भारत ने आखिरकार उपग्रह रोधी प्रौद्योगिकी (ए-सैट) का परीक्षण कर ही लिया। भारत की क्षमता दर्शाने के लिए यह परीक्षण काफी पहले से किया जाना था और वह प्रदर्शन आधुनिक प्रौद्योगिकियों के संदर्भ में किया गया। यह जमीन से करीब 300 किलोमीटर ऊपर पृथ्वी की निचली कक्षा में चक्कर लगा रहे उपग्रह को गति में रहते हुए खत्म करने (काइनेटिक किल) का परीक्षण था। इस परीक्षण और अंतरिक्ष में इससे संबंधित सभी गतिविधियों की सफलता भारत के उदय में निस्संदेह महत्वपूर्ण संभावना की तरह है क्योंकि इससे भारत को भी अंतरिक्ष अन्वेषण और हस्तक्षेप में अहम मुकाम मिल गया है।
हालांकि एसैट अस्त्र शब्द का उपयोग आम हो गया है, लेकिन असल में यह किसी उपग्रह के खिलाफ चलाया जाने वाला अस्त्र नहीं है। उदाहरण के लिए परमाणु सामग्री या उसे ले जाने वाली मिसाइल के उलट एसैट हथियारों को इकट्ठा नहीं किया जा सकता। उसके बजाय इसमें लक्ष्य बेधने वाले उपकरण से युक्त काइनेटिक किल यान के जरिये किसी उपग्रह को पहचाना जाता है, उसका पता लगाया जाता है, निशाना साधा जाता है और हमला कर दिया जाता है। इस तरह इस प्रक्रिया में सावधानी भरी तैयारी की जरूरत होती है। विशेषज्ञों ने बताया था कि किल यान जमीन से छोड़ी जाने वाली इंटरसेप्टर मिसाइल के तीसरे चरण जैसा था। वास्तव में इससे जुड़ी अधिकतर गतिविधियां वैसी ही थीं, जैसी उपग्रह छोड़ने और उसे पहले से तय कक्षा में पहुंचाने के लिए की जाती हैं। असल में अंतरिक्ष अन्वेषण के क्षेत्र का दोहरा इस्तेमाल सबसे ज्यादा होता है। असैन्य लगने वाली गतिविधि और सैन्य गतिविधि के बीच अंतर करना असंभव चाहे नहीं हो, बहुत मुश्किल जरूर होता है।
1980 के दशक में जब शीत युद्ध चरम पर था तो जिनेवा में निरस्त्रीकरण पर सम्मेलन के दौरान बाहरी अंतरिक्ष में हथियारों की दौड़ रोकने पर केंद्रित सत्र में उस समय की महाशक्तियों के प्रतिनिधियों ने बातचीत के दौरान ‘दोहरे इस्तेमाल’ का जिक्र किया था। सोवियत पक्ष ने दावा किया था कि अमेरिका अंतरिक्ष पर आधारित मिसाइल रक्षा प्रणाली तैनात करने की तैयारी कर रहा है। जवाब में अमेरिका ने सोवियत संघ पर एसैट परीक्षण का आरोप लगाया था। सोवियत प्रतिनिधियों ने दलील दी कि अंतरिक्ष यान का भी दोहरा इस्तेमाल हो रहा है। अंतरिक्ष यान उपग्रह को कक्षा में पहुंचाने और उसकी मरम्मत करने का काम करता है, लेकिन यदि मंशा गलत हो तो वह उपग्रह को विफल करने या नुकसान पहुंचाने का काम भी कर सकता है। दोनों पक्षों ने एसैट परीक्षण किए थे, लेकिन बैलिस्टिक मिसाइलरोधी (एबीएम) संधि और रणनीतिक हथियार सीमित करने की वार्ता (सॉल्ट) जैसी द्विपक्षीय संधियों ने उन्हें एसैट के वास्तविक इस्तेमाल से रोक दिया क्योंकि उससे दोनों के राष्ट्रीय तकनीकी साधनों (एनटीएम) में हस्तक्षेप होता और संधि के प्रावधानों के