नेपाल में नए संविधान के तहत 2017 के अंत में देश भर में हुए चुनावों से देश में लोकतांत्रिक प्रशासन के नए युग का आरंभ हुआ। इन चुनावों में प्रधानमंत्री के पी ओली की अगुआई वाली नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी-यूनिफाइड मार्क्सिस्ट-लेनिनिस्ट (सीपीएन-यूएमएल) को प्रचंड जनादेश मिला। यह पार्टी सीपीएन (माओइस्ट सेंटर) के साथ मिलकर चुनाव लड़ी थी। नेपाली कांग्रेस (एनसी) के नेतृत्व वाला गठबंधन केंद्र में ही नहीं बल्कि सात में से छह प्रांतों में भी पीछे रह गया। इसके बाद 15 फरवरी, 2018 को वाम गठबंधन के नेता के पी ओली ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली। वह दूसरी बार प्रधानमंत्री बने हैं। पहले वह 12 अक्टूबर, 2015 से 4 अगस्त, 2016 तक इस पद पर रहे थे।
प्रचंड बहुमत वाली इस सरकार को सत्ता में आए मुश्किल से नौ महीने ही हुए हैं। विशेष रूप से भारत-नेपाल संबंधों के मामले में सरकार के प्रदर्शन पर हाल ही में नई दिल्ली स्थित विवेकानंद इंटरनेशनल फाउंडेशन में विषेशज्ञों के एक सम्मेलन में चर्चा की गई, जिसमें बड़ी संख्या में प्रतिभागी मौजूद थे। चर्चा में हिस्सा लेने वालों ने याद किया कि प्रधानमंत्री ओली के पिछले कार्यकाल में किस तरह द्विपक्षीय संबंध बहुत बिगड़ गए थे और भारत 2015 में मधेसी मुद्दे पर तथा उसके कारण सीमा बंद किए जाने की समस्या से घिरा दिख रहा था। वास्तव में ओली का चुनाव अभियान भारत-विरोधी बातों पर ही चल रहा था।
विषेशज्ञों ने मोटे तौर पर यही माना कि दोनों देशों तथा उनकी जनता के बीच गहरे और घनिष्ठ संबंधों को देखते हुए वह दौर चूक सरीखा था। सभी का कहना था कि भारत-नेपाल संबंध राजनीतिक और सामरिक बाध्यताओं से परे हैं। इनमें लोगों का पारस्परिक जुड़ाव, खुली सीमाएं, सीमा के आर-पार आवागमन, आर्थिक रिश्ते, साझा ऐतिहासिक अतीत और सांस्कृति संबंध शामिल हैं। इन पहलुओं ने दोनों देशों को एक साथ लाने में हमेशा ही बहुत अहम भूमिका निभाई है। वक्ताओं ने नेपाल में लोकतांत्रिक आंदोलन के प्रति भारत के लगातार समर्थन पर भी प्रकाश डाला।
लेकिन अफसोस के साथ यह बात भी कही गई कि नेपाल में प्रशासन में शामिल कुछ समूह और मीडिया के अधिकतर हिस्से ने उस दौरान छिद्रान्वेषी किस्म का रुख अपना लिया था और भारत पर नेपाल की ‘घरेलू राजनीति में दखल देने’ का आरोप लगाया था। इससे ऐसा लगा कि दोनों देशों के बीच खास रिश्ते एक जटिल खेल में बदल गए हैं, जहां नेपाल भारत के हितों को अपने दक्षिणी पड़ोसी चीन के हितों के साथ संतुलित करने में जुट गया है।
इसलिए गलतफहमी को फौरन दूर करने और पिछले कुछ समय में पनपे ‘भड़काने’ तत्वों को दूर करने की फौरी जरूरत है, जो दुर्भाग्य से अब भी कुछ स्थानों पर मौजूद हैं।
ऐसी गलतफहमियों को दूर करने के उद्देश्य से दोनों देशों के नेताओं ने पिछले नौ महीनों में उच्च स्तर की कई यात्राएं की हैं। इसकी शुरुआत नई सरकार के शपथ ग्रहण से पहले विदेश मंत्री सुषमा स्वराज की काठमांडू यात्रा से हुई थी। प्रधानमंत्री ओली ने उसके बाद जल्द ही प्रत्युत्तर दिया और कार्यभार ग्रहण करने के बाद पहली विदेश यात्रा पर अप्रैल, 2018 में भारत ही आए। चुनाव अभियान के दौरान भारत की कड़ी आलोचना करने के बावजूद प्रधानमंत्री ओली भारी जीत के बाद विश्लेषकों को सकारात्मक तथा प्रत्युत्तर देने वाले ही लगे हैं। अपनी पहली यात्रा पर प्रधानमंत्री ओली ने नेपाल में भारत द्वारा प्रायोजित परियोजनाओं में अधिक दिलचस्पी दिखाई। ऐसी एक सफल बैठक के बाद तो उनकी सरकार ने भारत की सतलुज जल विद्युत निगम लिमिटेड (एसजेवीएनएल) को अरुण-3 (900 मेगावाट) पनबिजली परियोजना के लिए लाइसेंस तक दे दिया।
