नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, 2019 पर देश में तीखी बहस चल रही है। देश के कई हिस्सों में विरोध शुरू हो गए और दुर्भाग्य से उनमें से कुछ हिंसक भी हो गए। लोगों को जान गंवानी पडीं और सार्वजनिक तथा निजी संपत्ति को नुकसान पहुंचा। लेकिन संशोधन के समर्थन में भी कई आवाजें उठी हैं। संविधान के दूसरे खंड में नागरिकता के मसले पर चर्चा की गई है और संविधान बनाने वालों ने कल्पना भी नहीं की होगी कि इसके कारण एक दिन इतनी गंभीर स्थिति पैदा हो जाएगी और वह भी उस बंटवारे के सत्तर साल बाद, जिस बंटवारे के कारण नागरिकता पर कानून की जरूरत हुई।
नागरिकता शीर्षक वाले इस भाग (जिसमें अनुच्छेद 5 से 11 तक शामिल हैं) में भारत के नागरिकता की परिभाषा है और निवासी होने तथा दूसरे देश से आने के विषय में संदर्भ सहित चर्चा की गई है। अनुच्छेद 5 कहता हैः “ऐसा प्रत्येक व्यक्ति भारत का नागरिक होगा, जो संविधान लागू होने के समय भारत में रहता है और जो - (अ) भारत की भूमि पर पैदा हुआ था; या (ब) जिसके माता या पिता में से कोई भारत भूमि पर पैदा हुआ था; या (स) जो संविधान लागू होने से कम से कम पांच वर्ष पहले से भारत का सामान्य नागरिक है।”
अनुच्छेद 6 इसमें कुछ ढिलाई देते हुए कहता है, “अनुच्छेद 5 के प्रावधानों के रहते हुए भी जो व्यक्ति अब पाकिस्तान का हिस्सा बन चुके क्षेत्र से भारतीय क्षेत्र में आया था, उसे संविधान लागू होते समय भारत का नागरिक माना जाएगा, यदि...” - इसके बाद दो विकल्प दिए गए हैं। पहला, वह व्यक्ति अथवा उसके माता-पिता में से कोई अथवा माता-पिता के भी माता-पिता में से कोई भारत सरकार अधिनियम, 1935 में परिभाषित भारत में पैदा हुआ हो। दूसरा, यदि वह व्यक्ति 19 जुलाई, 1948 से पहले भारत में आ गया हो और उसके बाद से भारतीय क्षेत्र में ही रह रहा हो।
लेकिन उसके बाद अनुच्छेद 7 है, जो कहता है कि 1 मार्च, 1947 के बाद पाकिस्तान से भारत में आए व्यक्ति को भारतीय नागरिक नहीं माना जाएगा। लेकिन यह प्रावधान उस व्यक्ति पर लागू नहीं होता, जो पाकिस्तान जाने के बाद सक्षम अधिकारी से पुनर्वास अथवा स्थायी वापसी की अनुमति लेकर भारत लौट आता है। दूसरे शब्दों में, ऐसे व्यक्ति को भारत की नागरिकता मिल जाएगी। यहां 1 मार्च, 1947 से 26 जनवरी, 1950 के बीच पाकिस्तान जाने को प्रवास माना गया है। कोई भ्रम नहीं हो, इसके लिए अनुच्छेद 9 कहता है “यदि किसी व्यक्ति ने स्वेच्छा से किसी अन्य देश की नागरिकता ले ली है” तो वह अनुच्छेद 5 के तहत भारत का नागरिक नहीं होगा अथवा अनुच्छेद 6 और 8 के तहत भारत का नागरिक नहीं माना जाएगा।
किंतु संविधान के दूसरे खंड के अंत में दिया गया अनुच्छेद 11 किसी व्यक्ति को भारत की नागरिकता प्रदान करने या वापस लेने से संबंधित कानून बनाने का अधिकार संसद को प्रदान करता है। यह अनुच्छेद कहता हैः “इस खंड में आगे आने वाला कोई भी प्रावधान संसद से नागरिकता देने अथवा वापस लेने और नागरिकता से संबंधित अन्य मामलों के बारे में प्रावधान बनाने का अधिकार नहीं छीनेगा।” दुर्गा दास बसु लिखित ‘शॉर्टर कांस्टिट्यूशन ऑफ इंडिया’ कहती है, “संविधान भारत की नागरिकता के संबंध में कोई भी स्थायी अथवा समग्र कानून नहीं बनाना चाहता।” संसद ने इसी प्रावधान का इस्तेमाल कर 1955 का नागरिकता कानून बनाया था।
