2019 में पार्टियों के सामने चुनौतियां और अवसर
Rajesh Singh

2019 के आम चुनावों में कोई जीतेगा और कोई हारेगा मगर जीतें या हारें, दोनों को ही बाद में कुछ चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा और ये चुनौतियां व्यक्तिगत स्तर पर ही नहीं बल्कि राष्ट्र से जुड़ी भी होंगी। यदि देश में प्रगति लानी है और पिछले वर्षों में हुई प्रगति का फायदा उठाना है तो इन चुनौतियों को अवसरों में बदलना होगा। ये चुनौतियां मोटे तौर पर तीन श्रेणियों में हैं और कुछ समस्याएं एक से अधिक श्रेणियों में रखी जा सकती हैं, लेकिन उनसे भविष्य का बेहतर खाका बनता है।

चुनौतियों (और अवसरों) की पहली श्रेणी राजनीतिक है। उनमें गठबंधनों को प्रभावी तरीके से चलना सबसे पहली चुनौती है। पिछले दो दशकों के दौरान देश में गठबंधन वाली स्थिर सरकारें रही हैं - अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली राजग, मनमोहन सिंह की संप्रग और अब नरेंद्र मोदी की अगुआई वाली राजग सरकार। पहली सरकार ने अपना कार्यकाल पूरा किया था, दूसरी ने एक कदम आगे निकलते हुए दो कार्यकाल पूरे किए और मौजूदा सरकार भी अपना कार्यकाल पूरा करने जा रही है। यह कोई छोटी उपलब्धि नहीं है क्योंकि अतीत में गठबंधन सरकारें बुरी तरह नाकाम रही थीं चाहे मोरारजी देसाई के नेतृत्व वाली जनता पार्टी सरकार हो या वीपी सिंह के जनता दल की सरकार हो या एचडी देवेगौड़ा और इंद्र कुमार गुजराल के नेतृत्व वाले मोर्चों की सरकारें हों। इनमें से पहली सरकार अंतर्कलह के कारण गिर गई थी और बाद की तीनों सरकारें बाहर से समर्थन दे रहे सहयोगियों के हाथ खींचने के कारण गिरीं।

बहरहाल आज सत्तारूढ़ पार्टी के गठबंधन और विपक्षी गठबंधन दोनों ही समस्याओं से जूझ रहे हैं। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और कांग्रेस को इनका सामना करना पड़ रहा है। भाजपा को अपने कुछ सहयोगियों को साधने में दिक्कत हो रही है और कांग्रेस भावी सहयोगियों को लुभाने तथा वर्तमान सहयोगियों को एकजुट रखने में परेशान है। दूसरी ओर क्षेत्रीय क्षत्रप भी अपना ‘महागठबंधन’ बनाने में जुटे हैं, जिसके खाके का किसी को पता ही नहीं है। 2019 के चुनाव जब निपट जाएंगे तब जीतने और हारने वालों को अपने प्रमुख प्रतिद्वंद्वियों के सफाये के बजाय दूसरे साझा बिंदुओं पर साझेदारी सुनिश्चित करने के तरीके तलाशने होंगे। जाहिर है कि हारने वालों की राह ज्यादा मुश्किल होगी क्योंकि उन्हें डूबते जहाज से चूहों के भागने जैसी स्थिति का सामना करना पड़ेगा। जीतें या हारें, दोनों परिस्थितियों में प्रमुख पार्टियों के पास रिश्तों में परिपक्वता और गहराई लाने का मौका होगा, जिससे फौरी राजनीति के बजाय लंबे समय के लिए रिश्तें बन सकें।

