अनुच्छेद 370 और 35, जिसके अंतर्गत जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा दिया गया था, वे भारतीय संविधान के हिस्से थे। इस लिहाजन, उनका निरस्तीकरण किसी भी तरह से अंतरराष्ट्रीय समझौते की अवहेलना नहीं है। ये सुनिश्चित करते हैं कि जम्मू-कश्मीर के लोग भारतीय संघ के दायरे में लोकतांत्रिक अधिकारों का उपभोग करते थे, जो पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (पीओके) के लोग को कभी नसीब नहीं हुआ था। यहां तक कि हालिया किये गए संशोधन के बाद भी, इस स्थिति में कोई फर्क नहीं आया है। केंद्र शासित प्रदेशों के भाग के रूप में, जम्मू-कश्मीर तथा लद्दाख के लोग भारतीय संसद में प्रतिनिधित्व करते रहेंगे।
वहीं दूसरी ओर, पीओके तथा गिलगिट-बाल्टिस्तान के लोगों का पाकिस्तान की नेशनल असेम्बली में कोई रहनुमाई हासिल नहीं है-जबकि इस्लामाबाद ही उनका भाग्य विधाता है। तो जम्मू-कश्मीर की हैसियत में बदलाव एक आंतरिक बदलाव है, जो भारतीय संघीय ढांचे के अंतर्गत केंद्र के साथ उसके सम्बन्धों को परिभाषित करता है। पाकिस्तान ने अपने पीओके में ऐसे बदलाव कितनी बार किये हैं। सबसे पहले, 1949 में मुस्लिम कॉन्फ्रेंस और पाकिस्तान के नेताओं के साथ गुप्त समझौते में नार्दन एरिया को पीओके से अलग किया गया। जैसा कि पीओके के हाईकोर्ट ने 1993 में दिये गए अपने ऐतिहासिक फैसले में लिखा, क्षेत्र के भूभाग की हैसियत में किया गया बदलाव संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्तावों का उल्लंघन है। यह कश्मीर के लोगों की आत्मनिर्णय के अधिकार की भी अवहेलना है; क्योंकि उनकी राय लिये बिना ही यह परिवर्तन किया गया है।
इसी तरह, पाकिस्तान ने दूसरा बदलाव 1963 में किया, जबकि पूर्व के कश्मीर का एक हिस्सा चीन को दे दिया। तीसरे, बदलाव में एक विधानमंडल का निर्माण किया गया और गिलगिट-बाल्टिस्तान, जिसे 2009 में नार्दन एरियाज के रूप में जाना जाता था, के लिए मुख्यमंत्री का पद सृजित किया गया।1 यह अत्यावश्यक रूप से अपने भू-भाग को लोकतांत्रिक स्वरूप देते हुए उसे पीओके से स्थायी रूप को अलग करना है। न तो पीओके के और न गिलगिट-बाल्टिस्तान लोगों ने ही नेशनल असेम्बली के चुनाव में वोट दिया।
पीओके और गिलगिट-बाल्टिस्तान के लोगों को राष्ट्रीय असेम्बली के लिए होने वाले चुनावों में मत देने के उनके लोकतांत्रिक अधिकार से इस कानूनी कहानी को बनाये रखने के नाम पर वंचित किया गया कि पाकिस्तान ने उस भूभाग की यथास्थिति में कोई हेरफेर नहीं किया है, जिसके आधार पर क्षेत्र में जनमत संग्रह कराने के लिए संयुक्त राष्ट्र में प्रस्ताव दिया गया है। फलस्वरूप, यह क्षेत्र कश्मीर कौंसिल (परिषद) के जरिये शासित होती है, जिसकी अध्यक्षता खुद पाकिस्तान के प्रधानमंत्री करते हैं। इस कमेटी का संघटन ऐसा किया गया है कि पीओके प्रतिनिधि हमेशा अल्पसंख्यक ही रहते हैं।
