चीन ने भारत के लद्दाख में सैन्य मुठभेड़ कर भारी भूल कर दी है। उसने अपनी दादागीरी दिखाने की रणनीति के किसी झांसे में भारत के न आने और उसका मुंहतोड़ जवाब देने की भारत की क्षमता को कम कर आंका है। उसे तो डोकलाम में ही यह चेतावनी मिल गई थी कि सैन्य ताकत के दम पर भारतीय भू-भाग पर दखल जमाने का उसका कोई भी कुत्सित प्रयास निर्विरोध नहीं रहेगा। लगता है कि उस भारतीय प्रतिघात ने चीनी नेताओं को लद्दाख में भारत को झटका देने तथा इस बहाने अपनी खोई हुई राजनीतिक, सैन्य और मनोवैज्ञानिक आधार के लिए उकसाया होगा।
अब सीमा के दोनों तरफ 40,000 सैनिकों की लामबंदी ने स्थिति को और तनावपूर्ण बना दिया है। तात्कालिक और दीर्घकालिक हितों को साधने की गरज से मौजूदा तनाव को दूर किये बिना किसी पक्ष की सेना की वापसी आसान नहीं होगी। अगर चीन ने भारत को यहां से लौटा देने की मंशा से यह दुस्साहसिक कदम उठाया है तो वह अपनी राजनीतिक, सैन्य और मनोवैज्ञानिक धार खो देगा, जिसमें भारत की तुलना में फायदे की स्थिति में रहा है। वह अभी तक भारत को उसकी सीमा से लगे संवेदनशील क्षेत्रों में उसे पिन चुभोता रहा है, अपने को बेहतर हैसियत में रखते हुए भारत को बातचीत के लिए दबाव डालता रहा है, भारत के राजनीतिक प्रतिष्ठानों को खड़खड़ा देता रहा है, सरकार पर घरेलू दबाव डालता रहा है, भारत और उसके पड़ोसी देशों को यह जतलाता रहा है कि उसका हाथ ऊपर है, और इसी तरह की बातें। उसकी रणनीति पाकिस्तान पर दबाव डाल कर भारतीय फौज को तिब्बत सीमा पर ही रोक देने की थी।
अगर चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के घरेलू मोच्रे पर दबाव झेलने, और इसी के चलते आंतरिक और अंतरराष्ट्रीय मोर्चे पर अपना दम-खम दिखाने की उनकी विवशता को लेकर किये जा रहे विश्लेषण में जरा भी सचाई है, तब चीन का भारत के साथ तर्कसंगत समझौते करने की संभावना कम लगती है। चीन अब अमेरिका से पंगा लेने के मूड में है और वह अपनी विकासशील पकड़ को खोता जा रहा है। भेड़िया को रोकने की उसकी कूटनीति चीन को एक भावनात्मक संतुष्टि तो दे सकती है, लेकिन वह उसे दूसरों पर समझदारी की धाक नहीं जमा सकती और न उनकी सहायता ही दिला सकती है। इसके उलट, इससे तो चीनी की बदरूप नीतियों की तरफ ही दुनिया का ध्यान चला जाएगा। पर चीन यह विश्वास करता है कि दुनिया के अन्य देश उस पर आर्थिक क्षेत्र में अटूट रूप से आश्रित हो गए हैं कि उनके पास विकल्प बहुत कम रह गए हैं। वास्तविकता उन्हें टालमटोल करने तथा चीन से वे अपने आर्थिक संबंध तोड़ कर बहुत आगे तक नहीं जा सकेंगे; दरअसल ये ख्याली पुलाव है।
