ईरान के नतंज़ परमाणु केंद्र पर पिछले 2 जुलाई को हुए विस्फोट से ऐसा लगता है कि उसके महत्त्वपूर्ण सेंट्रिफ़्यूजों को भारी नुक़सान पहुँचा है जिसकी वजह से उसके परमाणु कार्यक्रम में दो वर्ष की देरी हो सकती है। इससे पहले, ईरान के परचिन सैनिक अड्डे पर मिसाइल सुविधा केंद्र पर विस्फोट हुआ था। इस विस्फोट के लिए किसी ने ज़िम्मेदारी नहीं ली है और ईरान ने भी आधिकारिक रूप से अभी तक किसी को इसके लिए ज़िम्मेदार नहीं ठहराया है। हालाँकि, ये विस्फोट ऐसे समय में हुए हैं कि षड्यंत्र देखने के आदी हो चुके लोग इसमें अमरीका-इस्राइल की भूमिका बताते हुए उनकी ओर उँगलियाँ उठाएँगे जिनकी गुप्तचर एजेंसियाँ ईरान के परमाणु क्षमता हासिल करने के प्रयास को विफल करने के लिए उसके परमाणु कार्यक्रम को नुक़सान पहुँचाने की हरचंद कोशिश कर रही हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि परमाणु शक्ति-संपन्न ईरान यहूदी राष्ट्र के समकक्ष हो जाएगा और इस क्षेत्र में अमरीका के दोस्त राष्ट्रों को नुक़सान पहुँचा सकता है और रियाध, तेल अवीव और तेहरान के बीच क्षेत्रीय शक्ति-संतुलन को बिगाड़ सकता है।
इस विस्फोट की जहां तक बात है, इसका एक कारण बताया जा रहा है कि वहाँ पर बम फिट कर दिया गया था जबकि दूसरा कारण साइबर आक्रमण माना जा रहा है और कहा जा रहा है कि इस्राइल की गुप्तचर एजेंसी मोसाद ने स्टक्सनेट मालवेयर के माध्यम से एक दशक पहले ईरानी परमाणु प्रतिष्ठान पर ऐसा ही हमला किया था। पिछले दशकों में इस बात की रिपोर्ट आयी और ऐसे दस्तावेज़ी प्रमाण हैं कि अमेरिकी और इस्राइली एजेंसियों ने ईरानी परमाणु वैज्ञानिकों को ख़त्म करने के लिए कुछ भी उठा नहीं रखा है। निस्सन्देह, अमेरिका और यहूदी देश इस तरह की बातों से खुश होंगे क्योंकि हताश ईरान अपना परमाणु कार्यक्रम बदस्तूर चला रहा है और उसकी परमाणु क्षमता अब समाप्त हो चुके ज्वाइंट कॉम्प्रेहेन्सिव प्लान ऑफ़ ऐक्शन (जेसीपीओए) के तहत स्वीकृत स्तर से आगे जा चुकी है। यह ऐक्शन प्लान एक ‘ईरान परमाणु समझौता’ था जिसे P5+1 की देखरेख में 2015 में हस्ताक्षर हुआ था। इस्राइली रक्षा मंत्री और वैकल्पिक प्रधानमंत्री बेनी गंत्ज़ ने इस तरह की अटकलों को ख़ारिज कर दिया और कहा कि ईरान में होने वाली सभी घटनाओं के लिए उनके देश को ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता हालाँकि उनके सहकर्मी विदेश मंत्री ने कहा कि ईरान को परमाणु हथियार हासिल करने की इजाज़त नहीं दी जा सकती और वे ऐसी कार्रवाई कर सकते हैं, जिनके बारे में वह चर्चा नहीं करना चाहते।
अपने चुनाव अभियान और यहूदी समर्थकों को संतुष्ट करने के लिए राष्ट्रपति ट्रम्प ने इस एकपक्षीय जेसीपीओए संधि से बाहर आने की घोषणा की क्योंकि वे ईरान को बहुत कुछ दे रहे हैं और बदले में उन्हें बहुत कम हासिल हो रहा है और इससे ईरान की बैलिस्टिक और मिसाइल की पेलोड क्षमता के मुद्दे का हल नहीं निकल रहा है। इससे इराक़, सीरिया, लेबनान और यमन में ईरान समर्थित मिलिशिया के मसले का भी हल नहीं निकल रहा है। वह ईरान के साथ संबंध को सामान्य बनाने से पहले उसके साथ दुबारा समझौता करना चाहते हैं, जिसे ज़्यादा कठोरता से लागू किया जा सके। इसके अनुरूप, उन्होंने 2018 में जेसीपीओए को छोड़ दिया और ईरान पर पहले से कहें ज़्यादा कठोर आर्थिक प्रतिबंध लगा दिया जिसने उसकी अर्थव्यवस्था और हथियार कार्यक्रम को बेहद कमजोर कर दिया। कोविड-19 महामारी के दौरान उसकी आर्थिक स्थिति और ख़राब हो गई है और अमेरिका ने आईएमएफ से $5 अरब के ऋण दिलाने के आग्रह को भी नहीं माना।