जम्मू-कश्मीर की हैसियत में किये गए बदलाव का विरोध करने के लिए बुलाई गई पाकिस्तान नेशनल असेम्बली में विचार-विमर्श के दौरान एक दिलचस्प वाकयात हुआ था। इसमें सांसदों ने ऐसी कवायद की कि असेम्बली से पारित होने वाले प्रस्ताव में भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 एवं 35 ए का उल्लेख ही नहीं हो। पाकिस्तान की सेना ने इस तरह के उल्लेख का विरोध किया था। वह नहीं चाहती थी कि जम्मू-कश्मीर में भारतीय संविधान के तहत लागू होने वाली व्यवस्था को अपने यहां के दस्तावेज में दर्ज किया जाए। यह विडम्बना है कि जो पाकिस्तान अनुच्छेद 370 एवं 35 ए को निरस्त किये जाने का विरोध कर रहा है, उसने इसके उल्लेख के साथ चर्चा की शुरुआत तक से परहेज किया।
प्रधानमंत्री इमरान खान अपने भाषण में हिन्दू-मुस्लिम शत्रुता और जिन्ना के नये राज्य की अवधारणा के संदर्भ में कश्मीर और पाकिस्तान के साथ उसके सम्बन्धों पर फोकस करते रहे। सांसदों ने जिन्ना के नाम पर तालियां बजाई। विडम्बना है कि इमरान ने पाकिस्तान को ‘रियासत-ए-मदीना’ बनाने के अपने आह्वान को जिन्ना के ख्यालातों के समान ठहराने की सूक्ष्म कोशिश की। इमरान खान ने जिन्ना के 11 अगस्त 1947 के जिस भाषण का उल्लेख किया वह आधुनिक मुहावरों में दिया गया है। जिन्ना के सिद्धांत और व्यवहार में दोमुंहापन था। द्वि-राष्ट्र की अपनी थियरी का अनुमोदन करने और इसके लिए सीधी कार्रवाई का आह्वान किया, जिससे साम्प्रदायिक तनाव भड़क गया, जिसका उन्होंने तसुव्वर भी नहीं किया था। लेकिन यह आज के पाकिस्तान और जहां इमरान खान अपने वतन को ले जाना चाहेंगे, उन ख्यालों से बहुत अलहदा था।
इमरान खान की सरकार नेशनल असेम्बली में मात्र छह सीटों की बढ़त से टिकी हुई है, पाकिस्तानी रुपया 2017 के नवम्बर से 50 फीसद तक लुढ़क गया है और देश की अर्थव्यवस्था अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आइएमएफ) के विस्तारित कोष सुविधा के अंतर्गत दिये गए 6 बिलियन डॉलर पर टिकी हुई है। सरकार ने मितव्ययिता पर जोर दिया है क्योंकि आइएमएफ पैकेज के कारण वित्तीय वर्ष 2019-20 में ग्रोथ रेट और खिसक कर 2.5 फीसद होने वाला है। एक तरफ तो करों की ऊंची दरें और दूसरी तरफ सरकार का सार्वजनिक सेवाओं के खर्च में कटौती, ये दोनों मिल कर अर्थव्यवस्था में मंदी लाए बिना नहीं रहेंगी।2 पिछले चार वर्षो के दौरान कराची स्टॉक एक्सचेंज सबसे निचले स्तर पर पहुंच गया है।
प्रधानमंत्री इमरान खान के भाषण में अल्पसंख्यकों के उल्लेख के साथ उनके संरक्षण पर जोर दिया गया था। यह काम पाकिस्तानी समाज की दिनोंदिन बढ़ते असहिष्णु मिजाज को देखते हुए कठिन है। प्रधानमंत्री इमरान खान अतीस मियां को आर्थिक सलाहकार कमेटी के चेयरमैन पद पर बिठाने के इरादे को बदलने के लिए बाध्य होना पड़ा था। इसकी मात्र इतनी वजह थी कि अतीस मियां अहमदिया सम्प्रदाय से ताल्लुक रखते थे। पाकिस्तान मुस्लिम लीग (नवाज) की हुकूमत के दौरान उसके कानून मंत्री जाहिद हामिद को चुनावी शपथ ग्रहण की शब्दावली बदल देने के लिए इस्तीफा ले लिया गया था। ऐसे माहौल में जब शिखर के कानून अधिकारी अतिवादी पार्टियों के दबाव के आगे कहीं टिक नहीं पाते, तो पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों की तकदीर के बारे में महज अटकलें ही लगाई जा सकती हैं। सवालिया तहरीक-ए-लब्बाइक-ए-पाकिस्तान (टीएलपी) सियासत में अब कोई गैर या बाहरी पार्टी नहीं रही। उसकी पीठ पर पाकिस्तानी फौज का हाथ है, जिसकी दखल पर उसे 2018 के संसदीय चुनाव में शिरकत की इजाजत दी गई थी। टीएलपी ने नवाज शरीफ की पार्टी के वोट बैंक-खास कर पंजाब प्रांत में-सेंधमारी कर इमरान खान की पीटीआइ को फायदा पहुंचाया था। इसके लिए शुक्रगुजार प्रधानमंत्री न केवल धार्मिक मामलों में उनके हुक्म मानते हैं बल्कि आर्थिक सलाहकार के पद पर उनकी इच्छा को तरजीह देते हैं।
