अनुच्छेद 370 ने जम्मू-कश्मीर को भारत में पूरी तरह मिलाया
Amb Kanwal Sibal

अनुच्छेद 370 में संशोधन ने हमारी राजनीति में लंबे अरसे से बना हुआ नासूर खत्म कर दिया। 1947 में भारत का विभाजन हो गया था मगर अनुच्छेद 370 ने जम्मू-कश्मीर के भारत में पूर्ण एकीकरण को रोककर स्पष्ट बंटवारा नहीं होने दिया। जम्मू-कश्मीर को धार्मिक कारण से विशेष दर्जा मिल गया। उस समय के दबावों के बाद भी जम्मू-कश्मीर को भारत में मिलाए जाने के बाद उसका देश में पूर्ण एकीकरण हो जाना चाहिए था, चाहे क्षेत्र की धार्मिक बनावट जो भी रही हो। इस तरह राज्य में धर्मनिरपेक्ष राजनीति की नींव डालने में मदद मिलती।

जो दावा बार-बार किया गया है, उसके मुताबिक यदि कश्मीर का सूफी इस्लाम स्वभाव से ही सहिष्णु है तो उस इलाके को धर्मनिरपेक्ष भारत में पूरी तरह मिलाना बहुत आसान होता। लेकिन वैसा करने के बजाय भारत ने धार्मिक विवशताओं के आगे हथियार डालने और कश्मीर के भविष्य को अनिश्चितता में डालने का रास्ता चुना। उससे भी बुरी बात यह हुई कि कश्मीर मसले को संयुक्त राष्ट्र में ले जाकर हमने उसे अंतरराष्ट्रीय बना दिया। भारत का तो विभाजन ही अंतरराष्ट्रीय छत्रछाया में या संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में नहीं हुआ था। जम्मू-कश्मीर समस्या देश विभाजन के ब्रिटेन के फैसले का नतीजा थी और उसका अंतरराष्ट्रीयकरण नहीं किया जाना चाहिए था। यदि अंतरराष्ट्रीय समुदाय का एकजुट भारत से कुछ लेना-देना नहीं था तो आजाद भारत के एक हिस्से का भविष्य तय करने में भी उनकी कोई भूमिका नहीं होनी चाहिए थी क्योंकि अलग पाकिस्तान बनने के कारण भारत पहले ही जमीन का बड़ा हिस्सा गंवा चुका था।

यह आसानी से समझ नहीं आता कि धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों में यकीन करने वाले और संविधान में मुसलमानों के हितों की रक्षा का पूरा इंतजाम करने वाले भारत को कश्मीरी मुसलमानों के सामने अपनी धर्मनिरपेक्षता साबित करने की जरूरत क्यों पड़ी। भारत ने जम्मू-कश्मीर में धार्मिक तर्क को स्वीकार किया और जमीनी स्तर पर भारी चुनौतियों के बाद भी 70 वर्ष तक उस तर्क के साथ चलता रहा। बंटवारे के बाद भारत में 3.5 करोड़ मुसलमान थे, जो पूरे देश में हिंदू बहुसंख्यकों के बीच धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था में रह रहे थे। 1941 की जनगणना के मुकाबले पूरे जम्मू-कश्मीर की अनुमानित आबादी करीब 39.5 लाख थी, जिनमें 30 लाख से कुछ कम मुसलमान ही थे। भारत के बंटवारे और जम्मू-कश्मीर के कुछ हिस्से पर पाकिस्तान के कब्जे के बाद जम्मू-कश्मीर में मुसलमानों की संख्या और भी कम हो गई। फिर भी कश्मीर घाटी में सिमटी मुसलमानों की इस छोटी सी आबादी ने भारत को अपनी धर्मनिरपेक्ष बुनियाद के साथ समझौता करने और स्थानीय सांप्रदायिक हितों का ध्यान रखने पर मजबूर कर दिया। इन कुछ लाख कश्मीरियों को अल्पसंख्यकों के लिए उसी तरह का संवैधानिक संरक्षण देकर राष्ट्रीय मुख्यधारा का हिस्सा क्यों नहीं बनाया जा सका, जिस तरह के संरक्षण का फायदा बाकी भारत के मुसलमान उठा रहे हैं।

