भारत में कोविड-19 महामारी फैलने के साथ ही तबलीगी जमात भी देसी मीडिया की सुर्खियों में आ गई। स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय में संयुक्त सचिव लव अग्रवाल ने 2 अप्रैल 2020 को कहा कि ‘कोविड-19 के मामले 4.1 दिनों में दोगुने हो रहे हैं, जमात नहीं होती तो 7.4 दिनों में दोगुने होते’।1 इसके अलावा जमात के सदस्यों के व्यवहार और तौर-तरीकों ने भी कानून-व्यवस्था बनाए रखने में पुलिस और सरकार की भूमिका पर बहस छेड़ दी। भारत में तबलीगी जमात का कितना दबदबा है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि निजामुद्दीन मस्जिद से जमात को बाहर निकलवाने के लिए 27 मार्च को खुद राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) को दखल देना पड़ा।2
जमात की स्थापना 1926 में की गई थी। इसका मकसद मुस्लिम समाज को इस्लाम की शिक्षाओं पर आधारित ‘अच्छे मुसलमान’ बनाना था।3 यह 80 देशों में फैली हुई है, इसके 8 करोड़ अनुयायी हैं और कुछ देशों में इसके मुख्यालय भी हैं। इसका वैश्विक मुख्यालय निजामुद्दीन मरकज (मरकज का अर्थ केंद्र होता है) में है। इस केंद्र में तिमंजिला मस्जिद है, जहां 5000 लोगों के ठहरने का इंतजाम है।4
विवेकानंद इंटरनेशनल फाउंडेशन (वीआईएफ) के एस गुरुमूर्ति 2 अप्रैल 2020 के अपने आलेख - ‘तबलीगी जमातः इट्स अदर ईविल साइड’ में जमात को ‘इस्लामी हिंसक गैर सरकारी तत्वों’ को एकजुट करने वाली व्यवस्था बताते हैं। इसके कई सदस्य अल कायदा, जैश-ए-मोहम्मद, लश्कर-ए-तैयबा जैसे जिहादी गुटों के सदस्य भी हैं। इसीलिए तबलीगी जमात के सदस्यों के तार अमेरिका, फ्रांस, स्पेन, पाकिस्तान, श्रीलंका और भारत में हुए कई आतंकी हमलों से जुड़े रहे हैं। कारसेवकों पर हुए कुख्यात गोधरा हमले को भी तबलीगी जमात के अनुयायियों से ही जोड़ा जाता है।5
एक धार्मिक जमावड़े में शामिल होने वालों के अड़ियल रवैये का नतीजा हमें भारत में कोविड-19 के प्रसार की शक्ल में दिखता है। जमातियों ने भारत की आबादी के बड़े हिस्से की सेहत को गंभीर खतरे में डाल दिया है। जमातियों के गैरजिम्मेदाराना व्यवहार के कारण फैले वायरस से हजारों संक्रमित हो गए और सैकड़ों की मौत हो गई। दुर्भाग्य है कि जमातियों से फैले कोविड-19 की सबसे ज्यादा मार अल्पसंख्यक मुसलमान समुदाय को ही झेली पड़ रही है।6
ठसके साथ ही विभिन्न प्रदेशों (उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल और चेन्नई) में इस समाज के कई लोगों ने अराजकता भरा व्यवहार किया और उन लोगों ने भारत की आबादी को महामारी से बचाने का जिम्मा उठा रहे स्वास्थ्यकर्मियों को परेशान किया और उनसे मारपीट की। मजबूर होकर केंद्रीय मंत्रिमंडल को देश में कोविड योद्धाओं से दुर्व्यवहार करने पर कठोर दंड का अध्यादेश लाना पड़ा।7
इसलिए जब हम तबलीगी जमात पर चर्चा करते हैं तो बातचीत ऊपर बताए गए दोनों पहलुओं पर ही टिक जाती है। हमें यह उम्मीद भी है कि कठोर अध्यादेश और कोविड-19 से बचने के एहतियातों के बारे में जनता की जागरूकता के कारण समस्या सुलझ जाएगी। अगर हम ऐसा मानते हैं तो हम समस्या को केवल सतह पर देख रहे हैं। इसीलिए हमें 27 मार्च 2020 से भारत में हुई गतिविधियों की वजह जानने के लिए गहराई तक पड़ताल करनी होगी। समस्या को सही तरीके से समझने पर ही उसका स्थायी समाधान होगा।
