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति के दस्तावेज-2017 में भी व्यक्त किया है। इसमें जोर देकर कहा गया था,‘‘चीन और रूस अमेरिकी मूल्यों एवं हितों के विरुद्ध जा कर विश्व को एक नया स्वरूप देना चाहते हैं। चीन हिन्द-प्रशांत महासागर क्षेत्र से अमेरिका को बोरिया-बिस्तर गोल कर देना चाहता है, यहां तक वह अपने सरकारी आर्थिक ढांचे के प्रभाव-क्षेत्र का विस्तार करना चाहता है और इस क्षेत्र की व्यवस्था को अपने कमांड में लेना चाहता है।’’
तभी से ही चीन-अमेरिकी संबंध में गिरावट आती गई है और दोनों के बीच खाई इतनी चौड़ी हो गई है, जिसे पाट सकना अब असंभव प्रतीत होता है। यह वास्तविकता है कि पूरे जून से लेकर जुलाई 2020 तक अमेरिकी एफबीआइ चीफ, एनएसए, अटॉर्नी जनरल और विदेश मंत्री तक ने चीन के खिलाफ बोलने में कोई सीमा नहीं रखी और उसकी कटु से कटु आलोचनाएं कीं। उन्होंने विस्तार से चीन की दगाबाजी, अमेरिका के सामने उत्पन्न खतरे और खास कर दुनिया के प्रति आसन्न संकट को शिद्दत से रेखांकित किया, वहीं अपने पूर्ववर्त्ती राष्ट्रपतियों की चीन की तरफ से ‘‘आंख मूंद कर बनाए गए संबंध’’ की नीतियों को पूरी तरह बकवास करार देते हुए इन्हें ही बीजिंग के अभ्युदय के लिए कसूरवार ठहराया और उन नीतियों पर आगे अमल नहीं करने की सौगंध खाई। इनमें से कुछ अफसरों ओैर मंत्री के भाषणों के महत्त्वपूर्ण अंशों को नीचे पेश किया जा रहा है :
‘‘एनएसए ने दावा किया कि चीन का दूसरे देशों या दुनिया की विचारधाराओं पर दखल करने की उसकी महत्त्वाकांक्षा केवल उसके देश तक सीमित नहीं है बल्कि यह दूसरे देशों को भी अपनी जद में ले लिया है। और इसे वह अपने हमलावर प्रचार, आर्थिक दबाव, और प्राय: अवैध तरीके से निजी विवरणों (डेटा) को, जिसे वह सीधे चोरी से नहीं हासिल कर पाया तो तरह-तरह से लालच दे कर जुटा लेता है।’’
‘‘ एफबीआइ चीफ ने दावे से कहा कि अमेरिकी सूचना प्रौद्योगिकी और बौद्धिक सम्पदा तथा उसकी आर्थिक जीवनी-शक्ति के सामने चीनी जासूसी से भारी संकट उत्पन्न हो गया है। यह अमेरिका की आर्थिक और राष्ट्रीय सुरक्षा पर एक बहुत बड़ा खतरा है। उन्होंने आगे कहा..चीन आर्थिक और प्रौद्योगिकी में बनी अमेरिकी सर्वोच्चता को ‘‘साफ-सुथरी और नियमोचित प्रतिस्पर्धा’’ के जरिये नहीं बल्कि किसी भी तरीके के ‘‘सम्पूर्ण सरकारी प्रयासों’’ द्वारा बेदखल करना चाहता है।
‘‘अटार्नी जनरल ने स्पष्ट किया कि चीन ने वैश्विक अर्थव्यवस्था की ऊंचाइयों पर अपना कब्जा जमाने के लिए तूफानी बमबारी कर दी है। उन्होंने दुख जताया कि चीन ने मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र से अमेरिका को एक दशक पहले ही निकाल बाहर कर दिया है और अब वह कई तरह के उत्पादों के लिए बीजिंग पर बुरी तरह निर्भर हो गया है। उन्होंने चीन के कारोबार और नीतियों पर ताबड़तोड़ हमले में इसको रेखांकित किया कि चीन के साथ मुक्त और साफ-सुथरा कारोबार एक कपोल-कल्पना रहा है। इसलिए चीन कई बहुतेरे शिकार और प्राय: गैरकानूनी चालों; मसलन, मुद्रा की हेराफेरी, राज्य निर्देशित रणनीतिक निवेश और कब्जे, बौद्धिक सम्पदा की चोरी और बलात् हस्तांतरण, राज्य सब्सिडी, औद्योगिकी जासूसी इत्यादि कारगुजारियों में संलिप्त रहा है।’’
इस संदर्भ में ‘‘अमेरिकी विदेश मंत्री ने सुझाया कि कम्युनिस्ट चीन को वास्तव में बदल देने का एक ही तरीका है कि चीनी नेता जो कहते हैं, उन पर तो एकदम कान मत दो। वे जैसा करते हैं, उनके साथ बिल्कुल वही करो। इसी तरह, चीन से डील करते समय हमें परस्पर लेन-देन, स्पष्टता और जवाबदेही पर जोर देना होगा। विदेश मंत्री ने यह महसूस किया कि चीन से कई देशों की सहयोगी ताकतों से ही चीन से बेहतर तरीके से निबटा जा सकता है। और अनुमान जताया कि ‘‘समान विचार वाले राष्ट्रों का एक नया समूह बनाने, लोकतांत्रिक राष्ट्रों का एक नया गठबंधन बनाने का समय आ गया है।’’