भारत का विभाजन धार्मिक आधार पर किया गया और मुसलमानों की अच्छी खासी आबादी वाले धर्मनिरपेक्ष भारत को अल्पसंख्यक हिंदुओं के लगभग सफाये के बाद बने इस्लामी पाकिस्तान के खिलाफ खड़ा कर दिया गया। बेहतर होता कि भारत जम्मू-कश्मीर में डेरा जमा चुकी और पिछले कुछ वर्षों में बद से बदतर हो चुकी पाकिस्तान की इस्लामी चुनौती को समझ लेता और शुरू से ही खुद को इससे बचा लेता। भारत के खिलाफ सहारे के लिए पाकिस्तान जिस इस्लामी दुनिया पर निर्भर था, वह शुरुआती वर्षों में आर्थिक और वैचारिक रूप से उतनी ताकतवर नहीं हुई थी, जितनी 1973 के तेल संकट के बाद हो गई। इसके बाद वहाबियत का प्रसार हुआ, चरमपंथ और आतंकवाद पूरी दुनिया में फैल गए तथा इस्लामी देशों का संगठन (ओआईसी) मुस्लिम देशों के लिए इस्लामी कूटनीति के मंच के रूप में उभरा। पाकिस्तान ने जम्मू-कश्मीर मसले पर और भारत में आम मुसलमान के साथ बर्ताव के मसले पर इन सभी का भारत के खिलाफ इस्तेमाल करने की कोशिश की। शुरुआती अहम वर्षों में भारत के पास गुटनिरपेक्ष आंदोलन में अरब दुनिया के मजबूत साथी थे। वे इस्लामी चरमपंथ के खिलाफ थे और धर्मनिरपेक्ष राजनीति तथा आधुनिकता में यकीन रखते थे। भारत ने उन अनुकूल परिस्थितियों का फायदा जम्मू-कश्मीर का अध्याय खत्म करने के लिए नहीं उठाया। उसने देश में चुनावी राजनीति के लिहाज से माकूल धर्मनिरपेक्षता को बढ़ने दिया और ब्रिटेन-अमेरिका खेमे को अपनी राह में आने दिया।

दूरदर्शिताहीन और आत्मघाती नीतियों के कारण भारत में एक के बाद एक सरकारें सख्त फैसले लेने से कतराती रहीं, पाकिस्तान को कश्मीर मसले में वार्ताकार मान लिया, इस मसले को पाकिस्तान के साथ द्विपक्षीय वार्ता के एजेंडे में शामिल होने दिया, घाटी के मुसलमानों में लगातार बढ़ते इस्लामी चरमपंथ को बरदाश्त करती रहीं, जम्मू-कश्मीर में पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद के कहर को सहती रहीं और फिर भी आतंकवाद को बढ़ावा देने में उसकी भूमिका को कभी द्विपक्षीय बातचीत में शामिल नहीं किया। हमारी नीतियों ने घाटी में अलगाववाद की भावना को जीवित रखा; हुर्रियत नेतृत्व को देश की राजधानी यानी दिल्ली के भीतर भी पाकिस्तानी राजनेताओं और अधिकारियों के साथ गलबहियां करने दीं। हमारे अपने देश के एक हिस्से में धर्म के नाम पर लोगों का संहार बरदाश्त किया गया।