प्रधानमंत्री मोदी ने द्विपक्षीय संबंधों में फिर से ऊर्जा लाने के लिए बेहद कम समय में ही तीन बार नेपाल की यात्रा की। ऐसा करने वाले वह भारत के पहले प्रधानमंत्री हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने मई, 2018 में नेपाल की यात्रा की। पूजा करने के लिए जनकपुर और मुक्तिनाथ की उनकी यात्राओं दोनों देशों के बीच सांस्कृतिक रिश्तों का महत्व दिखाया क्योंकि दोनों ही स्थान हिंदुओं तथा बौद्धों की आस्था के केंद्र हैं। मोदी के लिए यह कामकाज वाली तीर्थयात्रा थी क्योंकि उन्होंने साथ मिलकर रामायण सर्किट और जनकपुर तथा अयोध्या के बीच सीधी बस सेवा भी शुरू की।1
प्रधानमंत्री ओली ने यह कहते हुए अपनी नीति स्पष्ट कर दी कि “नेपाल दोनों करीबी पड़ोसियों के बीच विश्वास पर आधारित रिश्तों की मजबूत इमारत खड़ी करना चाहता है।” भारत ने इसे पूरे दिल से स्वीकार किया, जब प्रधानमंत्री मोदी ने ‘सबका साथ, सबका विकास’ के जरिये भारत के विकास के अपने मूल सिद्धांत को नेपाल का विकास चाहने वाले ‘समृद्ध नेपाल, सुखी नेपाल’ के विचार से जोड़ा।2
कृषि में सहयोग, अंतर्देशीय जल संपर्क के विकास तथा बिजली वाली रेल लाइन को रक्सौल से काठमांडू तक बढ़ाने के क्षेत्रों में दोनों देशों के बीच कई अन्य ऐतिहासिक समझौते हुए। रेल लाइन के लिए नेपाल भारत की मदद मांगेगा। इससे दोनों देशों के बीच संपर्क और व्यापार में इजाफा होगा। मोदी और ओली ने वीरगंज-रक्सौल एकीकृत जांच चौकी का उद्घाटन भी किया और पेट्रोलियम उत्पादों के सीमा पार परिवहन के लिए मोतिहारी-अमलेखगंज पाइपलाइन के शिलान्यास कार्यक्रम में भी रहे।
रिश्तों में इस बदलाव का कारण भारत के प्रति प्रधानमंत्री ओली का सकारात्मक रवैया और प्रधानमंत्री मोदी की बदला हुआ नीतिगत रुख ही है। सर्वोच्च स्तर पर बार-बार हुए इन संवादों के दौरान दोनों नेता रक्षा, सुरक्षा, संपर्क तथा व्यापार के क्षेत्रों में घनिष्ठता बढ़ाते हुए काफी आगे बढ़े। इस कारण दीर्घकाल में रिश्तों के लिए सकारात्मक दृष्टिकोण उत्पन्न हुआ है। दोनों के बीच समझ के साथ इस विचार से भी रिश्ते बेहतर हुए हैं कि असहयोग से दोनों देशों की वृद्धि की संभावनाओं में रुकावट पैदा होगी।
लेकिन दोनों देशों के बीच संबंधों में नई जान झटकों के बगैर नहीं आई। ऐसा एक मामला बिम्सटेक बैठक के लिए प्रधानमंत्री मोदी की पिछली यात्रा के फौरन बाद सामने आया, जब नेपाल ने अपनी सेना को पुणे में संयुक्त बिम्सटेक सैन्य अभ्यास में हिस्सा नहीं लेने दिया और दोनों देशों के बीच गलतफहमी पनप गई। नेपाल सरकार ने अंतिम समय में सैन्य अभ्यास से हटने का फैसला किया। इससे अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत-नेपाल रिश्तों की अच्छी छवि नहीं बनी। गलतफहमी तब और बढ़ गई, जब नेपाल ने उसी महीने चीन के साथ संयुक्त सैन्य अभ्यास किया। स्पष्ट है कि इस मामले को दोनों देश बेहतर तरीके से संभाल सकते थे।
‘चीन का साया’ यूं तो पूरे दक्षिण एशिया पर है, लेकिन नेपाल-भारत संबंधों में खास तौर पर यह साया कुछ अधिक ही गहरा है, जिससे समीकरण और भी पेचीदा हो जाते हैं। तिब्बत की सीमा से लगे इलाकों में मौजूदगी बढ़ाने के बाद अब चीन ने भारत से लगे नेपाल के तराई क्षेत्र में भी पैठ बना ली है। यह बात तब और स्पष्ट हो गई, जब बूढ़ी गंडकी परियोजना भारत से लेकर चीन को दे दी गई।
