मोदी सरकार के नए मंत्रिमंडल की एक अनूठी विशेषता यह है कि चार शीर्ष मंत्रालय - गृह, वित्त, रक्षा और विदेश - नए लोगों के हाथ में हैं। अपने-अपने मंत्रालयों में काम करने का उनका अपना दृष्टिकोण और शैलियां होंगी। वे प्रधानमंत्री के विश्वासपात्र हैं और सुरक्षा पर मंत्रिमंडलीय समिति का सदस्य होने के कारण नए भारत का प्रधानमंत्री का सपना पूरा करने के लिए उन्हें मिलजुलकर एक टीम की तरह काम करना होगा।
अतीत की ही तरह भारत आंतरिक सुरक्षा संबंधी जटिल चुनौतियों से जूझ रहा है, जिनसे निपटने के लिए राजनीतिक, आर्थिक और कानून-व्यवस्था के स्तर पर एक साथ काम करना होगा। कश्मीर उदाहरण है। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के संकल्प पत्र में संविधान के अनुच्छेद 370 और 35ए हटाने की बात कही गई है। यह लक्ष्य पूरा हुआ तो कश्मीर में स्थिति हमेशा के लिए बदल जाएगी। ऐसे कदम के परिणामों का अंदाजा सतर्कता के साथ लगाना होगा।
कश्मीर में यथास्थिति हमेशा नहीं बनी रह सकती। साहसी और सोचे-समझे कदम उठाने की जरूरत है। जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव होने हैं। तीस साल पहले बंदूकों के साये में अपने घरों से निकाले गए कश्मीरी पंडित वापसी की उम्मीद कर ही रहे हैं। सीमा पार से घुसपैठ, सीमा पार आंतकवाद की घटनाएं, कश्मीरी युवाओं का मोहभंग होना और उग्रवाद की ओर खिंचना जारी है। जम्मू और घाटी के बीच खाई गहरी होती जा रही है। नए गृह मंत्री को जम्मू-कश्मीर में नाजुक स्थिति संभालने के लिए उचित रणनीति तैयार करनी होगी।
पिछली सरकार के कार्यकाल में नेशनलिस्ट सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड (एनएससीएन) - आईएम के साथ जिस समझौते पर हस्ताक्षर हुए थे, उसके नतीजे अभी पूरी तरह सामने नहीं आए हैं और नगा समस्या का पूर्ण समाधान नहीं हुआ है। यह स्थिति हमेशा नहीं रहने दी जा सकती। वामपंथी उग्रवाद पर भारी पड़ने की दिशा में बहुत कुछ किया जा चुका है, लेकिन माओवादी अब भी सक्रिय हैं और समय-समय पर सुरक्षा बलों को नुकसान पहुंचाते रहते हैं। आईएसआईएस जैसी कट्टरपंथी विचारधाराओं से प्रेरित होकर उग्रवाद की ओर खिंचना बढ़ रहा है और स्पष्ट भी है। इस गंभीर समस्या से निजात पाने के लिए उग्रवाद को कम करने के समुचित उपाय करने होंगे।
गृह मंत्री अपने मंत्रालय के अंतर्गत आने वाली संस्थाओं की क्षमता पर भी करीब नजर डाल सकते हैं। सरकार के पिछले कार्यकाल में सीमा सुरक्षा, तटीय सुरक्षा, आतंकवाद-रोधी प्रणालियों, राष्ट्रीय खुफिया ग्रिड बनाने आदि के बारे में कई सुझाव दिए गए थे। भारत के पास अब भी राष्ट्रीय आतंकवाद-रोधी केंद्र नहीं हैं। गृह मंत्रालय का बजट लगातार बढ़ता आ रहा है और पहली बार 1,00,000 करोड़ रुपये के पार चला गया है। फिर भी पुलिस बल का आधुनिकीकरण, पुलिस सुधार और अर्द्धसैनिक बलों का प्रशिक्षण छूट रहा है। जनता के बीच पुलिस की छवि कुछ खराब है। इस बीच पुलिस के काम करने के पुराने तरीके नए जमाने के अपराधों और कानून-व्यवस्था के मामलों में प्रभावी नहीं रह गए हैं। जरूरी है कि पुलिसकर्मी तकनीक को समझें और जनता की समस्याओं के प्रति संवेदनशील हों। पुरानी मानसिकता बदलनी होगी। पुलिसकर्मियों में भ्रष्टाचार की समस्या से निपटना होगा।
