संघवाद सरकार के कामकाज की एक प्रणाली है, जिसमें शक्तियां केंद्र और राज्यों में विभाजित होती हैं।1 आज दुनिया के अधिकतर देश ने भी संघवाद शासन प्रणाली को स्वीकार किए हुए हैं, जिससे एक तरफ तो अपनी जनता और सरकार के बीच बने फासलों को पाटने मैं मदद मिलती है, और दूसरी तरफ यह प्रणाली लोकतंत्र को भी सहारा देती है। चूंकि संघीय ढांचे में केंद्र और क्षेत्रीय ताकतों के बीच सत्ता को एक विशेष तरीके से विभाजित किया जाता है, इसके चलते इसकी घटक इकाइयों के लिए शासन और विकासात्मक गतिविधियों से जुड़े अपने मामलों में खुद से फैसले लेना आसान हो जाता है।
संघवाद में अंतर्निहित लाभों को पहचान कर ही, 25 देशों ने संघीय लोकतांत्रिक प्रणाली को स्वीकार किया है। इन देशों में, अमेरिका सहित भारत, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, ब्राजील, ऑस्ट्रिया, मेक्सिको, जर्मनी, मलयेशिया, इराक और नेपाल भी शामिल हैं. इस तरह से देखें तो विश्व की सकल आबादी की 40 फीसद जनसंख्या संघीय लोकतांत्रिक शासन वाले देशों में निवास करती है।2
संघीय ढांचे की शासन- प्रणाली को स्वीकार करने वाला नेपाल विश्व स्तर पर एक नवजात देश है। सितम्बर 2015 में, नेपाल ने अपने अंतिम संविधान में खुद को एक संघीय लोकतांत्रिक देश के रूप में घोषित किया है। तदनुरूप, त्रिस्तरीय-स्थानीय, प्रांतीय और संघीय सरकारों के लिए 2017 में चुनाव कराए गए, जिसमें 35,000 स्थानीय परिषदों के प्रतिनिधियों का चुनाव किया गया, जिनमें मेयर और उप-मेयर भी शामिल हैं। इसी तरह, प्रांतीय विधानसभाओं में 550 सदस्य चुने गए और प्रतिनिधि सभा (हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव) के 275 सदस्यों का चुनाव किया गया।3 इसके पश्चात, 761 सरकारी इकाइयों, जिनमें 753 स्थानीय स्तर के, 7 प्रांत स्तर के और एक संघीय स्तर की इकाई गठित की गई थी।
हालांकि दो साल के भीतर ही नेपाल में राजनीतिक हलकों में संदेह इतना बढ़ गया कि यह सवाल पूछा जाने लगा कि क्या देश में संघीय लोकतांत्रिक ढांचा सफल हो भी पाएगा। देश के विभिन्न भागों में रहने वाले लोग अपने पर हद से ज्यादा थोपे गए करों को लेकर और करदाताओं के धन की बर्बादी होते देख संघीय लोकतांत्रिक प्रणाली से भी उदासीन होने लगे हैं।4
यह सचमुच दुर्भाग्यपूर्ण है कि जिस संघीय प्रणाली को लाने के लिए मधेशियों, जनजातियों और देश में अन्य वंचित समूहों के लोगों ने 1950 के दशक से ही इतना कड़ा संघर्ष किया था, वह प्रणाली उनके लिए बेहतर साबित नहीं हो पा रही थी। 1950 के दशक में वेदानंद झा के नेतृत्व में नेपाल तराई कांग्रेस ने संघीय शासन प्रणाली के पक्ष में आवाज बुलंद की थी। बाद में नेपाल सद्भावना पार्टी के नेता (एनएसपी) के गजेंद्र नारायण सिंह, मधेशी जनाधिकार फोरम(एमजेएफ) के नेता उपेंद्र यादव, और तराई मधेश डेमोक्रेटिक पार्टी (टीएमडीपी) के महंत ठाकुर ने संघवाद को एक ठोस स्वरूप देने के लिए अभियानों की शुरुआत की थी।5
सभी मधेश अभियानों में, चाहे वह 2007 का मधेश आंदोलन-एक हो, 2008 का मधेश अभियान-दो हो, या 2015-16 के तीसरे चरण का मधेश अभियान हो; सभी अभियानों में संघीय लोकतांत्रिक शासन पद्धति लागू करने की मांग मजबूती से मुखरित हुई। इसका सर्वाधिक श्रेय कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ नेपाल (माओवादी) सीपीएन (एम) को जाता है, जिसने संघवाद को अपना पुख्ता समर्थन दिया.6 सीपीएन एम की ही यह पहल थी, जिसमें अंतरिम संसद ने नेपाल को संघीय लोकतांत्रिक गणतंत्र बनाने के लिए 28 दिसंबर 2007 को एक बिल पारित किया। इसके तुरंत बाद, 2008 में पहली संविधान सभा में नेपाल को आधिकारिक तौर पर संघीय देश घोषित किया गया, तब सीपीएन माओवादी देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी के रूप में उभर कर आई थी। लेकिन नेपाल को अपने संविधान में संघवाद जोड़ने के लिए इसके आगे लगभग 7 साल का लंबा इंतजार करना पड़ा था, और 2015 की दूसरी संविधान सभा में इसे पारित किया गया था।7