मौलाना अबुल कलाम आजाद ने अपनी पुस्तक ‘इंडिया विन्स फ्रीडम’ में आजादी से ठीक पहले 1946 में हुए शिमला सम्मेलन में चर्चा के लिए दो प्रमुख मुद्दे चुने।8 ये मुद्दे थे - आजाद भारत का राजनीतिक और सांप्रदायिक आयाम। राजनीतिक आयाम सत्ता के हस्तांतरण से जुड़ा था। सांप्रदायिक समस्या आजाद भारत में हिंदुओं के दबदबे का डर दूर करने की मुस्लिम लीग की मांग से जुड़ी थी। तबलीगी जमात की पैदाइश हिंदू दबदबे के उस डर से जोड़ी जाती है, जिसका दुष्प्रचार जिन्ना की मुस्लिम लीग ने किया। यह डर कितना सही था और आजादी से पहले हमारे राजनेताओं ने इसे कैसे दूर किया, यही हमारी चर्चा के अहम मुद्दे हैं।
ऑल इंडिया मुस्लिम लीग की बुनियाद 1906 में ढाका में डाली गई। लीग बनाने का मकसद अंग्रेजों के प्रति भारतीय मुसलमानों की वफादारी जताना और मुसलमानों के हितों की रक्षा करना था।9 इस तरह भारत में अंग्रेजी शासन के खिलाफ लड़ने वाली भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की 1885 में हुई स्थापना के 21 वर्ष बाद लीग बनी।10 लीग की स्थापना के सात वर्ष बाद दिसंबर 1913 में भारत में हिंदू महासभा का गठन किया गया।11 आजाद ने अपनी पुस्तक के पृष्ठ 57 पर हिंदू महासभा को ‘सांप्रदायिक पार्टी’ बताया और एक बार फिर पृष्ठ 263 पर इसे ‘हिंदू सांप्रदायिक’ लिखा।12 वह मुस्लिम लीग को इतने साफ शब्दों में सांप्रदायिक संगठन नहीं कहते। विपिन चंद्रा और सुमित सरकार को भी हिंदू संगठन सांप्रदायिक नजर आए, जबकि इन दोनों इतिहासकारों (विपिन चंद्रा जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रहे और सुमित सरकार ने दिल्ली विश्वविद्यालय में काम किया। दोनों ही खुद को मार्क्सवादी इतिहासकार बताते थे) ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और मुस्लिम संगठों को राजनीतिक ही बताया।
1920 में महात्मा गांधी ने आजादी के आंदोलन में कदम रखा। उन्होंने हिंदुओं और मुसलमानों को एकजुट करने की सबसे पहली कोशिश खिलाफत आंदोलन की कमान हाथ में लेकर की, जिसे उस समय तक मुस्लिम लीग के अली बंधु चला रहे थे। खिलाफत का भारत की आजादी की लड़ाई से कोई लेना-देना नहीं था और इसीलिए गोपाल कृष्ण गोखले के नेतृत्व वाली कांग्रेस को वह अप्रासंगिक लगा था। कुछ समय के लिए हिंदुओं और मुसलमानों के कुछ खास तबकों में मेलजोल रहा। लेकिन तीन वर्ष में ही इस आंदोेलन की हवा निकल गई और 1923 में अली बंधुओं ने गांधी का साथ छोड़ दिया। खिलाफत आंदोलन के केंद्र में रहे तुर्की ने भी 1924 आते-आते खिलाफत की मांग छोड़ दी।13
खिलाफत आंदोलन के दौरान भारत के मालाबार क्षेत्र में मोपला संघर्ष अपने चरम पर था। गरीबी मुस्लिम किसान उनकी मामूली सी आय पर भी डाका डालने वाले राजस्व कानूनों का विरोध करते हुए ब्रिटिश सरकार और उच्च जाति के हिंदुओं के खिलाफ हिंसक लड़ाई लड़ रहे थे। खिलाफत नेताओं ने इस आंदोलन को धार्मिक रंग दे दिया। गांधी ने भी इन मुस्लिम किसानों के साहस की सराहना की। चूंकि ऊंची जातियों के हिंदू इस लड़ाई में निशाना बन रहे थे, इसलिए हिंदुओं के कट्टरता भरे रिवाज खत्म करने और विभिन्न हिंदू जातियों और समुदायों के बीच एकता बढ़ाने के इरादे से 1926 में आर्य समाज का गठन हुआ। आर्य समाज का मकसद शुद्धि और संगठन था। तबलीगी जमात आर्य समाज के जवाब में बनाई गई, जिसमें तबलीगी का मतलब अच्छा मुसलमान बनाना और जमात का मतलब संगठन या समूह था।1415 लेकिन उनमें समानता यहीं खत्म हो जाती है। आर्य समाज के साथ किसी तरह की आतंकी गतिविधि नहीं जुड़ी है, जबकि तबलीगी जमात धीरे-धीरे अड़ियल और ढीठ संगठन बनता गया, जो पूरी दुनिया में फैलना चाहता था।