समस्या अब आर्थिक वास्तविकताओं की हद से बाहर जा चुकी है। अब तो यूरोप भी चीन को एक व्यवस्थित चुनौती के रूप में देख रहा है। चीन अपनी अग्रिम पीढ़ी की डिजिटल तकनीक के बिना पर अपनी कंपनियों जरिये अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी पकड़ को और घनीभूत करने की कोशिश कर रहा है। उसकी इन कंपनियों को सरकारी समर्थन और अनुदान मिलते हैं, और उनका संबंध चीनी कम्युनिस्ट पार्टी (सीसीपी) से है। इस तथ्य के खुलासे तो बहुत सारे देश चिंतित हो जाएंगे। दरअसल, दिक्कत चीन की राजनीतिक प्रणाली में है, खास कर यह कि सीसीपी का पूरे देश पर दखल है और इसके लिए अभिव्यक्ति की आजादी को दबाना तो जैसे अपरिहार्य है। चीनी आर्थिक नियंत्रण और इसकी प्रणालीगत अरुचिकर राजनीति का कुप्रबंधन बढ़ता ही जा रहा है। चीन बाह्य रूप से जितना दबाव में आता है, सीसीपी घरेलू राजनीति में अपनी दखल को और बढ़ा देती है। अब चीन की इस दोहरी पद्धति के रचित वैश्विक तनाव अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था से किस तरह बाहर होंगे, कहना मुश्किल है। यह तो साफ दिख रहा है कि ये तनाव और बढ़ेंगे और उनके पराभव को भारत महसूस करेगा।
भारत के लिए यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि तिब्बत हड़प लेने के बाद चीन उसका सीधा पड़ोसी हो गया है। इससे भी बुरा हमारे पड़ोसी देशों में उसका हस्तक्षेप राजनीति, आर्थिक और सैन्य क्षेत्रों तक फैल गया है, ये सब मिलकर चीन को हमारा सबसे ज्यादा परेशान करने वाला पड़ोसी बनाता है। इसने पाकिस्तान पर दबाव डाल कर हमारे के लिए उसे लगातार खतरा बनाये हुए है। यह काम वह हमारे अन्य पड़ोसी देशों के साथ नहीं कर सकता है, क्योंकि वे आकार में बहुत ही छोटे और कमजोर भी हैं। इस लिहाजन, वे भारत के प्रति उस स्तर के वैमनस्य को नहीं पाल सकते, हालांकि वे (भूटान को छोड़ कर) स्वयं को चीन के समक्ष शोषण के लिए परोस कर अपनी विकास परियोजनाओं की आड़ में भारत पर दवाब बनाते हैं। भौगोलिक रूप से चीन से भारत की समीपता के कारण वह उसे चुनौती दे सकता है। वह ऐसी चुनौती उन देशों को भी दे सकता है, जिसकी सीमा उससे लगती है लेकिन ये पड़ोसी देश भारत जैसे कद्दावर नहीं हैं और वे चीन की प्रभुत्व जमाने की आकांक्षा से भारत की तरह अकेले ही नहीं टकरा सकते। पाकिस्तान और म्यांमार के जरिये चीन की सम्पर्क योजना तथा हिंद महासागर में उसकी नौसैनिक महत्त्वाकांक्षा कुछ हद तक भारत की ताकत की कुछ हद तक निष्प्रभाविता की मांग करता है, चाहे वह मित्रता के जरिये हासिल हो या डरा-धमका कर। लंबित मसलों के हल के साथ भारत से उसकी असल दोस्ती हमारे इर्द-गिर्द की सरजमीं और महासागर को लेकर चीन की नीतियों की बुनियाद को हिला देगी क्योंकि वे भारत की शक्ति को रोकने और हमारे पड़ोसी देशों के बीच स्वयं को अधिक आकर्षक बना कर प्रस्तुत करने पर आधारित है। उदाहरण के लिए भारत के साथ उसकी इस तरह की मित्रता पाकिस्तान-चीन संबंधों को गंभीर रूप से जटिल बनाएगा। इसका मायने अपनी परिधि में भारत की राजनीतिक, आर्थिक और सुरक्षा का आदर करना होगा; जिसका मतलब चीन के लिए एक ही पर्वत पर दो शेरों के वजूद को स्वीकार करना होगा।
