ऐतिहासिक हैगिया सोफिया संग्रहालय को एक मकबरे के रूप में परिवर्तित करने का टर्की का हाल का फैसला निंदनीय है। कमाल अतातुर्क द्वारा टर्की को एक वास्तविक आधुनिक देश में रूपांतरित करने के लिए उठाये गए कदमों को, जिसकी पूरी दुनिया ने तारीफ की थी, पीछे कर देने का यह एर्डोगन के टर्की द्वारा उठाया गया एक और कदम है।
उल्लेखनीय है कि हैगिया सोफिया की स्थापना रोम के शासक जस्टिनियन 1 के आदेश पर सन 537 में इस्ताम्बुल में एक चर्च के रूप में की गई थी। सदियों तक इसका उपयोग एक चर्च के रूप में होता रहा जब तक कि उस्मानी साम्राज्य द्वारा 1453 में इस्ताम्बुल को जीत नहीं लिया गया जिसके तहत इसे एक मकबरे में तबदील कर दिया गया जिस प्रकार मुस्लिम विजेताओं द्वारा दुनिया भर में कई और पूजा स्थलों को रूपांतरित कर दिया गया था। बहरहाल, 1934 में कमाल अतातुर्क के तहत हैगिया सोफिया को एक संग्रहालय बना दिया गया और इसे सभी धर्म के अनुयायियों के लिए खोल दिया गया। वास्तव में, धीरे-धीरे यह एक यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल बन गया।
हैगिया सोफिया को एक मकबरे के रूप में रूपांतरित करने की कार्रवाई की व्यापक आलोचना हुई है। पोप सहित दुनिया भर के चर्च नेताओं ने इसकी कटु निंदा की है। वास्तव में, रूस के कुलपति (पैट्रियार्क) ने इस कदम को ‘पूरी ईसाई सभ्यता के लिए खतरा‘ माना।1 यूनेस्को ने अपनी तरफ से इस फैसले को ‘खेदजनक‘ करार दिया तथा स्पष्ट किया कि इस मामले में उससे कोई संपर्क नहीं किया गया है। उसने टर्की से अपील की कि वह ‘ बिना किसी देरी के उससे बातचीत करे जिससे कि इस असाधारण धरोहर, जिसके संरक्षण की समीक्षा विश्व धरोहर समिति द्वारा उसके अगले सत्र में की जाएगी, के सार्वभौमिक मूल्य से पीछे हटने से बचा जा सके।2 अमेरिका के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने टर्की के इस कदम पर निराशा जाहिर की, जबकि ईयू की विदेश नीति के प्रमुख ने इसे ‘अफसोसनाक‘ बताया। ग्रीस ने इसे ‘सभ्य विश्व को सीधे उकसाने वाली कार्रवाई ‘बताया तो रूस के अपर हाउस की विदेश मामले समिति के उप प्रमुख ने इसे ‘गलती‘ करार दिया, जो देशों के बीच संघर्ष की स्थिति पैदा कर सकती है।3 अभी तक इस कदम के एकमात्र समर्थक हमास और उत्तरी साइप्रस रहे हैं। आने वाले दिनों में हम उम्मीद कर सकते हैं कि पाकिस्तान और चीन जैसे देश भी इसका समर्थन कर सकते हैं जिनका मानव अधिकारों का अपना रिकार्ड ही बेहद घृणित रहा है।
एर्डोगन के टर्की द्वारा हैगिया सोफिया का रूपांतरण आश्चर्यजनक नहीं माना जाना चाहिए क्योकि इसने लगातार कट्टर तरीके से एक इस्लामी एजेंडा को आगे बढ़ाया है, हालांकि आरंभ में, 2002 में जब इसने सत्ता संभाली थी, तब यह काम वह चोरी-चोरी कर रहा था। जैसा कि पिछले वर्ष प्रकाशित ‘ एर्डोगेन के शासन काल के तहत टर्की की धर्मनिरपेक्षता और इस्लाम‘ शीर्षक लेख में सुझाव दिया गया था, वर्तमान सरकार का कार्यकाल टर्की गणतंत्र के इतिहास में ‘सबसे उत्पीड़क‘ है और इसके तहत न केवल नौकरशाहों की पदोन्नति का फैसला उनके धार्मिक ताल्लुकातों के आधार पर किया जाता है बल्कि ‘ समस्त शिक्षा प्रणाली, न्यायपालिका, पुलिस बल और सैन्य स्कूलों का भी पूरी तरह इस्लामीकरण हो चुका है ।