भारत में नेपाल के राजदूत की नियुक्ति करीब एक साल तक अटकी रही, जिसे नकारात्मक संकेत गया। हालांकि यह समस्या केवल नई दिल्ली स्थित दूतावास में ही नहीं थी, कई अन्य दूतावासों में भी राजदूत के पद खाली पड़े थे, लेकिन बेहतर तालमेल और कामकाज के लिए इसे सुलझाया जाना चाहिए था। संयोग से कुछ दिन पहले यह समस्या सुलझ गई।3
हालांकि उपरोक्त बातों से साफ पता चलता है कि द्विपक्षीय संबंधों के पुनर्निर्माण में सकारात्मक रुझान आया है, लेकिन विश्लेषकों का यह कहना भी सही है कि अभी इस पर काम चल रहा है और दोनों पक्षों को बहुत कुछ करना पड़ेगा। भारत-नेपाल रिश्तों को बेहतर से बेहतर बनाने के लिए ही नहीं बल्कि नई ऊंचाइयों तक ले जाने के लिए और अटूट बनाने के लिए रिश्तों की नई राह गढ़नी पड़ेगी।
नेपाल से भारत की अपेक्षाओं की बात करें तो सुरक्षा का मसला सबसे महत्वपूर्ण है। इस मामले में दोनों देशों के बीच सीमा रेखा स्पष्ट रूप से खिंची हुई है। नेपाल के साथ लगी लंबी खुली सीमा पर होने वाली गतिविधियों के प्रति भारत कितना संवेदनशील है, यह बात नेपाल को समझनी पड़ेगी। उस क्षेत्र में जो भी होता है, उसका भारत के सीमावर्ती राज्यों पर बहुआयामी असर पड़ेगा और सुरक्षा तथा दोनों देशों के लोगों के बीच रिश्तों पर खास असर होगा। चीन नेपाल को लंबे समय से विदेशी सहायता प्रदान करता रहा है, लेकिन वह नेपाल में भारत की जगह नहीं ले सकता। खुली सीमा तथा दोनों देशों के लोगों के बीच संबंधों के कारण भारत को जो बढ़त मिली है, उसकी बराबरी करना बहुत मुश्किल है।4
बुनियादी ढांचा, संपर्क तथा आर्थिक रिश्ते विकसित करने के लिए दूरदर्शिता भरी तथा सुगठित नीति सबसे ज्यादा जरूरी है। सड़क संपर्क, रेल मार्ग तथा भू सीमाशुल्क केंद्र स्थापित करने और सुधारने के लिए लगातार प्रयास होने चाहिए। पारस्परिक हितों को देखते हुए यह काम अधिक तेजी से किया जाना चाहिए।
द्विपक्षीय संबंध सुधारने के मामले में दोनों देशों के सामने सबसे बड़ी चुनौती है नागरिक समाजों, कारोबारी समुदायों तथा मीडिया के बीच कमजोर रिश्ते। मोटे तौर पर नागरिक समुदाय और खास तौर पर मीडिया के साथ बेहतर रिश्ते गांठने से भारत को लोगों तथा नीति एवं जनमत निर्माताओं तक पहुंचने का मौका मिलेगा, जो यह सुनिश्चित करने में बहुत कारगर साबित होगा कि विभिन्न विषयों पर एक दूसरे की चिंताएं और नजरिये बेहतर तरीके से समझे जाएं तथा सही समय पर गलती भी सुधार ली जाएं।
बीबीआईएन, बिम्सटेक, दक्षेस जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रीय मंचों पर अपनी सदस्यता के जरिये नेपाल और भारत साथ मिलकर पूरे क्षेत्र का भविष्य गढ़ रहे हैं। नेपाल इन मंचों के माध्यम से ऊर्जा दोहन, आर्थिक जुड़ाव, संपर्क परियोजनाओं जैसे विभिन्न महत्वपूर्ण क्षेत्रों में अधिक क्षेत्रीय सहयोग को बढ़ावा देने में सक्रिय सहयोग कर सकता है। इससे दोनों राष्ट्रों का लाभ होगा और उपमहाद्वीप के विकास को भी इससे बढ़ावा मिल सकता है।
इस समय राजनीतिक एवं अफसरशाही स्तर पर दोनों देशों के बीच मजबूत रिश्ते की जरूरत है, जिसे सक्रिय नागरिक समाज तथा विचार समूहों के बीच चर्चा से समर्थन मिलना चाहिए। इनसे भरोसे की वह कमी दूर करने में बहुत मदद मिलेगी, जो द्विपक्षीय संबधों में खटास डालती है।
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