सेना के शीर्ष क्रम में बदलाव के तहत हाल ही में ले. जन. आसिम मुनीर की जगह ले. जन. फैज हमीद को इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस (आईएसआई) का नया प्रमुख बना दिया गया। मुनीर को प्रमुख बने केवल 8 महीने हुए थे कि यह बदलाव कर दिया गया। नए प्रमुख जनरल फैज घरेलू राजनीतिक हलकों से ज्यादा परिचित हैं, इसलिए अटकलें लगाई जा रही हैं कि वह सत्तारूढ़ सरकार और सैन्य प्रतिष्ठान के लिए परेशानी खड़ी कर रहे विपक्ष और नागरिक अधिकार समूहों (खास कर पश्तून तहफ्फुज मूवमेंट) को “संभालने” के लिए आक्रामक तेवरों के साथ काम करेंगे।
खुफिया रोधी एवं आंतरिक सुरक्षा विभाग के प्रमुख के तौर पर जनरल के कार्यकाल को देखते हुए इस बात में कोई संदेह नहीं है कि वह सेना के वरिष्ठ नेतृत्व के काफी करीब हैं। सेना ऐसे व्यक्ति को शीर्ष पर लाई है, जिस पर पाकिस्तान मुस्लिम लीग - नवाज (पीएमएल-एन) को चुनावों में हरवाने के आरोप खुद नवाज शरीफ ने लगाए हैं।1 सार्वजनिक हलकों में जनरल फैज का नाम सबसे पहले नवंबर, 2017 में उभरा था, जब तहरीक-ए-लबाइक पाकिस्तान (टीएलपी) ने फैजाबाद में धरना दिया था। याद रहे कि चुनाव कानून 2017 में बदलावों के बाद टीएलपी ने आरोप लगाया था कि पीएमएल-एन ने चुने गए प्रत्याशी द्वारा ली जाने वाली शपथ में इस तरह तब्दीली कर दी, जिससे हजरत मुहम्मद के आखिरी पैगंबर होने की कसम नहीं खाई जाती बल्कि उनके आखिरी पैगंबर होने में भरोसा जताया जाता है।2
शपथ तो जल्द ही बदलकर पुराने रूप में कर दी गई, लेकिन उसकी वजह से हुए बवाल में बरेलवी चरमपंथियों में प्रदर्शन कर फैजाबाद चौक को जाम कर दिया, जो इस्लामाबाद और रावलपिंडी को जोड़ने वाला अहम बिंदु है। अंत में सरकार ने स्थिति संभालने के लिए सेना की मदद ली। तहरीक और सेना के बीच हुए समझौते पर फैज हमीद के दस्तखत थे।3 कहा जाता है कि कानून प्रवर्तन एजेंसियों द्वारा सख्त कार्रवाई नहीं किया जाना, टीएलपी का मीडिया में छा जाना और चुनाव आयोग द्वारा टीएलपी को चुनाव लड़ने की इजाजत दिया जाना पीएमएल-एन के वोट में सीधे सेंध लगाने की जनरल फैज की रणनीति थी। इसके नतीजे सितंबर, 2017 तक दिखने लगे, जब तहरीक-ए-लबाइक और मिल्ली मुस्लिम लीग (हाफिज सईद द्वारा गठित पार्टी) ने लाहौर में एनए-128 संसदीय सीट पर चुनाव लड़ा। यह सीट नवाज शरीफ की पत्नी ने जीती, लेकिन दोनों पार्टियों को 11 प्रतिशत वोट मिल गए।4
पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ (पीटीआई) की जीत में सेना की भूमिका बताई जाती है, जिसे भरोसा था कि इमरान खान के करिश्माई व्यक्तित्व और डरे हुए विपक्ष के कारण नई सरकार को घरेलू मोर्चे पर किसी तरह की चुनौती का सामना नहीं करना पड़ेगा। लेकिन पाकिस्तानी राजनीति आज दिलचस्प चौराहे पर खड़ी है, जहां प्रधानमंत्री बनने के बाद से इमरान खान की लोकप्रियता कम हुई है। विपक्ष की स्थिति भी नहीं बदली है। कानूनी समुदाय हर पहलू पर नियंत्रण रखने की सैन्य प्रतिष्ठान की नीतियों के खिलाफ खड़ा हो गया है, जो फरवरी 2019 में सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस काजी फैज ईसा के उस फैसले से एकदम स्पष्ट हो गया, जिसमें कहा गया कि फैजाबाद धरने को बरेलवी चरपमंथी गुट के लिए राजनीतिक उपलब्धि बनाने में सेना का हाथ था।5 इस संकट के लिए एजेंसियों को जिम्मेदार ठहराने के साथ ही जस्टिस ईसा ने कहा कि राजनीति में आईएसआई का दखल “जनता के लिहाज से अहम” मसला है और उन्होंने यह भी कहा कि जनहित की रक्षा के लिए बुनियादी अधिकार लागू कराने का अधिकार सुप्रीम कोर्ट के पास है।
