भारत-चीन टकराव: रिश्तों में आया मोड़
Amb Satish Chandra, Vice Chairman, VIF

लद्दाख में कई स्थानों पर और सिक्किम के नाकू ला में भारत और चीन के बीच जारी टकराव के कारण दोनों देशों के आपसी रिश्ते एक मोड़ पर आ गए हैं। चीन के दोमुंहेपन और जबरदस्ती के कारण शुरू हुए इस टकराव की अत्यधिक गंभीरता को परखते समय इसके कारणों को स्पष्ट रूप से समझना भी जरूरी है ताकि इससे निपटने के लिए भारत के कदम तय किए जा सकें।

वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर भारत-चीन टकराव कोई नई बात नहीं है। पिछले एक दशक में ऐसे कई गंभीर टकराव हो चुके हैं। सभी को आखिर में सुलझा लिया गया और एक भी जान नहीं गई। वास्तव में जवानों की शहादत लेने वाला पिछला टकराव अरुणाचल प्रदेश के तुलुंग ला में 1975 में हुआ था।

मौजूदा भारत-चीन टकराव मई के आरंभ में शुरू हुआ, जब वार्षिक अभ्यास की आड़ में एलएसी के किनारे स्थित इलाकों विशेषकर लद्दाख में चीनी सेना ने अपना जमावड़ा बढ़ा लिया। टकराव का कारण चीन का आक्रामक रवैया था, जिसके कारण पैंगोंग झील क्षेत्र, सिक्किम के नाकू ला और हाल ही में 15-16 जून को गलवान घाटी में भारतीय तथा चीनी जवानों के बीच झड़प हुईं। पहले की दोनों झड़पों में कई भारतीय सैनिक घायल हुए थे मगर किसी की जान नहीं गई। मगर गलवान घाटी की घटना में भारत के 20 सैनिक शहीद हुए और चीन के करीब दोगुने सैनिकों की जान गईं। अगर चीन ने 6 जून को दोनों पक्षों के सैन्य कमांडरों की बैठक में सेना हटाने पर बनी रजामंदी के मुताबिक काम किया होता तो यह नौबत ही नहीं आती। समझौते के उलट चीन ने घाटी में सेना बढ़ाना तो जारी रखा ही, वहां ढांचा भी खड़ा कर दिया। भारतीय गश्ती दल को पता लगने पर चीनी जवानों ने पत्थरों, कील लगे डंडों और कंटीले तारों वाले डंडों से हमला कर दिया, जो विश्वास बढ़ाने के उपायों के उलट है। उन उपायों के मुताबिक उन्हें बेहद संयम बरतना था। इसलिए विदेश मंत्री ने एकदम ठीक किया, जब 17 जून को चीनी विदेश मंत्री के साथ बैठक में उन्होंने चीन पर “पूर्वनिर्धारित और योजनाबद्ध कार्रवाई” का आरोप लगाया, जिसकी वजह से गलवान घाटी में हिंसा और हताहत होने की घटना हुई।

