कोरोना महामारी को देखते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पूरी दुनिया को यह समझाने के लिए पहल की कि मानव अस्तित्व के लिए खतरा बने इस वायरस को काबू में करने और इस मामले में सहयोग करने के इरादे से रणनीति बनाने के लिए डिजिटल तकनीक का इस्तेमाल करने की जरूरत है। खतरे का काबू में रखने के लिए नेताओं को घरों में ही रहने की जरूरत है, जब तक कि नेता पाकिस्तान का राष्ट्रपति नहीं हो, जो अपने सदाबहार दोस्त चीन के साथ खड़े रहने और एकजुटता दिखाने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं, जबकि इसी चीन ने पूरी दुनिया को मानवीय त्रासदी का यह अभिशाप दिया है।
पाकिस्तान ने तो अपने छात्रों को भी विदेश से बचाकर लाने से इनकार कर दिया, जबकि भारत दक्षिण एशिया और दूसरे देशों से अपने छात्रों के साथ उसके छात्रों को भी निकाल लाने के लिए तैयार था।
बेजा बहादुरी में अक्सर मूर्खता शामिल होती है। इसीलिए वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग ही संवाद का स्वाभाविक जरिया बन गया क्योंकि इस बेहद गंभीर महामारी को रोकने के लिए दैहिक दूरी या सामाजिक डिस्टेंसिंग और सीमाओं को बंद करना अनिवार्य हो गया है। ऐसा इसलिए जरूरी हो गया क्योंकि दुनिया भर के लिए चुनौती बनी इस महामारी का केंद्र चीन से हटकर पहले यूरोप बना, फिर अमेरिका बना और अब एक बार फिर एशिया इसका केंद्र हो गया है। संयुक्त प्रयासों की यह कहानी तब शुरू हुई, जब मोदी ने दक्षेस यानी सार्क देशों के प्रधानमंत्रियों को अपने संसाधन एक साथ लगाने, विशेषज्ञता, मानव संसाधन एवं सामग्री साझा करने तथा सबसे बढ़कर इस जानलेवा वायरस और उससे होने वाले विनाश को थामने के लिए एक साथ काम करने के उद्देश्य से न्योता दिया। इस वर्ष जी-20 देशों की बैठक की मेजबानी कर रहे सऊदी अरब के शहजादे मुहम्मद बिन सलमान को दी गई उनकी सलाह का भी स्वागत किया गया। उन्होंने शहजादे से कहा कि विश्व नेताओं से वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिये बातचीत की जाए।
बाद में चीन और भारत के नेताओं ने दक्षिण तथा मध्य एशिया के 10 देशों के साथ ऑनलाइन चर्चा की, जिसमें कोरोना की मुंह फाड़ती चुनौती से निपटने के तरीकों पर विमर्श हुआ। हालांकि इस जानलेवा बीमारी की सबसे ज्यादा मार चीन ने ही झेली थी और इसके बारे में जरूरी जानकारी को महीनों तक छिपाए रखने और इसे वैश्विक महामारी बनने देने का जिम्मेदार भी वही है मगर चीन इसे काफी हद काबू करने में भी कामयाब रहा है।
प्रधानमंत्री मोदी ने कोविड-19 से मिलकर लड़ने की साझा रणनीति तैयार करने के लिए 15 मार्च को दक्षेस के नेताओं के साथ वीडियो कॉन्फ्रेंस की। यह मौका कई वर्षों बाद आया, जब दक्षेस के झंडे तले आने वाले नेता क्षेत्र के सामने खड़े किसी भयानक खतरे से निपटने के लिए एक साथ खड़े हुए थे। बाकी सभी देशों की सरकार के मुखिया कॉन्फ्रेंस में थे, लेकिन पाकिस्तान की ओर से प्रधानमंत्री इमरान खान के विशेष स्वास्थ्य सहायक डॉ. जफर मिर्जा पहुंचे, जिससे पता चलता है कि पाकिस्तान को भारत की पहलों पर किसी तरह का विश्वास नहीं है। ऐसा एक बार फिर दिखा, जब दक्षेस