‘‘ चीन पर जुबानी हमले में अपना साथ देते हुए अमेरिका ने चीनी अधिकारियों को मानवाधिकार उल्लंघन के लिए प्रतिबंधित किया, चीनी कम्पनियों को काली सूची में डाल दिया, चीनी जासूसों को गिरफ्तार किया, हांगकांग को दी जाने वाली विशेष छूट पर रोक लगा दी, साउथ चाइन सी पर चीन के दावे को बकवास करार दिया, भारत के लद्दाख और भूटान में उसकी कार्रवाइयों की निंदा की, ह्यूस्टन में चीन के वाणिज्य दूतावास को बंद कर दिया और अपने स्वास्थ्य मंत्री को ताइवान के सरकारी दौरे पर भेज दिया, जो पिछले कई दशकों में पहला उच्चस्तरीय दौरा था।
अमेरिका-चीन के बीच जारी घटनाक्रमों को देखते हुए यह नतीजा निकालना जरा भी अतार्किक नहीं होगा कि ट्रंप प्रशासन चीन से सामरिक मुठभेड़ होने की स्थिति में कमोबेश भारत को सैन्य समर्थन देंगे। नवम्बर में चुनाव होने वाले हैं, इसे देखते हुए कोई यह भी अनुमान लगा सकता है कि इस मुद्दे पर बाइडेन प्रशासन का यही रुख रह सकता है।
अमेरिकी डेमोक्रेट्स की चीन को लेकर नरम रुख को देखते हुए किसी को भी पहली नजर में यह लग सकता है कि बाइडेन प्रशासन भारत के प्रति ट्रंप के जैसा सहयोगी होने में कदाचित कुछ संकोच करे। हालांकि पिछले वर्ष में काफी कुछ बदल गया है। “डिप्लोमेट” में ‘‘चीन और ताइवान के संदर्भ में टीम बाइडेन की नीतियां’’ शीषर्क से प्रकाशित एक लेख में यह सुझाव दिया गया है कि चीन के प्रति बाइडेन के रुख में ‘‘आमूलचूल बदलाव’’ (टेक्टोनिक शिफ्ट) आया है, जो खास कर चीन के मानवाधिकार के उल्लंघन और अमेरिका के साथ उसकी सामरिक प्रतिस्पर्धा को देखते हुए काफी सख्त हो गया है।3 दरअसल, डेमोक्रेटिक पार्टी की तरफ से राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवारी तय किये जाने के चुनावों के दौरान ही बाइडेन ने ‘‘पुनर्निर्माण शिविर (रि-कंस्ट्रक्शन कैंप), जो वास्तव में कंस्ट्रेशन कैंप है, उसमें 10 लाख से अधिक उइगर मुसलमानों को कैद कर रखने के लिए’’ चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग को ‘‘ठग’’ तक कह दिया था। वह हांगकांग के नये राष्ट्रीय कानून के भी मुखर आलोचक रहे हैं। बाइडेन अमेरिका के पहले प्रख्यात राजनीतिक हैं, जिन्होंने ताइवान के राष्ट्रपति त्साई इंग्बेन के चुनाव जीतने और सरकार बनाने पर उन्हें बधाई संदेश भेजा है।4
चीन के प्रति डेमोक्रेटिक पार्टी के कठोर रुख पर चकित नहीं हुआ जाना चाहिए क्योंकि बीजिंग के प्रति आम अमेरिकी रुख में एक निर्णयकारी बदलाव आया है। हालिया हुए प्यू सर्वे में भी दो तिहाई अमेरिकियों ने चीन को नकार दिया था, जबकि 2017 में यह संख्या 47 फीसद थी। दरअसल, 2006 में जब प्यू ने चीन को लेकर अमेरिकी समाज का मन टटोलने का काम शुरू किया तब से बीजिंग के प्रति नकार का भाव आज कहीं ज्यादा है।5 तो इन परिस्थितियों में अमेरिका में अब चाहे ट्रंप हों या बाइडेन, पूरी संभावना है कि अगर जरूरत पड़ी तो वे चीन के खिलाफ भारत का सैन्य समर्थन करेंगे। अगर चीन से 1962 की लड़ाई में एक गुटनिरपेक्ष राष्ट्र के अगुवा रहे भारत की सैन्य समर्थन देने की गुहार को ठुकराये जाने का संबंध तात्कालीन डेमोक्रेटिक राष्ट्रपति (जॉन एफ कैनेडी) से जोड़ा जाता है तो अब यही कहा जा सकता है कि वे भारत के समर्थन करेंगे क्योंकि दोनों देशों के परस्पर संबंध आज सबसे ज्यादा घने हैं। अब तो गुटनिरपेक्ष आंदोलन कब का मर चुका है, वह केवल नाम में जिंदा है। चीन से निबटने के तरीके में ट्रंप और बाइडेन में एक बड़ा अंतर है। पहले की शैली तो शिकार से अकेले भिड़ने वाले एक रेंजर की है जबकि दूसरे की सबको साथ लेकर दुश्मन से भिड़ने की है। दिलचस्प है कि बाइडेन का यह तरीका अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पम्पियो के सुझाव से मेल खाता है।
Translated by Dr Vijay Kumar Sharma(Original Article in English)
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