अंतर्गत इन साधनों को छेड़ा नहीं जा सकता था। वास्तव में 1980 के दशक के अंत में शीत युद्ध के आयाम पूरी तरह बदल गए और दरम्यानी रेंज वाली परमाणु शक्ति (आईएनएफ) संधि तथा रणनीतिक हथियारों में कमी की संधि (स्टार्ट) -1 ने उपग्रहों को न छेड़ने की बात नए सिरे से लिखी और उन पर एनटीएम हमले की संभावना खत्म हो गई। मगर पिछले तीन दशकों में हुए तकनीकी विकास ने अंतरिक्ष में खोज और हस्तक्षेप के कई नए मोर्चे खोल दिए सैन्य तथा असैन्य इस्तेमाल के बीच की लकीर धुंधली हो गई है।
चाहे जो हो, भारत के लिए डीआरडीओ ने मिसाइल रक्षा इंटरसेप्टर के अपने परीक्षण कार्यक्रम को आगे बढ़ाते हुए यह परीक्षण किया था। इसे ओडिशा के समुद्र तट पर डीआरडीओ की परीक्षण रेंज से छोड़ा गया था और इसका निशाना पिछली जनवरी में कक्षा में पहुंचाया गया भारतीय माइक्रोसैट-आर था। डीआरडीओ के पिछले इंटरसेप्टर का परीक्षण जिस ऊंचाई पर किया गया था, 300 किलोमीटर की ऊंचाई उसकी तुलना में बहुत अधिक थी। इतनी ऊंचाई पर निशाना लगाने और नष्ट करने में कई जटिल समस्याएं होती हैं। चाहे अपना ही उपग्रह क्यों न हो और उसकी जानकारी पहले से ही क्यों न हो, इतनी दूरी पर उसका पता लगाना और तीसरे चरण के काइनेटिक किल यान की मदद से उसे नष्ट करना छोटी उपलब्धि नहीं है। साथ ही सूक्ष्म उपग्रहण का क्रॉस सेक्शन यानी मार करने योग्य सतह (करीब 2 वर्ग मीटर) बैलिस्टिक मिसाइल की तुलना में बहुत कम होता है। इसलिए ऐसे लक्ष्य को नष्ट करना और यह सुनिश्चित करना कि मलबा कम से कम हो और इकट्ठा कर लिया जाए काफी बड़ी उपलब्धि है।
आज अंतरिक्ष का इतना सैन्यीकरण हो गया है कि अन्य तीनों अंतरिक्ष शक्तियों के पास अंतरिक्ष कमान हैं। वे सभी एसैट परीक्षण कर चुकी हैं और आखिरी परीक्षण चीन ने जनवरी, 2007 में किया था। जब परीक्षण हुआ तब बाहरी अंतरिक्ष के शांतिपूर्ण प्रयोग पर संयुक्त राष्ट्र समिति की बैठक चल रही थी। उसमें चीन ने उपदेश देना शुरू कर दिया। चीन के परीक्षणों के बारे में सभी के चिंता भरे बयान सुनने के बाद चीन के प्रतिनिधि ने बताना शुरू कर दिया कि ये परीक्षण देश के रक्षा हित में किए गए हैं और पहले भी ऐसे परीक्षण हो चुके हैं। उसने चीन की शांतिपूर्ण मंशा का बखान भी किया। 2007 में आईएनएफ संधि लागू थी, इसलिए अमेरिका और रूसी महासंघ द्वारा एसैट क्षमता के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगे हुए थे। लेकिन चीन पर कोई प्रतिबंध नहीं था।
बाहरी अंतरिक्ष के शांतिपूर्ण इस्तेमाल और दोहरे इस्तेमाल में आज इतना घालमेल है कि बेहद सावधानी बरतनी पड़ती है ताकि विरोधी किसी भी गतिविधि के उद्देश्य को गलत न समझ बैठे। हथियारों को सीमित करने के अधिकतर समझौतों में लंबे समय से चले आ रहे “सामान्य उद्देश्य के पैमाने” बाहरी अंतरिक्ष के मामले में भी बहुत महत्वपूर्ण हैं। इसलिए हम उद्देश्य के स्पष्ट खुलासे के बाद ही किसी क्षमता का प्रदर्शन कर सकते हैं।
