हाल की कई घटनाओं ने राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप की ‘अमेरिका फर्स्ट’ नीति के असली चेहरे को सामने ला दिया है। तो अमेरिका की विदेश नीति में आज मानवाधिकारों और मुक्त व्यापार के मूल्यों की क्या जगह रह गई है?
पहला प्रश्न यह है कि अमेरिकी विदेश नीति में मानवाधिकारों का कितना महत्व है? राष्ट्रपति ट्रंप ने दोटूक लहजे में कहते रहे हैं कि विदेश नीति के जिस अमेरिका फर्स्ट मॉडल के साथ वह काम कर रहे हैं, उसमें मानवाधिकारों को दोयम दर्जे पर ही रहना होगा।
खशोगी हत्या मामले में ट्रंप ने साफ कहा कि अमेरिका-सऊदी संबंधों में हथियारों की बिक्री, रोजगार और भू-राजनीतिक मुद्दों को प्राथमिकता दी जाएगी। सऊदी पत्रकार खशोगी की हत्या के आदेश सऊदी नेतृत्व से आए हों तो भी अमेरिका उस हत्याकांड को अपने और सऊदी अरब के रिश्तों के बीच नहीं आने देगा।
अमेरिकी मीडिया के कुछ वर्गों ने अमेरिकी विदेश नीति में मानवाधिकारों के मूल्यों के क्षरण के लिए राष्ट्रपति की आलोचना की। लेकिन यह आक्रोश भी मोटे तौर पर सांकेतिक और दोहरे मानदंडों से भरा रहा।
ट्रंप पर मानवाधिकारों के मामले में रंग बदलने का आरोप नहीं लगाया जा सकता। अमेरिका ने मानवाधिकारों को हमेशा ही विदेश नीति के सुविधाजनक हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया है। अतीत में भी अमेरिकी प्रशासन ने अपने फायदे के लिए भू-राजनीति के हिसाब से सैन्य तानाशाहों तथा दबंगों का साथ दिया है और उन्हें पाला-पोसा है। पश्चिम एशिया जीता-जागता उदाहरण है। पाकिस्तानी सैन्य तानाशाहों का समर्थन दशकों से अमेरिकी नीति का बुनियादी सिद्धांत रहा है।
इसलिए यदि ट्रंप अमेरिका के हितों को सबसे आगे रखते हैं तो इसमें अचरज नहीं होना चाहिए। अंतर केवल यह है कि इस मामले में वह एकदम मुंहफट और निडर हैं।
ट्रंप ने शरण मांगने वाले हजारों लोगों को अमेरिका की सीमा में घुसने से रोकने के लिए 5000 जवानों को अमेरिका-मेक्सिको सीमा पर भेजकर एक और विवाद को जन्म दे दिया है। ये लोग मेक्सिको के सीमावर्ती शहर तानजुन में इकट्ठे हुए हैं।
ट्रंप ने राष्ट्रीय सुरक्षा का मसला उठाते हुए आह्वान किया है कि जरूरत पड़ने पर उन लोगों को अमेरिका में घुसने से रोकने के लिए ताकत का इस्तेमाल किया जाएगा। उन्होंने पूरी सीमा बंद करने की धमकी भी दी है। मानवाधिकार के समर्थक ट्रंप की आलोचना कर रहे हैं। उन्हें लगता है कि शरणार्थियों को अमेरिका में घुसने और शरण के लिए आवेदन करने की इजाजत मिलनी चाहिए। ट्रंप इनमें से कुछ भी नहीं करेंगे। वह कहते हैं कि शरण चाहने वालों की भीड़ में 5,000 आपराधिक तत्व हैं।
ट्रंप ने अवैध आव्रजन यानी घुसपैठ को अपनी अमेरिका फर्स्ट विदेश नीति का केंद्रबिंदु बना लिया है। अवैध घुसपैठ से राष्ट्रीय सुरक्षा और अर्थव्यवस्था पर प्रभाव पड़ता है।
डेमोक्रेटिक पार्टी के सदस्यों का अब निचले सदन यानी हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव्स पर नियंत्रण है, लेकिन सीनेट पर नहीं है, जहां रिपब्लिकन पार्टी का बहुमत है। डेमोक्रेट्स मानवाधिकार तथा आव्रजन के समर्थक रहे हैं। डेमोक्रेट सदस्यों के बाहुल्य वाले सदन में ट्रंप की अमेरिका फर्स्ट नीतियों को अलग नजर से देखा जा सकता है। विदेश नीति के प्रमुख मसलों पर राष्ट्रपति और सदन के बीच टकराव होने ही वाला है।