दिलचस्प है कि प्रधानमंत्री इमरान खान के भाषण से दुनिया को जम्मू-कश्मीर के उस हिस्से के हालात का कोई तजुर्बा नहीं होता, जिस पर पाकिस्तान अवैध रूप से कब्जा जमाए हुए है। शुरुआत से ही पाकिस्तान ने पीओके के लोगों की संवैधानिक रक्षा का कोई प्रावधान नहीं किया है। भारतीय अनुच्छेद में 35 ए की तरह पीओके के संविधान में कोई प्रावधान नहीं किया गया था। क्या ऐसा महज दुर्घटनावश किया गया था? किसी भी स्थिति में, इसने इस क्षेत्र की जनसांख्यिकी संरचना में फेरबदल तो कर ही दिया है।
मरियम शरीफ को हाल ही में गिरफ्तार किया गया है; तो उसके पिता नवाज शरीफ पहले से ही जेल में हैं। पाकिस्तान में सरकार और विपक्ष के बीच सत्ता के लिए तीखी मुठभेड़ की इस पृष्ठभूमि के विपरीत, दोनों पक्ष अवाम में अपनी लोकप्रियता बढ़ाने के मकसद से कश्मीर मुद्दे का उपयोग करते हैं। यह केवल वाग्जाल को और बढ़ाएगा; पाकिस्तान में कश्मीर पर कोई संयमित आवाजें नहीं हैं।
घाटी में कुछ घटनाओं को लेकर चौकन्ना रहने की जरूरत है क्योंकि पाकिस्तान इन्हें संयुक्त राष्ट्र की सामान्य सभा में उठाने की कोशिश कर सकता है। प्रधानमंत्री इमरान खान का भाषण हालांकि छोटा था, लेकिन ऐसा लगता था कि उसे घाटी में हिंसक घटनाओं के उकसावा देने के मतलब से तैयार किया गया था। संविधान के अनुच्छेद 370 और 35 ए को निरस्त करने के भारत के निर्णय के बाद पाकिस्तान की पहली प्रतिक्रिया धमकी भरी थी कि वह ‘हर तरह से’ भारत को जवाब देगा। यह सेना के इस्तेमाल का कबूलनामा था। वे पहले ही नियंत्रण रेखा पर अपनी तरफ से चुनिंदा देशों के डिफेंस अटैची को ले गए हैं और उन्हें क्लस्टर बम के अवशेष को दिखाते हुए इसे भारत की तरफ से पाकिस्तान में गिराया गया बताया है।
पाकिस्तान आइएमएफ की तरफ से लागू किये गए आर्थिक संयम के चलते कुछ दबाव में है और उसे एफएटीएफ (फिनाशियल एक्शन टॉस्क फोर्स) की ग्रे लिस्ट से बाहर निकलना है। (गौरतलब है कि एफएटीएफ एक स्वतंत्र अंतर-सरकारी निकाय है, जो आतंकी फंडिंग और मनी लॉड्रिंग गतिविधियों के लिए ग्लोबल फाइनेंशियल सिस्टम के दुरुपयोग को रोकने के लिए नीतियां बनाता और उन्हें बढ़ावा देता है। यह दो प्रकार की सूची जारी करता है-ब्लैक और ग्रे। जो देश आतंकी फंडिंग और मनी लांड्रिंग करते हैं, उन्हें ग्रे सूची में डाला जाता है। पाकिस्तान को इसी सूची में डाला गया है। और इसके विपरीत, जो आतंकी फंडिंग और मनी लाँड्रिंग में लिप्त नहीं हैं, उन्हें ब्लैक लिस्ट में सूचीबद्ध किया जाता है।) लेकिन इमरान खान जैसे कमजोर प्रधानमंत्री पर सेना और जेहादियों का दबाव कई बार ज्यादा हो जाता है। वह खुद भी इस तरह की चालाकियां करते हैं।
Translated by Vijay Kumar Sharma (Original Article in English)
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