विज्ञान और तकनीक के विकास के कारण मनुष्य चांद और मंगल तक पहुंच चुके हैं और अब वे सूर्य तक पहुंचने के सपने भी देखने लगे हैं। लेकिन क्या यह विडंबना नहीं है कि एक ओर वे ऐसे चमत्कार कर रहे हैं और दूसरी ओर वे अपने ही ग्रह पर भूख से लड़ने में सक्षम नहीं हो पाए हैं? भूख कलियुग ही नहीं द्वापर, त्रेता और सतयुग में भी मानव जाति के लिए सबसे बड़ा अभिशाप रही है।
पर्याप्त भोजन की आसान उपलब्धता के जरिये भूख में कमी लोगों का मूलभूत अधिकार है। फिर भी समाज को इस समस्या से मुकाबला करने की जरूरत के प्रति जागरूक करने के लिए पर्याप्त प्रयास नहीं किए गए हैं। मगर दो खास संस्थाओं वेल्थंगरहाइफ और कंसर्न वर्ल्डवाइड ने यह कमी पूरी करने का बीड़ा उठाया है, जिसके लिए वे पिछले 20 वर्ष से ग्लोबल हंगर इंडेक्स (जीएचआई) रिपोर्ट प्रकाशित कर रही हैं। पहली रिपोर्ट 2000 में आई थी। जीएचआई रिपोर्ट अहम दस्तावेज हैं, जिससे नीति निर्माताओं को देशों के विभिन्न समूहों में भूख के स्तर की तुलना करने में मदद तो मिलती ही है, हस्तक्षेप की जरूरत का भी पता चलता है। यह खाद्य सुरक्षा की समस्या से जूझ रहे कम विकसित एवं विकासशील देशों के लिए खास तौर पर उपयोगी है।
जीएचआई संयुक्त राष्ट्र के लिए कारगर साबित हुआ है, जिसने अपने सतत विकास के लक्ष्य (एसडीजी) कार्यक्रम के तहत 2030 तक भूख का अभिशाप शून्य पर लाने यानी समाप्त करने की परिकल्पना की है। जीएचआई की प्रचुर उपयोगिता का पता इसी बात से लगता है कि यह संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देशों में खाद्य सुरक्षा तथा पोषण के स्तर पर जरूरी जानकारी मुहैया कराती है। इससे संयुक्त राष्ट्र तथा प्रभावित देशों को भूख समाप्त करने के लिए योजना बनाने एवं उपयुक्त रणनीतिक अपनाने में मदद मिलती है।
संयुक्त राष्ट्र का सदस्य होने के नाते नेपाल ने भी सतत विकास के 17 लक्ष्य प्राप्त करने का संकल्प लिया है। सतत विकास का दूसरा लक्ष्य 2030 तक भूख खत्म करने, खाद्य सुरक्षा हासिल करने और लोगों का पोषण स्तर सुधारने की बात करता है।1 यह लोगों को पूरे वर्ष सुरक्षित, पोषक और पर्याप्त भोजन प्राप्त करने योग्य बनाने की जरूरत पर भी जोर देता है। इसके लिए कृषि क्षेत्र के सतत विकास के जरिये कृषि उत्पादकता एवं छोटे खाद्य उत्पादकों की आय दोगुनी करना जरूरी माना गया।2
जैसा जीएचआई रिपोर्ट में बताया गया था, 2015 से 2018 के बीच वैश्विक स्तर पर भूखे लोगों की संख्या 78.5 करोड़ से बढ़कर 82.2 करोड़ हो गई। जिन 117 देशों में भूख से जुड़ा आकलन किया गया, उनमें से 43 देश अब भी इस समस्या की तपिश झेल रहे हैं। इसके बावजूद कुछ देश ऐसे भी हैं, जिन्होंने भूख की समस्या पर सफलतापूर्वक काबू पा लिया है। इससे यह भी पता चलता है कि इच्छा हो तो कोई भी देश उचित नीतियां अपनाकर भूख की समस्या से निपट सकता है।
वैश्विक स्तर पर जीएचआई रिपोर्ट की अहमियत के बाद भी काठमांडू में इसे पहली बार 15 दिसंबर, 2019 को पेश किया गया था, जिसमें लोकल इनीशिएटिव्स फॉर बायोडाइवर्सिटी रिसर्च एंड डेवलपमेंड (ली-बर्ड) और वेल्थंगरहाइफ, नेपाल ने बड़ा उत्साह दिखाया था। 117 देशों में नेपाल का 73वां स्थान था।