इसलिए भारत को चीन की मौजूदा उकसावे की कार्रवाई पर बातचीत करते समय भविष्य का भी ध्यान मन में रखना होगा। निस्संदेह, गंभीर समस्य हमारे नजदीक है। इसलिए कि चीन के रूप में एक मजबूत, धोखेबाज और सिद्धांतहीन शत्रु है, जो भारत की अपेक्षा कहीं अधिक संसाधनों से सम्पन्न है। हम लद्दाख में चीन के साथ सरजमीं पर मुकाबला कर सकते हैं, लेकिन लम्बी खींचने वाली कोई भी मुठभेड़ हम पर भारी भार रख देगी, जो अर्थव्यवस्था की गिरती दर और वैश्विक महामारी कोरोना से बने अतिरिक्त दबाव को देखते हुए यह कम वजनी नहीं होगा। सैन्य मुठभेड़ को टालना लाजिमी होगा, लेकिन यह सारा कुछ भारत की पसंद पर निर्भर नहीं होगा। हमने बातचीत से हल निकालने के गंभीर प्रयास शुरू किये है और अप्रैल से शुरू भारी संख्या में चीनी सैनिकों की तैनाती तथा घुसपैठ से पहले की यथास्थिति बनाने की मांग की है। फौजी कमांडर स्तर और अन्य सैन्य स्तर पर पांच दौर की बातचीत हो चुकी है, जो अपने आप में अभूतपूर्व है। राजनयिक/मिलिट्री वर्किग मैकनिज्म (डब्ल्यूएमसीसी) भी कई बार बातचीत की है। दोनों देशों के विदेश मंत्रियों ने भी एक दूसरे से बातचीत की है और उनके विशेष प्रतिनिधियों ने भी। भारत और चीन के रक्षा मंत्री भी मास्को में हुए एससीओ सम्मेलन में मिल चुके हैं। लेकिन इन परस्पर हुए और हो रहे संवादों का कोई ठोस परिणाम नहीं निकला है।
रक्षामंत्रियों की बैठक के बाद इसका कोई रास्ता निकालने पर रोशनी पड़नी चाहिए थी लेकिन जैसी रिपोर्टे बाहर आई है, उनसे तो यही मालूम हुआ है कि दोनों पक्षों अपने जगजाहिर पक्षों पर ही अड़े हैं। दोनों एक दूसरे पर एलएसी और सीमा पर समझौते के उल्लंघन का दोषी ठहरा रहे हैं तथा अपनी सम्प्रभुता की रक्षा करने की शपथ के साथ अपनी एक इंच जमीन भी नहीं छोड़ने को दोहरा रहे हं। मौजूदा चीनी रक्षा मंत्री पीएलए रॉकेट फोर्स के मुखिया रह चुके हैं और सम्प्रति वह चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की अध्यक्षता वाले सेंट्रल मिलिट्री कमीशन के सदस्य हैं। ऐसे में जाहिर है, उन्हें एससीओ की बैठक में आने से पहले ऊच्च स्तर से काफी सिखाया-पढ़ाया गया होगा। यद्यपि, उसके बाद से लगातार हो रही घटनाओं के साथ हमारे सैन्य कमांड की घोषणा सामने आई है कि जबकि अभी बातचीत चल रही है, पीएलए सरजमीं पर रणनीतिक फायदा उठाने की कोशिश करती रही है, जो चीन की जन्मजात दगाबाजी को दर्शाता है। इससे यह मालूम होता है कि समय पाने, सरजमीं पर अपने को मजबूत करने, भारत को उसकी मंशा के बारे में अनुमान लगाते रहने देने, भारत को अमेरिका के नजदीक जाने में राजनीतिक विकल्प आजमाने तथा चतुर्भुज को मजबूत करने से विमुख करने के लिए बातचीत का उपयोग कर रहा है।