गृह मंत्री खुद गृह मंत्रालय के ढांचे को भी गहराई से समझने का प्रयास कर सकते हैं। क्या यह मंत्रालय उग्रवाद, युवाओं में बेरोजगारी, जनसंख्या में अनियंत्रित वृद्धि, क्षेत्रीय असंतुलन, पर्यावरण क्षरण, अनियोजित शहरीकरण, प्राकृतिक आपदाओं, मौसम की अतिकारी स्थितियों, नशे की तस्करी तथा आतंकवाद के बीच सांठगांठ, साइबर क्षेत्र, देश के भीतर विस्थापन, किसानों के संकट, महिलाओं के साथ हिंसा, सोशल मीडिया से उठने वाले अभियानों आदि से उत्पन्न होने वाली आंतरिक सुरक्षा संबंधी वर्तमान चुनौतियों से निपटने में सक्षम है? इसका सीधा जवाब है ‘नहीं’। इन चुनौतियों से निपटने के मामले में हमारी मानसिकता बहुत पुरानी है और संस्थाएं बहुत अड़ियल हैं। गृह मंत्रालय में शायद ही ऐसे विशेषज्ञ हैं, जो मनोविज्ञान, व्यवहार विज्ञान, मानव शास्त्र, भाषा विज्ञान आदि विषयों पर आधारित सुझाव और जानकारी गृह मंत्री को दे सकें। गृह मंत्रालय के आधुनिकीकरण की तुरंत जरूरत है। नए गृह मंत्री को इस पर विचार करना चाहिए और उसके लिए केवल अफसरशाहों पर निर्भर रहने के बजाय विशेषज्ञों से मदद लेनी चाहिए।
वित्त मंत्री को पिछली तीन तिमाहियों में धीमी होती वृद्धि के बीच नई सरकार का पहला बजट बनाने में जुटना होगा। जिन कल्याणकारी योजनाओं के बल पर सरकार ने जनादेश प्राप्त किया है, उन्हें जारी रखना होगा, बढ़ाना होगा और उनकी पैठ गहरी करनी होगी। सौ से भी अधिक कल्याणकारी योजनाओं के लिए संसाधन तलाशने होंगे और उन्हें टिकाऊ भी बनाना होगा। बैंकिंग क्षेत्र पर पड़ रहा दबाव कम करना होगा। रक्षा मंत्रालय की अधिक रक्षा बजट की जरूरतें भी पूरी करनी होंगी। साथ ही ग्रामीण विकास, कृषि, लघु उद्योग, कौशल विकास, शिक्षा और स्वास्थ्य आदि के लिए अधिक संसाधनों की जरूरत होगी।
वित्त मंत्री को चालू खाते के घाटे पर भी नजर रखनी होगी क्योंकि यदि वह मौजूदा स्तर से बढ़ता है तो अर्थव्यवस्था पर चोट पहुंचेगी। विभिन्न वर्गों से वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) को सरल बनाने तथा दर कम करने की मांग आ ही रही हैं। नए संसाधन जुटाना वित्त मंत्री के लिए सबसे बड़ा काम होगा। सरकार को निजी निवेश पटरी पर लाने और देश में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश बढ़ाने के लिए उपयुक्त कदम उठाने होंगे। अर्थव्यवस्था को अधिक उत्पादक और प्रतिस्पर्द्धी बनाना होगा।
रक्षा क्षेत्र में व्यापक सुधारों की जरूरत पिछले पांच वर्षों में बार-बार महसूस हुई है। यह राज नहीं रह गया है कि सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के हिस्से के रूप में (जीडीपी का 1.6 प्रतिशत) रक्षा बजट वास्तव में लगातार कम हो रहा है और सैन्य बलों के आधुनिकीकरण की दृष्टि से पर्याप्त नहीं है। हथियारों की खरीद दिन-ब-दिन महंगी होती जा रही है और ऐसा लंबे समय तक नहीं चल सकेगा। रक्षा उत्पादन के स्वदेशीकरण को पर्याप्त बढ़ावा नहीं मिला है। रक्षा क्षेत्र में मेक इन इंडिया कार्यक्रम अभी तक परवान नहीं चढ़ा है। खरीद की प्रक्रिया लंबी और कष्टप्रद बनी हुई है। 2016 में जिस सामरिक साझेदारी सुधार की घोषणा हुई थी और जिसके कारण रक्षा उत्पादन में निजी क्षेत्र का भारी-भरकम निवेश हुआ होता, उस सुधार में भी खामियां निकल आई हैं। पहले से किए गए वायदे पूरे करने के बाद नए उपकरण खरीदने का पैसा ही नहीं बचता।
सुरक्षा का माहौल भी तेजी से बदला है। यदि भारत को चीन, पाकिस्तान तथा हिंद-प्रशांत क्षेत्र से आ रही धमकियों की चुनौती से निपटना है तो रक्षा पर और अधिक खर्च करना होगा। रक्षा बलों की साइबर क्षमताएं बढ़ानी होंगी। नए विचार लाकर रक्षा कूटनीति को तेज करना होगा। रक्षा मंत्रालय तथा सैन्य बलों के बीच रिश्ते और भी सौहार्दपूर्ण बनाने होंगे ओर तालमेल के साथ काम करना होगा। चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस) के प्रमुख की नियुक्ति पर फैसला जल्द से जल्द लिया जाना चाहिए।