एजेंसियों की गतिविधियों का दायरा तय करने वाले उनके आदेश के कुछ अंश महत्वपूर्ण हैं: “सरकार, विभाग या खुफिया एजेंसी समेत कोई भी वाणी, अभिव्यक्ति अथवा प्रेस की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार पर संविधान के अनुच्छेद 19 में उल्लिखित मानकों से अधिक अंकुश नहीं लगा सकता... यदि सशस्त्र बलों का कोई कर्मी किसी भी प्रकार की राजनीति में लिप्त होता है अथवा मीडिया के दुरुपयोग की कोशिश करता है तो वह सशस्त्र बलों की निष्ठा और पेशेवर रवैये को क्षति पहुंचाता है।” 6,7 जवाब में पाकिस्तान सरकार ने राष्ट्रपति आरिफ अल्वी के माध्यम से सर्वोच्च न्यायिक परिषद (न्यायाधीशों द्वारा अनियमितताएं किए जाने के आरोपों की जांच के लिए मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता में गठित वरिष्ठ न्यायाधीशों की समिति) में जस्टिस ईसा के खिलाफ मामला दर्ज कर दिया। उन पर आरोप लगाया गया कि वह विदेश में अपनी संपत्तियों की जानकारी नहीं दे रहे हैं। इस मामले (सेना के आदेश पर दर्ज) पर वकीलों के समुदाय ने सरकार और सेना की कड़ी आलोचना की। विरोध इतना है कि वर्तमान स्थिति को 2007 के हालात की शुरुआत माना जा रहा है, जब परवेज मुशर्रफ द्वारा मुख्य न्यायाधीश इफ्तिखार चौधरी को बर्खास्त किए जाने पर देश के वकील सड़कों पर उतर आए थे। उनकी सत्ता गिरने की एक वजह यह भी थी।
इसके अलावा पीटीएम के मौजूदा आंदोलन ने पूर्ववर्ती संघशासित कबाइली क्षेत्रों (फाटा) में पख्तून युवाओं को सेना की ज्यादतियों का विरोध करने वाले ताकतवर गुट में बदल दिया है। इस मामले में हालत इतनी बिगड़ गई कि एजेंसियों को संसद के सदस्यों तक को हिरासत में लेना और धमकाना पड़ा। बलूचिस्तान की स्थिति पर भी ध्यान देना होगा क्योंकि पिछले कुछ महीनों में बलोच गुट एकजुट हुए हैं और उन्होंने बड़े हमलों को अंजाम दिया है; उनमें से अप्रैल में हुए एक हमले में पाकिस्तान कोस्ट गार्ड के करीब 12 कर्मचारियों की मौत हो गई और मई में ग्वादर में एक पांचसितार होटल पर हमला किया गया।
ऐसी स्थिति में सेना ने एक सक्षम अधिकारी को इस अपेक्षा के साथ नियुक्त किया है कि वह घरेलू राजनीतिक संकट और आंतरिक सुरक्षा की चुनौतियों को साध लेंगे। कहा जा रहा है कि आंतरिक सुरक्षा के मामले में ऑपरेशन राह-ए-दोस्त, राह-ए-निजात और जर्ब-ए-अज्ब में फैज की भूमिका सराही गई है, जिसके कारण सरकार के खिलाफ नए सिरे से शुरू हो रही उग्रवादियों की लड़ाई से निपटने के लिए वही उपयुक्त अधिकारी हैं। इस बात के संकेत तभी मिल गए थे, जब इस अप्रैल में जनरल फैज को तीन अन्य अधिकारियों के साथ लेफ्टिनेंट जनरल के पद पर प्रोन्नत किया गया था और निवर्तमान आईएसआई प्रमुख को तब तक के लिए पद पर रखा गया था, जब तक जनरल फैज को वहां बिठाने के लिए प्रशासनिक प्रक्रिया दुरुस्त नहीं कर दी जाती। यह भी दिलचस्प है कि शीर्ष पर यह बदलाव जनरल बाजवा का कार्यकाल खत्म होने (नवंबर, 2019 में) के कुछ महीने पहले ही किया गया है। इस मामले में दो संभावनाएं हो सकती हैं। पहली, बाजवा अपनी पारी जारी रखने का संकेत दें और दूसरी, यदि सेवावनिवृत्त होना ही है तो अपने किसी करीबी अधिकारी को इस अपेक्षा के साथ पद पर बिठाएं कि सेना पर उनकी पकड़ बनी रहे।
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