हम लॉकडाउन के चौथे चरण में कदम रखने वाले हैं और इस बात की समीक्षा करने का यह एकदम सही समय है कि भारत ने कोविड-19 की चुनौतियों का अब तक किस तरह सामना किया है। बीमारी के प्रसार और विस्तार की स्थिति का आकलन करने और हम पर पड़ रही कोविड-19 तथा आर्थिक ठहराव की दोहरी चोट के इलाज पर विचार करने का भी यही समय है। ऐसी कोई भी रणनीति कोविड-19 से मिले सबकों, मौजूदा अंतरराष्ट्रीय जलवायु, हमारी ताकत एवं कमजोरी की स्पष्ट समझ तथा बेहतर एवं अधिक मजबूत भारत की संकल्पना पर आधारित होनी चाहिए।
कोविड-19 चुनौती का सामना करने में भारत का प्रदर्शन दूसरे कई देशों के मुकाबले खराब नहीं रहा है। भारत में बीमारी का बोझ और संक्रमण दोगुना होने तथा मौत होने की रफ्तार अधिकतर बड़े देशों में सबसे कम है। इसकी बड़ी वजह यह है कि सरकार ने समय पर कदम उठाए, जिनमें जांच, रोगियों का पता लगाना, क्वारंटीन करना, संदिग्धों की जांच कराना, जरूरी चिकित्सा सामग्री एवं सुविधाओं की आपूर्ति सुनिश्चित करना तथा जरूरतमंदों को गुणवत्तापूर्ण चिकित्सा सेवा मुहैया कराना शामिल है। सबसे बढ़कर मोदी सरकार ने बीमारी को तेजी से बढ़ने से रोकने के लिए जरूरी लॉकडाउन के तीन सख्ती भरे चरण लागू करने में जरा भी हिचक नहीं दिखाई। लॉकडाउन नहीं होता तो भारत में अब तक कोविड-19 के लाखों मामले आ गए होते। अंत में भारत को इस बात का श्रेय दिया जाना चाहिए कि महामारी से बुरी तरह त्रस्त होने के बाद भी उसने कई विकसित और विकासशील देशों की मदद के लिए चिकित्सा सामग्री एवं उपकरण एवं चिकित्साकर्मी भेजे। उसने जी-20, दक्षेस और गुटनिरपेक्ष आंदोलन में महामारी के खिलाफ अभियान के लिए सभी को एकजुट करने का प्रयास भी किया।
लेकिन भारत को इस संकट से निपटने में और भी अच्छा प्रदर्शन करना चाहिए था। अगर लॉकडाउन का पूरी तरह पालन किया गया होता तो संक्रमण के मामले बहुत कम होते और 25 मार्च के 600 मामले 8 मई तक 100 गुना बढ़कर 60,000 तक नहीं पहुंच पाते। इस समय मामले हर 10 दिन में दोगुने हो रहे हैं, जिससे जून के अंत तक भारत में कोरोना मरीजों की संख्या 10 लाख से अधिक हो जाएगी। मिशिगन में एक महामारी विशेषज्ञ के मुताबिक जुलाई तक मामले 30 से 50 लाख तक पहुंच सकते हैं।
भारत में लॉकडाउन का पालन उस तरह नहीं किया गया, जैसे किया जाना चाहिए था और दैहिक दूरी यानी सोशल डिस्टेंसिंग का ध्यान कई कारणों से नहीं रखा गया, जिनमें कुछ कारण अपरिहार्य थे और कुछ लापरवाही भरे थे। अपरिहार्य कारणों में एक बड़ा कारण यह है कि सोशल डिस्टेंसिंग अधिकतर भारतीयों के लिए नई बात है और खास तौर पर हमारे महानगरों में लाखों लोग बेहद भीड़ भरे इलाकों में एक-दूसरे के बेहद करीब रहते हैं।