पार्टियों के सामने दूसरी राजनीतिक चुनौती हमला करके भाग जाने की प्रवृत्ति से बचने की है। दुर्भाग्य से पिछले कुछ वर्षों में यह तरीका बहुत आजमाया जाने लगा है और कई नेताओं ने ठोस प्रमाणों के बगैर ही बार-बार आरोप लगाकर अपने प्रतिद्वंद्वियों को बदनाम करने का रास्ता अपनाया है। उन्हें लगता है कि लगातार ऐसा करने से आखिरकार उनके विरोधी की छवि खराब हो जाएगी। तथ्य और आंकड़ों की शुचिता अब नहीं रह गई है; बेसिरपैर के आरोप अब आदत बन गए हैं। इसके कारण संसद के भीतर और बाहर तथा टेलीविजन स्टूडियो में बहसों तथा चर्चाओं का स्तर भी बहुत गिर गया है। इसका एक और दुर्भाग्यपूर्ण नतीजा दिखा हैः गंभीर चर्चा के इच्छुक नेताओं की जगह शोरशराबा करने वाले ऐसे लोग आ गए हैं, जो अपने फायदे के लिए तथ्यों को तोड़ते-मरोड़ते रहते हैं। यह सब जनता को लुभाने के लिए किया जाता है, लेकिन हकीकत में लोग इससे प्रभावित नहीं होते। इसलिए इन जनभावनाओं को समझने और उनके मुताबिक खुद को बदलने का मौका है।

तीसरी अहम राजनीतिक चुनौती यह है कि जाति, धर्म और क्षेत्र जैसे विवादित मुद्दों को व्यापक राष्ट्रीय महत्व वाले मुद्दों पर हावी नहीं होने दिया जाए। ऐसा कहना आसान है और करना कठिन क्योंकि आजादी के बाद के दशकों से ही इन मसलों का दोहन करना हमारे नेताओं की फितरत बन चुकी है। आज भी जाति और धर्म के समीकरणों को दिमाग में रखकर ही गठजोड़ किए जा रहे हैं। दुख की बात है कि अतीत में ऐसी जुगत फायदेमंद भी रही हैं। फिल्म हो या किताब या कोई बयान, सभी तूफान ला सकते हैं। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में तस्वीर बदल रही है, नाटकीय तरीके से नहीं मगर बदल तो रही है। अधिक समझदार राजनेताओं के लिए यह समझने का अवसर है कि फौरी फायदा पहुंचाने वाले ये तरीके कितने बांटने वाले हैं और विभाजन के बजाय एकता में कितना लाभ है।

इसके बाद आर्थिक चुनौतियां हैं और उनमें भी ढेर सारे अवसर छिपे हैं। रोजगार में व्यापक वृद्धि की फौरन जरूरत है और चुनावों के बाद केंद्र सरकार के लिए यह सबसे बड़े कामों में शामिल होगी। वर्तमान सरकार पर उसके विरोधी रोजगार में वृद्धि के मोर्चे पर नाकाम रहने का आरोप लगाते हैं और सरकार अपने बचाव में मुद्रा ऋण, मेक इन इंडिया और स्टार्ट-अप इंडिया योजनाओं के जरिये रोजगार सृजन कीबात कहती है। मगर यह बात छिपाई नहीं जा सकती कि पिछली सरकारों में भी रोजगार दर संतोषजनक नहीं रही थीं। जाहिर है कि मामला राजनीति से अधिक अर्थशास्त्र का है क्योंकि इससे जितना राजनीतिक बनाएंगे, समाधन की संभावना उतनी ही कम होती जाएगी।