सऊदी और इस्राइल इस बात से खुश थे क्योंकि उन्होंने अमेरिका-ईरान के बीच ओबामा प्रशासन के किसी भी तरह के सुलह के प्रयास का विरोध कर रहे थे क्योंकि इससे ईरान को अपने एजेंडे के अनुसार उनके हितों के ख़िलाफ़ काम करने की और ताक़त मिल जाती। जहां तक अमेरिकियों की बात है, ईरान पर दबाव जारी रखना उनके लिए सबसे पसंदीदा रास्ता है जैसा कि उनके विशेष दूत ब्रीयन हूक ने कहा-डर और कमजोरी के कारण आक्रामकता बढ़ती है। पर ज़रूरत से ज़्यादा यह दबाव प्रतिक्रियात्मक नहीं होगा और इससे ईरानी सरकार और दुराग्रही नहीं हो जाएगी, यह देखना अभी बाक़ी है क्योंकि अपने ख़िलाफ़ प्रतिबंधों को उन्होंने आत्मसात कर लिया है। मध्य पूर्व पर इसका बहुत ही भयानक विनाशकारी आर्थिक प्रभाव पड़ेगा जो पहले से ही बहुत ही अस्थिर बना हुआ है।
अभी हाल में ऐसा देखने में आया है कि ईरान अमेरिका से किसी भी तरह से सीधे उलझने से बच रहा है। जब इराक़ में आईआरजीसी जेनरल क़ासिम सोलेमानी की हत्या हुई तो ऐसा लग रहा था कि लड़ाई छिड़ जाएगी। हालाँकि अमेरिकी सैनिक अड्डों पर मिसाइल हमले किए गए पर नुक़सान ज़्यादा नहीं हुआ क्योंकि ऐसा माना जाता है कि इराक़ियों ने अमेरिकियों को इस संभावित हमले की सूचना दे दी थी ताकि ज़्यादा नुक़सान नहीं हो और इसकी प्रतिक्रिया में अमेरिकी हमलों को टाला जा सके। यहाँ तक कि इस बार भी ईरानियों ने कहा है कि अगर जाँच से यह पता चलता है कि इसमें विदेशी लोग शामिल थे, तो इसके अच्छे परिणाम नहीं होंगे। उसका कहना है कि वह बदले की कार्रवाई कब और कहाँ करेगा वह उसकी अपनी इच्छा पर निर्भर करेगा।
शायद ईरानी नेताओं का यह मानना है कि अगले नवंबर में होने वाले चुनाव में ट्रम्प दुबारा राष्ट्रपति नहीं चुने जाएँगे और जो बाईदेन नए राष्ट्रपति हो सकते हैं जो कि ज़्यादा सुलझे हुए व्यक्ति हैं। उसको लगता है कि अगर वह कोई सैनिक कार्रवाई करता है तो यह ट्रम्प को बदले की कार्रवाई के लिए उकसाएगा। साथ ही, यह उन यूरोपीय देशों के हाथ भी बांध देगा जो अभी भी जीसीपीओए को मानने की इच्छा दिखाते हैं। उनको लगता है कि वैसे यह कोई सर्वोत्तम विकल्प नहीं है पर कोई समझौता नहीं होने से बेहतर है कि कोई भी समझौता हो। फिर, ईरान पर कोरोना महामारी की भी बहुत मार पड़ी है और इस क्षेत्र में संक्रमण झेलनेवाला वह पहला देश है। वह साइबर आक्रमण के माध्यम से बदला ले सकता जैसा कि वह पहले भी कर चुका है। अभी इसी सप्ताह जर्मनी की संघीय गुप्तचर सेवा ने अपनी वार्षिक रिपोर्ट में कहा है कि अपने ऊपर लगे प्रतिबंधों को नहीं मानने के क्रम में ईरान साइबर गुप्तचरी का प्रयोग कर संवेदनशील सूचनाएँ उड़ा सकता है। ईरानी नेतृत्व शायद इस कहावत को मान रहे हैं कि पुडिंग को तभी खाना चाहिए जब वह ठंडा हो जाए और इस बीच वह इस क्षेत्र में अनावश्यक सैनिक मौजूदगी के लिए पश्चिमी देशों की आलोचना करता रहेगा।