जो बातें टाली जा सकती थीं और जिन्होंने सोशल डिस्टेंसिंग का मजाक बना दिया, उनमें मार्च 2020 में दिल्ली में तबलीगी जमात की बैठक, तमाम राज्यों में घर जा रहे प्रवासी मजदूरों का सड़कों पर उतरा रेला और लॉकडाउन में अस्थायी ढील के बाद शराब की दुकानों के बाहर भारी भीड़ शामिल थीं। इन सबसे बचा जा सकता था। ऐसी घटनाएं हमारे प्रशासनिक अधिकारियों और पुलिस बल के लिए अच्छी नहीं रहीं।
उपरोक्त बातों में सबसे दुर्भाग्यपूर्ण था प्रवासी मजदूरों की समस्या से निपटने का तरीका। कामगारों को एक ही जगह रुकने के लिए कहने के पीछे सीधा तर्क यह था कि लॉकडाउन का पालन भी होगा और लॉकडाउन के बाद व्यावसायिक गतिविधियों में रुकावट भी कम से कम होगी। अफसोस है कि राज्यों में अधिकारी प्रवासी कामगारों को काम की जगह पर ही रुके रहने के लिए वेतन, आश्रय और भोजन के रूप में कोई प्रोत्साहन नहीं दे सके, जिसके कारण लॉकडाउन के दौरान कामगारों को भारी तादाद में सड़कों पर उतरने के लिए मजबूर होना पड़ा। यदि कामगारों के लिए वहीं रुके रहने की शर्त नहीं रखी जाती तो उन्हें घर तक पहुंचाने के लिए सुचारु इंतजाम किए जाने चाहिए थे जैसे अभी किए गए हैं।
भारत में प्रवासी कामगारों की समस्या को जितने खराब ढंग से संभाला गया, विदेश में रहने वाले भारतीयों को वापस लाने का काम उतनी ही दूरअंदेशी के साथ किया गया। यह भी ठीक ही है कि विदेश में रहने वालों से भारत लाने का खर्च लिया जा रहा है, लेकिन प्रवासी कामगारों से कुछ नहीं लिया जा रहा क्योंकि वे देने की हालत में ही नहीं हैं। विदेश में बसे भारतीयों को निकालने का मतलब 10 लाख लोगों को लाना हो सकता है, जो कुवैत पर इराक के आक्रमण के बाद लाए गए भारतीयों के मुकाबले बहुत अधिक संख्या है और 1947-48 में भारत आए 70 लाख लोगों के बाद दूसरा सबसे बड़ा आंकड़ा है।
लॉकडाउन के चरणों ने महामारी को काबू में रखा है, लेकिन उनकी भारी आर्थिक कीमत चुकानी पड़ी है। देश में आर्थिक गतिविधि लगभग ठप हो गई है और बहुत अच्छी स्थिति में भी चालू वित्त वर्ष में भारत का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) मामूली बढ़ेगा। सभी कारोबारी घराने चोट झेल रहे हैं और विनिर्माण, होटल-रेस्तरां, विमानन एवं वित्तीय क्षेत्रों को ज्यादा मुश्किल हो रही है। सूक्ष्म, लघु एवं मझोले उद्यमों (एमएसएमई) का क्षेत्र पट हो गया है, लाखों दिहाड़ी कामगार गरीबी में फंस गए हैं और बेरोजगारी अभूतपूर्व स्तर पर पहुंच गई है। तर्क दिया जा सकता है कि लॉकडाउन को शुरुआती तीन हफ्तों से आगे नहीं बढ़ाया जाता या कोविड-19 से सीधे प्रभावित इलाकों तक ही सीमित रखा जाता तो ऐसे आर्थिक झटके से बचा जा सकता था। प्रवासी कामगारों की समस्या सही से नहीं संभालने के कारण कामगारों की कमी भी हो गई है, जिससे आर्थिक गतिवधियां पटरी पर आने में वक्त लग जाएगा।
कोविड-19 से निपटने और आईसीयू में पहुंची यानी गहरे संकट में फंसी अर्थव्यवस्था को संभालने की भारत की रणनीति बनाते समय इन बातों को ध्यान में रखना होगाः