ऐसी स्थिति में अनुच्छेद 370 और अनुच्छेद 35 ए में संशोधन तथा राज्य को दो केंद्रशासित प्रदेशों में बांटा जाना निर्णायक एवं साहसिक कदम है, जो इतिहास बदल सकता है। अतीत का अनिश्चय और दुविधा पिछले वर्ष अगस्त में खत्म हो गए। जम्मू-कश्मीर पूरी तरह भारत का अंग बन गया, वार्ताकार बने पाकिस्तान को बाहर कर दिया गया, विरोधी खेमों द्वारा प्रतिकूल अंतरराष्ट्रीय प्रतिक्रिया की चिंताओं को ताक पर रख दिया गया, कश्मीर पर संयुक्त राष्ट्र के जिस प्रस्ताव को पहले ही कोई भाव नहीं देता था, उसे और भी अप्रासंगिक बना दिया गया, जम्मू-कश्मीर के पुराने सियासी नेतृत्व की अहमियत खत्म कर दी गई और नए नेतृत्व के लिए रास्ता साफ हो गया। मोदी सरकार ने जम्मू-कश्मीर में अपना तय लक्ष्य पूरा करने में दृढ़ता दिखाई है, पार्टियों के नजरबंद नेताओं और अन्य लोगों को सही वक्त आने तक रिहा करने से इनकार किया है और देश के भीतर तथा बाहर कथित वाम-उदारवादी खेमों की आलोचना से बेपरवाह रहते हुए इंटरनेट पर पाबंदी जारी रखी। पाकिस्तान को सोशल मीडिया के जरिये आतंकी हिंसा भड़काने से रोका जा रहा है। जम्मू-कश्मीर में हालात पूरी तरह सामान्य नहीं हुए हैं मगर इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि अनुच्छेद 370 और अनुच्छेद 35 ए में संशोधन होने पर जैसी कयामत आने की बात कई लोग कहते थे वैसा कुछ भी नहीं हुआ। उत्साहजनक बात यह है कि जम्मू-कश्मीर में ऐसे सियासी खेमे उभरे हैं, जो पटरी पर आई सियासी प्रक्रिया में हिस्सेदारी के इच्छुक हैं।

भारत और विदेश में मानवाधिकार कार्यकर्ता जम्मू-कश्मीर में पिछली राजनीतिक व्यवस्था के हिस्से के रूप में हुए अक्षम्य मानवाधिकार हनन को जानबूझकर अनदेखा कर देते हैं और इससे उनका राजनीतिक पक्षपात साफ नजर आता है। हनन के इन माध्यमों को खत्म कर दिया गया है चाहे निवास के बेहद पक्षपाती कानून हों, पाकिस्तानी इलाकों से भागकर जम्मू-कश्मीर आए शरणार्थियों को नागरिकता का अधिकार देने से इनकार हो, अनुसूचित जातियों की स्थिति हो (जिन्हें आरक्षण का अधिकार भी नहीं दिया गया है), पिछले कानूनों में स्त्री-पुरुष असमानता हो, रोजगार एवं शिक्षा का असमानता भरा अधिकार हो या आबादी को सामाजिक लाभ की उन सभी योजनाओं से वंचित रखना हो, जिनका फायदा बाकी भारत में मुसलमानों समेत सभी उठाते हैं। इन कार्यकर्ताओं के लिए तेज रफ्तार इंटरनेट उपलब्ध होना ज्यादा बड़ा मूल मानवाधिकार है।

जम्मू-कश्मीर में बदलाव से क्षेत्र के विकास की संभावनाएं बहुत बढ़ जाएंगी, प्रशासन बेहतर होगा, भ्रष्टाचार घटेगा, सत्ता में रहने के लिए अलगाववाद का पोषण करने वाले राजनीतिक धड़ों का सफाया होगा, आतंकवाद पर काबू होगा और भारत की सुरक्षा बढ़ेगी। अभी बहुत काम करना है।

(The paper is the author’s individual scholastic articulation. The author certifies that the article/paper is original in content, unpublished and it has not been submitted for publication/web upload elsewhere, and that the facts and figures quoted are duly referenced, as needed, and are believed to be correct). (The paper does not necessarily represent the organisational stance... More >>


Translated by Shiwanand Dwivedi (Original Article in English)
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