इसलिए भारत में सर्वोच्च स्तर से बयान जारी होना चाहिए। 27 मार्च को प्रधानमंत्री के बयान में चुनौतीपूर्ण अभियान के दौरान की गई सबसे अहम प्रगति के बारे में बताया गया। इसमें स्पष्ट रूप से कहा गया कि परीक्षण का उद्देश्य शांतिपूर्ण है और यह क्षमता किसी राष्ट्र के विरुद्ध नहीं है। भारत ने इस परीक्षण के द्वारा किसी अंतरराष्ट्रीय संधि का उल्लंघन नहीं किया है। इससे संबंधित अंतरराष्ट्रीय संधि 1967 की बाहरी अंतरिक्ष संधि है, जो (सत्यापन के प्रावधानों के बगैर ही) बाहरी अंतरिक्ष में परमाणु हथियार या व्यापक विनाश के हथियार रखने पर प्रतिबंध लगाती है। वाह्य अंतरिक्ष संधि में ऐसे अनुच्छेद हैं, जो देशों को उनकी गतिविधियों के कारण किसी अन्य देश के अंतरिक्ष उपकरणों जैसे यानों या उपग्रहों को होने वाले नुकसान के लिए जिम्मेदार (अनुच्छेद 7) ठहराते हैं और एक दूसरे की अंतरिक्ष संबंधी गतिविधियों में दखल नहीं देने का जिम्मा (अनुच्छेद 9) भी तय करते हैं। भारत का एसैट परीक्षण वाह्य अंतरिक्ष संधि के खिलाफ नहीं है क्योंकि उसमें हमारे अपने उपग्रह को निशाना बनाया गया था और किसी अन्य देश की अंतरिक्ष गतिविधियों में दखन नहीं दिया गया था। इंटरसेप्टर मिसाइल छोड़ने की जानकारी पहले ही दे दी गई थी। परीक्षण के बाद जारी बयान में बताया ही गया था कि नष्ट हुआ उपग्रह पृथ्वी की निचली सतह में परिक्रमा करने वाला सूक्ष्म उपग्रह था, जिसका मलबा बहुत कम है और कुछ ही हफ्तों में वातावरण में आकर जल जाएगा।
निश्चित रूप से एसैट के अन्य तकनीकी विकल्प भी हैं। लेकिन काइनेटिक किल अन्य विकल्पों की तुलना में अधिक सुविधाजनक है। जमीन से अथवा एफ 16 विमान जैसे किसी माध्यम से ऊपरी वातावरण में लेसर छोड़ने की बात भी की जाती है। लेकिन उपग्रह को विफल करने या नुकसान पहुंचाने के लिए ऐसी लेसर के सफल प्रयोग की प्रामाणिक रिपोर्ट नहीं हैं। चीन द्वारा ऐसी लेसर किरणों के प्रयोग की आधिकारिक पुष्टि नहीं की गई थी। सैद्धांतिक रूप से काइनेटिक किल यान को उस पर तैनात नियंत्रण प्रणाली के जरिये चलाया जा सकता है, लेकिन लेसर के साथ ऐसा नहीं हो सकता और वह लक्ष्य पर ही पड़े तो बेहतर है अन्यथा उसके बहुत विनाशकारी नतीजे हो सकते हैं। निर्धारित उपग्रह के करीब स्थित इलेक्ट्रो-मैग्नेटिक पल्स (ईएमपी) यंत्र या हथियार उसके सभी इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों को नुकसान पहुंचा सकता है, जिससे उपग्रह बेकार हो जाएगा। हालांकि इन बातों में अटकलें ज्यादा हैं फिर भी इसे लेकर लोगों में शंका ज्यादा है क्योंकि यह आसपास के उपग्रहकों को भी नुकसान पहुंचा सकता है। बताया गया है कि राष्ट्रपति ट्रंप ने हाल ही में पेंटागन को ईएमपी के लिए तैयार रहने के आदेश दिए हैं। लेकिन विस्तार से कुछ भी पता नहीं है।