भारत पहले यथास्थिति बहाली की मांग करता रहा है, लेकिन अब ऐसा नहीं है। भारत अब इसके बदले युद्ध की तीव्रता में कमी चाहता है। यह मान्यता बन रही है लगती है कि चीन खास कर पैंगोन्ग त्सो और देप्सांग इलाके में मई-पूर्व की स्थिति में लौटने की बात पूरी तरह नहीं मानेगा और वह उभयपक्षीय सैन्य वापसी की एक गैरबराबरी शर्ते रखेगा जो भारत को स्वीकार्य नहीं होगा। पैंगोंग त्सो के शिखर के दक्षिणी किनारे पर कब्जा करने की भारतीय पहलकदमी से बातचीत में अपेक्षित प्रगति नहीं आ सकी है, जिसने भारत को कुछ और मोलजोल की हैसियत में आने में आने के लिए दबाव बनाया है। इसी तरह चीन भी हमारी तरह ही स्थिति में आ गया है, जिससे कि अब उन्हें यह फैसला करना होगा कि भारतीय सेना को यहां से बेदखल करने का मतलब संघर्ष बढ़ाना होगा।
इस बीच, भारत ने आर्थिक मोर्चे पर चीनी एप्स और गेम पोर्टल्स पर प्रतिबंध लगा कर, भारत में भावी चीनी निवेशों पर नियमन की रोक लगा कर, हमारे मैन्युफैक्चरिंग की कीमत पर चीन से सस्ते सामानों की आमदों को नियंत्रित करने का काम किया है। चीन का झुकाने के लिए यह ये छोटी-मोटी पहलें हैं, जिनका इशारा है कि चीन को भारत के प्रति उसकी आक्रामक नीतियों का खमियाजा भुगतना पड़ेगा। थोड़े समय की चोट चीन के लिए बड़ी न भी हो, लेकिन आने वाले वर्षो में भारतीय अर्थव्यवस्था में उसके लिए अवसरों की कमी उसके लिए बड़ी कीमत चुकाने वाला होगा, खास कर अमेरिका के साथ जारी व्यापार युद्ध और चीन को कुछ क्षेत्रों पश्चिमी अर्थव्यवस्थाओं द्वारा अलग किये जाने को देखते हुए। भारत का विशेषकर डिजिटल दायरे में लिया गया निर्णय इस क्षेत्र में चीन की महत्त्वाकांक्षा के लिए दूरगामी दुष्परिणाम देगा। वहीं दूसरी ओर तिब्बतियों का इस्तेमाल करते हुए पैंगोंग त्सो के दक्षिणी किनारे की चोटियों पर भारत द्वारा कब्जा किया, जो चीन की राजनीति के लिए कुछ असुविधाजनक संकेत हैं।
विदेश मंत्री ने माना है कि स्थिति 1962 की तुलना में सर्वाधिक गंभीर है। संतोषजनक कोई हल नजर नहीं आ रहा है। अगले कुछ महीनों में, शीत ऋतु के पहले ही, सरजमीं पर कोई विशेष कार्रवाई हो सकती है। भारत अपनी सेना को चोटी पर ही ठंड बिताने की तैयारी कर रहा है, बावजूद कि उसकी फौज पर पहले से ही काफी दबाव है। उस चीन को जो हमारे साथ अब तक खेल खेलता रहा है, उसे यह दिखाने के लिए के लिए खेल का नियम बदल गया है, यह प्रतिबद्धता दिखाने के अलावा और कोई उपाय भी नहीं है। शीत ऋतु खत्म होने के बाद दोनों पक्षों को सरजमींनी हालात की नये सिरे से समीक्षा करनी होगी क्योंकि दोनों तरफ 40,000 सैनिकों के जमावड़े का सतत अस्थिरता बनाये रखने के अलावा सिवा कोई अर्थ नहीं होगा। भारत ने यह स्पष्ट कर दिया है कि अगर स्थिति बिगड़ी तो अपनी वायुसेना की तैनाती करेगा। हालांकि उसने चीन को दबाव में लेने के लिए महासागर में नौ सेना की तैनाती की बात नहीं कही है। चीन को अपनी चोटियों से उतरना होगा, क्योंकि शी जिनपिंग के हठीले रवैय़े को देखते हुए अंतरराष्ट्रीय स्तर उसकी स्थिति में गिरावट जारी रहेगी।