ईरान अपने ऊपर लगे प्रतिबंधों के बावजूद अमेरिका और उसके मित्र देशों की परेशानी बढ़ाते हुए वेनेजुएला और अपने पड़ोसियों जैसे सीरिया, लेबनान और यमन को तेल की आपूर्ति कर अपनी अर्थव्यवस्था को ज़िंदा रखने का प्रयास कर रहा है। इस क्षेत्र में जहां ईरान अमेरिका और उसके मित्र देशों के ख़िलाफ़ खड़ा है, वहाँ संघर्ष की तीव्रता में कोई कमी नहीं आयी है। इस क्षेत्र में तुर्की और रूस दोबारा अपनी ताक़त बढ़ा रहे हैं और अमेरिकी प्रशासन में इस क्षेत्र में उनकी मौजूदगी को लेकर व्याप्त भ्रम की वजह से इन दोनों देश काफ़ी मज़बूत बनकर उभर रहे हैं।
चीन हर क्षेत्र में अमेरिका को चुनौती दे रहा है और उसने न केवल खुद अपने ऊपर लगे अमेरिकी प्रतिबंधों को धता बताया है और उसकी आलोचना की है बल्कि ईरान सहित दूसरे देशों पर लगे प्रतिबंधों की भी धज्जियाँ उड़ाई है। चीन ईरान से तेल और गैस का आयात जारी रखे हुए है। चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के 2016 में ईरान की यात्रा के बाद से ही दोनों देश चीन-ईरान आर्थिक और सुरक्षा संधि पर बातचीत कर रहे हैं और ऐसा लगता है कि इसे अंतिम रूप दे दिया गया है और राष्ट्रपति रूहानी ने इसे पिछले महीने अपनी सहमति भी दे दी। इस संधि के लिए यह समय उपयुक्त है क्योंकि चीन और ईरान दोनों अमेरिका के एकपक्षीयवाद को परास्त करना चाहते हैं, जिसकी वजह से उनके महत्त्वपूर्ण हितों को नुक़सान पहुँच रहा है। यह संधि खेल को बदल सकता है क्योंकि इससे चीन को खाड़ी में मज़बूती से अपना पाँव जमाने का मौक़ा मिल जाएगा और अमेरिकी प्रतिबंध के बावजूद वह अगले 25 सालों तक ईरान से तेल और गैस खरीदता रह सकता है। इस साझेदारी में संयुक्त युद्धाभ्यास, प्रशिक्षण और अनुसंधान के अलावा गुप्त सूचनाओं का आदान-प्रदान और संयुक्त रूप से हथियार विकसित करने की बात को भी रेखांकित किया गया है। पाकिस्तान, चीन और ईरान एक नयी धुरी बना सकते हैं और इसे विशेषकर हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिकी दादागिरी के ख़िलाफ़ तुर्की और रूस का समर्थन हासिल हो सकता है।
भारत को अब अपने हितों को सुरक्षित करने के लिए खुद को तैयार करना होगा क्योंकि अमेरिका से त्रस्त और उसके सताए हुए देश एक उद्देश्य को सामने में रखकर एकजुट हो रहे हैं। हालाँकि, चीन ने भी तक सऊदी अरब, ईरान, यूएई, क़तर और इस्राइल में निवेश कर और इनसे अच्छे संबंध बनाकर संतुलन बनाने की कोशिश की है पर इरान के साथ उसकी नयी साझेदारी के अपने फ़ायदे हो सकते हैं और यह इस क्षेत्र में नए विवाद को जन्म दे सकता है और यह और अस्थिर हो सकता है। तीन साल पुराने क़तर की घेरेबंदी को समाप्त कर देने की वजह से जीसीसी और अरब सुन्नी नेताओं को साथ रख पाने की अमेरिकी प्रयासों की विफलता और इस्राइल-फ़िलिस्तीन विवाद में किसी भी तरह की ग़लत गणना से वैकल्पिक सुरक्षा व्यवस्था की बात जोर पकड़ने लग सकती है और इस क्षेत्र में बनने वाला नया शक्ति-संतुलन शांति के लिए ख़तरा पैदा करेगा।
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