ये सभी बातें बताती हैं कि कोविड-19 महामारी से निपटने के साथ ही भारत को अपनी अर्थव्यवस्था को फौरन पटरी पर लाने पर भी ध्यान देना होगा। एक को नजरअंदाज कर केवल दूसरे पर ध्यान देना आत्मघाती होगा। ऐसा इसलिए अधिक जरूरी है क्योंकि इस महामारी में 1918 की महामारी की तरह बड़ी संख्या में मौत नहीं हुई हैं और ज्यादातर मामले अपने आप ही ठीक हो गए हैं।
चूंकि 300 से अधिक जिले और ग्रामीण भारत का ज्यादातर हिस्सा महामारी की चपेट से बचा हुआ है, इसीलिए उन क्षेत्रों में जल्द से जल्द समूची आर्थिक गतिविधियां बहाल की जानी चाहिए। समझदारी इसी में है कि ऐसा करते समय सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करते रहें और नियमित रूप से हाथ धोने के साथ ही समुचित सफाई सुनिश्चित करें। साथ ही महामारी से प्रभावित क्षेत्रों से इन क्षेत्रों में लोगों की आवाजाही प्रतिबंधित होनी चाहिए ताकि ये इलाके कोविड-19 से मुक्त बने रहें।
शेष देश में जहां कोविड-19 का असर अब भी है, वहां आर्थिक गतिविधियां दोबारा शुरू होने पर लगे प्रतिबंध चरणबद्ध तरीके से हटाए जाने चाहिए और ऐसा करते समय अन्य सावधानियों के साथ सोशल डिस्टेंसिंग का पूरा ध्यान रखा जाना चाहिए। इसके लिए जटिल वर्गीकरण वाले कई जोन बनाने और हरेक जोन में क्या करने की अनुमति है यह बताने से बचना चाहिए क्योंकि इससे बेवजह भ्रम होगा। अब केवल रेड और ग्रीन जोन होने चाहिए। ग्रीन जोन में गिनी-चुनी गतिविधियों पर ही प्रतिबंध होगा और रेड जोन में गिनी-चुनी गतिविधियों की ही इजाजत होगी। इसके लिए नियमों में स्पष्टता और सरलता बेहद जरूरी है।
नए भारत के निर्माण के लिए हमें स्वच्छ भारत और स्वच्छ भारतीय दोनों दृष्टियों से आगे बढ़ना होगा। इसमें पर्यावरण के अनुकूल और प्रदूषण मुक्त भारत तो शामिल होगा ही ताकि हमें केवल लॉकडाउन के दौरान ही नहीं बल्कि हमेशा ताजी हवा तथा साफ नदियां मिलें। साथ ही जनता भी राष्ट्रवादी नजरिये वाली होनी चाहिए, जो व्यक्तिगत स्वच्छता एवं सफाई पर ध्यान दे, खुले में थूकने या मूत्रत्याग की बुरी आदतें छोड़ दे और भारत की प्रगति के लिए लगातार जुटी रहे। इसके लिए सतर्कता के साथ बनाई गई नीतियां, सतत सार्वजनिक अभियान, सुगठित शैक्षिक पाठ्यक्रम तथा उल्लंघन करने वालों पर भारी जुर्माना जरूरी है।
यदि हमारे शहरों में ऐसी झुग्गी-झोपड़ियां और गंदी बस्तियां हैं, जहां लोग गंदगी के बीच कीड़े-मकोड़ों की तरह जीवन गुजारते हैं तब तक स्वच्छ भारत सपना ही रहेगा। ऐसी झुग्गियों में सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करना असंभव है और इसीलिए यदि वहां ढेरों बीमारियां पनपती हैं तो ताज्जुब नहीं होना चाहिए। यही वजह है कि सरकार को ऐसी झुग्गियां खत्म करने के लिए उचित आवासीय परियोजनाएं तैयार करनी चाहिए। इसे अंजाम देने के लिए निजी क्षेत्र की मदद ली जा सकती है और उन नियोक्ताओं से भी बात की जा सकती है, जिनके कर्मचारी उन इलाकों में रहते हैं।
