दिसंबर 1892 में स्वामी विवेकानंद तत्कालीन त्रावणकोर रियासत की राजधानी त्रिवेंद्रम की यात्रा कर रहे थे। यह यात्रा कन्याकुमारी की उनकी उस यात्रा से ठीक पहले हुई थी, जिसमें 1892 के क्रिसमस के दौरान “अंतिम भारतीय चट्टान”1 पर बैठकर वह ध्यानमग्न हुए और उन्हें भविष्य में वैभव की ओर जाता भारत दिखा। उन्होंने देश की दशा सुधारने के लिए आवश्यक कार्यों का रास्ता भी देख लिया। त्रिवेंद्रम में वह महाराजा त्रावणकोर के भतीजे और उनके उत्तराधिकारी राजकुमार के शिक्षक प्रो. सुंदररामा अय्यर के अतिथि थे। स्वामीजी नौ दिन तक प्रो. अय्यर के साथ रहे। सुंदररामा अय्यर के पुत्र केएस रामास्वामी शास्त्री थे। वह उस समय कॉलेज में पढ़ते थे। अपने स्मरण में वह लिखते हैं कि एक दिन स्वामीजी ने उनसे और उनके पिता से कहाः
“व्यावहारिक देशभक्ति का अर्थ मातृभूमि के प्रति प्रेम की भावना मात्र नहीं है बल्कि अपने देशवासियों की सेवा करने की उत्कंठा ही देशभक्ति है। मैंने पूरे भारत का पैदल भ्रमण किया है और अपने लोगों की अज्ञानता, पीड़ा तथा दुर्गति अपनी आंखों से देखी है। मेरी आत्मा ऐसी बुरी स्थितियों को बदलने की तीव्र इच्छा के साथ व्याकुल है। यदि आप ईश्वर को पाना चाहते हैं तो मनुष्य की सेवा कीजिए... नारायण तक पहुंचने के लिए आपको पहले दरिद्र नारायण - भारत के लाखों भूखे लोगों - की सेवा करनी होगी...।” 22
व्यावहारिक देशभक्ति की पहली शर्त भारत की जनता के साथ जुड़ना है। 1894 में उन्होंने न्यूयॉर्क से अलासिंगा पेरुमल और मद्रास में अपने अन्य शिष्यों को लिखाः
“...प्रेम ही जीवन है... स्वार्थ ही मृत्यु है... आप जिन क्रूर मनुष्यों को देखते हैं, उनमें से निन्यानवे प्रतिशत मरे हुए हैं... क्योंकि मेरे बच्चों... जीवित वही होता है, जो प्रेम करता है। अनुभव करो, मेरे बच्चो, अनुभव करो; गरीबों की, अज्ञानियों की, वंचितों की पीड़ा अनुभव करो, तब तक अनुभव करो, जब तक दिल धड़कना बंद नहीं कर देता और दिमाग घूमने नहीं लगता और आपको यह नहीं लगता कि आप पागल हो गए हैं - तब अपनी आत्मा को ईश्वर के चरणों में रख दो और उसके बाद शक्ति, सहायता एवं अदम्य ऊर्जा आएगी।” 3
किंतु उन्होंने यह भी कहा कि केवल भावनाओं से कुछ नहीं होगा; अनुभूति के बाद विचार और कार्य भी होने चाहिए। हो सकता है कि कोई भावनाओं से ओतप्रोत हो मगर व्यावहारिक दृष्टिकोण से कुछ भी करने में असमर्थ हो। अनुभूति के बाद अगली शर्त एक कारगर योजना बनाना है। यहां भी केवल योजना बनाकर नहीं बैठ जाना चाहिए। अंतिम चरण है योजना पर काम करना। उसके लिए पूरी जिम्मेदारी अपने कंधों पर ही लेनी पड़ती है। इसीलिए स्वामीजी की सलाह हैः “काम ऐसे करो, जैसे पूरा काम तुम पर ही निर्भर है। पचास शताब्दियां तुम्हें देख रही हैं, भारत का भविष्य तुम पर टिका है। काम करते रहो।” 4 और यह काम भारत पर उपकार नहीं है बल्कि कर्तव्य हैः “इसलिए जब तक लाखों लोग भूख और अज्ञानता में जी रहे हैं तब तक मैं वैसे प्रत्येक व्यक्ति को देशद्रोही मानता हूं, जिसकी शिक्षा की कीमत उन्होंने चुकाई है, लेकिन जो उनके कष्टों पर ध्यान ही नहीं दे रहा!”5
लेकिन निःस्वार्थ भाव से राष्ट्र की सेवा करने के लिए व्यक्ति में क्या गुण होने चाहिए? स्वामीजी का विचार थाः “प्रत्येक मनुष्य को, प्रत्येक राष्ट्र को महान बनाने के लिए ये बातें आवश्यक हैं: 1. भलाई की शक्तियों पर दृढ़ विश्वास, 2. ईर्ष्या एवं संदेह नहीं होना, 3. अच्छे बनने और अच्छा करने का प्रयास कर रहे सभी लोगों की सहायता करना।”6 उन्होंने अपने शिष्यों का आह्वान करते हुए कहा, “अपने लक्ष्य के प्रति सच्चे, निष्ठावान और गंभीर बनो तो सब कुछ ठीक हो जाएगा।” 7 उन्होंने ईर्ष्या के प्रति विशेष रूप से सावधान किया क्योंकि उन्हें लगता था कि प्रत्येक पराधीन राष्ट्र की मुख्य बुराई वही है। उन्होंने कहाः “ईर्ष्या एवं षड्यंत्र त्याग दो। दूसरों के साथ मिलकर काम करना सीखो। हमारे देश की यह बड़ी आवश्यकता है।” 8 सबसे महत्वपूर्ण यह है कि कथनी को करनी में बदलना होगा। उन्होंने 1895 में एक अन्य शिष्य को लिखाः “मेरे पीछे तभी आओ यदि तुम पूर्ण गंभीर हो, पूरी तरह स्वार्थरहित हो और सबसे बढ़कर पूरी तरह सच्चे हो। मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है। इस छोटे से जीवन में एक-दूसरे की सराहना करने या शुभकामना देने के लिए समय नहीं है। युद्ध समाप्त होने के बाद हम एक-दूसरे को जी भरकर बधाई दे सकते हैं और सराहना कर सकते हैं। अब बोलो नहीं; काम करो, काम करो, काम करो...।”9
उनकी अभिलाषा थी कि वीर और साहसी आत्माएं भारत के लिए कार्य करें। 23 दिसंबर, 1895 को उन्होंने अपने गुरुभाई स्वामी शारदानंद को लिखाः “मैं चाहता हूं कि वीर, साहसी और उत्साही लोग मेरे साथ आएं। अन्यथा मैं अकेले ही काम कर लूंगा।” 10 अपने गुरुभाइयों और अलासिंगा तथा अन्य लोगों को विवेकानंद ने जिन पत्रों में बताया था कि भारत के लिए क्या करना है, उन्हें पढ़ने के बाद कोई भी उनकी उत्कंठा, उनकी ज्वाला से अछूता नहीं रह सकता। उनका विशेष आशीर्वाद ऐसे प्रत्येक व्यक्ति को मिलता है, जो उनका अनुकरण करने तथा भारत की सेवा में अपना जीवन उत्सर्ग करने की इच्छा रखता हैः “मेरी दीप्ति आपके भीतर भी जले, आप भी पूरी तरह गंभीर रहें, आप युद्धभूमि में वीरगति को प्राप्त हों, यही विवेकानंद की सतत प्रार्थना है।”11
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