नागरिकता अधिनियम में पहले भी संशोधन किए जा चुके हैं और 2019 का संशोधन सबसे नया संशोधन है। इसमें विशेष व्यक्तियों को भारत की नागरिकता देने के लिए संशोधन किया गया और एक बार स्त्री-पुरुष को समान दर्जा देने के लिए ऐसा किया गया। सबसे महत्वपूर्ण संशोधन इस अधिनियम की धारा 6 में हुए हैं, जो प्राकृतिक नागरिकता की बात करती है। 1985 की असम संधि के बाद धारा 6ए लाई गई। विदेश में बसे यानी प्रवासी भारतीयों के पंजीकरण के मसले पर 2004 में धारा 7ए जोड़ी गई। नागरिकता के नियमों में भी समय-समय पर बदलाव किया गया है।
संविधान बनाते समय भी नागरिकता के मुद्दे पर विवाद हुआ था और संविधान सभा की बहसों में यह दिखाई देता है। 10 अगस्त, 1949 को अनुच्छेद 5 और 6 पर चर्चा में हस्तक्षेप करते हुए (कॉन्स्टिट्युएंट असेंबली डिबेट्स, लोक सभा सचिवालय, खंड 9, पृष्ठ 347) भीमराव आंबेडकर ने कहाः “माननीय अध्यक्ष महोदय, मुझे नहीं लगता कि संविधान के मसौदे में एक अन्य अनुच्छेद के अलावा किसी दूसरे अनुच्छेद ने प्रारूप समिति को इतना सिरदर्द दिया है, जितना इस अनुच्छेद दे दिया है। मुझे नहीं पता कि कितने मसौदे बनाए गए और कितने इसलिए नष्ट कर दिए गए क्योंकि उनमें जरूरी और वांछित माने गए सभी विषय नहीं आ सके थे। मेरे खयाल से प्रारूप समिति भाग्यशाली है कि अंत में सभी उस मसौदे पर सहमत हो गए, जो मैंने प्रस्तुत किया है क्योंकि मेरे हिसाब से यह मसौदा सब को न सही, अधिक से अधिक लोगों को संतुष्ट करने वाला है।”
संविधान सभा के विभिन्न सदस्यों ने प्रावधानों को दुरुस्त करने के लिए ढेर सारे संशोधन सुझाए। संशोधन इतने अधिक थे कि संविधान सभा के अध्यक्ष को चर्चा की जरूरत के अनुसार उनमें बदलाव करने में दिक्कत हुई। इस विषय पर चर्चा तीन दिन तक चली और एक सदस्य नजीरुद्दीन अहमद बोल पड़े कि “इसे भूलने के लिए लंबी छुट्टी की जरूरत पड़ सकती है।” संविधान के मसौदे में ऐसे लोगों की पांच श्रेणियां बनाई गईं, जिन्हें भारत की नागरिकता दी जा सकती थीः भारत में जन्मे और यहां रहने वाले व्यक्ति, भारत में जन्म नहीं लेने वाले किंतु यहां रहने वाले व्यक्ति, भारत में रहने वाले किंतु पाकिस्तान चले गए व्यक्ति, पाकिस्तान में रहने वाले किंतु भारत आ चुके व्यक्ति और भारत से बाहर रह रहे ऐसे व्यक्ति जिनका या जिनके माता-पिता का भारत में जन्म हुआ हो।
सदस्यों ने मसौदों में शामिल प्रावधानों के पक्ष और विपक्ष में विभिन्न विचार रखे। पीएस देशमुख ने आपत्ति जताते हुए कहाः “... मुझे डर है कि परिभाषा और अनुच्छेद से भारत की नागरिकता दुनिया में सबसे आसान बन जाएगी।” उन्होंने सलाह दी कि एक प्रावधान बनाया जाए, जिसके अनुसार ऐसे प्रत्येक हिंदू और सिख को भारत की नागरिकता मिलनी चाहिए, जो किसी अन्य देश का नागरिक नहीं हो। उन्होंने यह भी कहा, “हमने पाकिस्तान का बनना देखा है। यह क्यों बनाया गया? यह इसलिए बनाया गया क्योंकि मुसलमानों का दावा था कि उनके पास अपना घर होना चाहिए और अपना मुल्क होना चाहिए। यहां हम हजारों वर्षों के इतिहास वाले देश हैं और हम यह जानते हुए भी इसे ठुकराने जा रहे हैं कि न तो हिंदू और न ही सिखों पास इस दुनिया में कोई दूसरी जगह है।”