स्थानीयकरण के प्रति बढ़ते रुझान को ध्यान में रखते हुए हमें ऐसे आत्मनिर्भर जिला समुदाय तैयार करने पर विचार करना होगा, जो गांधी जी के आत्मनिर्भर ग्राम समुदायों के विचार का ही विस्तृत रूप हों। भारत में खेती के मजबूत आधार और दुनिया भर में मशहूर हस्तशिल्प कौशल एवं परंपरा को देखते हुए यह काम आसानी से किया जा सकता है। प्रत्येक जिले की विशिष्ट जरूरतों को पूरा करने वाले लघु एवं मझोले उद्यमों की पूरी श्रृंखला सावधानी के साथ खड़ी कर और तमाम तरह के खाद्य प्रसंस्करण एवं कृषि से संबद्ध उद्योग खड़े कर ऐसा आसानी से किया जा सकता है।
कृषि पर आधारित समुदायों के पास शीत भंडारगृहों की सुविधा जरूर होनी चाहिए, जिससे उन्हें स्थानीय उत्पादों के संरक्षण एवं मार्केटिंग दोनों में मदद मिल सके। इन समुदायों को विकास के ऐसे टिकाऊ और पर्यावरण के अनुकूल नमूने को बढ़ावा देने के लिए तैयार रहना चाहिए, जिससे जैविक खेती और कीटनाशकों, उर्वरक तथा पानी के कम से कम प्रयोग को प्रोत्साहन मिले तथा पराली जलाने की परंपरा खत्म हो।
ऐसे समुदायों को गुणवत्ता भरी शैक्षिक, वैज्ञानिक और चिकित्सा सुविधाएं प्रदान कर और भी जीवंत बनाया जा सकता है। ऐसे जिला समुदायों से खाद्य सुरक्षा बढ़ेगी, कृषि उत्पादों में मूल्यवर्द्धन के जरिये किसान बेहतर बनेंगे, हस्तशिल्प को बढ़ावा मिलेगा, ग्रामीण जीवन की गुणवत्ता बेहतर होगी, आत्मनिर्भरता को प्रोतसान मिलेगा और शहरों की ओर बेजा पलायन रुकेगा।
हमें अधिक से अधिक क्षेत्रों में आत्मनिर्भर बनने के लिए लगातार काम करना चाहिए। विदेशी मुद्रा भंडार बनाए रखने, रोजगार सृजित करने और विदेशी कंपनियों पर निर्भरता कम से कम करने के लिए यह जरूरी है। समय गुजरने पर इसे निर्यात की संभावनाएं भी बनेंगी। इस नजरिये के साथ हमें गैर जरूरी वस्तुओं का आयात बंद कर देना चाहिए और उनकी जगह भारतीय सामान इस्तेमाल करना चाहिए। रक्षा क्षेत्र समेत जरूरी मामलों में हमें वही आयात करना चाहिए, जहां उसे टाला नहीं जा सकता है और गुणवत्ता में कमजोर होने पर भी भारतीय माल के इस्तेमाल को ही तरजीह देनी चाहिए। साथ ही साथ देसी वस्तुओं की गुणवत्ता सुधारने की कोशिश भी करनी चाहिए।
आत्मनिर्भरता की कोशिश का मतलब यह नहीं समझना चाहिए कि हमें वैश्विक मूल्य श्रृंखला से नाता बिल्कुल तोड़ लेना होगा। जरूरी नहीं कि दोनेां बातें विरोधाभासी हों। चीन से कहीं और जाने की इच्छा वाली कंपनियों को भारत में निवेश करने और उत्पादन संयंत्र लगाने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। यह काम ऐसी कंपनियों के लिए विशेष आर्थिक क्षेत्र बनाकर किया जा सकता है, जहां जमीन, बिजली और पानी पहले से उपलब्ध हों, लाइसेंस को तेजी से मंजूरी देना तय हो और कंपनियों को कामगार काम पर रखने और निकालने