इलेक्ट्रॉनिक यंत्रों को जाम करने वाले उपकरण के साथ उपग्रह छोड़ना और उसे लक्ष्य के नजदीक रख देना एक और विकल्प है, जिस पर एसैट के सिलसिले में बातचीत होती है। लेकिन वह वाह्य अंतरिक्ष संधि के अनुच्छेदों 3 और 4 के विरुद्ध हो सकता है। याद रहे कि एसैट के पुराने विकल्पों में किसी युद्ध सामग्री के साथ हमले किए जाते थे, जिनसे बहुत अधिक मलबा बिखरने का डर रहता था।
अंतरिक्ष में मौजूद संपत्तियों के साथ छेड़छाड़ में अधिक डर साइबर क्षेत्र से पैदा होता है। चूंकि अंतरिक्ष में पड़ताल और दखल का पूरा साजोसामान सी4आई (कमांड, कंट्रोल, कम्युनिकेशन, कंप्यूटिंग एवं इंटेलिजेंस) पर निर्भर करता है, इसलिए साइबर क्षेत्र में होने वाली शत्रुवत गतिविधियों से उसे खतरा बढ़ जाता है। अंतरिक्ष की शक्तियां पिछले एक दशक में एक दूसरे पर साइबर हमलों के आरोप लगा चुकी हैं। ज्यादा से ज्यादा तेज कंप्यूटरों के बारे में की गई तकनीकी प्रगति से एन्क्रिप्शन में व्यवधान का खतरा पैदा होता है, जो अंतरिक्ष गतिविधियों की रीढ़ है। यदि क्वांटम कंप्यूटिंग को वांछित सफलता मिल जाती है तो व्यवधान का खतरा और भी बढ़ जाएगा। सच तो यह है कि यदि एन्क्रिप्शन को चुनौती दे दी गई तो अंतरिक्ष में मौजूद संपत्तियों की गोपनीयता भंग होगी और इस तरह उनकी सैन्य उपयोगिता भी बहुत कम हो जाएगी। हालंाकि आशावादी कह सकते हैं कि इससे अधिक पारदर्शिता आएगी और युद्ध के अनूठे मोर्चे की विशिष्टता पूरी तरह खत्म हो जाएगी।
ऐसी स्थिति में डीआरडीओ के लिए तकनीक चुनना जरूरी है। अंतरिक्ष के क्षेत्र में तकनीक एवं प्रतिस्पर्द्धा के मौजूदा दौर में भारत के लिए ‘स्पेस सिचुएशनल अवेयरनेस’ की क्षमता विकसित करना भी जरूरी है। इस क्षमता में उपग्रह या यान पर सेंसर लगे होते हैं, जो अंतरिक्ष की किसी वस्तु के साथ टकराने की या हमला होने की आशंका का पता लगाते हैं। चूंकि टकराव के लिए अंतरिक्ष के इस्तेमाल की आशंका बढ़ती जा रही है, इसलिए कोई भी देश पूरी तरह तैयार तभी होगा, जब यह क्षमता उसके पास होगी। इस मामले में एसैट परीक्षण उन जंजीरों को तोड़ता है, जो भारत ने खुद ही अपने तकनीकी विकास पर जड़ रखी हैं।
(लेखक ऑस्ट्रिया के राजदूत और वियना में संयुक्त राष्ट्र कार्यालय में स्थायी प्रतिनिधि रह चुके हैं। वह आईएईए के बोर्ड ऑफ गवर्नर्स में रह चुके हैं और दक्षेस महासचिव के पद पर भी रहे हैं। वह सेंटर फॉर एयर पावर स्टडीज में विशिष्ट फेलो हैं)
Translated by Shiwanand Dwivedi (Original Article in English)
Image Source: https://www.vifindia.org/sites/default/files/us-reconnaissance-aircraft-monitors-indias-asat-missile-test-plane-spotter-aircraft-spots.jpg
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