सीपीएन माओवादी,टीएमडीपी, एनएसपी और एमजेएफ समेत नेपाल की बड़ी राजनीतिक पार्टियों ने संघीय लोकतांत्रिक शासन प्रणाली को अपना समर्थन दिया था क्योंकि एकात्मक सरकार के अंतर्गत न तो क्षेत्रों में समावेशी समृद्धि हुई थी और न ही मधेशिया जनजातियों, दलितों, महिलाओं और अन्य वंचित समूहों के साथ सम्यक न्याय हुआ था।8 इन समूहों की नेपाल के एक बड़े हिस्से को देश की प्रशासनिक, विधायिका, न्यायिक, राजनयिक, कूटनीतिक और सुरक्षा सेवाओं से जानबूझकर वंचित रखा गया था। लोगों को ये अपेक्षाएं थीं कि संघीय शासन प्रणाली एकात्मक शासन की उन तमाम खामियों को दूर कर देगी। लेकिन इस क्रम में यह भुला दिया गया कि संघवाद अपने आप में शांति, स्थिरता और देश की प्रगति की कोई गारंटी नहीं है।
संघवाद को सफल बनाने के लिए संसाधनों पर लगे प्रतिबंधों को हटाए जाने की जरूरत है, जिससे कि प्रांतों और स्थानीय निकायों को लेवी लगाने, आंतरिक स्रोतों से उधार लेने और अपनी जरूरतों के मुताबिक विदेशी कर्ज लेने के अधिकार देने की जरूरत है। राज्य और स्थानीय इकाइयों को भी वित्तीय स्वायत्तता देने और उनकी शासन-क्षमता को बढ़ाए जाने की जरूरत है।9. लेकिन नेपाल में इस दिशा में संबद्ध इकाइयों द्वारा बहुत कम प्रयास किये गये हैं।
आज तक प्रांत और स्थानीय निकाय वित्तीय संसाधनों के लिए संघीय सरकार पर बहुत ज्यादा निर्भर हैं। नेपाल की संघीय सरकार कुल बजट का 70 फीसद हिस्सा अपने पास रखती है। बजट का शेष 30 फीसद हिस्से में से 15 फीसद प्रांतों को और 15 प्रतिशत स्थानीय निकायों को आवंटित किया जाता है।
प्रांत और स्थानीय निकायों को बजटीय आवंटन बेहद अपर्याप्त हैं। यहां तक कि नेपाल का पड़ोसी देश भारत की सरकार कर-राजस्व से प्राप्त 42 फीसद हिस्सा अपने राज्यों को आवंटित करती है, जो इसके पहले मात्र 32 फीसद थी।10 नेपाल में संघीय सरकार यह महसूस नहीं करती कि वह केवल फैसिलिटेटर है। प्रांत तथा स्थानीय निकाय ही मुख्य कार्यकारी इकाइयां हैं और उनके लिए पर्याप्त संसाधन आवंटित किए जाने की जरूरत है।
नेपाली संघीय प्रणाली के साथ एक दूसरी समस्या देश में फैला भयानक भ्रष्टाचार है। पूरे साल स्थानीय सरकार विकास के कामों में बेहद अल्प राशि खर्च करती है। वित्तीय वर्ष समाप्त होने के अंतिम कुछ महीनों में आवंटित बजट का अधिकतर हिस्सा खर्च किया जाता है, जिसे अक्सर शेयर बजट कहा जाता हैI
अत्यधिक कर थोपने के लिए आम लोग संघीय शासन प्रणाली को जिम्मेदार ठहराते हैं, जो उन्हें सर्वाधिक चुभते हैं। इसके चलते काफी तादाद में लोग प्रांतीय सरकारों एवं स्थानीय निकायों के अपने प्रतिनिधियों के प्रति उदासीन होने लगे हैं। इस आधार पर अनेक राजनीतिक नेताओं, जिनमें साझा पार्टी के नेता शामिल हैं, ने भी अपनी प्रांतीय सरकारों को विघटित करने की आवाज उठाने लगे हैं।
ऐसा मालूम होता है कि देश में संघवाद को फलने-फूलने देने और इसे सफल बनाने में राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव है, जबकि केंद्र प्रांतों के साथ और असहयोगी प्रतीत होता है, लेकिन प्रांत भी इस बात के लिए संजीदा नहीं दिखते की संघवाद बेहतर तरीके से काम करे। जहां तक मधेशी आधारित पार्टियों, जिन्होंने देश में संघवाद लाने के लिए इतना योगदान किया था, वह भी इसके फल-फूलने देने के प्रति ईमानदार नहीं हैं। स्थिति सुधरने के बजाय पहले से और बिगड़ती जा रही है। अब अगर इस मोर्चे पर कोई सुधार नहीं होता है तो वह दिन दूर नहीं जब संघवाद फिर कमजोर हो जाएगा और यहां तक कि यह धराशायी भी हो जा सकता है। इसीलिए देश की सभी पार्टियों और उनके नेताओं/प्रतिनिधियों को इससे जुड़े मामलों को हल करने के लिए गंभीरता से विचार-विमर्श करना चाहिए और अभी तक के मिले अनुभवों के आधार पर तत्काल सुधारात्मक कदम उठाने चाहिए।
Translated by Dr Vijay Kumar Sharma (Original Article in English)
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