क्या मुस्लिम लीग या तबलीगी जमात अखंड भारत में सभी मुसलमानों की नुमाइंदगी करती थी? नहीं। ज्यादातर मुसलमान और सभी हिंदू भारत को एकजुट रखना चाहते थे। 1937 और 1946 के प्रांतीय चुनाव इस बात को साबित भी करते हैं। 1937 के चुनावों में बंटवारे का विरोध करने वाले मुस्लिम गुटों ने एक तरह से लीग का सफाया ही कर दिया। 1946 में लीग की सीटें बढ़ीं मगर वह मुस्लिम बहुल पंजाब में भी सरकार नहीं बना पाई। 1946 में यूनियनिस्ट यानी अखंडता के समर्थक मुसलमानों ने अध्यक्ष अब्दुल कलाम की पहल पर कांग्रेस के साथ मिलकर पंजाब में सरकार बनाई। गांधी और नेहरू दोनों को ही छोटी पार्टियों के साथ कांग्रेस का गठबंधन पसंद नहीं आया। वे अपनी बात पर अड़े रहे कि ऑल इंडिया मुस्लिम लीग ही भारत में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टी है। कलाम को कई मौकों पर लगा कि गांधी की बेजा तवज्जो मिलने से ही लीग का कद बढ़ रहा है।16
भारत की आजादी से पहले इस देश का बंटवारा हो गया और रेडक्लिफ रेखा के दोनों ओर के लोगों को बरबादी झेलनी पड़ी। बंटवारे से हुई मानवीय त्रासदी का जिक्र करते हुए मौलाना अबुल कलाम आजाद ने लिखा कि जनता की नुमाइंदगी करने वालों (कांग्रेस और मुस्लिम लीग) ने कयामत लाने वाला ऐसा फैसला कबूल कर लिया, जिस पर एक भी हिंदू राजी नहीं था और ज्यादातर मुसलमान भी राजी नहीं थे।17 पाकिस्तान बनने के 10 वर्ष के भीतर ही वहां मुस्लिम लीग की लोकप्रियता खत्म हो गई।18 भारत में कांग्रेस की लोकप्रियता खत्म होने में समय लगा। तबलीगी जमात में जड़ जमाई खामियों को बताने वाली घटनाएं उन राजनीतिक व्यवस्थाओं और संस्थाओं से जुड़ी हैं, जिनका जन्म 15 अगस्त 1947 को हुआ। वह जटिल सांप्रदायिक मुद्दों को निपटाने के हमारे नेताओं और संस्थाओं के तरीकों तथा बेहद खराब आर्थिक नीतियों की पैदाइश है।
दुर्गादास अपनी पुस्तक ‘इंडिया फ्रॉम कर्जन टु नेहरू एंड आफ्टर’ में उस दृश्य का साफ वर्णन करते हैं गांधी को पता चला कि कांग्रेस ऐसे उम्मीदवार उतार रही है, जो बेहद भ्रष्ट, एकदम स्वार्थी तथा न्यायपालिका जैसी संस्थाओं को दबाने की फितरत वाले हैं। वह तंत्र को साफ करना चाहते थे। किसी ने उनकी बात नहीं सुनी। उन्हें लगा कि उनके साथियों ने अपने राजनीतिक हितों के लिए उनका इस्तेमाल किया। उसके बाद उन्होंने सलाह दी कि राजनीतिक पार्टी के तौर पर कांग्रेस को खत्म कर देना चाहिए और उसकी जगह लोक सेवा संघ की स्थापना होनी चाहिए। लेकिन इसे अमल में लाने से पहले ही उनकी हत्या कर दी गई।18
1947 से अब तक का सफर सांप्रदायिक विभाजन को ठीक से नहीं संभाल पाने, जनता के काम में भ्रष्टाचार और बेईमानी के लगातार बढ़ते स्तर तथा कानून प्रवर्तन, प्रशासनिक, वित्तीय एवं सुरक्षा संस्थाओं को हाशिये पर डालने तथा भ्रष्ट बनाने की हरकतों से भरा पड़ा है। हमारी सुरक्षा क्षमता से जुड़ी जानकारी, भ्रष्टाचार तथा संस्थाओं की ताकत के मामले में विश्व क्रम में हमारी स्थिति, आर्थिक प्रदर्शन तथा सांप्रदायिक अशांति इस बात को साबित करती है।