तनाव दूर करने के लिए 17 जून को दोनों पक्षों के डिविजनल कमांडरों के बीच बातचीत का नतीजा नहीं निकला है और एलएसी के निकट सेना का जमावड़ा बढ़ता जा रहा है। जगह खाली करने की बात तो बहुत दूर है। इसीलिए स्थिति तनावपूर्ण बनी हुई है और चीन ने पहली बार यह दावा भी ठोका है कि गलवान घाटी एलएसी के पार उसके इलाके में है। भारत ने इस दावे को सरासर गलत बताया है। 22 जून से शुरू हो रहे हफ्ते में दोनों पक्षों के सैन्य कमांडरों के बीच वार्ता का एक और दौर होना है। राजनयिक स्तर की बातचीत भी जल्द शुरू हो सकती है।
मौजूदा भारत-चीन टकराव पहले कई मौकों पर हो चुके टकरावों के मुकाबले ज्यादा गंभीर है। पहली बात, पहले के टकराव एक ही जगह हुए थे मगर इस बार टकराव सैकड़ों किलोमीटर में फैला है, जिसमें कई विवादित क्षेत्र शामिल हैं। इसलिए साफ है कि चीन की हरकत किसी एक स्थान की परिस्थितियों का नतीजा नहीं है बल्कि सोच-समझकर ऐसा किया गया है, जिसे सर्वोच्च स्तर से मंजूरी भी मिली है। दूसरी बात, चीनी सेना के जवान पहले से बहुत अधिक संख्या में तैनात किए गए हैं। तीसरी बात, चीनी जवान पहले के मुकाबले बहुत ज्यादा आक्रामक हैं। चौथी बात, चीनी सेना ने भरोसा बढ़ाने के उपायों के तहत बेहद संयम बरतने के समझौते का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन किया और वे हाथापाई के लिए तैयार होकर आए थे। अपने साथ वे तोपों के बजाय ऐसे हथियार लाए थे, जो हत्या के लिए ही नहीं थे बल्कि ऐसे खौफनाक घाव देने के लिए थे, जो जिंदगी भर नहीं भरें। आखिरी बात, यह टकराव सितंबर 1967 में नाथूला के बाद दोनों देशों के बीच सबसे बड़ा सैन्य टकराव था। नाथुला में भारत के 80 जवान शहीद हुए थे और चीन को 400 जवान गंवाने पड़े थे।

एलएसी पर चीन के आक्रामक तेवरों की कई वजहें हैं जैसे भारत की सीमा पर बुनियादी ढांचे का निर्माण, अनुच्छेद 370 में संशोधन, भारत में चीनी निवेश पर रोक, अमेरिका के साथ भारत के करीबी रिश्ते, क्वाड और दक्षिण पूर्व एशिया में इसकी बढ़ती सक्रियता, सीईपीसी का विरोध। हो सकता है कि इनमें से कुछ बातों और आर्थिक मंदी तथा कोविड-19 महामारी से ठीक से नहीं निपटने के कारण देश में शी चिनफिंग की घटती लोकप्रियता ने चीन को भारत के खिलाफ ही नहीं बल्कि ऑस्ट्रेलिया, वियतनाम, इंडोनेशिया, मलेशिया, जापान और फिलीपींस के खिलाफ भी हमलावर होने पर मजबूर कर दिया; ताइवान और हॉन्गकॉन्ग की बात तो छोड़ ही दीजिए।

लेकिन चीन की दबदबा बनाने की इच्छा, भारत के सामरिक स्वायत्ता के संकल्प और भारत में दुश्मनों को दूर रखने की क्षमता कम होने के कारण ही इस बार एलएसी पर टकराव हुए हैं। पिछले चार दशक में चीन की समग्र राष्ट्र शक्ति खास तौर पर सैन्य और आर्थिक क्षेत्र में भारत के मुकाबले बहुत अधिक बढ़ी है। इसके अलावा अपने राष्ट्रीय हितों के खिलाफ चीन की हरकतों पर आक्रामक होने के बजाय चुपचाप सह लेने की आदत ने भारत को कमजोर दिखाया है, जिसके कारण चीन ने उसे कागजी शेर समझ लिया है। चीन के साथ बातचीत में दबकर रहने की भारत की आदत 1993 में सामने आई, जब उसने अपरिभाषित और अलग मानी जाने वाली एलएसी का विचार स्वीकार कर लिया। भारत और चीन के लंबे अरसे से खराब रिश्तों के बीच इस समझौते ने तय कर दिया कि अब टकराव होते रहेंगे। इससे यह संदेश भी गया कि चीन के कब्जे वाले इलाके वापस लेने की इच्छा भारत के भीतर है ही नहीं। एलएसी के सीमांकन पर गंभीरता के साथ काम करने या अपनी ओर से उसका नक्शा दिखाने में चीन की टालमटोल भी बताती है कि वह इसे अस्पष्ट ही रखना चाहता है ताकि वह भारत की जमीन पर कब्जा कर सके, जैसा वह लंबे समय से करता आ रहा है। भरोसा बढ़ाने के उपाय भी भारत की राह में रोड़ा रहे हैं क्योंकि चीन उन्हें अपनी मर्जी के हिसाब से मानता है।