ट्रंप अमेरिका की एक और प्रतिष्ठित संस्था ‘न्यायपालिका’ से भी भिड़ चुके हैं। उन्होंने अमेरिकी अदालत के नौवें सर्किट को ‘बरबाद’ करार दिया क्योंकि वह प्रशासन की नीतियों को पलटता रहता है। उन्होंने न्यायाधीश पर ‘ओबामा का न्यायाधीश’ होने का अरोप लगाया, जिसके कारण मुख्य न्यायाधीशन रॉबर्ट एडमस उन्हें सार्वजनिक तौर पर झिड़कने के लिए मजबूर हो गए। मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि कोई भी ओबामा या क्लिंटन का न्यायाधीश नहीं है। लेकिन ट्रंप इससे बेपरवाह रहकर न्यायपालिका पर हमले करते रहे हैं। राष्ट्रपति और मुख्य न्यायाधीश के बीच इस अप्रिय टकराव पर जनमत भी बंटा हुआ है। कई लोगों ने यह कहते हुए मुख्य न्यायाधीश की आलोचना की है कि राष्ट्रपति की सार्वजनिक आलोचना कर उन्होंने बहुत बड़ी गलती की है। राष्ट्रपति पर विवाद का कोई असर नहीं हुआ है। इस प्रकरण से देश की शीर्ष संस्थाओं के बीच तनाव सामने आया है।
चीन के खिलाफ पूरी ताकत से व्यापार युद्ध छेड़ने का फैसला शायद अमेरिका फर्स्ट नीति का सबसे अहम पड़ाव रहा है। लंबे समय तक अपनाए गए मुक्त व्यापार के मूल्यों से उलट संरक्षवादी व्यापार नीतियां अपनाते हुए अमेरिका ने चीन से आयातित माल पर सैकड़ों अरब डॉलर के शुल्क लगा दिए हैं, जिससे चीन भी सकते में आ गया और उसे समझ नहीं आया कि इस अप्रत्याशित स्थिति से कैसे निपटा जाए। जी-20 देशों के समूह की दुर्दशा है। वे दिन गुजर गए, जब जी-20 वैश्विक आर्थिक मसलों पर एकमत से काम करता था; ट्रंप ऐसी किसी भी बात पर राजी नहीं होंगे, जो अमेरिका फर्स्ट के पैमाने पर खरी नहीं उतरती हो।
ट्रंप को लगता है कि अमेरिका फर्स्ट नीति की जीत हो रही है। दोबारा बातचीत में उत्तर अमेरिका मुक्त व्यापार समझौते (नाफ्टा) अमेरिका के पक्ष में रहा तो उन्हें यह भरोसा हो गया। दुनिया को लग रहा है कि अमेरिका फर्स्ट नीति का मतलब यह है कि मुफ्त में अब कुछ नहीं मिलेगा। ट्रंप यह भरोसा दिलाने की कोशिश कर रहे हैं कि इतने वर्षों तक अमेरिका को बेवकूफ बनाया गया और अब यह सिलसिला रुकना चाहिए।
अमेरिका के पुराने साथी ट्रंप की नीतियों पर भ्रम में हैं। अमेरिका द्वारा लगाए गए व्यापार प्रतिबंधों ने दोस्तों और दुश्मनों को बराबर नुकसान पहुंचाया है। नाटो ट्रंप की मंशा के मुताबिक सभी सदस्यों पर रक्षा खर्च का बराबर बोझ डालने के अमेरिकी दबाव से जूझ रहा है। अमेरिका और तुर्की जैसे अन्य प्रमुख नाटो देशों के बीच संबंधों में जबरदस्त तनाव आ गया है।
वैश्विक प्रशासनिक संस्थाओं पर इसका बड़ा प्रभाव पड़ने वाला है। उनमें से अधिकतर दबाव में हैं। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद वैश्विक सुरक्षा समस्याओं से निपटने में असमर्थ है और निष्क्रिय होती जा रही है। अमेरिका संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद से हट चुका है। विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) पर भी दबाव है। अमेरिका ने पेरिस जलवायु परिवर्तन समझौते को भी ठेंगा दिखा दिया है। उसने ट्रांस-पैसिफिक पार्टनरशिप (टीपीपी) से किनारा कर लिया है। ट्रांस-अटलांटिक साझेदारी भी खतरे में है।