1950 में भारत के संविधान में धर्मनिरपेक्षता को शामिल नहीं किया गया था। इसे 1976 में आपातकाल के दौरान संसद में चर्चा के बगैर ही जोड़ दिया गया। प्रख्यात संविधान विशेषज्ञ सुभाष सी कश्यप कहते हैं कि भारत में ‘धर्मनिरपेक्षता’ का इस्तेमाल इस तरह किया जा रहा है कि अधिकतर आबादी को कोई विशेषाधिकार नहीं मिलता, जबकि अल्पसंख्यकों के धार्मिक अधिकारों की अलग-अलग तरीकों से रक्षा की जाती है।19 मगर जिन मुसलमानों के लिए धर्मनिरपेक्षता का चुनावी इस्तेमाल किया गया है, उनकी 1947 से अब तक की दशा के आंकड़े कुछ और ही बताते हैं। उसके बाद से ज्यादा दंगे हुए हैं, दंगों में मुसलमान मारे गए हैं और उनकी आर्थिक स्थिति लगातार गिरती गई है।20
यदि हम आर्थिक वृद्धि और प्रशासनिक एवं सहयोगी संस्थाओं के प्रदर्शन से जुड़े मुद्दों की पड़ताल करें तो विश्व आर्थिक मंच के आंकड़े बताते हैं कि 2014 तक संस्था, भ्रष्टाचार, प्रति व्यक्ति आय, जीडीपी वृद्धि दर जैसे सभी महत्वपूर्ण क्षेत्रों में हम तालिका के निचले हिस्से में थे। 2018 में हम 2017 के मुकाबले पांच पायदान ऊपर आ गए और 2014 की तुलना में हम 13 पायदान चढ़ गए थे।22
तबलीगी जमात मामले में महामारी के दौरान भारत में चार प्रमुख क्षेत्रों में गड़बड़ी नजर आईं। पहली कमी है बहुसंख्यक हिंदुओं के दबदबे का बेजा डर निकालने में हमारी नाकामी। इसका मुख्य कारण यह है कि हमारी राजनीतिक व्यवस्था और मुख्यधारा का मीडिया भारतीय नागरिकों को धर्म, क्षेत्र, भाषा तथा परंपराओं पर आधारित समुदायों की तरह देखता है। चूंकि इस समय पूरी कहानी इन्हीं कमियों के बल पर चल रही है, इसलिए इन्हें दूर करने की किसी भी कोशिश का बड़ा विरोध किया जाता है।
दूसरी कमी यह है कि संस्थाएं तैयार करने और उन्हें पोसने में पेशेवर रवैया अपनाने के बजाय हमने ऐसे तौर-तरीके अपनाए, जिनमें तकरीबन सभी संस्थाओं में अधिकारियों को बचाया जाता है और अपना ध्यान रखने की संस्कृति को बढ़ावा दिया जाता है। इसीलिए जो संस्थाएं एक-दूसरे की पूरक होनी चाहिए थीं, आपस में स्पर्द्धा करने लगीं और अपने-अपने खांचे में बंधी रह गईं। तीसरी बात, हम नागरिकों के साथ करीबी संपर्क वाली संस्थाओं को अंग्रेजों के जमाने के माई-बाप वाले रवैये के बजाय लोगों के प्रति अच्छे रवैये वाली बनाने में भी विफल रहे। इन संस्थाओं में स्वास्थ्य सेवा, शैक्षिक, वित्तीय, न्यायिक, प्रशासनिक और कानून प्रवर्तन संगठन शामिल हैं।
चौथी बात, 1991 में हमारी अर्थव्यवस्था के उदारीकरण के बाद भी हम आदेश पर चलने वाली वृहद अर्थव्यवस्था पर टिके हुए हैं। समाजवाद पर जरूरत से ज्यादा निर्भरता के कारण हमारी मानव पूंजी न तो प्रतिस्पर्द्धी हो पा रही है और न ही नवाचारी। भारत की जनता का बड़ा तबका मामूली चीजों के लिए भी सरकार का ही मुंह ताकता रहता है।
2014 से ही ये कमियां दूर करने की बड़ी कोशिशें की गई हैं। मगर लोगों और संस्थाओं की फितरत की वजह से चीजें बेहतर होने में वक्त लगेगा। अच्छी बात यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुआई में कोविड-19 महामारी के खिलाफ भारत की लड़ाई ने यह उम्मीद जगाई है कि भारत अब समस्याओं से लड़ने को और विश्व समुदाय में अपना रसूख वापस पाने के लिए तैयार है।
Post new comment