उम्मीद की जानी चाहिए कि चीन के साथ हालिया टकराव से नींद टूटेगी और भारत उसके आक्रामक कदमों को रोकने के लिए हरसंभव कोशिश करेगा। इसके लिए ठंडे दिमाग से काम करना होगा और जल्दबाजी से बचना होगा। लेकिन चाहे कुछ भी हो जाए, यह काम करना जरूर होगा।

भारत के शुरुआती कदम उत्साहजनक रहे हैं। विदेश मंत्री और प्रधानमंत्री ने 17 जून को नपे-तुले और सख्ती भरे बयान दिए; 19 जून को सर्वदलीय बैठक हुई, जिसमें सभी पार्टियों ने एक स्वर में सरकार का समर्थन किया; चीन से भारत को होने वाला निर्यात रोकने का काम शुरू किया गया और भारत-चीन सीमा पर सशस्त्र बलों को जरूरत पड़ने पर हथियार उठाने की इजाजत दे दी गई। लेकिन 23 जून को रूस-भारत-चीन (आरआईसी) के विदेश मंत्रियों की बैठक में हिस्सा लेने से इनकार किया जा सकता था। जैसे पाकिस्तान की दुष्टता भरी हरकतों के कारण भारत ने दक्षेस शिखर बैठक का बहिष्कार किया था, उसी तरह हमें दुनिया को यह बताना चाहिए था कि हम आरआईसी की बैठक में हिस्सा नहीं लेंगे ताकि चीन के प्रति नाराजगी और अच्छी तरह से नजर आती।

यदि आने वाले दिनों में चीन एलएसी के इस ओर हमारे इलाके जैसे फिंगर वाले इलाके से सेना नहीं हटाता है तो हमें सैन्य संभावनाओं के हिसाब से या तो उन्हें बाहर निकालना होगा या एलएसी के दूसरी ओर उनके इलाके पर कब्जा करना होगा। यह जरूरी है ताकि चीन को अहसास हो कि अब वह भारत के इलाके पर बिना किसी नुकसान के कब्जा नहीं कर सकता। अगर इससे जंग बढ़ती है तो बढ़ने दी जाए। चीन यह खतरा शायद ही उठाए क्योंकि इससे दुनिया का सिरमौर बनने की उसकी कोशिश खटाई में पड़ सकती है।

हमें इस मौके का फायदा उठाकर चीन से सीमा का विवाद हमेशा के लिए निपटाने या कम से कम एक तय वक्त में एलएसी का सीमांकन करने के लिए कहना चाहिए। अगर चीन टालमटोल करता है तो हमें यह जता देना चाहिए कि एलएसी को हमेशा के लिए अस्पष्ट रहने देने के लिए और उससे जुड़े विश्वास बहाली के उपायों को हमेशा के लिए मानने को तैयार नहीं है क्योंकि वह अपनी मर्जी से उपाय मानता है और उनकी आड़ में भारत की जमीन छीनता है।

मौजूदा टकराव के बीच चीन की हरकतों पर अपने गुस्से को सार्थक बनाने के लिए हमें ऐलान करना होगा कि 5जी स्पेक्ट्रम की नीलामी में हुआवे को हिस्सा नहीं लेने दिया जाएगा।

