राफेल के बारे में जो दस्तावेज मीडिया में प्रकाशित हुए थे और जिन पर भरोसा कर याचियों ने सौदे की जांच की मांग की थी, उन पर केंद्र की आपत्तियों को सर्वोच्च न्यायालय ने खारिज क्या किया राजनीतिक तूफान खड़ा हो गया और दुर्भाग्य से आदेश के ज्यादा बड़े और अहम पहलू उस तूफान में गायब हो गए। विपक्षी पार्टियों ने दावा किया उनकी बात को अदालत ने साबित कर दिया है और केंद्र सरकार ने कहा कि लड़ाकू विमानों की खरीद के लिए दोनों सरकारों के बीच हुए समझौते पर किसी तरह का दोष नहीं लगाया गया है। बेहतर समझ के लिए इसे सरल तरीके से देखते हैं।
सबसे पहले एक राष्ट्रीय समाचारपत्र ने कुछ हफ्ते पहले ने तीन दस्तावेजों के कुछ अंश छापे, जिनसे लगा कि प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) ने बातचीत को सीधे तौर पर प्रभावित किया और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने फ्रांस के दल से मुलाकात की तथा उसके बाद रक्षा मंत्रालय के वायुसेना प्रकोष्ठ ने रियायतों के प्रावधानों पर सिफारिशें कीं। यह भी लगा कि बातचीत करने वाले भारतीय दल में से तीन लोगों ने सौदे का विरोध किया था।
दूसरी बात, तीन याचियों - एक वरिष्ठ अधिवक्ता और दो पूर्व केंद्रीय मंत्री, जो पहले अदालत से सौदे की जांच की मांग करने गए थे और नाकाम होकर लौटे थे - ने प्रकाशित हुए दस्तावेजों के मद्देनजर उस आदेश (सरकार को निर्दोष करार देने वाले) की समीक्षा के लिए नई याचिका दाखिल कर दी।
तीसरी बात, भारत के अटॉर्नी जनरल ने केंद्र सरकार की ओर से दलील दी कि प्रकाशित दस्तावेजों पर विश्वास नहीं किया जा सकता क्योंकि वे सरकारी गोपनीयता कानून के अंतर्गत आने वाली गुप्त जानकारी से संबंधित हैं; कि उन दस्तावेजों को मंत्रालय से चोरी-छिपे लाया गया है; कि इन दस्तावेजों में “चुनिंदा और अधूरे तथ्य पेश” किए गए हैं; कि कुल मिलाकर ऐसे दस्तावेजों पर आधारित पुनर्विचार याचिका की स्वीकार्यता पर ही प्रश्न खड़े होते हैं।
चौथी बात, शीर्ष न्यायालय ने अटॉर्नी जनरल की ‘आरंभिक आपत्तियों’ को खारिज कर दिया और कहा कि पुनर्विचार याचिकाओं पर फैसला “उनके गुण-दोष के आधार पर होगा और उसके लिए उन तीन दस्तावेजों की सामग्री की प्रासंगिकता पर विचार होगा, जिनकी न्यायिक निर्णय प्रक्रिया में स्वीकार्यता पर प्रश्न खड़े किए गए हैं।” अदालत ने कहा कि “प्रमाणों की प्रासांगिका ही उनकी स्वीकार्यता की कसौटी होती है।”
प्रमुख मुद्दे अदालत के बयानेां के आधार पर उठाए गए हैं। पहला मुद्दा ‘गोपनीय’ सामग्री के प्रकाशन का है। सरकार की दलील थी कि सूचना का अधिकार कानून, 2005 की धारा 8(1) के तहत दिए गए अपवादों के अनुसार इस कानून के तहत ऐसे दस्तावेजों के खुलासे पर प्रतिबंध है। भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1972 की धारा 123 - जो इस मामले में प्रासंगिक है क्योंकि याचियों ने उन दस्तावेजों को मामले में साक्ष्य बनाने का अनुरोध किया है - भी गोपनीय सामग्री से संबंधित है। शीर्ष न्यायालय ने कहा कि सरकारी गोपनीयता कानून, 1923 में ऐसा कुछ नहीं है, जो कथित गोपनीय दस्तावेजों के प्रकाशन पर ‘पहले से ही रोक’ को उचित ठहराता हो। दूसरे शब्दों में कहें तो यदि कोई कार्रवाई की जानी है तो ऐसे दस्तावेजों के प्रकाशन के बाद ही शुरू की जा सकती है। साथ ही धारा 8(1) के तहत मिला संरक्षण जनहित से संबंधित है। अदालत ने कहा, “जब विवादित दस्तावेज पहले ही सार्वजनिक पटल पर हैं तो हमें समझ नहीं आता कि धारा 8(1) के तहत सुरक्षा प्रदान करने से जनहित की रक्षा कैसे हो रही है।” न्यायालय ने कहा कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 123 केवल अप्रकाशित दस्तावेजों से संबंधित है। चूंकि मौजूदा मामला पहले ही सार्वजनिक पटल पर आ चुके दस्तावेजों से संबंधित है, इसलिए अदालत ने कहा कि इस मामले से भारतीय साक्ष्य अधिनियम का कुछ भी लेना-देना नहीं है।