घटक दलों का समर्थन चुटकियों में हासिल करने के लिए लोकलुभावन राजनीतिक उपायों की शरण में जाने के लोभ से दूर रहना भी राजनेताओं के लिए चुनौती है। केंद्र और राज्य सरकारें कर्ज से दबे हुए और चुकाने में नाकाम किसानों के कर्ज माफ करने जैसे कदम उठा सकती हैं, लेकिन उन्हें समझना होगा कि ऐसे फैसलों का राज्य और देश की माली हालत पर कैसा असर होता है। कुछ भी कहा जाए, कर्जमाफी कृषि संकट का दीर्घकालिक समाधान नहीं है। दुर्भाग्य से पिछले कुछ हफ्तों में हमने लोकलुभाव उपायों को ही दोहरते हुए देखा है। मौका यह समझने का है कि पैबंद लगाने वाले उपाय कितने बेकार हैं और उनसे व्यवस्था में ऐसा कोई परिवर्तन नहीं होता, जिससे छोटे और सीमांत किसानों की कर्ज पर निर्भरता कम हो जाए और वे कर्ज चुकाने में सक्षम हो जाएं।

बुनियादी ढांचा मजबूत करने, गैर निष्पादित आस्तियों में कमी लाकर बैंकिंग क्षेत्र की सेहत सुधारने तथा सभी स्तरों पर शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने पर जोर देना लंबे समय तक अपनाए जाने वाले ऐसे तरीके हैं, जिनके नतीजे कुछ समय बाद दिखते हैं। लेकिन सरकारें और पार्टियां फौरी फायदे देखती हैं और उन प्रयासों को चालू रखने में ढिलाई बरतती हैं। मौजूदा केंद्र सरकार ने बुनियादी ढांचा विकास, कृषि सुधार, जन स्वास्थ्य, शिक्षा, प्रत्यक्ष लाभ अंतरण जैसे क्षेत्रों में व्यवस्थागत बदलाव लाने की दिशा में सराहनीय काम किया है, लेकिन इनमें ढिलाई कभी भी आ सकती है और उससे बचना चाहिए।

अंत में सामाजिक चुनौतियां भी हैं। व्यक्तिगत मामलों में सुधार हमेशा मुश्किल भरे होते हैं क्योंकि निजी मामलों में दखल के नाम पर उनकी आलोचना होने लगती है। हाल ही में ऐसा हुआ था, जब सरकार ने मुस्लिम समाज में व्याप्त और महिलाओं को पीड़ा देने वाली तुरंत तीन तलाक की कुरीति को अपराध कराने देने के लिए कानून बनाने की कोशिश की। सरकार के समर्थन में ऐसा ही आक्रोश आम तौर पर संपन्न जाति के समूहों में दिखा है, जो सरकारी नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण की मांग कर रहे थे। गुजरात और राजस्थान समेत कई क्षेत्रों में ऐसा हुआ। आरक्षण की मांग नहीं हो तो समुदायों की ‘भावनाओं’ का खयाल रखने की मांग उठती है। ‘भावनात्मक’ आधार पर किसी फिल्म को आपत्तिजनक ठहराया जा सकता है; किसी किताब को नहीं पढ़े जाने का ऐलान किया जा सकता है क्योंकि उससे जातीय या सांप्रदायिक तनाव भड़क सकता है; किसी बयान को भी किसी जाति या समुदाय के आदर्श व्यक्तित्व का अपमान करने वाला बताया जा सकता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि कभीकभार किसी समुदाय की भावनाओं का जानबूझकर मखौल उड़ाया जाता है। लेकिन राजनेता और उनकी राजनीति ही समस्या पैदा करती है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘रिफॉर्म, परफार्म, ट्रांसफॉर्म’ का जो नारा दिया है, वह ठीक ही लगता है। 2019 के मध्य में सरकार किसी की भी बने, इस नारे को आगे ले जाने की ही चुनौती है और उसी में अवसर भी हैं।

(लेखक वरिष्ठ राजनीतिक टिप्पणीकार, लेखक और सार्वजनिक मामलों के विश्लेषक हैं)

(The paper is the author’s individual scholastic articulation. The author certifies that the article/paper is original in content, unpublished and it has not been submitted for publication/web upload elsewhere, and that the facts and figures quoted are duly referenced, as needed, and are believed to be correct). (The paper does not necessarily represent the organisational stance... More >>


Translated by Shiwanand Dwivedi (Original Article in English)
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