भारत अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सामने चीन की पोल खोलने के बारे में भी सोच सकता है और बता सकता है कि हालिया झड़प में उसने ज्यादा चोट पहुंचाने वाले और बेजा तकलीफ देने वाले हथियारों का इस्तेमाल किया, जिन्हें 1949 के जिनेवा समझौते में 1977 में जोड़े गए अतिरिक्त प्रोटोकॉल के तीसरे भाग के पहले खंड के अनुच्छेद 35 के अंतर्गत अंतरराष्ट्रीय सैन्य टकरावों की स्थिति में प्रतिबंधित किया गया है। मौजूदा टकराव कानूनी तौर पर अंतरराष्ट्रीय सैन्य टकराव माना जाए या नहीं माना जाए, ऐसे हथियारों का इस्तेमाल किसी भी सूरत में निंदनीय ही होता है। इस हिसाब से कम से कम इतना तो करना ही चाहिए; अपने बहादुर सिपाहियों के लिए ही नहीं बल्कि दुनिया से यह पूछने के लिए भी कि चीन के इस बर्बर व्यवहार के बाद भी क्या उसे सभ्य देश माना जाए।

भारत को चीन के साथ अपने संबंधों में हुए हालिया घटनाक्रम खास तौर पर इस टकराव में चीन द्वारा युद्ध के नियमों के उल्लंघन के बारे में अंतरराष्ट्रीय समुदाय को विस्तार से बताना चाहिए। यह जरूरी है क्योंकि ऐसा नहीं किया गया तो चीन को अपने हिसाब से कहानी गढ़ने और बताने का मौका मिल जाएगा। वास्तव में इस मसले और दूसरे अहम मसलों पर हमारे पास उच्च स्तर की तथा साधन संपन्न बहुमुखी मीडिया टीम होनी चाहिए, जो भारत तथा विदेश दोनों जगह सही स्थिति की जानकारी फौरन पहुंचा सके।

भारत के प्रमुख हितों के खिलाफ चीन की हरकतों का तुरंत जवाब देने के लिए हमें हॉन्गकॉन्ग, उइगर, तिब्बत या ताइवान का मसला सक्रियता के साथ उठाना चाहिए। पहले तीन इलाकों में चीन द्वारा मानवाधिकार के भयानक उल्लंघन के बारे में हमें क्षेत्रीय अंतरराष्ट्रीय मंचों पर खुलकर बोलना चाहिए। उइगर समुदाय का समर्थन करने से हमें इस्लामी दुनिया में सराहना मिल सकती है, जो पाकिस्तान के मुंह पर तमाचे जैसी होगी और भारत में इस्लामी आलोचक चुप हो जाएंगे। तिब्बत में हमें दलाई लामा को पूरी छूट देनी चाहिए। उन्हें हमारे उच्चाधिकारियों से बेरोकटोक बात करने की इजाजत होनी चाहिए और चुनिंदा सरकारी समारोहों में उन्हें बुलाया जाना चाहिए। ताइवान की बात करें तो अपनी एक चीन की नीति से हटे बगैर हमें आधिकारिक स्तर पर उसके साथ संवाद अधिक से अधिक करना चाहिए। हमें विश्व स्वास्थ्य संगठन में उसे पर्यवेक्षक बनाए जाने का दबाव भी डालना चाहिए।

ऊपर के फौरी कदमों के अलावा चीन से भारत के अस्तित्व को खतरे और दोनों की ताकत में भारी अंतर के कारण भारत को स्थिति से निपटने के लिए बहुमुखी रणनीति तैयार करनी चाहिए। ऐसी रणनीति में भारत की सैन्य और आर्थिक क्षमताए तेजी से बढ़ाई जानी चाहिए ताकि चीन के साथ ताकत में फर्क पाटा जा सके। साथ ही कुशलता के साथ कूटनीति का इस्तेमाल हो सके ताकि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एवं पड़ोस में भारत का समर्थन और उसका कद बढ़ सके।


Translated by Shiwanand Dwivedi (Original Article in English)Image Source: https://www.thequint.com/news/india/lt-gen-harinder-singh-indias-representative-at-india-china-talks-6-june

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