व्यवस्था के प्रोटोकॉल और एजेंडा के उलट पाकिस्तानी प्रतिनिधि को अंतिम समय में एक कागज थमा दिया गया ताकि कश्मीर में कोरोना मामले के बहाने कश्मीर मुद्दा उठाया जा सके। भारत की दरियादिली भी दिखाई दी, जब प्रधानमंत्री ने इस तंज को नजरअंदाज कर दिया। पाकिस्तान के नेता महामारी से निपटने में चीन के अनुभव की तारीफ करने और उससे सीखने की बात कहने से नहीं चूके मगर उन्होंने चीन की कोरोना का केंद्र बनने की गैरजिम्मेदाराना हरकत का जिक्र तक नहीं किया। उन्होंने कहा कि दक्षेस सचिवालय ऐसी पहलों के लिए सही मंच रहेगा और उन्होंने इस बात पर दुख भी जताया कि कई वर्षों से दक्षेस शिखर बैठक नहीं हुई थी। हालांकि वह खुद चिकित्सक हैं मगर उन्होंने पाकिस्तान की अच्छी व्यवस्था और तैयारी की शेखी भी बघारी, जबकि अगले कुछ दिनों में पाकिस्तान में मामले कई गुना बढ़ गए।
सभी नेताओं ने प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व की तारीफ की और क्षेत्र को बड़े स्तर पर प्रभावित करने की क्षमता वाले कोरोना के खिलाफ उनकी पहल की भी तारीफ की। साथ ही उन्होंने संयुक्त प्रयासों की जरूरत भी जताई। दक्षेस के झंडे तले नई व्यवस्थाओं का सुझाव दिया गया, जिसमें स्वास्थ्य मंत्रियों और अन्य विशेषज्ञों का नियमित संपर्क में रहना भी शामिल है। नेताओं ने कारगर सुझाव दिए और श्रीलंका तथा मालदीव जैसे मूलतः पर्यटन पर निर्भर रहने वाले देशों ने प्रतिकूल प्रभाव से उबरने के लिए बजट सहायता एवं सहयोग की मांग की। प्रधानमंत्री मोदी ने उन्हें भारत के पूर्ण सहयोग का आश्वासन देते हुए दोहराया कि इस महामारी से “साथ आकर ही निपटा जा सकता है, अलग रहकर नहीं।” लेकिन दुर्भाग्य से उसके कुछ दिन बाद संक्रमण के मामलों की संख्या कई गुना बढ़ गई।
भारत ने जरूरत की हर जगह पर डॉक्टरों की अपनी टीम, दवाएं और उपकरण भेजने पर रजामंदी जताई। मोदी ने 1 करोड़ डॉलर के शुरुआती योगदान के साथ “कोविड-19 आपात कोष” बनाने का प्रस्ताव भी रखा, जिसका दक्षेस नेताओं ने स्वागत किया। अभी तक पाकिस्तान के अलावा सभी देशों ने अपनी क्षमता के मुताबिक योगदान का वायदा किया है और त्वरित कार्रवाई के लिए 1.88 करोड़ डॉलर का कोष हो गया है। इसमें श्रीलंका से 50 लाख डॉलर, बांग्लादेश से 15 लाख डॉलर, अफगानिस्तान से 10 लाख डॉलर, मालदीव से 20,000 डॉलर और भूटान से 1 लाख डॉलर शामिल हैं। इस तरह सदस्य देशों ने महामारी से लड़ने का संकल्प साबित किया है। दक्षेस आपदा प्रबंधन केंद्र, गांधीनगर ने वेबसाइट www.covid19-sdmc.org भी बनाई है, जिसका उद्देश्य जरूरी और विश्वसनीय सूचना एवं प्रयासों को साझा करना है, जिनमें महामारी का सामना करने के लिए अपनाए जा रहे सर्वोत्तम उपाय भी शामिल हैं।