की आजादी देने वाले श्रम सुधार भी हों। साथ ही हमें विदेशी कंपनियों को भारत बुलाने के लिए ही नहीं बल्कि अपने उद्योगों के लिए भी विश्व स्तरीय बुनियादी ढांचा तैयार करना होगा। असल में अब हमारा मंत्र निर्माण, निर्माण, निर्माण और निर्माण ही होना चाहिए। इससे एक ही बार में हमारी अर्थव्यवस्था तेज वृद्धि के रास्ते पर आ जाएगी, रोजगार सृजन होगा ओर भारत में निवेश करने को प्रोत्साहन मिलेगा।
हमें हर समय तैयार रहना चाहिए और भारत का फायदा करने वाला कोई भी मौका चूकना नहीं चाहिए। तेल की कीमतों में तेज गिरावट और चिकित्सा सामग्री की बड़ी जरूरत ऐसे ही मौके हैं। तेल की कीमतों में गिरावट का फायदा उठाकर भारत को मौजूदा 50 लाख टन तेल भंडार के अलावा कम से कम 45 दिन का रणनीतिक तेल भंडार और तैयार कर लेना चाहिए। हमारे मौजूदा तेल भंडार भरे होने की खबरें हैं और रिफाइनिंग कंपनियों के पास भी अतिरिक्त भंडारण क्षमता नहीं है तो भारत को तकनीक के रचनात्मक इस्तेमाल के जरिये खाली हो चुके तेल क्षेत्रों और ढांचों का यथासंभव इस्तेमाल करना चाहिए।
इसी तरह दुनिया मास्क से लेकर व्यक्तिगत सुरक्षा पोशाक (पीपीई) तक और दवाओं से लेकर वेंटिलेटर तक सभी सामग्रियों की किल्लत से जूझ रही है। ऐसे में हमारे पास अपनी उत्पादन क्षमताएं बढ़ाने और कुछ हद तक जरूरतें पूरी करने का शानदार मौका है। सबसे बढ़कर दुनिया को आज कोविड-19 से बचाने वाले टीके की सबसे ज्यादा जरूरत है। सरकार जरूरी अनुसंधान एवं परीक्षण के लिए भरपूर धनराशि उपलब्ध कराकर टीका बनाने के प्रयासों को बढ़ावा दे सकती है। टीका तैयार होने के बाद इसमें हुए खर्च से ज्यादा राशि वापस आ जाएगी।
कमजोर विश्व व्यवस्था, चीन के प्रति अविश्वास और अमेरिका की अलग-थलग चलने की नीति के कारण इस समय तमाम देश वैश्विक स्तर पर नेतृत्वविहीन नजर आ रहे हैं। ऐसे में प्रधानमंत्री मोदी कोविड-19 के खिलाफ लड़ाई को सही मायनों में दिशा प्रदान करने वाले सबसे सक्रिय नेता साबित हो सकते हैं। गुटनिरपेक्ष आंदोलन और जी-20 जैसे तमाम मंचों पर मोदी यह कहते रहे हैं कि इस महामारी से निपटने के लिए साझा मोर्चा होना चाहिए और एक-दूसरे के साथ सहयोग करना चाहिए। साथ ही उन्होंने यह भी सुनिश्चित किया कि कोविड-19 संबंधी चिकित्सा सामग्री की खुद भी किल्लत झेलने के बावजूद भारत ढेरों देशों को वह सामग्री दी जाए। वास्तव में भारत ने महामारी से निपटने के लिए मदद मांगने वाले किसी भी देश को निराश नहीं किया और अपने सामर्थ्य भर उसकी मदद की।