चर्चा में अजीबोगरीब स्थितियों की बात भी की गई। नजीरुद्दीन अहमद ने कहा कि यदि कोई विदेशी महिला भारतीय क्षेत्र के ऊपर से उड़ान भरते समय संतान को जन्म दे देती है तो प्रस्तावित अनुच्छेदों के अनुसार वह संतान भारत की नागरिकता का दावा कर सकती है। दूसरी ओर संतान के माता-पिता अपना आवास प्रमाणपत्र पेश कर देंगे। ऐसी सूरत में “तीनों देश एक दूसरे से मुकाबला करेंगे और दावा करेंगे कि बच्चे को उनकी नागरिकता मिलनी चाहिए।”
बंटवारे के बाद पाकिस्तान चले गए किंतु कुछ ही समय में भारत लौट आए व्यक्तियों को भारतीय नागरिकता प्रदान करने की बात करने वाले संशोधन पर बोलते हुए एक अन्य सदस्य जसपत रॉय कपूर ने संशोधन का विरोध करते हुए कहाः “यह सिद्धांत से जुड़ा गंभीर विषय है। कोई व्यक्ति यदि एक बार पाकिस्तान चला जाता है और उसकी निष्ठा भारत के बजाय पाकिस्तान में हो जाती है तो उसका जाना पूरा हो जाता है। उस समय उसने इस देश को ठुकराने और इसे इसके हाल पर छोड़ने का मन बना लिया था और नए बने पाकिस्तान में चला गया था...” जब एक अन्य सदस्य (ब्रजेश्वर प्रसाद) ने उन्हें टोकते हुए कहा कि पाकिस्तान जाने वाले कई लोग सांप्रदायिक तनाव के कारण घबराकर वहां चले गए होंगे तो कपूर ने जवाब दिया, “हो सकता है कि उनमें से कुछ या ज्यादातर यहां अशांति के कारण ही उस समय पाकिस्तान चले गए हों, लेकिन क्या मेरे माननीय दोस्त को इस बात में संदेह है कि अशांति नहीं होने पर भी उनमें से लगभग सभी पाकिस्तान चले गए होते क्योंकि वे स्वयं ही मांग कर रहे थे कि लोगों को अपने देश में जाना चाहिए?”
आज की बात करें तो हमने ताजातरीन संशोधन पर आखिरी फैसला अब तक नहीं सुना है। नए कानून के आलोचक मामले को सर्वोच्च न्यायालय में ले गए हैं। उन्होंने यह कहकर उसे चुनौती दी है कि यह संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करता है, जिसमें सभी को समानता का अधिकार दिया गया है। लेकिन अनुच्छेद लोगों को उचित कारणों से श्रेणीबद्ध करने का विधायिका का अधिकार नहीं छीनता। बंबई राज्य बनाम एफएन बलसारा (1951) मामले में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले में यह बात कही जा चुकी है। अदालत ने यह भी कहा कि किसी भी तरह का वर्गीकरण करने या श्रेणी में बांटने से एक सीमा तक असमानता तो आएगी ही, लेकिन “केवल असमानता से कुछ नहीं होता।” असमानता भरे व्यवहार से अनुच्छेद 14 का उल्लंघन नहीं होता और न ही सुपरिभाषित वर्ग के सदस्यों के साथ समान व्यवहार करने पर गलत हो जाता है। इसलिए यह मामला कानूनी रूप से विस्फोटक है और हमें स्पष्टता के लिए अदालत के फैसले का इंतजार करना चाहिए।
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