नए विदेश मंत्री प्रधानमंत्री के विश्वासपात्र हैं और भारत की कूटनीति को आगे ले जाने के लिए उन्हें चुना गया है। वह विदेश सचिव रह चुके हैं, इसलिए देश के सामने खड़े अवसरों और कूटनीति चुनौतियों से भली-भांति परिचित हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि वह अपने काम में सफल होंगे। वैश्विक और क्षेत्रीय वातावरण बेहद अनिश्चितता भरा है। अगले कुछ हफ्तों में प्रधानमंत्री कूटनीतिक व्यस्तताओं में घिरे रहेंगे। भारत और अमेरिका के व्यापारिक एवं आर्थिक रिश्तों में प्रतिकूलता आई है। अमेरिकी प्रतिबंधों ने भी ईरान तथा रूस के साथ भारत के रिश्तों पर असर डाला है। पिछले कार्यकाल में सरकार ने संपर्क का जो एजेंडा शुरू किया था, वह अधूरा पड़ा है। पड़ोसी, उनके पड़ोसी और महाशक्तियों के साथ रिश्ते सरकार के लिए विदेश नीति में सबसे बड़ी प्राथमिकता होंगे। भारतीय मीडिया शांघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की शिखर बैठक के दौरान प्रधानमंत्री मोदी और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान की संभावित मुलाकात का उत्सुकता से इंतजार कर रहा होगा। सरकार अपना यह रुख शायद ही छोड़े कि बातचीत और आतंकवाद एक साथ नहीं चल सकते।
चीन के साथ रिश्ते कभी समस्यारहित नहीं रहे। भारत हुआवे की 5जी तकनीक के जरिये भारतीय दूरसंचार बाजार में पैठ बनाने की चीन की कोशिश पर सावधानी भरी निगाह रखेगा क्योंकि इन तकनीकों पर दुनिया भर में चिंता जताई जा रही है। क्या नई सरकार चीन को सीमा विवाद के समाधान पर या कम से कम वास्तविक नियंत्रण रेखा पर स्थिति स्पष्ट करने के लिए राजी कर पाएगी? भारत अपने संवेदनशील पड़ोस में चीन के बढ़ते प्रभाव से कैसे निपटेगा? चीन का बेल्ट एंड रोड कार्यक्रम उसकी भू-राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं का संकेत है। ये प्रश्न हमेशा बरकरार रहेंगे। वैश्विक शक्ति संतुलन में बदलाव के साथ ही उनके अर्थ बदलते रहेंगे।
यदि भारत की अर्थव्यवस्था सुस्त होती है तो भारत के लिए विकल्प भी कम हो जाएंगे। विदेश मंत्रालय को सोचना होगा कि भारत के विशाल बाजारों का इस्तेमाल देश के हितों के लिए कैसे किया जा सकता है। कूटनीति में विदेश मंत्रालय, रक्षा मंत्रालय, गृह मंत्रालय, वित्त मंत्रालय, वाणिज्य मंत्रालय और अन्य संबंधित मंत्रालयों के मिले-जुले प्रयास की आवश्यकता होगी। ‘नए भारत’ के निर्माण में योगदान की भारतीय संस्कृति की क्षमता का उपयोग बहुत कम हुआ है। विदेश मंत्रालय को सार्वजनिक राजनय में कूटनीति का आयाम जोड़ना चाहिए। इसके लिए सांस्कृतिक जरूरतों की रणनीति तय करने में भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद की भूमिका की दोबारा समीक्षा की जानी चाहिए।
राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) भारत की कूटनीति के अहम पक्षों विशेषकर सुरक्षा मामलों से जुड़े पक्षों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते आए हैं। प्रधानमंत्री को उन पर भरोसा है और वह मुसीबत में काम आने वाले साबित हुए हैं। देखना होगा कि नई सरकार में एनएसए की भूमिका बदलती है या नहीं।
1999 में स्थापित की गई राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद (एनएससी) का क्षमता से कम उपयोग हुआ है। अधिकतर देशों में एनएससी महत्वपूर्ण संस्था बन चुकी है, जो तालमेल बिठाने का काम करती हैं और सामरिक कार्यक्रमों के क्रियान्वयन पर नजर रखती हैं। एनएससी विभिन्न मंत्रालयों के बीच जरूरी तालमेल बिठा सकती है। विभिन्न चुनौतियों के खतरे भांपने, खाका बनाने, आगे का अनुमान लगाने और चुनौतियों से निपटने के रास्ते तलाशने में उसकी बड़ी भूमिका होगी। उम्मीद है कि सरकार के दूसरे कार्यकाल में एनएससी और भी सक्रिय हो जाएगी।
आज के युग में कोई भी मंत्री या मंत्रालय अलग-थलग रहकर काम नहीं कर सकता। सरकार का नए भारत का एजेंडा पूरा करने के लिए शीर्ष चार मंत्रियों को मिलकर काम करना होगा।
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