प्रधानमंत्री मोदी ने कोविड-19 से निपटने के लिए दक्षेस की वीडियो कॉन्फ्रेंस बुलाई और इससे निपटने के लिए सहयोगात्मक नजरिया अपनाने तथा जरूरतमंद देशों को सहायता प्रदान करने एवं इसके लिए विशेष कोष स्थापित करने की अपील की। भारत ने कोष में 1 करोड़ डॉलर का शुरुआती योगदान किया। इसी तरह भारत ने हाल ही में जरूरी दवाओं और भोजन सामग्री से भरा केसरी जलपोत मालदीव, मॉरीशस, मैडागास्कर, सेशेल्स एवं कोमोरोस भेजा। पोत में दो चिकित्सा दल भी थे, जो कोविड-19 संकट से लड़ने के लिए मॉरीशस और कोमोरोस में तैनात किए जाने थे। यह सहयोगात्मक रवैया भारतीय कूटनीति की सर्वश्रेष्ठ परंपराओं के अनुसार है और इससे देश की अच्छी छवि बनी रहेगी। इस बात को दुनिया भर में देखा और सराहा जाएगा। यह सिलसिला बरकरार रखना होगा क्योंकि यह बिल्कुल उस टीके की तरह है, जो हमें पड़ोसी चीन के अतिसक्रिय दुष्चक्रों से बचने में मदद करेगा।
कोविड-19 पर भारत की सक्रिय विदेश नीति के अनुरूप ही ताइवान के मसले पर अमेरिका और कनाडा जैसे देशों की मदद करना भी अच्छा रहेगा। ये देश ताइवान को जिनेवा में 18 मई 2020 को प्रस्तावित विश्व स्वास्थ्य संसद की बैठक में हिस्सा लेने की इजाजत दिलाने का प्रयास कर रहे हैं। चीन के दबाव के कारण पिछले कुछ वर्षों से ताइवान को डब्ल्यूएचओ की बैठकों में हिस्सा लेने से रोक दिया गया है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है क्योंकि कोविड-19 महामारी आने की ताइवान की चेतावनियों को भी डब्ल्यूएचओ ने अनसुना कर दिया था। विश्व स्वास्थ्य संसद में ताइवान की हिस्सेदारी कोविड-19 से लड़ाई में अमूल्य साबित होगी क्योंकि इस महामारी से लड़ने में शायद वह सबसे सफल देश रहा है और हम सब उससे सीख सकते हैं। हम ताइवान की हिस्सेदारी का समर्थन करते हैं तो निश्चित रूप से चीन नाराज होगा, लेकिन ऐसा करके हम न केवल सही और अंतरराष्ट्रीय हित का कदम उठाएंगे बल्कि यह संकेत भी देंगे कि चीन की दादागिरी का विरोध किया जा सकता है और किया जाना ही चाहिए।
अंत में सरकार ने अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों के लिए उदारता भरा राहत पैकेज (20 लाख करोड़ रुपये का) घोषित किया है। लेकिन पैकेज का ब्योरा वित्त मंत्री आने वाले दिनों में चरणबद्ध तरीके से देंगी। पैकेज में तीन मुख्य बातें हो सकती हैं - पारिश्रमिक यानी वेतन, ऋण और कर में छूट। वेतन या पारिश्रमिक के मद में सरकार को सभी उद्यमों का 90 दिनों का वेतन का खर्च खुद उठाना चाहिए। कर्ज के मामले में ऐसी सुविधा होनी चाहिए, जिससे उद्यमियों को वेतन के खर्च के अलावा 90 दिन तक होने वाले निश्चित खर्च पूरे करने के लिए आसान शर्तों पर कर्ज मिल सके। कर राहत और अन्य रियायतों का सतर्कता से बना पैकेज तैयार किया जाना चाहिए, जिसमें अर्थव्यवस्था के जिस क्षेत्र को जितनी चोट पड़ी है, उसके कारोबार का उतना ही ध्यान रखा जाए। यह बात स्पष्ट है कि नकदी की किल्लत झेल रही सरकार को इस मद में जाने वाली भारीभरकम रकम का इंतजाम घाटे के वित्तपोषण के जरिये करनी होगी और इसके लिए राजकोषीय उत्तरदायित्व एवं बजट प्रबंधन के नियमों की अनदेखी भी करनी होगी।
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