स्वास्थ्य पेशेवरों की एक वीडियो कॉन्फ्रेंस 26 मार्च के लिए निर्धारित की गई और विदेश मंत्रालय की वेबसाइट के अनुसार “इसका उद्देश्य कोविड-19 का प्रसार रोकने के अब तक के अनुभवों का आदान-प्रदान है, जिसमें प्रवेश बिंदुओं पर जांच, संपर्क का पता लगाने, क्वारंटीन एवं पृथक्करण यानी आइसोलेशन की सुविधाओं से जुड़ी विशेष व्यवस्थाएं अथवा प्रोटोकॉल भी शामिल हैं। कॉन्फ्रेंस में होने वाली चर्चा में आपदा प्रतिक्रिया दलों के लिए ऑनलाइन प्रशिक्षण कार्यक्रम पर व्यावहारिक संयुक्त कार्रवाई, एकीकृत रोग निगरानी पोर्टल की स्थापना, साझा अनुसंधान प्लेटफॉर्म का गठन और दक्षिण एशिया क्षेत्र के भीतर महामारियों पर नियंत्रण पाने हेतु अनुसंधान का समन्वय शामिल करने का प्रस्ताव है।” संचार और सीमाएं बंद कर देने से इस समय लगभग हरेक देश टापू बनकर रह गया है।
अधिक क्षमतावान और सबसे बड़ा पड़ोसी होने के कारण भारत पर स्वाभाविक तौर से अपनी “नेबरहुड फर्स्ट पॉलिसी” के तहत पड़ोसियों की मदद करने की अधिक जिम्मेदारी है। क्षेत्र में किसी भी प्राकृतिक आपदा की स्थिति में सबसे पहली प्रतिक्रिया भारत ही देता आया है और इस बात का श्रेय भी उसे दिया जाता है। पहले यह भ्रम था कि भारत “दबंगई” या “दादागिरी” दिखाता है, लेकिन उसके बजाय अब पड़ोस में हमारे क्षेत्रीय सहयोगी भारत में अधिक भरोसा दिखाते हैं और उससे अधिक अपेक्षा भी करते हैं।
यह उम्मीद गलत नहीं है कि इस पहल से दक्षेस में नई जान आएगी। ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री मोदी ने इस क्षेत्रीय संगठन के सामने दूसरी जीवनरेखा रखी है। उन्होंने ऐसा तब है, जब पाकिस्तान ने दुर्भावना दिखाते हुए भारत के खिलाफ आतंकवाद को मदद जारी रखी है और कश्मीर पर उसे गैरकानूनी तथा गलत अभियान से भारत उकता गया है। पहली जीवनरेखा तब दी गई थी, जब मई 2014 में मोदी ने अपने शपथ ग्रहण समारोह में सभी दक्षेस नेताओं को न्योता दिया था और अपनी “नेबरहुड फर्स्ट पॉलिसी” पर काम शुरू किया था। इस बीच भारत ने बीबीआईएन और बिम्सटेक जैसे उपक्षेत्रीय संगठनों में भी काफी प्रयास लगाए हैं, जिससे उसकी नेबरहुड पॉलिसी पूर्वी एशिया की धुरी से जुड़ गई है। इसके बाद भी उसने दक्षेस पर प्रयास कम नहीं किए हैं, जो उसके सतत संकल्प तथा प्रयासों से सिद्ध होता है।
भारत लगातार इस नीति पर चलता रहा है कि आर्थिक रूप से अधिक मजबूत पड़ोसी उसकी अपनी सुरक्षा के लिए कीमती हैं। लेकिन अपने पड़ोसियों के साथ सहजता भरे रिश्ते बनाए रखने में उसे कभी न कभी दिक्कतों का सामना करना ही पड़ा है। चूंकि पड़ोसी चुने नहीं जाते हैं और संतुलित नजरिये वाला अधिक मजबूत पड़ोसी किसी के भी विकास के लिए जरूरी है, इसलिए भारत बदले में कुछ पाने की अपेक्षा रखे बगैर पड़ोसियों को बाजार में प्रवेश में प्राथमिकता, क्षमता निर्माण तथा निवेश एवं सुरक्षा तथा आतंकवाद विरोधी व्यवस्था में हरसंभव सहयाता प्रदान करता है। मालदीव में पानी की किल्लत हो या तख्तापलट की कोशिश हो, नेपाल में विनाशकारी भूकंप हो, श्रीलंका में हालिया आतंकी हमले हों या बांग्लादेश में बार-बार आने वाली बाढ़ हो, अफगानिस्तान को विशेष मदद हो या कोरोना महामारी के बाद फौरी सहायता देनी हो, भारत हमेशा सबसे पहले आगे आया और अक्सर सुरक्षा भी प्रदान की। यही समय है, जब 35 वर्ष पुराना दक्षेस यह स्वीकार करे कि सदस्य देशों का भाग्य क्षेत्र की वृद्धि एवं विकास से जुड़ा है। कहने की जरूरत नहीं है कि नकारात्मकता और आतंकवाद को मदद आत्मघाती साबित होगी।
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