जीएचआई 2019 में जिन 117 देशों में भूख का आकलन किया गया था, उन्हें पांच श्रेणियों में बांटा गया हैः बेहद चिंताजनक (50 से अधिक), चिंताजनक (35 से 49.9), गंभीर (20 से 34.9), सामान्य (10 से 19.9) और कम (9.9 से कम)। 2019 में नेपाल को इनमें से गंभीर (20.8) श्रेणी में रखा गया था। 2000 में नेपाल की भूख चिंताजनक (36.8) स्तर पर थी, जो 2005 में सुधरकर 31.3 और 2010 में 24.5 तक पहुंच गई। बच्चों का कद उम्र के हिसाब से कम रह जाने (स्टंटिंग) का आंकड़ा 2001 के 56.6 प्रतिशत से घटकर 2011 में 40 प्रतिशत रह गया, जिससे देश में भूख का स्तर कम करने में मदद मिली। साथ ही पारिवारिक संपत्तियों, माताओं की शिक्षा, सफाई एवं स्वास्थ्य तथा पोषण के मोर्चे पर वृद्धि से भी भूख कम करने में मदद मिली।
अहम बात यह है कि नेपाल में भूख घटने की रफ्तार दक्षिण एशिया के कुछ अन्य देशों जैसे बांग्लादेश (88), पाकिस्तान (94), भारत (102) और अफगानिस्तान (108) की तुलना में तेज है। फिर भी यह देश श्रीलंका (66) और म्यांमार (17.1) से पीछे है।
भूख कम करना अब भी नेपाल के लिए चुनौतीपूर्ण समस्या है। पिछले तमाम वर्षों में जलवायु परिवर्तन ने देश के तीन पारिस्थितिक क्षेत्रों - हिमालय क्षेत्र, पहाड़ एवं तराई की मैदानी भूमि - को बहुत प्रभावित किया है, जिससे खाद्य उत्पादन पर असर पड़ता रहा है। संयोग से भूख सूचकांक की श्रृंखला में सबसे नए जीएचआई 2019 का मुख्य विषय जलवायु परिवर्तन पर केंद्रित है, जिसका खाद्य उत्पादन पर और खाद्य सुरक्षा तथा दुनिया में भूख घटाने पर गहरा असर पड़ता है।
हिमालय क्षेत्र में ग्लेशियर का निर्माण तेजी से घटना शुरू हो चुका है। टेलीग्राफ में हाल में प्रकाशित एक रिपोर्ट में पता चलता है कि बढ़ता तापमान क्षेत्र के लाखों लोगों को जल देने वाले हिमालय के ग्लेशियरों के लिए खतरा बन गया है। बढ़ते तापमान के कारण हिमालय पर बर्फ पिघलने से दुनिया की सबसे ऊंची चोटी माउंट एवरेस्ट पर और उसके आसपास भी पौधे उगने लगे हैं। हिमालय पर पौधों का आच्छादन बढ़ा तो उस क्षेत्र से जल की आपूर्ति कम हो सकती है, जिसका असर 1.4 अरब आबादी पर पड़ सकता है।3 जल के बगैर कृषि गतिविधियां संभव नहीं हैं।
इसी प्रकार पारंपरिक वन संसाधनों के क्षरण और पहाड़ों पर अनियंत्रित निर्माण गतिविधियों के कारण क्षेत्र में भारी स्तर पर भूस्खलन और मृदा अपरदन (मिट्टी हटना) हुआ है। साथ ही वन खत्म होने तथा चुरे एवं भावर के नाम से मशहूर हिमालय की तलहटी पर अतिक्रमण होने से तराई क्षेत्र में भूजल तेजी से कम हुआ है। इन समस्याओं के कारण वर्षा में भी काफी कमी आ गई है। कुल मिलाकर इससे तराई क्षेत्र में बाढ़ और अचानक बाढ़ की समस्या अधिक गंभीर हो गई है।
घने वनों के कारण जो नदियां पहले पहाड़ों और चुरे-भावर क्षेत्रों से तराई में खाद लाया करती थीं, उनसे अब केवल गाद आ रहा है, जो कृषि भूमि की उत्पादकता पर भी असर डाल रहा है। नदियों की तलहटी तेजी से बढ़ने के कारण गाद आसानी से अलग-अलग दिशाओं में फैल रहा है। इससे कृषि भूमि पर ही असर नहीं पड़ा है बल्कि खास तौर पर बाढ़ के दौरान लोगों के जान-माल को खतरा भी पैदा हो रहा है। इस प्रकार तराई में कछारी कृषि भूमि तेजी से रेगिस्तान में बदल रही है।
पहाड़ों और चुरे क्षेत्रों में वन तेजी से कम होने के कारण बाढ़ और अचानक बाढ़ की घटनाएं बढ़ गई हैं, जिससे तराई में उन पारंपरिक बसावटों के अस्तित्व को खतरा उत्पन्न हो गया है, जो कभी रहने के लिए सुरक्षित मानी जाती थीं।