ट्रंप ने जनवरी, 2017 में राष्ट्रपति के तौर पर अपने पहले भाषण में आधिकारिक रूप से ‘अमेरिका फर्स्ट’ नीति का आरंभ किया था। उन्होंने कहा था, “आज यहां इकट्ठे हुए हम सभी लोग एक नया आदेश जारी कर रहे हैं, जिसे हर शहर में, हर देश की राजधानी में और सत्ता के हरेक गलियारे में सुना जाएगा। आज से हमारा देश एक नई दृष्टि से चलेगा। आज से केवल अमेरिका फर्स्ट होगा - अमेरिका फर्स्ट।” उसके बाद से वह कुछ और सोचे बगैर इसी नीति को आगे ले जाने में लगातार जुटे रहे हैं। लेकिन अमेरिका फर्स्ट नीति है क्या? यह बेहद राष्ट्रवादी नीति है, जो अमेरिका के हितों को सबसे ऊपर रखती है। यह सभी राजनीतिक, आर्थिक और सुरक्षा संबंधी रूपों में अमेरिकी राष्ट्रवाद की बात करती है।
अमेरिका फर्स्ट के नारे का इतिहास बहुत लंबा और विवादास्पद रहा है। 1916 में जब प्रथम विश्व युद्ध चरम पर था तब राष्ट्रपति चुनाव अभियान में हैरल्ड विल्सन ने देश में युद्ध-विरोधी तथा अलग-थलग रहने वाली भावनाओं को काबू में करने के लिए अमेरिका फर्स्ट नारे का इस्तेमाल किया था। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान येल विश्वविद्यालय के छात्रों ने अमेरिका फर्स्ट कमिटी (एएफसी) का गठन किया था। एएफसी को उस समय की बड़ी हस्तियों का समर्थन मिला था, जिनमें उड़ान भरने वाले राष्ट्रीय नायक चार्ल्स लिंडबर्ग और मशहूर कार कंपनी के मालिक हेनरी फोर्ड शामिल थे। अलग रहने की मंशा और ब्रिटेन विरोधी भावनाओं का प्रतिनिधित्व करने वाली एएफसी ने द्वितीय विश्व युद्ध में अमेरिका की भागीदारी का विरोध किया। कई इतिहासकारों ने उसे यहूदी विरोधी भावनाओं वाला भी बताया है। 2000 में राष्ट्रपति चुनावों के लिए अभियान के दौरान रिफॉर्म पार्टी के प्रत्याशी पैट बुकानन ने अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) जैसी संस्थाओं को खत्म करने की वकालत करते हुए इस नारे का इस्तेमाल किया था।
अमेरिका फर्स्ट के जुमले या उससे मिलते-जुलते नारों का इस्तेमाल अतीत में भी हुआ है। राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी मैकेन ने अपने चुनाव अभियान में ‘कंट्री फर्स्ट’ का इस्तेमाल किया और रीगन ने 1980 के अभियान में कहा, “हम अमेरिका को एक बार फिर महान बनाएं।” ट्रंप ने अमेरिका फर्स्ट नीति से जुड़े अपने भाषणों में इस जुमले का इस्तेमाल बार-बार किया है। इस तरह अमेरिका फर्स्ट केवल तीव्र अमेरिकी राष्ट्रवाद का ही प्रतीक नहीं है बल्कि अलग-थलग रहने, संरक्षणवाद और हस्तक्षेप नहीं करने की बात भी कहता है।
ट्रंप के अमेरिका फर्स्ट का अर्थ निस्संदेह अमेरिकी राष्ट्रवाद का समर्थन है। लेकिन क्या यह अलग-थलग रहने का प्रतीक है? ऐसा कहना कुछ ज्यादा ही हो जाएगा। अमेरिका बाकी विश्व से जुड़ा रहता है। रिश्तों की शर्तें दोबारा लिखी भर जा रही हैं। मूल्यों को देश के राजनीतिक और आर्थिक हितों के बाद जगह दी जा रही है।
लेकिन उनकी कथनी में यह स्पष्ट नहीं है कि अमेरिका फर्स्ट नीति का स्वयं अमेरिका पर और पूरी दुनिया पर क्या असर होगा। अमेरिका और चीन के बीच व्यापार युद्ध हमें कुछ बता सकता है।
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