मास्को में एससीओ विदेश मंत्रियों की बैठक में, ईएएम ने अपने चीनी समकक्ष के साथ बैठक उनकी तीखी आलोचना की थी। इससे संभावना कम ही है कि बैठक के कोई गंभीर परिणाम मिलेंगे। चीन के अपने ढांचे में पीएलए को अधिक जवाबदेही ढोनी पड़ती है। अगर चीनी रक्षा मंत्री ने बराबरी के स्तर पर तनाव दूर करने की बात नहीं की तो चीनी विदेश मंत्री किसी के प्रति हथियार नहीं उठाएंगे। वांग यी दरअसल चीन की वुल्फ वॉरियर्स डिप्लोमेसी के मंजे हुए एक अभिनेता रहे हैं और वह स्क्रिप्ट ही पढ़ेंगे।
तो अब आगे क्या होगा? भारत एक जवाबदेह ताकतवर देश है, वह बातचीत से नहीं हटेगा। बातचीत की मेज पर बैठने की उसकी सदिच्छा साफ तौर पर सैन्य बल के दम पर अपनी सुरक्षा उसकी प्रतिबद्धता है। इस आत्मविश्वास के साथ कि वह अपने शत्रु को अवांछनीय नुकसान पहुंचा सकता है। डिसइंगेजमेंट य़ानी तैनाती की जगह से सेना को पीछे ले जाने और डि-एसक्लेशन य़ानी तनाव कम करना ही स्वयं में पर्याप्त नहीं हैं। सीमा पर शांति और सद्भाव बनाये रखने और बॉर्डर मैनेजमेंट मैकनिज्म जिन पर 1993, 1996,2005, 2012 और 2013 में दस्तखत किये गए थे, चीन इनका खुलमखुल्ला उल्लंघन करता रहा है। ऐसे इन समझौते अपनी उपयोगिता खो दी है और भविष्य में किसी समझौते के लिए मार्गदर्शक के रूप में इस्तेमाल करने का कोई मतलब नहीं है। गलवान घाटी में हत्याएं हुई हैं और तिब्बत की दक्षिणी चोटी पैंगोंग त्सो हवा में बंदूकें गरजी हैं। भारी तादाद में बख्तरबंद और तोपखाने को तैनात किया गया है। वायुसेना को सतर्क कर दिया गया है। बॉर्डर मैनेजमेंट पर्याप्त नहीं रह गया है क्योंकि जो परस्पर विश्वास था और जिसकी बदौलत द्विपक्षीय कई समझौते हुए वह भरोसा गायब हो चुका है। वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) को धरातल पर परिभाषित न होने की चीनी कहानी का कोई वैधानिक औचित्य नहीं है और यह चीन के एकतरफा दावों एवं आक्रामकता का परिणाम है, इसका अब व्यावहारिक अनुपालन नहीं हो सकता। चीन की 1959 की सीमा रेखा, जो पूर्वी क्षेत्र को इसमें शामिल कर लेता है, को हमने कभी स्वीकार नहीं किया था। अत: इसे सीमा समझौते में इसका आधार नहीं बनाया जा सकता। अगर चीन अपने भू भाग के नुकसान को बर्दाश्त न करने पर जोर देता रहा और भारत ने भी यही किया तो यह गतिरोध है। विदेश मंत्री मास्को बातचीत के इरादे जा तो सकते हैं लेकिन यथास्थिति अब संभव नहीं है। सीमा संबंधी मसलों के हल के लिए गंभीर बातचीत की दरकार है। लेकिन यह शी जिनपिंग की विदेश नीति के एजेंडे में समा नहीं रहा है।
Translated by Dr Vijay Kumar Sharma (Original Article in English)
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