‘4 इसके अतिरिक्त, विशेष रूप से सीरिया एवं लीबिया में उनकी विदेश नीति के हस्तक्षेपों ने उग्र इस्लाम को बढ़ावा दिया है। एर्डोगेन भारत की अनुचित और तीखी आलोचना, भले ही वह कश्मीर पर हो या आंतरिक अराजकताओं पर हो, आंशिक रूप से उसके इस्लामी एजेंडा और आंशिक रूप से पाकिस्तान के साथ उसकी गहरी दोस्ती के कारण रही है।
सच्चाई यह है कि एर्डोगेन के इस्लामी एजेंडा का धर्मनिष्ठा या इस्लाम के प्रति मुहब्बत से कोई लेना-देना नहीं है। यह इससे साबित होता है कि वह उईगरों के साथ चीन द्वारा किए जा रहे पशुवत व्यवहार की आलोचना करने के प्रति अनिच्छुक है। ऐसी आलोचना को दबा दिया गया है और वह जान बूझ कर 22 देशों, जिसमें ज्यादातर यूरोपीय देश हैं, के उस समूह में शामिल नहीं हुआ जिसने 2019 में उईगर समुदाय पर हो रहे भयानक दमन को देखने के लिए चीन का दौरा किया था और चीन को इसे रोकने को कहा था।
भारत द्वारा हैगिया सोफिया प्रकरण की सुस्पष्ट निंदा अनिवार्य है और हमें निश्चित रूप से ऐसी ताकतों के साथ हाथ मिलाना चाहिए जिन्होंने इसका विरोध किया है। यह तर्क कि यह मुद्दा हमारे लिए अधिक महत्वपूर्ण नहीं है और इसलिए हमें इसे नजरअंदाज करना चाहिए, गलत है। यह बिल्कुल सही बात है कि यह मुद्दा गहन सभ्यतागत महत्व का है। आज की वैश्वीकृत दुनिया में हम केवल अपना नुकसान करके ही ऐसे निर्णयात्मक कदमों की अनदेखी कर सकते हैं क्योंकि वे ऐसी धर्मांधता की संस्कृति का पोषण करते हैं जिनमें हमें अलग-अलग विभाजित कर देने की क्षमता है।
उल्लेखनीय है कि भारत का शुरू से ही विशेष रूप से उपनिवेशवाद एवं रंगभेद के विरुद्ध संघर्ष में उसकी अक्लमंदी और विवेकपूर्ण आवाज के लिए सम्मान किया जाता रहा है। उसे निश्चित रूप से अनेक प्रकार की बुराइयों, इस्ताम्बुल के हैगिया सोफिया प्रकरण से लेकर पाकिस्तान एवं चीन जैसे देशों द्वारा अल्पसंख्यकों के पाशविक दमन, के खिलाफ अपनी नैतिक आवाज बुलंद करने से हिचकिचाना नहीं चाहिए जो वर्तमान में अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य को लज्जित कर रही हैं। कुछ तत्व हमारे ऐसा करने से आहत महसूस कर सकते हैं, लेकिन इससे हमें भयभीत होकर रुकना नहीं चाहिए क्यांकि यह व्यापक अंतरराष्ट्रीय हितों के लिए होगा और इससे हमें न केवल काफी सम्मान हासिल होगा बल्कि बहुत से मित्र भी बनेंगे। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यह अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न जैसी बुराइयों के खात्मे के द्वारा विश्व को अधिक सुरक्षित एवं शांतिपूर्ण स्थान बनाने में मदद करेगा, जो हमारी सर्वोत्तम परंपराओं के अनुरूप है।
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