साथ ही जिस तरह कृषि भूमि पर भूखंड काटकर बस्तियां बसाई जा रही हैं, उससे क्षेत्र बहुत छोटा हो गया है। कृषि भूमि में कीटनाशकों तथा रासायनिक उर्वरकों के दुरुपयोग से भी गुणवत्तापूर्ण भोजन का उत्पादन कम हो गया है।
रिपोर्ट बताती हैं कि नेपाल में खेती की 60 प्रतिशत भूमि आबादी खाली छूट गई है क्योंकि आबादी विशेष तौर पर पु्रुष आजीविका की तलाश में शहर या विदेश पलायन कर गए हैं। अनुमान हैं कि नौकरी की तलाश में रोजाना 1,600 युवा नेपाल छोड़कर विदेश जा रहे हैं।4 जो छूट गए हैं, उनमें अधिकतर बुजुर्ग या महिलाएं और बच्चे हैं, जो खेती करने लायक नहीं हैं। साथ ही तेजी से बढ़ते शहरीकरण ने भी गैर खाद्य उत्पादक आबादी की संख्या बढ़ा दी है, जिससे भोजन की कमी हो गई है और आयात बढ़ गया है। नतीजतन देश का व्यापार घाटा भी बढ़ गया है।
नेपाल में शुद्ध मायनों में कृषि उत्पादकता अब भी बहुत कम है। बड़ी चुनौती यह है कि कृषि उत्पादकता कैसे बढ़ाई जाए। युवाओं को कृषि क्षेत्र की ओर आकर्षित करना और दूसरे क्षेत्रों की तरह उन्हें कृषि व्यापार में जोड़ना भी चुनौती बनी हुई है। सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि देश में गरीबी को सही तरीके से मापा ही नहीं जाता है। 2018-19 में नेपाल सरकार का 26 करोड़ डॉलर का बजट रोक दिया गया था क्योंकि वह गरीबों और गरीबी को मापने के लिए लक्षित समूह ही नहीं चिह्नित कर पाई थी।
भूख से लड़ने के लिए नेपाल सरकार ने खाद्य उत्पादन के लिए गंभीर खतरा बन गए जलवायु परिवर्तन से निपटने तथा आपदा जोखिम प्रबंधन के उपाय किए हैं। जलवायु के अनुरूप विकास को बढ़ावा देने के लिए जीसीएफ से 4 करोड़ डॉलर और एफएओ से 5 करोड़ डॉलर खर्च करने योजना भी तैयार है। इसके अलावा नेपाल कृषि-जैव विविधता संरक्षण तथा कीटनाशकों के समझदारी भरे इस्तेमाल पर ध्यान देने के साथ ही जल के कुशल प्रयोग की योजना भी बना रहा है ताकि देश में स्वास्थ्यप्रद खाद्य का उत्पादन बढ़ाया जा सके। सरकार देश में पोषण का स्तर बढ़ाने के लिए बहुक्षेत्रीय पोषण योजना (2018-2022) भी लागू कर रही है।
2000 से ही वैश्विक स्तर पर भूख कम करने में बड़ी उपलब्धियां हासिल की गई हैं। लेकिन एसडीजी का ‘शून्य भूख’ का प्रमुख लक्ष्य हासिल करने के लिए दुनिया को अब भी लंबा रास्ता तय करना है। नेपाल में भूख को टिकाऊ तरीके से तब तक समाप्त नहीं किया जा सकता, जब तक तीन क्षेत्रों - हिमालय क्षेत्र, पहाड़ों और तराई - के पारितंत्रों को सुरक्षित नहीं किया जाता। देश को यह सुनिश्चित करने के लिए युद्ध स्तर पर कार्य करना होगा कि इन क्षेत्रों का पारिस्थितिक संतुलन बना रहे ताकि भूख से टिकाऊ तरीके से निपटा जा सके।
देश के विभिन्न प्रांतों में मौसम के अनुमान की प्रणाली भी सुधारनी होगी ताकि लोगों को वर्षा, बाढ़ और अचानक बाढ़ के बारे में सूचना मिल सके। जलवायु परिवर्तन के कारण परसा और बाड़ा जिलों में पिछले वर्ष (2019) बवंडर आया था, जो देश के इतिहास में इससे पहले कभी सुना ही नहीं गया। उसके कारण क्षेत्र में जान-माल की भारी क्षति हुई थी। यदि अनुमान या भविष्यवाणी की मजबूत प्रणाली होती तो इस समस्या का असर बहुत कम हो सकता था। मौजूदा संघीय व्यवस्था में देश के सातों प्रांतों को मजबूत मौसम विज्ञान केंद्र विकसित करने होंगे, जो खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने एवं लोगों की जान-माल को सुरक्षित रखने के लिए बहुत जरूरी हैं।
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