अदालत के कथन से ये चिंताएं पैदा होती हैं। व्यक्ति एवं संस्थाएं अलग-अलग कारणों से विभिन्न तरीकों से गोपनीय सामग्री प्राप्त कर सकते हैं, उन्हें प्रकाशित करा सकते हैं और उन्हें साक्ष्य के रूप में प्रयोग कर सकते हैं क्योंकि उन पर पहले से कोई रोक नहीं लगी होगी और चूंकि भारतीय साक्ष्य अधिनियम केवल अप्रकाशित सामग्री के मामले में लागू होता है। प्रकाशित दस्तावेज संवेदनशील प्रकृति के हो सकते हैं, राष्ट्रीय सुरक्षा अथवा अन्य देशों से संबंधों पर उनका प्रभाव पड़ सकता है। यह दलील कि उल्लंघनकर्ताओं के खिलाफ कार्रवाई तब की जा सकती है, जब प्रकाशित दस्तावेज सूचना का अधिकार अधिनियम या सरकारी गोपनीयता कानून में दिए गए अपवादों का उल्लंघन करते हैं, बिल्कुल वैसी ही है जैसे घोड़ों के भागने के बाद अस्तबल में कुंडी लगाना। साथ ही जिस प्रकार से यह तय करना अदालत का अधिकार है कि अनधिकारिक तरीकों से सार्वजनिक किए गए संवेदनशील दस्तावेज राष्ट्रहित से संबंधित हैं या नहीं, उसी प्रकार उसे उन साधनों पर भी विचार करना चाहिए, जिनकी मदद से दस्तावेज हासिल किए गए हैं। अवैध रूप से हासिल की गई गोपनीय सामग्री को खारिज किया जाना चाहिए या उस पर कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए।
इस प्रकार उच्चतम न्यायालय ने राफेल मामले में प्रकाशित दस्तावेजों की प्रासंगिकता पर मुहर लगा दी है तो सरकार अब इस बात पर जोर देने के लिए मजबूर होगी कि सामग्री को आधिकारिक दस्तावेजों से चुपके से निकाला गया और तथ्यों को तोड़ने-मरोड़ने के खास मकसद से सार्वजनिक किया गया। लेकिन वह ऐसा तभी कर सकती है, जब अदालत को समूचे, बिना काट-छांट के दस्तावेज सौंपे जाएं। दिक्कत यह है कि सरकार कहती आई है कि सामग्री गोपनीय है। और अब वे दस्तावेज ही उसे सार्वजनिक करने पड़ेंगे या कम से कम अदालत को इस गुजारिश के साथ देने पड़ेंगे कि वह इनकी गोपनीयता बनाए रखे।
ऊपर की कानूनी दलीलों से जो बुनियादी मसला उभरता है, वह जनहित के लिए काम और संवेदनशील दस्तावेजों की गोपनीयता के बीच प्रभावी संतुलन बिठाने का है। पीठ के तीन न्यायाधीशों में से एक न्यायमूर्ति केएम जोसेफ ने कहाः “जो दस्तावेज अनुचित तरीके से हासिल किए गए हैं और जिनके गोपनीय होने का दावा किया जा रहा है, निस्संदेह उनके बारे में केवल प्रासंगिकता का सामान्य नियम पर्याप्त नहीं हो सकता क्योंकि जनहित को नुकसान पहुंचाने के आधार पर जिसे प्रतिबंधित किया गया है, उसे किसी मामले में व्यापक जनहित वैध ठहराने से रोक सकता है।” अन्य दो न्यायाधीशों मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई और न्यायमूर्ति एसके कौल ने कहा कि सूचना का अधिकार अधिनियम की धारा 8(2) “कहती है कि सरकारी गोपनीयता कानून में दिए गए किसी भी प्रावधान और अपवादों के बावजूद किसी भी सार्वजनिक प्राधिकरण द्वारा सूचना प्राप्त किया जाना तब उचित माना जाएगा, जब खुलासे से होने वाले नुकसान की तुलना में उससे होने वाला जनता का हित बड़ा हो।” कुल मिलाकर तीन न्यायाधीशों के पीठ ने प्रकाशित सामग्री पर विचार करते हुए ‘व्यावहारिक एवं सहज बुद्धि वाला दृष्टिकोण’ अपनाया और पहले ही सार्वजनिक पटल पर आ चुकी सामग्री को पढ़ने या विचार करने से रोके जाने को ‘अर्थहीन’ और ‘बेकार की मशक्कत’ बताया।
अंत में केंद्र का विरोध करने वाले कुछ वर्गों ने यह कहते हुए प्रेस की स्वतंत्रता का मामला उठाया कि अदालत में सरकार का रुख ऐसी स्वतंत्रता खत्म करने वाला रहा चूंकि विवादित दस्तावेज कुछ मीडिया समूहों ने प्रकाशित किए हैं। वास्तव में कम से कम वर्तमान संदर्भ में यह कोई मुद्दा ही नहीं है क्योंकि दलीलें मीडिया द्वारा पहले से ही प्रकाशित की जा चुकी सामग्री से संबंधित हैं और सरकार ने सामग्री प्रकाशित करने वाले मीडिया मंचों के खिलाफ कार्रवाई की दलील अदालत के सामने नहीं रखी। फिर भी न्यायमूर्ति जोसेफ की बात पर ध्यान देना चाहिए; उन्होंने कहा कि देश में प्रेस की स्वतंत्रता “अनुच्छेद 19(1) के तहत नागरिकों के अधिकार से बड़ी नहीं है” और प्रेस “पक्षपाती” नहीं हो सकती। उन्होंने यह भी कहा कि पक्षपात भरी जानकारी का प्रसार बताता है कि असली स्वतंत्रता नहीं है।”
निश्चित रूप से इन सभी बातों पर विचार होना चाहिए।
(लेखक लेखन कार्य के साथ ही राजनीतिक टिप्पणीकार एवं लोक मामलों के विश्लेषक भी हैं)
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